शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

महाराष्ट्र में राजनीतिक तलाक के बाद

अवधेश कुमार

फेसबुक ने फ्रेन्ड अन्फ्रेन्ड शब्द को आम बना दिया। महाराष्ट्र की चुनाव पूर्व राजनीति ने भी एक ही दिन अन्फ्रेंड को इतना ज्यादा सुर्खियों में लाया कि फेसबुक उसके सामने छोटा पड़ गया। जो टिप्पणीकार यह मान रहे थे कि गठबंधन की इतनी लंबी जीवन यात्रा के बाद मन का मिलन इतना सघन है कि तलाक संभव नहीं वे सही साबित नहीं हुए। हालांकि यह कल्पना किसी को भी नहीं थी कि वाकई इनके इतने पुराने और राजनीतिक रुप से सघन रिश्ते का इस तरह ऐन चुनाव पूर्व अंत हो जाएगा। सच कहा जाए तो भारतीय राजनीति में यह दुर्भाग्यपूर्ण सच एक बार फिर साबित हुआ है कि यहां गठबंधन केवल सत्ता संबंधी राजनीतिक हितों के कारण होतीं हैं और हितों पर थोड़ी भी आंच आने की संभावना हुई नहीं कि बस तलाक। आखिर  शिवसेना और भाजपा की 25 साल पुरानी दोस्ती के बीच तलाक कोई सामान्य स्थिति नहीं है। कांग्रेस और राकांपा के बीच 15 साल की दोस्ती भाजपा शिवसेना की श्रेणी की नहीं थी, फिर भी उनके बीच गठबंधन धरातल तक बन चुका था।

लेकिन अगर हम यह कल्पना करें कि इस असाधारण राजनीतिक घटनाक्रम के परिणाम भी असाधारण हो जाएंगे तो यह हमारी भूल होगी। इससे चुनाव परिणाम पर असर होगा, पर उसके बाद सरकार गठन के समय फिर से समीकरण बनेंगे और उनकी तस्वीर ऐसी ही हो सकती हैं जैसी आज हैं। हां, इससे तत्काल महाराष्ट्र की राजनीति का पूरा वर्णक्रम अवश्य बदल गया है। महाराष्ट्र के मतदाताओं को कुल मिलाकर दो गठबंधनों में से एक को चुनने का विकल्प रहता था जो खत्म हुआ है। राकांपा भी कांग्रेस की ही भाग थी, जो सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर 1999 में शरद पवार, तारिक अनवर और पी. ए. संगमा के विद्रोह से उत्पन्न हुई। करीब दो दशक से दो ध्रुवों पर टिकी राजनीति इस समय चार ध्रुवों में बदली है और एक थोड़ा छोटा पर परिणामों पर असर डालने वाला पांचवां धु्रव महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है। भाजपा, शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी अलग-अलग मैदान में उतर रहे हैं। इस टूट का कोई वैचारिक कारण हो ही नहीं सकता। चारों पार्टियां अधिक से अधिक सीटें चाहतीं थीं, और मुख्यमंत्री पद को लेकर मतभेद थे। भाजपा का प्रस्ताव था कि जिसे अधिक सीटें आएं मुख्यमंत्री उसका हो, पर शिवसेना अपने मुख्यमंत्री पर अड़ी। उसी तरह राकांपा ने सत्ता में आने पर ढाई-ढाई वर्ष के मुख्यमंत्री का प्रस्ताव रखा जो कांग्रेस ने स्वीकार नहीं किया। रकांपा 288 में से आधी सीटों पर लड़ना चाहती थी जबकि कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव के अनुसार उसे 114 या उससे कुछ ज्यादा देने पर अड़ी थी। उसने उन स्थानों पर भी उम्मीदवार खड़े कर दिए जिन पर राकांपा बातचती कर रही थी। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि संभवतः कांग्रेस विधानसभा चुनाव में राकांपा से अलग होकर लड़ने का मन बना चुकी थी। मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की छवि ईमानदार नेता की है, इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं कि वे राकांपा से अलग होकर चुनाव लड़ना चाह रहे हों ताकि सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप कम हो सके, अन्यथा वे सरकार गिराने की सीमा तक नहीं जाते। ध्यान रखिए कि भ्रष्टाचार के ज्यादा आरोप राकांपा के नेताओं पर हैं।

यही बात शिवसेना भाजपा के साथ नहीं थी। कोई गठबंधन का अंत नहीं चाहता था। शिवसेना ने बदले हुए माहौल का अपने अनुसार मूल्यांकन कर भाजपा को समान दर्जा देने से इन्कार किया। लगातार बातचीत होती रही, पर शिवसेना पुराने सूत्र को पूरी तरह बदलने को तैयार नहीं थी। आखिरी प्रस्ताव में शिवसेना ने अन्य घटक दलों के लिए महज 7 सीटें दीं थीं। यानी अगर गठबंधन को बनाए रखना है तो महायुति के अन्य दलों को भाजपा अपने खाते से सीटें दे। शिव सेना की ओर से हर बार लगभग एक ही प्रस्ताव सामने आता था। यदि धरातली वस्तुस्थिति के अनुसार विचार करेंगे तो भाजपा एवं रकांपा का तर्क गलत नहीं था। महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में से अब तक शिवसेना 171 एवं भाजपा 117 सीटों पर चुनाव लड़ती आई हैं। इस बार भाजपा ने कहा कि शिवसेना द्वारा कभी न जीती गई 59 एवं भाजपा द्वारा कभी न जीती गई 19 सीटों पर पुनर्विचार कर उन्हें फिर से शिवसेना-भाजपा एवं साथी दलों के बीच बांटा जाना चाहिए। लेकिन शिवसेना को यह स्वीकार नहीं था। उसने कहा कि उसका मिशन 150 है जिसमंे भाजपा सहयोग करे। राकांपा का तर्क था कि लोकसभा चुनाव में राकांपा का प्रदर्शन कांग्रेस से बेहतर रहा, इसलिए वह आधी सीटें हमें दे। आधी से थोड़े कम पर बात बन जाती, पर कांग्रेस ने भी सच्चाई को स्वीकार नहीं किया। आखिर 2009 के लोकसभा चुनाव में राकांपा की सीटें कम आने के बाद कांग्रेस ने उसे 2004 के विधानसभा चुनाव में दी गईं 124 सीटों को घटाकर 114 कर दिया था।

बहरहाल, भाजपा अकेले नहीं है। किसानों में पैठ रखनेवाले स्वाभिमानी शेतकरी संगठन, धनगर समाज की पार्टी राष्ट्रीय समाज पक्ष एवं मराठा समाज के संगठन शिव संग्राम सेना अब भाजपा के साथ रहेंगे। रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया भी भाजपा के साथ ही रहेगी। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले दिवंगत गोपीनाथ मुंडे ने इन चार में से तीन दलों को शिवसेना-भाजपा के साथ जोड़कर दो दलों के गठबंधन को महागठबंधन में बदला था। रिपब्लिकन पार्टी (आठवले) ने 2009 के विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना से हाथ मिलाया था लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले इसके नेता रामदास आठवले को राज्यसभा में भाजपा ने भेजा। यदि ये चारों दल भाजपा के साथ हैं तो उसे इनके सम्मिलित 14 प्रतिशत मतों का लाभ मिल सकता है। हां, शिवसेना के साथ न होने की क्षति होगी। भाजपा ने कहा कि हम चुनाव के दौरान शिव सेना के खिलाफ कोई टीका टिप्पणी नहीं करेंगे, उम्मीद है शिव सेना भी ऐसा ही करेगी, पर शिवसेना ने भाजपा के खिलाफ टिप्पणी करना आरंभ कर दिया।

शिवसेना को ज्यादा क्षति होने की संभावना है। पता नहीं उद्धव ठाकरे कैसे भूल गए कि लोकसभा चुनाव के पूर्व उनके सांसद तक पार्टी छोड़ रहे थे और यदि मोदी लहर तथा भाजपा से गठबंधन न होता तो शिवसेना बिखर जाती। लोकसभा चुनाव में वोट मोदी के नाम पर मिला था, इसे शिवसेना स्वीकार नहीं कर पा रही। उसके पास मुख्य वोट आधार मराठी हैं। अकेले लड़ने से ये वोट भाजपा-राकांपा-मनसे और शिवसेना के बीच बंट जाएगा। उसके कार्यकर्ता नेताओं का एक वर्ग मनसे में जा सकता है।  उद्धव बाला साहब ठाकरे नहीं हैं जिनके करिश्मे ने शिवसेना को बचाए रखा। कांग्रेस और राकांपा विरोधी यदि यह देखेंगे कि शिवसेना नहीं जीतने वाली तो यकीनन भाजपा की महायुति को वोट देंगे या फिर आक्रामक मराठावाद के समर्थक मनसे को। इसलिए इस समय के आंकड़े में गठबंधन टूटने की सबसे ज्यादा क्षति किसी को हो सकती है तो वह है, शिवसेना। मनसे यह प्रचार करेगी कि जब भाजपा और शेष महायुति के दल ही उसके साथ नहीं तो फिर शिवसेना को मत क्योें दोगे और इसका असर हो सकता है। उद्धव ठाकरे प्रभावी वक्ता भी नहीं हैं। दूसरी ओर भाजपा के पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसा आकर्षक भाषण देने वाला नेता तो है ही, प्रदेश स्तर पर भी जनता के बीच आकर्षण वाले नेता हैं। इसमें उसके लिए कठिनाई ज्यादा हैं।  इस समय यह साफ दिख रहा है कि भाजपा एवं महायुति भले बहुमत न ला पाए पर उसको बहुत ज्यादा क्षति नहीं होगी। कांग्रेस को भी 15 वर्ष की सत्ता विरोधी रुझान की क्षति होनी है। राकांपा अकेले दम पर बहुत दमदार प्रदर्शन कर पाएगी ऐसी संभावना कम है, पर आश्चर्य नहीं हो यदि वह कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन कर ले।  मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ईमानदार हो सकते हैं, पर वे ऐसे नेता नहीं हैं जो जनता के बीच जाकर उसे अपने भाषणों से प्रभावित कर सकें और मत खींच सकें। इसके विपरीत राकांपा के पास ऐसे कई नेता हैं। शरद पवार ही अपने क्षेत्र में लोकप्रिय एवं जनाकर्षक व्यक्तित्व रखते हैं। सत्ता के गणित मंे भी राकांपा के पास किसी के साथ जाने का विकल्प खुला है, जबकि कांग्रेस के पास केवल राकांपा ही विकल्प है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

चीनी राष्ट्रपति की यात्रा से प्राप्त क्या हुआ

अवधेश कुमार

निस्संदेह एक ओर सीमा पर दोनों ओर से भले बिना हथियार के आमने सामने और दुसरी ओर चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग का अहमदाबाद से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक भव्य स्वागत, गार्ड आफ ऑनर, लंबी शिखर वार्ता तथा फिर प्रधानंमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ शिखर वार्ता कुछ क्षण के लिए असंगत दिखती है। बातचीत एवं शिखर वार्ताओं में सीमा पर शांति एवं विवादों के निपटाने की घोषणा के बावजूद चीनी सैनिक लद्दाख के चुमार से वापस जाने लगे थे, फिर आ गए और डेमचोक में बने हुए हैं। लेकिन इस एक घटना के ईर्द-गिर्द हम शि चिनपिंग की पहली भारत यात्रा एवं उसके परिणामाओं का मूल्यांकन करेंगे तो फिर वास्तविक निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सकते। हालांकि जब भी चीन कोई प्रमुख नेता आते हैं उसकी ओर से या तो घुसपैठ होती है या फिर चीन की ओर से अरुणाचल प्रदेश को लेकर ऐसा बयान आ जाता है जिससे हमारे देश में उबाल और क्षोभ पैदा होता है। बावजूद इसके तिब्बती शरणार्थियों या एकाध अनाम छोेटे संगठनों के अलावा किसी बड़े समूह ने शि चिनपिंग का सार्वजनिक विरोध नहीं किया, बल्कि गुजरात से लेकर दिल्ली तक उनका स्वागत हुआ तो यह मान लेना चाहिए कि हम भारतीय धीरे-धीरे यह समझने लगे हैं कि जब तक सीमा विवाद नहीं सुलझेगा ऐसी न होने वाली घटनायें होतीं रहेंगी और हमें इसके साथ ही आगे बढ़ना है।

संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में नरेन्द्र मोदी और शि ने जो कुछ कहा उससे स्पष्ट है कि इस मामले पर खरी-खरी बातें हुईं हैं। वैसे भी नरेन्द्र मोदी की कूटनीति सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विरासत के आधार पर भावनात्मक और संवदेनात्मक लगाव का माहौल पैदा करते हुए ठोस और स्पष्ट बातचीत एवं परिणामों की ओर जाने पर केन्द्रित रहा है। शि के आने के पूर्व या जापान यात्रा के बाद जो माहौल था उसमें सामान्यतः यह कल्पना करना कठिन था कि वाकई यात्रा को इतना उत्सवमय बनाने की कोशिश होगी। लेकिन अहमदाबाद में तो होटल हयात से लेकर, साबरमती आश्रम फिर साबरमती घाट के इन्द्रधनुषी प्रकाश की तरंगों के बीच गीत-संगीत और बातचीत .......सब एक सांस्कृतिक महोत्सव का अहसास करा रहे थे। यह भी मोदी की लक्षित कूटनीति का ही अंग था। यानी हमने चीन को यह अहसास कराने की कोशिश की कि हम गंाधी के वंशज हैं, बुद्ध के वंशज हैं जो अहिंसा, सत्य और सद्भावना की राह पर चलते हैं, हमारी नीति किसी देश के प्रति दुर्भावाना की हो ही नहीं सकती......, लेकिन दूसरी ओर दिल्ली में उस भावना के साथ यह भी कि अगर हमारे साथ अन्याय हो रहा है तो फिर गांधी ने करो या मरो का नारा भी दिया। मोदी ने चीन शि को साफ किया कि आपको भी हमारी जरुरत है, निवेश के लिए, विश्व मंच पर साथ के लिए, शांतिपूर्ण जीवन के साथ विकास के लिए.......। पता नहीं शि और उनके नेतृत्व वाली सत्तारुढ़ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं तथा उनकी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को यह बात कितनी समझ में आती है।
ध्यान रखिए कि पिछले वर्ष चीन के प्रधानमंत्री ली कियांग 21 मई को चार दिवसीय यात्रा पर भारत पहुंचे थे और पहली बार उनकी यात्रा के पूर्व उत्साहजनक माहौल बना था। वे एकदम खुलकर बात कर रहे थे जो कि चीन के पूर्व नेतृत्व के रवैये से अलग था। संयुक्त पत्रकार वार्ता मंे भी उन्होंने पूरे विस्तार से अपनी बातें रखीं जिससे चीनी नेता प्रायः बचते थे। वे अंत में पत्रकारों को भी धन्यवाद देना नहीं भूले और कहा कि आप भी भारत के साथ संबंध बनाने के हमारे इरादे और प्रयासों को सैल्यूट करेंगे। उनके शब्दों में भारत के लोगों को यह विश्वास दिलाने का भाव था कि वे खुले मन से भारत के साथ युद्ध के इतिहास की स्मृतियों को भुलाकर साथ भावी इतिहास बनाना चाहते हैं। आने के पूर्व भी उन्होंने कहा था कि भारत यात्रा के दौरान वहां के लोगों को पता चल जाएगा कि हम उसके साथ कितना निकट का संबंध चाहते हैं। अक्टूबर 2013 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा के दौरान सीमा रक्षा सहयोग समझौता हुआ जिसमें विस्तार से ये बातें शामिल हैं कि अगर कभी सीमा पर तनाव उभरे या घुसपैठ हुईं तो कैसे उससे निपटेंगे। बावजूद इसके घुसपैठ रुका नहीं। इस वर्ष ही करीब 344 घुसपैठ हुई है। पर उनमें सभी गंभीर नहीं होते और 1976 के बाद कभी गोलियां भी नहीं चलीं हैं। यही चीन और पाकिस्तान में अंतर है। चीन से आतंकवादी भी हमारे यहां नहीं आते।

गार्ड ऑफ ऑनर लेने के बाद जिनपिंग ने कहा, बतौर राष्ट्रपति यह मेरी पहली भारत यात्रा है। मैं तीन लक्ष्यों पर फोकस करूंगा। पहला लक्ष्य है हमारी दोस्ती को आगे ले जाना। हम एक-दूसरे की सभ्यता और संस्कृति का सम्मान करते हैं और इसे गहरा करना महत्वपूर्ण है। विकास का हमारा लक्ष्य एकसमान है। भारत और चीन मिलकर दुनिया के लिए नए मौके पैदा कर सकते हैं। हमें अपनी रणनीतिक साझेदारी को नई ऊंचाईयों पर ले जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भारत और चीन की हजारों वर्षाे की साझा सांस्कृतिक विरासत है। शि की पत्नी पेंग लीयुआन ने विद्यालय में जाकर, पेंटिंग बनाकर तथा अन्य तरीकों से नरम कूटनीति की भूमिका निभाई ताकि जन से जन का सांस्कृतिक संपर्क का रास्ता बने। इसीलिए 2015 को चीन में विजिट इंडिया तो 2016 को विजीट चाइना वर्ष के तौर पर मनाया जाएगा। ये बातें सुनने में मोहित करतीं हैं। पिछले वर्ष लि ने भी यही बातें कहीं थी।

ली की यात्रा के दौरान हमने 8 समझौते किए और शि की यात्रा में 12 समझौतों हुए हैं। तो जो 12 समझौते हुए उसमें कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए नाथु ला दर्रा को खोलने का अर्थ है कि आप तिब्बत से होकर किसी भी समय वहां जा सकते थे। अब तक हमें उत्तराखंड के दुर्गम इलाकों से गुजरना पड़ता था। यह अत्यंत ही महत्वपूर्ण समझौता है। लंबे समय से इसकी मांग थी। दोनों देशों के बीच रेलवे, बाहरी अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग और सीमा शुल्क समेत 12 क्षेत्रों में समझौते हुए हैं। चीन महाराष्ट्र और गुजरात में इंडस्ट्रियल पार्क बनाएगा। इसके अलावा शंघाई की तर्ज पर मुंबई का विकास और स्वास्थ्य व सांस्कृतिक क्षेत्र में सहयोग के भी समझौते हुए हैं। चीन ने आने वाले पांच साल में भारत में 20 अरब डॉलर के निवेश का भरोसा दिलाया है। भारत और चीन ने असैन्य नाभिकीय सहयोग पर भी वार्ता शुरू करने का फैसला किया है। चीन के साथ असैन्य नाभिकीय सहयोग पर बातचीत ही अपने आपमें महत्वपूर्ण है। जो चीन वाजपेयी सरकार द्वारा नाभिकीय विस्फोट के बाद कितना आग बबूला था, जिसने भारत अमेरिका नाभिकीय सहयोग समझौता न हो इसकी पूरी कोशिश की आज उसने हकीकत को स्वीकार किया तो यह हमारी कूटनीतिक विजय है। हालांकि नाभिकीय रिएक्टर में चीन के लिए जगह कम बची है, फिर भी नाभिकीय दुनिया में ऐसे और क्षेत्र है, जिन पर बातचीत और सहयोग हो सकता है।  उन्होंने भारत, चीन, म्यांमार और बांग्लादेश के बीच आर्थिक कॉरिडोर बनाने की भी बात की है। रणनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण बात अफगानिस्तान की शांति और स्थिरता को शामिल करना है। भारत के साथ इस प्रकार की बातचीत का अर्थ है कि पाकिस्तान की चाहत के विपरीत चीन ने वहां भारत की भूमिका को स्वीकार किया है।

चिनफिंग के साथ संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में मोदी ने इसकी जानकारी देते हुए कहा कि जहां हमने संबंधों को बढ़ाने के लिए कई मुद्दों पर चर्चा की है, वहीं मित्रता की दृष्टि से कुछ कठिन विषयों पर भी बात की है। सीमा पर हाल में चीन की ओर से बढ़ी घुसपैठ की घटनाओं पर चिंता करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, मैंने सीमा पर हुई घटनाओं को लेकर चिंता जताई है। भारत और चीन के बीच रिश्ते की पूर्ण संभावना को हकीकत बनाने के लिए सीमा पर शांति और आपसी भरोसा हो। वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए, यह काम कई सालों से रुका हुआ है और शुरू होना चाहिए।  मोदी ने कहा कि चीन की वीजा नीति और दोनों देशों में बहने वाली नदी (ब्रह्मपुत्र) को लेकर उसकी नीति को लेकर भी मैंने चिता जताई है। मोदी के बाद चीनी राष्ट्रपति ने जो कहा उसकी कुछ पंक्तियांे पर ध्यान दीजिए। मोदी और उनकी यह पंक्ति समान थी कि विकास के लिए शांति जरूरी है। चीन जल्द से जल्द सीमा विवाद सुलझाने का इरादा रखता है। चिन फिंग ने कहा कि दोनों देश एक-दूसरे की चितांओं का ध्यान रखेंगे और सीमा की घटनाओं का रिश्तों पर असर नहीं पड़ने देंगे। 

मोदी की बात का जवाब देते हुए चिनफिंग ने कहा कि यह समस्या इतिहास से चली आ रही है और दोनों देशों को जल्द से जल्द सुलझाने की जरूरत है। जो विवाद थे, अब वे इतिहास के पन्नों में हैं। इसे जल्द से जल्द सुलझाने के लिए चीन तत्पर है। इस विवाद का असर दोनों देश की दोस्ती पर असर नहीं पड़नाचाहिए। मोदी ने कहा कि हमने चीन में भारतीय कंपनियों के निवेश पर लगी पाबंदियों में ढील देने का आग्रह किया है। उन्होंने इस पर गंभीरता से विचार करने का आश्वासन दिया है। करीब 29 अरब डॉलर का व्यापार घाटा हमारे लिए चुभती हुई सूई है। वैसे शि ने कहा कि औषधि, कृषि उत्पाद आदि कई क्षेत्रों में हम भारत के निर्यात को निर्बाध करने के कदम उठाएंगे। अगर पिछले वर्ष लि कियांग की यात्रा के बाद हुई पत्रकार वार्ता को ध्यान रखेंगे तो लगभग ऐसे ही मनमोहन सिंह ने भी थोड़ी अलग शब्दावली में अपनी बात रखी और कियांग ने सकारात्मक उत्तर दिया। शि और लि दोनों की बातें समान थीं। लेकिन हम जानते हैं कि सीमा विवाद पर संयुक्त कार्यबल की 16 दौर की बातचीत के बाद भी मामला जस का तस है। इसके कारण भी साफ हैं। हम यहां उन पर नहीं जाएंगे। पर इससे इतना साफ हो जाता है कि चीन की एक सुस्पष्ट नीति है और वह उस पर आगे चल रहा है। वह भारत से तनाव नहीं चाहता, अन्य अनेक मुद्दों पर लचीला रुख अपनाता है अपनाएगा पर सीमा को लेकर वह अपने रुख पर कायम रहेगा। हमें इसी को ध्यान रखते हुए उसके साथ संबंधों का निर्धारण करना है।
अवधेश कुमार, ई.: 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः 01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

इस खतरे की गंभीरता समझिये

अवधेश कुमार

 अल कायदा के वर्तमान प्रमुख अयमान अल जवाहिरी के बयान के बाद ऐसा लगता है जैसे देश के लिए यह मुद्दा ही न हो। आरंभ में भारत सरकार का सतर्क व सक्रिय होना, गृह मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, आईबी और रॉ प्रमुखों के साथ बैठक व विचार विमर्श करना एवं सतर्कता संबंधी अन्य निर्देश अस्वाभाविक नहीं था। अगर 55 मिनट के वीडियो में जवाहिरी कह रहा हैै कि अल कायदा की नई शाखा इस्लामी राज को बढ़ावा देगी और भारतीय उपमहाद्वीप में जिहाद का झंडा बुलंद करेगी तो हम इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। उसके अनुसार अल कायदा की नई शाखा बर्मा (म्यांमार), बांग्लादेश, असम, गुजरात, अहमदाबाद और कश्मीर में मुसलमानों को गर्व के साथ जोड़ेगा। पहली नजर में ऐसा लगता है कि अल कायदा नये सिरे से इस क्षेत्र में जेहाद और इस्लामी राज के नाम पर आतंकवाद को गति और शक्ति देने की योजना पर काम करने लगा है। उसने अफगानिस्तान मेें मुल्ला उमर को पूर्ण समर्थन देने का भी ऐलान किया है। यानी जो स्थिति 2001 अक्टूबर के पहले अफगानिस्तान में थी उसकी स्थापना। जाहिर है, अगर इसका पहला निष्कर्ष निकाला जाए तो यही कहना होगा कि हमारे लिए यह ऐसी चुनौती है जिसका सामना करने के लिए हमें पूर्व तैयारी करनी होगी।

इस बयान एवं इससे जुड़े तथ्यों के चार पक्ष हैं। सबसे पहला है, बयान  की सत्यता। यह टेप अल कायदा की आधिकारिक मीडिया वेबसाइट अस-सहाब पर आया है, इसलिए इसकी सत्यता पर प्रश्न खड़ा नहीं किया जा सकता। दूसरे, इसमें भारतीय उपमहाद्वीप में शाखा का नाम कायदात अल जिहाद तथा इसके नेता के रुप में पाक आतंकी आसिम उमर का नाम घोषित किया गया है। तीसरे, यू ट्यूब, सोशल मीडिया पर मौजूद जवाहिरी के विडियो को जांच के बाद एजेंसियों ने सही पाया। दूसरा पक्ष है, इसका अर्थ जिसका कुछ अंश हमने आरंभ मंे स्पष्ट किया। ध्यान रखिए जवाहिरी ने अपने संदेश में सभी लड़ाकों को एक होने और आपसी कलह से दूर रहने की हिदायत दी है। जवाहिरी ने कहा, अगर आप कहते हो कि मुस्लिमों को पवित्र रखने के लिए जेहाद जरूरी है, तो आपको पैसे और सम्मान के लिए उनके खिलाफ नहीं जाना चाहिए। कलह एक अभिशाप और पीड़ा है। उसने आगे कहा कि यदि आप कहते हो कि आपके जिहाद से अल्लाह खुश नहीं होता तो आप नेतृत्व का पहला मौका ही खो देते हो। यहां कलह, जेहाद का अर्थ आदि शब्द को प्रयोग क्यों किया गया है?  

वस्तुतः इसका पहला कारण तो यह माना जा रहा है कि अल कायदा की ही एक पूर्व शाखा आईएसआईएस के विस्तार और उसकी उग्र प्रचंडता ने जिस तरह दुनिया भर में जेहादी मानसिकता वालों को अपनी ओर आकर्षित किया है, उसकी शक्ति बढ़ी है उससे अल कायदा के सामने अपने को मुख्य जेहादी संगठन केन्द्र के रुप में बनाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है। आईएसआईएस इराक में अल-कायदा के तौर पर ही जाना जाता था। 2006 में अमेरिकी और स्थानीय सहयोगी सेना ने मिलकर इसके नेता अल-जरकावी को मार डाला एवं संगठन को लगभग ध्वस्त कर दिया। 2011 में यह समूह फिर उठ खड़ा हुआ और बाद में संगठन ने अल बगदादी के नेतृत्व में अप्रैल 2013 में अल-कायदा की छत्रछाया से निकलते हुए अलग आईएसआईएस कायम कर लिया। जवाहिरी ने आईएसआईएस को सिर्फ़ इराक़ पर ध्यान केंद्रित और सीरिया को अल-नसरा के हवाले छोड़ने को कहा था। बग़दादी और उनके लड़ाकों ने अल-क़ायदा मुखिया की अपील का खुलेआम उल्लंघन किया, जिसके कारण इस्लामी चरमपंथियों में उनकी रुतबा अब बढ़ गया है। बगदादी स्वयं को ओसामा बिन लादेन का सच्चा वारिस साबित करने पर तुला है। तो जवाहिरी एवं अल बगदादी के बीच एक प्रकार की प्रतिद्वंद्विता है और दोनों के विचारों में भी अंतर है। आईएसआईएस ने सीरिया और इराक में खुद को काफी मजबूत कर लिया है। 1700 इराकी सैनिकों की हत्या ने उसकी बर्बरता को विश्व भर में प्रसिद्ध कर दिया। इराक और सीरिया के बड़े हिस्से पर कब्जा करते हुए उसने इस्लामिक स्टेट घोषित कर दिया और अबु बक्र अल-बगदादी ने खुद को इस्लामिक स्टेट का खलीफा घोषित कर दिया और पूरी दुनिया के मुस्लिमों को उसके प्रति वफादार रहने को कहा। आज कुल मिलाकर इंगलैण्ड के समान क्षेत्र पर उसका कब्जा है।

अल-कायदा और आईएसआईएस का लक्ष्य लगभग एक ही है पर आईएसआईएस दूसरे संगठनों को कमजोर कर अपने समूह को मजबूत करना चाहता है। पूरी दुनिया में इस्लामिक कट्टरपंथी संगठनों पर प्रभाव जमाने की दिशा में आईएसआईएस और अल-कायदा के बीच होड़ है। अभी यह कहना मुश्किल है कि कौन बड़ा है, पर जेहादी लड़कों का आकर्षण आईएसआईएस की ओर ज्यादा है यह सच है। अमेरिका आधारित इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ वार (आईएसडब्ल्यू) के मुताबिक, आईएसआईएस एक आतंकवादी नेटवर्क की तुलना में सैनिक संगठन की तरह काम करता है। सीरियन ऑब्जर्वेटरी फॉर ह्यूमन राइट्स का दावा है कि अकेले जुलाई महीने में 6,000 लड़ाकों ने चरमपंथी समूह का दामन थामा। इसके पास 14 हजार करोड़ रुपये नकदी की बात कही जा रही है। इसके अलावा तेल कुंओं तक पर इसका कब्जा है। आईएसआईएस यानी इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया (इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड दी लीवेंट भी कहते हैं) वैसे तो मुख्यतः इराक और सीरिया के सुन्नी इलाकों को इस्लामिक स्टेट बनाने पर काम कर रहा है, पर लीवेंट दक्षिणी तुर्की से लेकर मिस्र तक के क्षेत्र का पारंपरिक नाम है। संगठन दावा करता है कि उसमें अरब क्षेत्र के अलावा ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी और कई यूरोपियन देशों के लड़ाके शामिल हैं।

इसमें जवाहिरी के पास इस तरह का संदेश अपरिहार्य हो गया था। हालांकि पाकिस्तान, अरब प्रायद्वीप और उत्तरी अफ्रीका में अल-क़ायदा की व्यापक मौजूदगी है, यूरोपीय देशों ब्रिटेन, फ्रांस में भी उसकी ओर लड़ाके आए हैं। यानी अल कायदा एवं जवाहिरी अभी भी एक बड़ी ताकत है। नाइजीरिया का बोको हरम, अरब क्षेत्र का अलु सैयफ, इस्लामिक मूवमेंट आफ उज्बेकिस्तान, ईस्त तुर्कमेनिस्तान इस्लामिक मूवमेंट, अल शबाब, जोमाह इस्लामिया, इस्लामिक फं्रट के साथ हमारे पड़ोस पाकिस्तान में तहरीक ए तालिबान, लश्कर ऐ तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, अफगानिस्तान का तालिबान, बंगलादेश में हरकत उल जेहाद उल इस्लामी बंगालदेश ....आदि संगठन उससे सीधे जुड़े हैं और अन्य संगठन उसकी प्रेरणा से काम कर रहे हैं। लेकिन बग़दादी द्वारा सुन्नी इस्लामिक राज्य की घोषणा और स्वयं को खलीफा बनाने तथा उसे सुदृढ़ करने के लिए संगठित होकर युद्ध करते रहने के करण् युवा जिहादियों में आईएसआईएस के प्रति ज़्यादा आकर्षण हो रहा है। देखना होगा कि दोनों के वर्चस्व में कौन जीतता है। पर इसका प्रभाव जेहादी आतंकवाद पर पड़ना है।

जहां तक भारत का प्रश्न है तो जवाहिरी या अल कायदा ने पहली बार हमें निशाना नहीं बनाया है। ओसामा बिन लादेन ने 11 सितंबर 2001 के अमेरिका पर हमले के पूर्व ही जिन देशों का नाम लिया उसमें भारत और विशेषकर कश्मीर शामिल था। उसके बाद उसके कई टेपों में ये बातें आईं। जवाहिरी ने पिछले वर्ष 17 सितंबर को जो ऐलान किया था उसमें भी कश्मीर का जिक्र था। उसने कहा था कि इजरायल और अमेरिका तो हमारे मुख्य लक्ष्य है ही, कश्मीर से लेकर रूस के कॉकेकस तक और इजरायल से लेकर चीन के शिनजियांग तक जिहादियों को संघर्ष करना चाहिये। जवाहिरी ने यमन, इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और सोमालिया में भी आतंकियों से लड़ने की अपील की। लेकिन वर्तमान ऐलान का महत्व इस दृष्टि से है कि इसने संभवतः आईएसआईएस के समान भारतीय उपमहाद्वीप के लिए सैनिक चरित्र वाले संगठन की कल्पना की है। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद वह फिर से मुल्ला उमर के नेतृत्व में वहां तालिबानों को इस्लामिक राज्य कायम करना चाहेगा ताकि बगदादी को नकार सके। यह खतरनाक है। असम, गुजरात, अहमदाबाद आदि का नाम लेने के पीछे का उद्देश्य भी समझना आसान है। गुजरात दंगों की अतिरंजित कथाओं के द्वारा अल कायदा या उससे जुड़े संगठनों ने पहले भी हमारे यहां आतंकवादी गतिविधियां चलाई हैं। असम के दंगों के बाद यह साफ हो गया है कि वहां भी जेहादी तत्व उपस्थित हैं। इसका एक अर्थ यह भी है कि जिस तरह आईएसआईएस में भारतीय लड़ाकू बडी संख्या में हैं वैसे ही अल कायदा में भी हैं। 

आईएसआईएस ने जिस इस्लामिक वर्चस्व वाली दुनिया की तस्वीर है, उसका एक हिस्सा भारत भी है। संगठन की ओर से जारी नक्शे में भारत के उत्तर पश्चिमी हिस्से जिसमें गुजरात भी शामिल है, को इस्लामिक स्टेट ऑफ खोरेसान का हिस्सा बताया गया है। जाहिर है इसके समानांतर अल कायदा को भी कुछ करना था। आईएसआईएस की योजना में बाद में वे लड़ाके लौटेंगे तथा पश्चिम एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप के बीच लिंक का काम करेंगे। सीरिया और इराक में उनकी कामयाबी वैसे यहां कई लोगों के लिए प्रेरणा देने का काम कर रही है। तो हमारे लिए खतरा और चुनौतियां दोनों ओर से है और इसलिए भविष्य का ध्यान रखते हुए सुरक्षोपाय के साथ वैचारिक युद्ध छेड़ने की आवश्यकता है ताकि हमारे यहां के नवजवान उन मजहबी उन्मादियों के भ्रम में फंसने और जेहादी होने से बचें।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

मोदी की जापान यात्रा से विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण पड़ाव

अवधेश कुमार
लंबे समय से प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा का मूल्यांकन मुख्यतः इस आधार पर होता रहा है कि आखिर शिखर वार्ता के मुद्दे क्यो थे, समझौते क्या हुए, हमेें वहां से प्राप्त क्या हुआ....आदि आदि। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जापान यात्रा के लिए भी ये कसौटियां होंगी और उन पर समझौतों, बातचीत, प्राप्तियों का मूल्यांकन किया जाएगा। पर अगर हम मोदी की अभी तक संपन्न चार विदेश यात्राओं, भूटान, नेपाल, ब्रिक्स सम्मेलन के लिए ब्राजिल एवं जापान को मिलाकर देखें तो उन्होंने इस लीक को तोड़कर उसे अपनी राष्ट्रीय सोच के अनुरुप सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सामजिक धरातल को पुष्ट करने पर जोर दिया है जिससे संबंधों में निकटता की भावुक और संवेदनशील तत्वों का गहरा समावेश रहे। वास्तव में ऐतिहासिक, सांस्कृति, आध्यात्मिक आयाम ऐसे क्षेत्र हैं जो दो देशों के लोगों को निकट लाते हैं, उनमें अपनेपन का भाव सुदृढ़ करते हैं। एक बार जब इस आधार पर संबंध खड़ा हो गया तो फिर द्विपक्षीय राजनीतिक, आर्थिक, सामरिक संबंधों का भवन ज्यादा सशक्त होता है। मोदी के प्रति किसी आग्रह और दुराग्रह से परे हटकर विचार करें तो यह स्वीकार करना होगा कि अन्य यात्राओं की तरह जापान में भी हर अवसर पर ऐसा लग रहा था कि वाकई भारत का नेता वहां अपने राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर रहा है। इसके पूर्व प्रधानमंत्रियों को हम नकारते नहीं, पर यह चेहरा और चरित्र पहली बार प्रकट हुआ है।
इसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विद्वान या राजनय के मर्मज्ञ जो भी नाम दें, पर यह एक ऐसी शुरुआत है जिससे हमारी पूरी विदेश नीति की धारा बदल रही है। जापान में मोदी चाहते तो तोक्यो से यात्रा आरंभ कर सकते थे, लेकिन उन्होंने क्योतो जैसे आध्यात्मिक शहर से किया जो बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध स्थान है, जिसका भारत के साथ ऐतिहासिक, धार्मिक संबंध है। प्रधानमंत्री ने अपनी जापान यात्रा के कार्यक्रम में फेरबदल करते हुए सबसे पहले क्योटो जाने का फैसला किया था ताकि वे इस शहर के अनुभव से सीख सकें। जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबे भी पारंपरिक औपचारिकता को तोड़ते हुए उनका स्वागत करने के लिए पहुंच गए। मोदी और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबी की मौजूदगी में दोनों देशों के बीच वाराणसी के विकास के लिए मान्य साझेदार शहर समझौते पर जापान में भारत की राजदूत दीपा वाधवा और क्योटो के मेयर कादोकावा ने हस्ताक्षर किए। यह समझौता वाराणसी की विरासत, पवित्रता और पारंपरिकता को कायम रखने और शहर के आधारभूत ढांचे को आधुनिकतम बनाने में मदद करेगा। इसके साथ ही कला, संस्कृति और अकादमिक क्षेत्र में भी शहर के विकास में दोनों देश सहयोग करेंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने धार्मिक महत्व के शहरों को आकर्षक तीर्थ व पर्यटनस्थल में विकसित करने की घोषणा की है वाराणसी के अलावा वे मथुरा, गया, अमृतसर, अजमेर और कांचीपुरम जैसे कई धार्मिक शहरों के लिए भी ऐसी ही योजना तैयार कर रहे हैं। इसमंे क्योतो अपने अनुभव से योगदान देगा।
मोदी ने क्योतो के मेयर दाइसाका कादोकावा को एक पुस्तक भेंट की जिस पर लिखा था मैं बनारस का प्रतिनिधित्व करता हूं। उन्होंने वाराणसी का एक डिजिटल मानचित्र भी मेयर को भेंट किया। मोदी ने कहा कि क्योटो आने की उनकी वजह यह है कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद क्योटो अपनी सांस्कृतिक विरासत को बरकरार रखते हुए आधुनिक जरूरतों को पूरा किया है। इस शहर का विकास सांस्कृतिक धरोहर के आधार पर हुआ। भारत में हम भी विरासत शहर विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। यहां से हम काफी कुछ सीख सकते हैं। क्योटो के मेयर ने मोदी को विरासत शहर के विकास पर प्रजेंटेशन दिया। उन्हांेंने 40 मिनट के प्रजेंटेशन में बताया कि क्योटो के नागरिकों ने किस तरह उसे स्वच्छ बनाया। उसमें यह बताया गया कि शहर को कैसे विकसित किया जाए ताकि उसकी ऐतिहासिकता भी बनी रहे, प्रकृति को नुकसान भी नहीं पहुंचे और उसे आधुनिक भी बनाया जा सके। उन्होंने मोदी को बताया कि स्थानीय विद्यार्थियों ने शहर को स्वच्छ बनाने में सक्रिय भागीदारी निभाई और शहर में कचरे को घटाकर 40 फीसद कर दिया। इसके अलावा जगह.जगह लगे पोस्टर भी हटाए गए। मोदी ने शिंजो एबी को वहां क्या भेंट किया? भगवद गीता का संस्कृत और जापानी संस्करण के अलावा स्वामी विवेकानंद के जापान से जुड़े संस्मरणों पर आधारित पुस्तक। प्रधानमंत्री अपने साथ इस किताब के जापानी और अंग्रेजी संस्करण ले गए थे। उसके बाद मोदी क्योटो शहर स्थित प्रसिद्ध तोजी बौद्ध मंदिर पहुंचे। जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे इस दौरान उनके साथ थे। दोनों प्रधानमंत्रियों ने यहां करीब आधा घंटा बिताया और मंदिर के प्रमुख बौद्ध भिक्षु वेनेरेबल यासू नागामोरी से पूरी जानकारी ली।
इस घटना का विस्तार से वर्णन करने का उद्देश्य समझना आसान है। किस प्रधानमंत्री ने इसके पूर्व ऐसा किया है? वाराणसी और अन्य शहरों के विकास का तरीका तो मोदी ने सीखा ही, वहां के लोगों से सहयेाग का वायदा प्राप्त किया और यह वायदा सहर्ष और स्वेच्छा से था, क्योंकि मोदी ने सांस्कृतिक एकता का सूत्र बीच में ला दिया। जो समझौते हुए वे तो केवल औपचारिक हैं। शिंजो अबे को उन्होंने यही पस्तुकें क्यों भेंट की? वहां भी यही लगाव पैदा करने का भाव था। माहौल कितना बदला इसका उदाहरण था क्योतो के मेयर का बयान। मेयर ने कहा कि वह भारत और जापान के बीच संबंधों को प्रोत्साहित करने के लिए समर्पित रहेंगे। बुद्ध से जुड़ी विरासतें भारत से प्रेरित हैं। तोजो मंदिर के पूजारी से कहा कि मैं मोदी हूं और आप मोरी। तो ये सब चीजें व्यक्तियों को निकट लातीं हैं और इससे देशों के संबंधों के दूसरे आयाम अपने-आप मजबूत होते हैं।
यूएस.2 एम्फीबियस एयरक्राफ्ट की डील साइन की गई है। इसके जरिए भारतीय एयरक्राफ्ट उद्योग के विकास के लिए एक रोड मैप तैयार किया जा सकेगा। मोदी सरकार की नीतियों को ध्यान में रखते हुए ये प्लेन भारत में तैयार किए जाएंगे।
7 दशक पहले खत्म हुए द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यह पहली बार होगा जब जापान किसी देश को सैन्य उपकरण बेचेगा।
यूएस-2 एम्फीबियस विमान समझौता, शिंजो अबे की शिखर वार्ता, उसके बाद हुए छः समझौतों, फिर उद्योगपतियों का महत्व तो है ही क्योंकि जापान ने करीब 2 लाख 10 हजार करोड़ रुपया 5 वर्ष में निवेश करने का ऐलान किया है। संयुक्त प्रेस कान्फ्रेंस में अबे ने ऐलान किया कि वे बुलेट ट्रेन चलाने में भारत की मदद करेंगे। साथ ही सामरिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्तरों पर भी सकारात्मक कार्य करने में सहभागिता देंगे, शिक्षा और शोध में भी सहायता करेंगे......। मोदी ने ने कहा कि जापान ने बिल्कुल नए स्तर पर साझेदारी की बात कही है। इसी तरह जापान चेम्बर औफ कौमर्स में उद्योगपतियों को संबोधित करते हुए मोदी ने जो कहा उसके दो भाग थे-एक, कारोबार, रोजगार से संबंधित एवं दूसरा अंतराष्ट्रीय राजनीति से। उन्होंने भारत विश्व का सबसे युवा देश है, क्योंकि यहां पर 60 फीसद से ज्यादा युवा हैं। इसके चलते 2020 में वर्क फोर्स के लिए भारत पर दुनिया की निगाह होगी। यहीं पर उन्होंने स्किल विकास की बात की। यानी आपको यदि काम करने वाले कुशल लोग चाहिएं तो भारत ही वह प्रदान कर सकता है।  प्रधानमंत्री ने जापानी निवेशकों को आमंत्रित करते हुए कहा कि कारोबारियों को काम करने के लिए अच्छा माहौल चाहिए और यह उपलब्ध कराना सिस्टम और शासन की ज़िम्मेदारी है। नियम और कानूनों को बदले जा रहे हैं जिनके परिणाम निकट भविष्य में दिखने लगेंगे। प्रधानमंत्री कार्यालय में जापानियों को निवेश में मदद के लिए एक विशेष टीम जापान प्लस गठित की जाएगी। यानी पिछले कुछ सालों की कठिनाइयों और समस्याओं को भूल जाइए और निवेश करिए। जो जानकारी आ रही है अनेक कंपनियों में भारत में निवेश की लंबी योजनायें बनाईं हैं।
दूसरे भाग में उन्होंने कहा, ‘21 वीं सदी एशिया की होगी यह तो सभी मानते हैं, लेकिन यह सदी कैसी होगी यह भारत और जापान के संबंधों पर निर्भर करता है।’ यानी भारत और जापान ही इस सदी का भविष्य तय कर सकते हैं।  21वीं सदी में शांति और प्रगति के लिए भारत और जापान की बड़ी ज़िम्मेदारी है। मोदी ने कहाए भारत और जापान की जिम्मेदारी द्विपक्षीय संबंधों से भी आगे जाकर है। भारतीय और जापानी कारोबारी दुनिया की अर्थव्यवस्था को दिशा दे सकते हैं। यानी आइए और साथ मिलकर कदम बढ़ायों, खुद भी प्रगति करें और दुनिया को दिशा दे।  उन्होंने कहा कि दुनिया दो धाराओं में बंटी है, एक विस्तारवाद की धारा है और दूसरी विकासवास की धारा है। हमें तय करना है कि विश्व को विस्तारवाद के चंगुल में फंसने देना है या विकासवाद के मार्ग पर जाने के लिए अवसर पैदा करना है। इन दिनों 18वीं सदी का विस्तारवाद नजर आता है। कहीं किसी के समंदर में घुस जाना कहीं किसी की सीमा में घुस जाना। जाहिर है, इसका निशाना ची नही हो सकता है जो भारतीय सीमाओं में घुसपैठ करता है और दक्षिण चीन सागर पर दक्षिण पूर्व एशिया को परेशान किए हुए है।
इसकी प्रतिध्वनि हमें सुनने को मिली है। चीन ने जापान पर भारत को उससे तोड़कर अपने साथ मिलाने का आरोप भी लगा दिया है। खैर, इस पर हम यहां विस्तार से चर्चा नहीं कर सकते। मुख्य बात यह कि मोदी पहले
तोजी मंदिर के दर्शन के बाद मोदी क्योटो विश्वविद्यालय पहुंचे जहां उन्होंने स्टेम सेल रिसर्च की दिशा में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित जापानी प्रोफेसर शिन्या यामनांका से मुलाकात की। इस दौरान दोनों के बीच सिकल सेल अनीमिया के उपचार पर बातचीत हुई। भारत के कई हिस्सों में इस बीमारी की वजह से कई मौतें हो जाती हैं। मोदी ने प्रोफेसर यामनांका के साथ भारत.जापान के विश्वविद्यालों के बीच स्टेम सेल रिसर्च की दिशा में आपसी सहयोग पर भी बात की। इसी तरह वे जापान की शिक्षा प्रणाली को समझने के घोषित उद्देश्य से तोक्यो में 136 साल पुराने तैमेइ प्राथमिक स्कूल गए। वह एक संगीत कक्षा में गए जहां सात-आठ साल के आयु समूह के बच्चे उनके लिए एक गीत गा रहे थे। मोदी ने कुछ बच्चों को बांसुरी बजाते हुए पाया। मोदी ने कहा कि भारत की पौराणिक कथाओं में भगवान कृष्ण बांसुरी बजाते थे। इसका उपयोग गायों को आकर्षित करने के लिए करते थे। इसके बाद उन्होंने बच्चों के लिए बांसुरी बजाई। वास्तव में  मोदी जापान की शिक्षा प्रणाली को समझने के लिए एक श्छात्रश् के तौर पर स्कूल गए ताकि ऐसी ही प्रणाली अपने देश में भी लागू की जा सके। प्रधानमंत्री ने भारत में जापानी भाषा पढ़ाने के लिए यहां के शिक्षकों को आमंत्रित किया और 21 वीं सदी को सही मायने में एशिया की सदी बनाने के उद्देश्य से एशियाई देशों में भाषाओं तथा सामाजिक मूल्यों के लिए सहयोग को आगे बढ़ाने की अपनी वकालत के बीच ऑनलाइन पाठ्यक्रमों का प्रस्ताव भी दिया। मोदी ने कहा कि यहां आने का मेरा इरादा यह समझना है कि आधुनिकीकरण, नैतिक शिक्षा और अनुशासन जापान की शिक्षा प्रणाली में किस प्रकार एकाकार हुए हैं। मैं 136 साल पुराने स्कूल में सबसे उम्रदराज छात्र के तौर पर आया हूं। प्रधानमंत्री को उप शिक्षा मंत्री माएकावा केहाई ने जापान की शिक्षा प्रणाली खास कर सरकार संचालित प्रणाली और कामों के बारे में विस्तार से बताया। मोदी ने कुछ सवाल पूछे जैसे सिलेबस कैसे तैयार किया जाता है? क्या अगली क्लास में प्रमोट करने के लिए परीक्षा एकमात्र मानदंड है? क्या छात्रों को सजा दी जाती है?  उन्हें नैतिक शिक्षा कैसे दी जाती है?
मोदी ने स्कूल के दौरे के दौरान कहा कि अब मैं ज्ञानवान महसूस कर रहा हूं।् 21 वीं सदी को एशिया की सदी की कल्पना को वास्तविकता में बदलने के लिए एशियाई देशों को भाषाओं और सामाजिक मूल्यों की दिशा में सहयोग बढ़ाना चाहिए। इससे पूरी मानवता की सेवा होनी चाहिए। यह जो मोदी की विशेषता है सीधे संपर्क करके समझना, वहां जाना, वहां के लोगों को योजना के तौर पर आमंत्रित करना....यह विदेश नीति की ऐसी धारा है जो निस्संदेह, भारत को विश्व में न केवल अलग पहचान देगी, इसे लाभान्वित करेगी, मौजूदा आर्थिक ढांचे में सांस्कृतिक आध्यात्मिक विरासत और सामाजिक परंपरा व पहचान खोये द्विपक्षीय-अंतरराष्ट्ीय राजनीति का यह सूत्र आने वाले समय में और खिलेगा।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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