अवधेश कुमार
फेसबुक ने फ्रेन्ड अन्फ्रेन्ड शब्द को आम बना दिया। महाराष्ट्र की चुनाव पूर्व राजनीति ने भी एक ही दिन अन्फ्रेंड को इतना ज्यादा सुर्खियों में लाया कि फेसबुक उसके सामने छोटा पड़ गया। जो टिप्पणीकार यह मान रहे थे कि गठबंधन की इतनी लंबी जीवन यात्रा के बाद मन का मिलन इतना सघन है कि तलाक संभव नहीं वे सही साबित नहीं हुए। हालांकि यह कल्पना किसी को भी नहीं थी कि वाकई इनके इतने पुराने और राजनीतिक रुप से सघन रिश्ते का इस तरह ऐन चुनाव पूर्व अंत हो जाएगा। सच कहा जाए तो भारतीय राजनीति में यह दुर्भाग्यपूर्ण सच एक बार फिर साबित हुआ है कि यहां गठबंधन केवल सत्ता संबंधी राजनीतिक हितों के कारण होतीं हैं और हितों पर थोड़ी भी आंच आने की संभावना हुई नहीं कि बस तलाक। आखिर शिवसेना और भाजपा की 25 साल पुरानी दोस्ती के बीच तलाक कोई सामान्य स्थिति नहीं है। कांग्रेस और राकांपा के बीच 15 साल की दोस्ती भाजपा शिवसेना की श्रेणी की नहीं थी, फिर भी उनके बीच गठबंधन धरातल तक बन चुका था।
लेकिन अगर हम यह कल्पना करें कि इस असाधारण राजनीतिक घटनाक्रम के परिणाम भी असाधारण हो जाएंगे तो यह हमारी भूल होगी। इससे चुनाव परिणाम पर असर होगा, पर उसके बाद सरकार गठन के समय फिर से समीकरण बनेंगे और उनकी तस्वीर ऐसी ही हो सकती हैं जैसी आज हैं। हां, इससे तत्काल महाराष्ट्र की राजनीति का पूरा वर्णक्रम अवश्य बदल गया है। महाराष्ट्र के मतदाताओं को कुल मिलाकर दो गठबंधनों में से एक को चुनने का विकल्प रहता था जो खत्म हुआ है। राकांपा भी कांग्रेस की ही भाग थी, जो सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर 1999 में शरद पवार, तारिक अनवर और पी. ए. संगमा के विद्रोह से उत्पन्न हुई। करीब दो दशक से दो ध्रुवों पर टिकी राजनीति इस समय चार ध्रुवों में बदली है और एक थोड़ा छोटा पर परिणामों पर असर डालने वाला पांचवां धु्रव महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है। भाजपा, शिव सेना, कांग्रेस और एनसीपी अलग-अलग मैदान में उतर रहे हैं। इस टूट का कोई वैचारिक कारण हो ही नहीं सकता। चारों पार्टियां अधिक से अधिक सीटें चाहतीं थीं, और मुख्यमंत्री पद को लेकर मतभेद थे। भाजपा का प्रस्ताव था कि जिसे अधिक सीटें आएं मुख्यमंत्री उसका हो, पर शिवसेना अपने मुख्यमंत्री पर अड़ी। उसी तरह राकांपा ने सत्ता में आने पर ढाई-ढाई वर्ष के मुख्यमंत्री का प्रस्ताव रखा जो कांग्रेस ने स्वीकार नहीं किया। रकांपा 288 में से आधी सीटों पर लड़ना चाहती थी जबकि कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव के अनुसार उसे 114 या उससे कुछ ज्यादा देने पर अड़ी थी। उसने उन स्थानों पर भी उम्मीदवार खड़े कर दिए जिन पर राकांपा बातचती कर रही थी। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि संभवतः कांग्रेस विधानसभा चुनाव में राकांपा से अलग होकर लड़ने का मन बना चुकी थी। मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की छवि ईमानदार नेता की है, इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं कि वे राकांपा से अलग होकर चुनाव लड़ना चाह रहे हों ताकि सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप कम हो सके, अन्यथा वे सरकार गिराने की सीमा तक नहीं जाते। ध्यान रखिए कि भ्रष्टाचार के ज्यादा आरोप राकांपा के नेताओं पर हैं।
यही बात शिवसेना भाजपा के साथ नहीं थी। कोई गठबंधन का अंत नहीं चाहता था। शिवसेना ने बदले हुए माहौल का अपने अनुसार मूल्यांकन कर भाजपा को समान दर्जा देने से इन्कार किया। लगातार बातचीत होती रही, पर शिवसेना पुराने सूत्र को पूरी तरह बदलने को तैयार नहीं थी। आखिरी प्रस्ताव में शिवसेना ने अन्य घटक दलों के लिए महज 7 सीटें दीं थीं। यानी अगर गठबंधन को बनाए रखना है तो महायुति के अन्य दलों को भाजपा अपने खाते से सीटें दे। शिव सेना की ओर से हर बार लगभग एक ही प्रस्ताव सामने आता था। यदि धरातली वस्तुस्थिति के अनुसार विचार करेंगे तो भाजपा एवं रकांपा का तर्क गलत नहीं था। महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में से अब तक शिवसेना 171 एवं भाजपा 117 सीटों पर चुनाव लड़ती आई हैं। इस बार भाजपा ने कहा कि शिवसेना द्वारा कभी न जीती गई 59 एवं भाजपा द्वारा कभी न जीती गई 19 सीटों पर पुनर्विचार कर उन्हें फिर से शिवसेना-भाजपा एवं साथी दलों के बीच बांटा जाना चाहिए। लेकिन शिवसेना को यह स्वीकार नहीं था। उसने कहा कि उसका मिशन 150 है जिसमंे भाजपा सहयोग करे। राकांपा का तर्क था कि लोकसभा चुनाव में राकांपा का प्रदर्शन कांग्रेस से बेहतर रहा, इसलिए वह आधी सीटें हमें दे। आधी से थोड़े कम पर बात बन जाती, पर कांग्रेस ने भी सच्चाई को स्वीकार नहीं किया। आखिर 2009 के लोकसभा चुनाव में राकांपा की सीटें कम आने के बाद कांग्रेस ने उसे 2004 के विधानसभा चुनाव में दी गईं 124 सीटों को घटाकर 114 कर दिया था।
बहरहाल, भाजपा अकेले नहीं है। किसानों में पैठ रखनेवाले स्वाभिमानी शेतकरी संगठन, धनगर समाज की पार्टी राष्ट्रीय समाज पक्ष एवं मराठा समाज के संगठन शिव संग्राम सेना अब भाजपा के साथ रहेंगे। रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया भी भाजपा के साथ ही रहेगी। पिछले लोकसभा चुनाव से पहले दिवंगत गोपीनाथ मुंडे ने इन चार में से तीन दलों को शिवसेना-भाजपा के साथ जोड़कर दो दलों के गठबंधन को महागठबंधन में बदला था। रिपब्लिकन पार्टी (आठवले) ने 2009 के विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना से हाथ मिलाया था लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले इसके नेता रामदास आठवले को राज्यसभा में भाजपा ने भेजा। यदि ये चारों दल भाजपा के साथ हैं तो उसे इनके सम्मिलित 14 प्रतिशत मतों का लाभ मिल सकता है। हां, शिवसेना के साथ न होने की क्षति होगी। भाजपा ने कहा कि हम चुनाव के दौरान शिव सेना के खिलाफ कोई टीका टिप्पणी नहीं करेंगे, उम्मीद है शिव सेना भी ऐसा ही करेगी, पर शिवसेना ने भाजपा के खिलाफ टिप्पणी करना आरंभ कर दिया।
शिवसेना को ज्यादा क्षति होने की संभावना है। पता नहीं उद्धव ठाकरे कैसे भूल गए कि लोकसभा चुनाव के पूर्व उनके सांसद तक पार्टी छोड़ रहे थे और यदि मोदी लहर तथा भाजपा से गठबंधन न होता तो शिवसेना बिखर जाती। लोकसभा चुनाव में वोट मोदी के नाम पर मिला था, इसे शिवसेना स्वीकार नहीं कर पा रही। उसके पास मुख्य वोट आधार मराठी हैं। अकेले लड़ने से ये वोट भाजपा-राकांपा-मनसे और शिवसेना के बीच बंट जाएगा। उसके कार्यकर्ता नेताओं का एक वर्ग मनसे में जा सकता है। उद्धव बाला साहब ठाकरे नहीं हैं जिनके करिश्मे ने शिवसेना को बचाए रखा। कांग्रेस और राकांपा विरोधी यदि यह देखेंगे कि शिवसेना नहीं जीतने वाली तो यकीनन भाजपा की महायुति को वोट देंगे या फिर आक्रामक मराठावाद के समर्थक मनसे को। इसलिए इस समय के आंकड़े में गठबंधन टूटने की सबसे ज्यादा क्षति किसी को हो सकती है तो वह है, शिवसेना। मनसे यह प्रचार करेगी कि जब भाजपा और शेष महायुति के दल ही उसके साथ नहीं तो फिर शिवसेना को मत क्योें दोगे और इसका असर हो सकता है। उद्धव ठाकरे प्रभावी वक्ता भी नहीं हैं। दूसरी ओर भाजपा के पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जैसा आकर्षक भाषण देने वाला नेता तो है ही, प्रदेश स्तर पर भी जनता के बीच आकर्षण वाले नेता हैं। इसमें उसके लिए कठिनाई ज्यादा हैं। इस समय यह साफ दिख रहा है कि भाजपा एवं महायुति भले बहुमत न ला पाए पर उसको बहुत ज्यादा क्षति नहीं होगी। कांग्रेस को भी 15 वर्ष की सत्ता विरोधी रुझान की क्षति होनी है। राकांपा अकेले दम पर बहुत दमदार प्रदर्शन कर पाएगी ऐसी संभावना कम है, पर आश्चर्य नहीं हो यदि वह कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन कर ले। मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ईमानदार हो सकते हैं, पर वे ऐसे नेता नहीं हैं जो जनता के बीच जाकर उसे अपने भाषणों से प्रभावित कर सकें और मत खींच सकें। इसके विपरीत राकांपा के पास ऐसे कई नेता हैं। शरद पवार ही अपने क्षेत्र में लोकप्रिय एवं जनाकर्षक व्यक्तित्व रखते हैं। सत्ता के गणित मंे भी राकांपा के पास किसी के साथ जाने का विकल्प खुला है, जबकि कांग्रेस के पास केवल राकांपा ही विकल्प है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208