तेलांगना भारत के 29 वें राज्य के रुप में स्वीकृत हो गया। हालांकि अभी इसके व्यावहारिक और राजनीतिक रुप से अस्तित्व में आने में समय लगेगा, लेकिन संसद के दोनों सदनों द्वारा इसे पारित किए जाने के बाद हमने दो दृश्य एक साथ देखे। तेलांगना क्षेत्र में जहां खुशियां मनाईं गईं वहीं सीमांध्र में बंद और मातम जैसा दृश्य था। वस्तुतः संसद से लेकर सड़क तक इस राज्य के गठन के पूर्व ही जैसा तनावपूर्ण दृश्य दिखा और जिस तरह की घटनाएं हुईं वे कई दृष्टियों से भयभीत करने वाले हैं। लोकसभा में तो राज्य विधेयक जिस तरह पारित किया गया वह निस्संदेह, आपत्तिजनक था। सारे दरवाजे बंद, बाहर से भीतर तक काले गणवेश में डरावने सुरक्षाकर्मियों की फौज...बहस की कोई संभावना नहीं, लाइव प्रसारण स्थगित......। पूरा वातावरण संसदीय लोकतंत्र की दृष्टि से असहज था। सरकार यह तर्क दे सकती है कि आखिर उसके पास चारा क्या था। जबसे सरकार ने पृथक तेलांगना राज्य निर्माण के पक्ष में हामी भरी संयुक्त आंध्र समर्थक सांसदों ने जैसा तीखा विरोध किया उसमें संसद की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ी है। 17 फरबरी को जब शिंदे विधेयक पेश करने वाले थे....मारपीट से लेकर मीर्च स्प्रे तक की घटना हो गई। संसद के बाहर विजय चौक से लेकर जंतर-मंतर पर इसके विरोध में धरना प्रदर्शन चल रहा था। अंदर और बाहर तनाव की स्थिति में अगर संसद के इस अंतिम सत्र में विधेयक पारित करना था तो फिर सरकार को कुछ अभूतपूर्व कड़े इंताजम करने ही थे। अगर पिछली बार की तरह सुरक्षा इंतजाम के अभाव में हिंसा हो जाती तो सरकार को हम कठघरे में खड़ा करते। राज्य सभा में भी सीमांध्र के सांसदों ने उसी तरह का दृश्य प्रस्तुत करने की कोशिश की। राज्य सभा महासचिव के साथ वैसे ही धक्कामुक्की की जैसी 17 फरबरी को लोकसभा के महासचिव की गई थी। वहां भी वैसे ही विरोध और हंगामा। पहले गृहमंत्री को विधयेक प्रस्तुत करने से रोकने की पूरी कोशिश और फिर प्रधानमंत्री तक के भाषण में कठिनाई पैदा की गई। किंतु प्रश्न है कि नौबत यहां तक आई क्यों?
राज्य के विभाजन की मांग को मूर्त रुप देने के पहले दोनों पक्षों के बीच सहमति के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए था। तेलांगना जिस तरह लंबे समय से समूचे आंध्र में भावनाओं के उफान का मुद्दा बना हुआ है उसमें तो इसकी अपरिहार्यता थी। इस मामले में सरकार की भूमिका भी कमजोर रही और विपक्ष ने तो कुछ किया ही नहीं। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि कांग्रेस अपने प्रदेश सरकार तक को इसके लिए राजी नहीं कर पाई, उसके मुख्यमंत्री तक ने पद और पार्टी से इस्तीफा दे दिया। तेलांगना पहला राज्य होगा जिसका गठन प्रदेश की विधानसभा द्वारा विभाजन प्रस्ताव खारिज किए जाने के बावजूद हो रहा है। इसके पूर्व 2000 में जो तीन राज्य बने उनमें उत्तरप्रदेश विधानसभा ने उत्तराखंड का, मध्यप्रदेश ने छत्तीसगढ़ का एवं बिहार ने झारखंड का प्रस्ताव पारित किया। तेलांगना एवं सीमांध्र क्षेत्र के मंत्रियों, विधायकों एवं सांसदों के बीच उग्रता की इतनी बड़ी खाई पैदा हो गई कि आज ये एक दूसरे के जानी दुश्मन जैसे दिख रहे हैं। ऐसे तनाव की स्थिति में विभाजन के बाद वहां का दृश्य कैसा होगा? ऐसे तनाव की स्थिति में विभाजन के बाद वहां का दृश्य कैसा होगा? वाईएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष जगन मोहन रेड्डी इसे संसदीय इतिहास में काला दिन करार देते हुए कह रहे हैं कि पार्टी इस फैसले को कभी स्वीकार नहीं करेगी। उन्होंने प्रदेश में आंदोलन आरंभ कर दिया है। सीमांध्र के दूसरे नेताओं का तेवर भी यही है। तो होगा क्या? वास्तव में सीमांध्र के नेताओं ने विभाजन रोकने की हर संभव कोशिश की। आंदोलन से लेकर सभी पार्टियों के नेताओं से मुलाकात कर इसमें मदद मांगी और यहां तक कि इसके विरुद्ध उच्चतम न्यायालय तक गए, पर उनके सारे प्रयास व्यर्थ रहे। वे सब इसे आसानी से स्वीकार तो कर नहीं सकते।
सीमांध्र की चिंता और उत्तेजना अकारण नहीं है। तेलांगना के अलग होते ही आंध्र के चार महत्वपूर्ण बड़े शहर वर्तमान राजधानी हैदराबाद, वारंगल, निजामाबाद और नलगोंडा उसमें चला जाता है। हैदराबाद आंध्र का सबसे विकसित शहर है। यह अलग प्रदेश में चला जाए तटीय आंध्र एवं रायलसीमा के लोगों के लिए इसे गले नहीं उतार पाना कठिन है। वास्तव में तेलांगना के साथ केवल 41.6 प्रतिशत आबादी ही नहीं जाएगी, भारी कृत्रिम एवं प्राकृतिक संसाधन भी तेलांगना में चला जाएगा। पश्चिम से पूरब की ओर बहने वाली चार नदियां मुसी, मंजीरा, कृष्णा और गोदावरी के ज्यादा हिस्से पर इसका अधिकार होगा। कृष्णा नदी का तो 68 प्रतिशत पानी आंध्र प्रदेश से छिन जाएगा। 45 फीसदी जंगल तेलंगाना क्षेत्र में है। देश के पास मौजूद कोयले के कुल भंडार का 20 प्रतिशत हिस्सा तेलंगाना में है, यह लाइमस्टोन (चूने का पत्थर) से भी भरपूर इलाका है, जिसकी सीमेंट उद्योग में जरुरत पड़ती है, बॉक्साइट और माइका जैसे खनिज भी भरपूर मात्रा में यहां है। इनका छीन जाना यकीनन बहुत बड़ी क्षति है। हालांकि केन्द्र ने इनके लिए क्षतिपूर्ति राशि देने का ऐलान किया है, लेकिन इससे किसी को संतोष नहीं हो सकता।
तेलांगना के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो कांग्रेस के लिए इसमें गहरे सबक निहित थे। अगर वह इस बात का विचार करती कि आजादी के पूर्व और बाद में उतने उग्र आंदोलन के बावजूद उसे अलग क्यों नहीं किया गया तो उसका निष्कर्ष कुछ और आता। प. नेहरु तो आरंभ में तेलूगुभाषियों के लिए मद्रास स्टेट से अलग राज्य के ही पक्ष में नहीं थे, लेकिन पोट्टी श्रीरामुलु की आमरण अनशन के दौरान 15-16 दिसंबर, 1952 की रात में हुई मौत के बाद जो हिंसा फैली उससे वे दबाव में आए और 1 नवंबर, 1953 को मद्रास स्टेट से अलग आंध्रप्रदेश राज्य का गठन कर दिया गया। किंतु राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा अलग तेलंगाना की सिफारिश के बावजूद इसे स्वीकार नहीं किया गया। आज जो कुछ हो रहा है उसका अंदेशा हमारे दूरदर्शी नेताओं का तब भी था। आंध्र का सामाजिक वातावरण अन्य राज्यों से काफी अलग है। इसके पूर्व बंटने वाले राज्यों में इतना उग्र दृश्य कभी नहीं देखा गया। महाराष्ट्र और गुजरात कभी एक थे, दो हुए , विरोध भी हुआ पर ऐसा नहीं। इसके कारणों की अगर आज ईमानदारी से पड़ताल की जाती तो सरकार का मत दूसरा होता। ऐसा लगता है कि तात्कालिक राजनीतिक कारणों ने भी इसमें प्रबल भूमिका निभाई है। संप्रग एक में तेलांगना राष्ट्रसमिति के सरकार में शामिल होने से इसकी शुरुआत हुई और कांग्रेस इतना आगे बढ़ गई कि वापस होने के रास्ते बंद हो चुके थे। तेलंगाना के अंदर कुल 17 लोकसभा स्थान आते हैं। भाजपा एवं कांग्रेस दोनों की नजरें उन स्थानों पर हैं। कांग्रेस के लिए सीमांध्रा की 25 लोकसभा स्थानों पर चुनौतियां काफी बढ़ गईं हैं। तेलंगाना का विरोध कर रही वाईएसआर कांग्रेस और तेलुगू देशम सीमांध्र के दोनों इलाकों-तटीय आंध्र और रायलसीमा में़ मजबूत हो रही है। भाजपा मानती है कि वाईएसआर कांग्रेस और तेदेपा के कांग्रेस विरोध के कारण लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता के समीकरण में उसे इन दलों का समर्थन मिल सकता है। इसलिए वह सरकार का विरोध करते हुए भी विभाजन के पक्ष में दिखती रही।
तेलांगना क्षेत्र के लोगों की कई शिकायतें वाजिब हैं। उदाहरण के लिए तेलंगाना में कुल कृषि योग्य जमीन के केवल 15 प्रतिशत हिस्से में नहरों के पानी से सिंचाई होती है जबकि तटीय आंध्र में खेतों के 57.1 प्रतिशत हिस्से में। तेलंगाना के किसानों की शिकायत है कि उनके इलाके में नहरों का विकास उस तरह से नहीं किया गया जैसा होना चाहिए। तेलांगनावासी मानते हैं कि अलग राज्य बनने से इस तरह की समस्याओं का समाधान होगा और प्राकृतिक संसाधनों पर उनका हक होगा। लेकिन तेलांगना की शिकायतों का निदान विभाजन ही था इस पर एक राय कभी नहीं रही। विभाजन की मांग के पीछे वाजिब कारणों के साथ कई प्रकार के निहित स्वार्थी तत्वों की भूमिका भी रही है। देश भर में सक्रिय माओवादियों के ज्यादातर प्रमुख नेता तेलांगना क्षेत्र के ही हैं। असंतोष का लाभ उठाते हुए माओवादियों ने वहां काफी विस्तार किया है। आंध्र में सबसे ज्यादा माओवादी हिंसा तेलंगाना क्षेत्र में ही हुआ है। तेलंगाना आंदोलन में माओवादी विचारधारा से प्रभावित लोग शामिल हैं। इसलिए यह आशंका निराधार नहीं है कि विभाजन के बाद तेलांगना में वे काफी शक्तिशाली होंगे। यह वैसे ही हो सकता है जैसे छत्तीसगढ़ और झारखंड में। इसके अलावा हैदराबाद, करीमनगर आदि में जिस तरह जेहादी आतंकवादियों ने अपना पैर फैलाया हुआ है वह भी जगजाहिर है। एक छोटे राज्य के लिए इनका सामना करना कितना कठिन होगा इसकी कल्पना से भय पैदा होता है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408
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