गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

इस टूट को कैसे देखें

अवधेश कुमार

बिहार की रजनीति अचानक उन खबरों के लिए सुर्खियों में आ गई है, जिनको सामान्यतः कोई पसंद नहीं करेगा। पहले राजद के 13 विधायकों को अपनी पार्टी से नाता तोड़ने की खबरें आई और ऐसा लगा जैसा भूचाल आ गया। हालांकि उसके कुछ ही दिनों बाद विधानसभा में दल के नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी के साथ छः विधायक पत्रकार वार्ता में आ गए और आरोप लगाया कि उनके साथ धोखाधड़ी हुआ है। किसी ने कहा कि उन्होंने हस्ताक्षर किया ही नहीं है तो कुछ ने कहा कि उनसे कागज पर हस्ताक्षर कराए गए थे, पर वह दल बदल का नहीं था। लालू यादव प्रसाद के पटना पहुंचने तक स्थिति काफी बदल गई थी और विधायक दल की बैठक में उन 13 में से 9 विधायक शामिल हो गए। यानी टूटे समूह में केवल चार विधायक रह गए है। लालू यादव तत्काल कुछ हद तक राहत महसूस कर सकते हैं,पर उनके लिए निश्चिंतता का कोई कारण नहीं है। उनके लिए स्थितियां अनुकूल नहीं हो पा रहीं हैं। पहले चारा घोटाला में जेल, और सजा के कारण चुनाव लड़ने से वंचित, फिर राम विलास पासवान के भाजपा के साथ जाने की खबर और अब विद्रोह, जिसका पूरी तरह अंत नहीं हुआ। निश्चय ही लालू यादव अपने जीवन के सबसे बुरे राजनीतिक दौर से गुजर रहे हैं। हालांकि बिहार की वर्तमान राजनीति में लालू यादव को खत्म मान लेना भूल होगी, पर यह घटना उनके लिए आघात है, क्योंकि ऐन लोकसभा चुनाव के पूर्व इससे जनता के बीच गलत संदेश जा सकता है। 

इस बात पर कौन विश्वास कर सकता है कि विधायकों की आंखों में धूल झांेककर हस्ताक्षर करा लिया गया। ध्यान रखने की बात है कि पिछले 14 फरबरी को ही इन विधायकों के हस्ताक्षर से विधानसभा अध्यक्ष को पत्र सौंपा गया था जिसमें इन्हें अलग दल के रुप में मान्यता देने का अनुरोध किया गया था। खबर तो तब बाहर आई जब सचिव ने उन्हें अलग बैठने की व्यवस्था करने वाला पत्र जारी कर दिया। जनता दल-यू के नेताओं ने जिस तरह इस खबर पर प्रसन्नता व्यक्त की उससे यह समझने में किसी को कठिनाई नहीं हो सकती थी कि इसके पीछे लंबे समय से खेल हो रहा था। जब नीतीश कुमार ने भाजपा से अलग होने का निर्णय किया उसी समय से बिहार में यह खबर फैल गई थी कि राजद के ज्यादातर विधायक किसी दिन उनके पाले में आ सकते हैं। लालू यादव नीतीश कुमार को जमकर कोस रहे हैं। उनका आरोप है कि उनकी सरकार अल्पमत में आ गई और इसे बचाने के लिए वो तोड़ फोड़ कर रहे हैं। इसके जवाब में नीतीश कुमार कहते हैं कि पार्टियों को तोड़ने में तो लालू जी को महारत हासिल है। यह ठीक है कि अपने कार्यकाल में लालू यादव ने बिहार के सभी पार्टियों में सेंध लगाई थी। कांग्रेस को तो उन्होंने लगभग साफ ही कर दिया है। बहरहाल, इससे तो इन्कार नहीं किया जा सकता कि नीतीश कुमार और उनके साथियों के गोपनीय तरीके से शह देने के कारण ही ऐसी नौबत आई है। नीतीश के लिए अपनी सरकार को निर्धारित समय तक बनाए रखने के लिए अतिरिक्त विधायकांे का समर्थन चाहिए। 

हालांकि दल बदल कानून के अनुसार राजद के 22 विधायकों में से अगर दो तिहाई यानी कम से कम 16 विधायक हों तो वे अलग होकर किसी पार्टी में सामूहिक रुप से शामिल हो सकते हैं। अगर नहीं हों तो उनकी सदस्यता जा सकती है। किंतु यहां पहले अध्यक्ष ने 13 विधायकों को अलग मान्यता दे दी तभी सचिव ने पत्र जारी किया। यह अध्यक्ष की जिम्मेवारी है कि वह यह निश्चित कर ले कि जिन विधायकों का नाम उसमें शामिल हैं उनके हस्ताक्षर सही हैं या नहीं। वे उन सारे सदस्यों से बात करके संतुष्ट हो सकते हैं। अध्यक्ष ने ऐसा किया या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है। टूटे गुट के नेता सम्राट चौघरी का दावा है कि विधानसभा अध्यक्ष के पास सब गए थे और सभी ने हस्ताक्षर किया था। अगर लालू यादव के राजभवन मार्च को देखा जाए तो उसमें भी वे नौ विधायक शामिल थे। इससे स्थिति जटिल हो गई है। संविधान का प्रावधान जो भी हो, पर सदन के अंदर अध्यक्ष के अधिकार विस्तृत हैं। यदि एक बार अध्यक्ष ने उनको मान्यता दे दी तो फिर उसे बदलने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाना होगा। न्यायालय का सम्मन, जवाब, बहस इसमें काफी समय लगेगा। उनकी सदस्यता रहने या जाने का निर्णय इस समय अध्यक्ष को ही करना है। न्यायालय में यह मामला बाद में जाएगा। 

निस्संदेह, इस प्रकार अपने दल को छोड़कर दूसरे दल में जाने की घटना को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता है। 80 के दशक में इसे आयाराम गयाराम नाम दिया गया था। उससे बचने के लिए राजीव गांधी मंत्रिमंडल ने 1985 में संविधान की 10वीं अनुसूची के रुप में दल बदल का प्रावधान बनाया। उसमें पाला बदलने के लिए कम से कम एक तिहाई दल के सदस्यों का साथ होना आवश्यक बना दिया गया। अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में इसमें संशोधन किया गया। इसके अनुसार दलबदल की मान्यता खत्म की गई, लेकिन बाद में इसमें यह प्रावधान जोड़ा गया कि अगर दे तिहाई सदस्य एक साथ किसी दल में शामिल हो जाते हैं तो इसे स्वीकार किया जा सकता है। इसमें अध्यक्ष ने पहले 13 सदस्यों को कैसे मान्यता दे दी यह समझना कठिन है। लेकिन संवैधानिकता से परे यहां सबसे पहले इस बात पर विचार करना चाहिए कि आखिर शुचिता की राजनीति का दावा करने वाले नीतीश कुमार को आने वाले समय में किसी प्रकार के मुख्यमंत्री के रुप में याद किया जाएगा? उनकी ओर से भले इसके पीछे किसी भूमिका से इनकार किया जाए, पर सच तो सच है। उनके सारे प्रवक्ता एक स्वर में इस टूट का समर्थन करते रहे। 

हालांकि इसका दूसरा पहलू कहीे ज्यादा महत्वपूर्ण है। सजा के बाद लालू प्रसाद यादव की महिमा पहले से ज्यादा कमजोर हुई है अन्यथा एक भीं विधायक उनका साथ छोड़ने का साहस नहीं करते। इस समय भले उने साथ 18 विधायक दिख रहे हैं, पर इनमें से कितने दिल से उनके साथ है कहना कठिन है। सभी नौ लोगों की असहमति के बावजूद सम्राट चौधरी ने उनका नाम लिख लिया होगा यह मानने का कोई कारण नहीं है। वास्तव में सच यही है कि राजद में कुछ विश्वसनीय लोगों को छोड़ दें, विधायकों एवं नेताओं में असंतोष और अपने भविष्य की चिंता गहरे समाई हुई है। सम्राट चौधरी ने लालू पर कांग्रेस के पाले में बैठने को अपने कदम का आधार बताया है। चौधरी ने यह भी कहा है कि लालू सामाजिक न्याय के रास्ते से भटक गए हैं। इस बात में दम तो है। गैर कांग्रेसवाद पर राजनीति में एक समय हीरो बने लालू यादव जिस तरह कांग्रेस के पाले में गए उसके पीछे कोई नैतिक सोच नहीं हो सकती है। सामाजिक न्याय के सिद्धंात का लालू यादव ने केवल अपने जन समर्थन और चुनाव जीतने के हथियार के रुप में उपयोग किया। हालांकि तब इन नेताओं ने उनके खिलाफ विद्रोह नहीं किया। इसलिए इनकी बातें सही होते हुए भी इसे ईमानदार वक्तव्य नहीं माना जा सकता। वैसे लालू यादव के विधायकों के अंदर असंतोष के कई दूसरे कारण भी हैं। लगातार दो विधानसभा चुनाव में पराजय, फिर लोकसभा में पराजय से निराशा तो थी ही। ज्यादातर नेता यह सोचते थे कि इस पार्टी में उनका कोई भविष्य नहीं है। लालू यादव द्वारा पत्नी राबड़ी देवी के बाद अपने पुत्र के हाथों नेतृत्व थमाने के निर्णय ने भी नेताओं व विधायकों के असंतोष को बढ़ाया है। 

बावजूद इन सबके यदि नीतीश कुमार की सरकार न होती तो इस तरह का विद्रोह नहीं होता। नीतीश इनके संपर्क में तब से थे, जब भाजपा का साथ उन्होंने छोड़ा भी नहीं था। यदि उन्हें उड़ीसा के नवीन पटनायक की तरह भाजपा को अलग करना था तो फिर लालू की पार्टी के विधायकों को गटकना जरुरी है। इसमें यदि समय लगा तो उसका कारण सिर्फ इतना है कि विधायकों को पुरस्कार का निश्चित वायदा नहीं मिल पा रहा था। संभवतः कुछ विधायकों के वापस आने का कारण भी यही है कि उन्हंे पुरस्कार की गारंटी नहीं मिली है। चलिए लालू यादव की पार्टी में असंतोष है, पर यहां यह भी निष्कर्ष निकलता है कि नीतीश कुमार ने केवल अपने अहं और नासमझी में राजग को तोड़ दिया। भाजपा के मंत्री उनके नेतृत्व में पूरे अनुशासन से काम कर रहे थे। अगर वे अपने अहं और गलत सोच का शिकार होकर भाजपा से अलग नहीं होते तो फिर इस तरह टूट और दलबदल को प्रोत्साहित करने के कलंक का आरोप उन पर नहीं लगता। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


रविवार, 23 फ़रवरी 2014

नई पीढ़ी-नई सोच की ओर से 296 बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई गई

संवाददाता

नई दिल्ली। पूरे देश में पोलियो खत्म हो चुका है इसी की कड़ी में राजधानी में पल्स पोलियो दिवस को लेकर बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई गई व संकल्प लिया गया कि अब दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश को पोलियो को दूबारा पनपने नहीं दिया जाएगा।
नईं पीढ़ी-नईं सोच की ओर से हर बार की तरह इस बार भी पल्स पोलियो टीकाकरण कैम्प लगाया गया जिसमें 296 बच्चों ने पोलियो की दवा पी। यह कैम्प संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी की जनता क्लिनिक बुलंद मस्जिद, शास्त्री पार्क में लगाया गया। इस कैम्प का उद्घाटन संस्था के सरपरस्त श्री अब्दुल खालिक ने किया। उनके साथ संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन भी मौजूद थे।
कैम्प में बच्चों को पोलियो की ड्राप्स सुबह 9 बजे से ही पिलाईं जाने लगी थी और शाम 4 बजे तक 296 बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाईं गईं। संस्था के पदाधिकारियों और सदस्यों ने घर-घर जाकर लोगों को पोलियो ड्राप्स पिलाने के लिए प्रोरित किया और पोलियो की ड्राप्स न पिलाने के नुकसान बताए।
अब्दुल खालिक ने कहा कि संस्था हमेशा हर तरह के राष्ट्रीय प्रोग्राम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती है और बीच-बीच में जनता को भी इन प्रोग्राम के प्रति जागरूक करती है। संस्था के सदस्यों ने आज पूरी दिन लोगों के घर-घर जाकर बच्चों को पोलियो केंद्र पर 0-5 वर्ष के बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाने के लिए कहा।
संस्था के अध्यक्ष साबिर हुसैन ने कहा कि हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम लोगों की मदद करते रहें, क्योंकि दूसरों की मदद करने में जो शुकून मिलता है वह और किसी दूसरे काम में नहीं मिलता।
संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी ने कहा कि सरकार द्वारा चलाईं जा रही मुहिम को हम जनता तक पहुंचा रहे हैं। आज पोलियो जड़ से खात्मे की ओर जा चुका है दूसरी बीमारियों पर भी सरकार जल्द कामयाबी हासिल कर लेगी और कुछ बीमारियों पर कामयाबी हासिल कर चुकी है।
इस अवसर पर सरपरस्त अब्दुल खालिक, संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष साबिर हुसैन, मौ. रियाज, डॉ. आर. अंसारी, आजाद, अंजार, मौ. सज्जाद, शान बाबू, इरफान आलम, मो. सहराज यामीन, विनोद, अब्दुल रज्जाक आदि मौजूद थे।

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

तेलांगना पर ऐसी अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता था

अवधेश कुमार

तेलांगना भारत के 29 वें राज्य के रुप में स्वीकृत हो गया। हालांकि अभी इसके व्यावहारिक और राजनीतिक रुप से अस्तित्व में आने में समय लगेगा, लेकिन संसद के दोनों सदनों द्वारा इसे पारित किए जाने के बाद हमने दो दृश्य एक साथ देखे। तेलांगना क्षेत्र में जहां खुशियां मनाईं गईं वहीं सीमांध्र में बंद और मातम जैसा दृश्य था। वस्तुतः संसद से लेकर सड़क तक इस राज्य के गठन के पूर्व ही जैसा तनावपूर्ण दृश्य दिखा और जिस तरह की घटनाएं हुईं वे कई दृष्टियों से भयभीत करने वाले हैं। लोकसभा में तो राज्य विधेयक जिस तरह पारित किया गया वह निस्संदेह, आपत्तिजनक था। सारे दरवाजे बंद, बाहर से भीतर तक काले गणवेश में डरावने सुरक्षाकर्मियों की फौज...बहस की कोई संभावना नहीं, लाइव प्रसारण स्थगित......। पूरा वातावरण संसदीय लोकतंत्र की दृष्टि से असहज था। सरकार यह तर्क दे सकती है कि आखिर उसके पास चारा क्या था। जबसे सरकार ने पृथक तेलांगना राज्य निर्माण के पक्ष में हामी भरी संयुक्त आंध्र समर्थक सांसदों ने जैसा तीखा विरोध किया उसमें संसद की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ी है। 17 फरबरी को जब शिंदे विधेयक पेश करने वाले थे....मारपीट से लेकर मीर्च स्प्रे तक की घटना हो गई। संसद के बाहर विजय चौक से लेकर जंतर-मंतर पर इसके विरोध में धरना प्रदर्शन चल रहा था। अंदर और बाहर तनाव की स्थिति में अगर संसद के इस अंतिम सत्र में विधेयक पारित करना था तो फिर सरकार को कुछ अभूतपूर्व कड़े इंताजम करने ही थे। अगर पिछली बार की तरह सुरक्षा इंतजाम के अभाव में हिंसा हो जाती तो सरकार को हम कठघरे में खड़ा करते। राज्य सभा में भी सीमांध्र के सांसदों ने उसी तरह का दृश्य प्रस्तुत करने की कोशिश की। राज्य सभा महासचिव के साथ वैसे ही धक्कामुक्की की जैसी 17 फरबरी को लोकसभा के महासचिव की गई थी। वहां भी वैसे ही विरोध और हंगामा। पहले गृहमंत्री को विधयेक प्रस्तुत करने से रोकने की पूरी कोशिश और फिर प्रधानमंत्री तक के भाषण में कठिनाई पैदा की गई। किंतु प्रश्न है कि नौबत यहां तक आई क्यों? 

राज्य के विभाजन की मांग को मूर्त रुप देने के पहले दोनों पक्षों के बीच सहमति के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए था। तेलांगना जिस तरह लंबे समय से समूचे आंध्र में भावनाओं के उफान का मुद्दा बना हुआ है उसमें तो इसकी अपरिहार्यता थी। इस मामले में सरकार की भूमिका भी कमजोर रही और विपक्ष ने तो कुछ किया ही नहीं। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि कांग्रेस अपने प्रदेश सरकार तक को इसके लिए राजी नहीं कर पाई, उसके मुख्यमंत्री तक ने पद और पार्टी से इस्तीफा दे दिया। तेलांगना पहला राज्य होगा जिसका गठन प्रदेश की विधानसभा द्वारा विभाजन प्रस्ताव खारिज किए जाने के बावजूद हो रहा है। इसके पूर्व 2000 में जो तीन राज्य बने उनमें उत्तरप्रदेश विधानसभा ने उत्तराखंड का, मध्यप्रदेश ने छत्तीसगढ़ का एवं बिहार ने झारखंड का प्रस्ताव पारित किया। तेलांगना एवं सीमांध्र क्षेत्र के मंत्रियों, विधायकों एवं सांसदों के बीच उग्रता की इतनी बड़ी खाई पैदा हो गई कि आज ये एक दूसरे के जानी दुश्मन जैसे दिख रहे हैं। ऐसे तनाव की स्थिति में विभाजन के बाद वहां का दृश्य कैसा होगा? ऐसे तनाव की स्थिति में विभाजन के बाद वहां का दृश्य कैसा होगा? वाईएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष जगन मोहन रेड्डी इसे संसदीय इतिहास में काला दिन करार देते हुए कह रहे हैं कि पार्टी इस फैसले को कभी स्वीकार नहीं करेगी। उन्होंने प्रदेश में आंदोलन आरंभ कर दिया है। सीमांध्र के दूसरे नेताओं का तेवर भी यही है। तो होगा क्या? वास्तव में सीमांध्र के नेताओं ने विभाजन रोकने की हर संभव कोशिश की। आंदोलन से लेकर सभी पार्टियों के नेताओं से मुलाकात कर इसमें मदद मांगी और यहां तक कि इसके विरुद्ध उच्चतम न्यायालय तक गए, पर उनके सारे प्रयास व्यर्थ रहे। वे सब इसे आसानी से स्वीकार तो कर नहीं सकते।

सीमांध्र की चिंता और उत्तेजना अकारण नहीं है। तेलांगना के अलग होते ही आंध्र के चार महत्वपूर्ण बड़े शहर वर्तमान राजधानी हैदराबाद, वारंगल, निजामाबाद और नलगोंडा उसमें चला जाता है। हैदराबाद आंध्र का सबसे विकसित शहर है। यह अलग प्रदेश में चला जाए तटीय आंध्र एवं रायलसीमा के लोगों के लिए इसे गले नहीं उतार पाना कठिन है। वास्तव में तेलांगना के साथ केवल 41.6 प्रतिशत आबादी ही नहीं जाएगी, भारी कृत्रिम एवं प्राकृतिक संसाधन भी तेलांगना में चला जाएगा। पश्चिम से पूरब की ओर बहने वाली चार नदियां मुसी, मंजीरा, कृष्णा और गोदावरी के ज्यादा हिस्से पर इसका अधिकार होगा। कृष्णा नदी का तो 68 प्रतिशत पानी आंध्र प्रदेश से छिन जाएगा। 45 फीसदी जंगल तेलंगाना क्षेत्र में है। देश के पास मौजूद कोयले के कुल भंडार का 20 प्रतिशत हिस्सा तेलंगाना में है, यह लाइमस्टोन (चूने का पत्थर) से भी भरपूर इलाका है, जिसकी सीमेंट उद्योग में जरुरत पड़ती है, बॉक्साइट और माइका जैसे खनिज भी भरपूर मात्रा में यहां है। इनका छीन जाना यकीनन बहुत बड़ी क्षति है। हालांकि केन्द्र ने इनके लिए क्षतिपूर्ति राशि देने का ऐलान किया है, लेकिन इससे किसी को संतोष नहीं हो सकता। 

तेलांगना के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो कांग्रेस के लिए इसमें गहरे सबक निहित थे। अगर वह इस बात का विचार करती कि आजादी के पूर्व और बाद में उतने उग्र आंदोलन के बावजूद उसे अलग क्यों नहीं किया गया तो उसका निष्कर्ष कुछ और आता। प. नेहरु तो आरंभ में तेलूगुभाषियों के लिए मद्रास स्टेट से अलग राज्य के ही पक्ष में नहीं थे, लेकिन पोट्टी श्रीरामुलु की आमरण अनशन के दौरान 15-16 दिसंबर, 1952 की रात में हुई मौत के बाद जो हिंसा फैली उससे वे दबाव में आए और 1 नवंबर, 1953 को मद्रास स्टेट से अलग आंध्रप्रदेश राज्य का गठन कर दिया गया। किंतु राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा अलग तेलंगाना की सिफारिश के बावजूद इसे स्वीकार नहीं किया गया। आज जो कुछ हो रहा है उसका अंदेशा हमारे दूरदर्शी नेताओं का तब भी था। आंध्र का सामाजिक वातावरण अन्य राज्यों से काफी अलग है। इसके पूर्व बंटने वाले राज्यों में इतना उग्र दृश्य कभी नहीं देखा गया। महाराष्ट्र और गुजरात कभी एक थे, दो हुए , विरोध भी हुआ पर ऐसा नहीं। इसके कारणों की अगर आज ईमानदारी से पड़ताल की जाती तो सरकार का मत दूसरा होता। ऐसा लगता है कि तात्कालिक राजनीतिक कारणों ने भी इसमें प्रबल भूमिका निभाई है। संप्रग एक में तेलांगना राष्ट्रसमिति के सरकार में शामिल होने से इसकी शुरुआत हुई और कांग्रेस इतना आगे बढ़ गई कि वापस होने के रास्ते बंद हो चुके थे। तेलंगाना के अंदर कुल 17 लोकसभा स्थान आते हैं। भाजपा एवं कांग्रेस दोनों की नजरें उन स्थानों पर हैं। कांग्रेस के लिए सीमांध्रा की 25 लोकसभा स्थानों पर चुनौतियां काफी बढ़ गईं हैं। तेलंगाना का विरोध कर रही वाईएसआर कांग्रेस और तेलुगू देशम सीमांध्र के दोनों इलाकों-तटीय आंध्र और रायलसीमा में़ मजबूत हो रही है। भाजपा मानती है कि वाईएसआर कांग्रेस और तेदेपा के कांग्रेस विरोध के कारण लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता के समीकरण में उसे इन दलों का समर्थन मिल सकता है। इसलिए वह सरकार का विरोध करते हुए भी विभाजन के पक्ष में दिखती रही। 

तेलांगना क्षेत्र के लोगों की कई शिकायतें वाजिब हैं। उदाहरण के लिए तेलंगाना में कुल कृषि योग्य जमीन के केवल 15 प्रतिशत हिस्से में नहरों के पानी से सिंचाई होती है जबकि तटीय आंध्र में खेतों के 57.1 प्रतिशत हिस्से में। तेलंगाना के किसानों की शिकायत है कि उनके इलाके में नहरों का विकास उस तरह से नहीं किया गया जैसा होना चाहिए। तेलांगनावासी मानते हैं कि अलग राज्य बनने से इस तरह की समस्याओं का समाधान होगा और प्राकृतिक संसाधनों पर उनका हक होगा। लेकिन तेलांगना की शिकायतों का निदान विभाजन ही था इस पर एक राय कभी नहीं रही। विभाजन की मांग के पीछे वाजिब कारणों के साथ कई प्रकार के निहित स्वार्थी तत्वों की भूमिका भी रही है। देश भर में सक्रिय माओवादियों के ज्यादातर प्रमुख नेता तेलांगना क्षेत्र के ही हैं। असंतोष का लाभ उठाते हुए माओवादियों ने वहां काफी विस्तार किया है। आंध्र में सबसे ज्यादा माओवादी हिंसा तेलंगाना क्षेत्र में ही हुआ है। तेलंगाना आंदोलन में माओवादी विचारधारा से प्रभावित लोग शामिल हैं। इसलिए यह आशंका निराधार नहीं है कि विभाजन के बाद तेलांगना में वे काफी शक्तिशाली होंगे। यह वैसे ही हो सकता है जैसे छत्तीसगढ़ और झारखंड में। इसके अलावा हैदराबाद, करीमनगर आदि में जिस तरह जेहादी आतंकवादियों ने अपना पैर फैलाया हुआ है वह भी जगजाहिर है। एक छोटे राज्य के लिए इनका सामना करना कितना कठिन होगा इसकी कल्पना से भय पैदा होता है। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

आम आदमी पार्टी सरकार के वो 49 दिन

अवधेश कुमार

अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार के बारे में चर्चा के लिए सबसे अच्छा शीर्षक होगा वो 49 दिन। वस्तुतः 28 दिसंबर 2013 को रामलीला मैदान के शपथ से 14 फरबरी को विधानसभा में भाषण और फिर पार्टी मुख्यालय से इस्तीफा की घोषणा तक के 49 दिन ऐसे थे, जिन्हें राजनीति में कई कारणों से याद किया जाएगा। अगर थोड़े शब्दों में कहना हो तो यही कहा जाएगा कि वे जिस तरह हंगामें और हल्लाबोल शैली में आए उसी तरह की शैली में गए तथा जाने के बाद भी उसी शैली को बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के पूर्व वे कहते थे कि आयकर में आयुक्त पद पर थे करोड़ों कमा सकते थे, लेकिन उसे छोड़कर केवल देश के बचाने के लिए राजनीति में आए हैं। अब वे कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री बना रह सकता था, लेकिन हम राजनीति को बदलने के लिए व्यवस्था को बदलने के लिए मुख्यमंत्री पद कुरबान कर रहे हैं। क्या वाकई यह कुरबानी है? यानी सत्ता में आने को भी महान उद्देश्य एवं कं्राति की शुरुआत साबित करना और जाने को भी। अपने अंतिम भाषण मंे अरविन्द केजरीवाल ने ऐलान किया कि अब क्रांति संसद में होगी। तो क्या यह मान लिया जाए कि दिल्ली विधानसभा में उन्होंने जो किया वह कं्राति का पहला चरण था? 

आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल के हल्लाबोल महौल से जरा बाहर निकलकर निरपेक्ष तरीके से विचार करिए और कुछ प्रश्नों का उत्तर तलाशिए। क्या किसी ने मुख्यमंत्री या सरकार से इस्तीफा मांगा था? क्या समर्थन देने वाली कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस लिया था? क्या विपक्षी भाजपा ने ऐसी स्थिति पैदा की थी जिससे सरकार का काम करना मुश्किल हो जाए? या फिर सरकार के खिलाफ कोई बड़ा आंदांेलन जनता का खड़ा हो गया था जिससे मजबूर होकर उसे जाना पड़ा? इन सारे प्रश्नों का उत्तर है, नहीं। कांग्रेस का समर्थन रणनीतिक था, किंतु उसने कभी शासन में बाधा नहीं डाली। यहां तक कि राष्ट्रमंडल खेलों की जांच के आदेश, 1984 दंगों की जांच के विशेष जांच दल के गठन की अनुशंसा, केन्द्रीय मंत्री के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराने ...के बावजूद कांग्रेस ने केवल आलोचना की, लेकिन समर्थन वापसी की चेतावनी तक नहीं दी। जिस मोहल्ला सभा यानी स्वराज विधेयक एवं जन लोकपाल की केजरीवाल बात कर रहे थे उसका भी सीधे कोई विरोध नहीं था। केवल निर्धारित विधि के अनुसार प्रक्रियागत प्रश्न उठाए गए थे। मोहल्ला सभा का तो विरोध भी नहीं था। जन लोकपाल विधेयक के वित्तीय पहलू हैं एवं इसमंे दूसरों को सजा देने के भी प्रावधान थे, इस नाते आप विधायकों को छोड़कर शेष सभी विधायकों का, उप राज्यपाल का मत था कि इसे सीधे विधानसभा पटल पेश नहीं किया जा सकता। इस विषय पर इतनी बहस हो चुकी है कि ज्यादा कहने की आवश्यकता नहीं। लेकिन दिल्ली विधानसभा कार्यवाही प्रक्रिया को समझने वाले यह स्वीकार करेंगे कि उसे पहले उप राज्यपाल के पास भेजा जाना चाहिए था। 

यह संभव नहीं कि केजरीवाल एवं उनके साथियों को इसका ज्ञान नहीं था। पर उनका इरादा कुछ और था। दरअसल, यह कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना वाली कुटिल रणनीति थी। केजरीवाल एवं उनके साथियों की महत्वाकांक्षा दिल्ली तक सीमित नहीं था, वे तो देश की शासन चलाने का सपना पाल रहे हैं। दिल्ली को तो वे केवल देश जीतने की युद्धभूमि के रुप में इस्तेमाल करना चाहते थे। इसकी उपयोगिता उनके लिए थी, क्योंकि यहां कोई भी कदम सुनियोजित तरीके से उठाने पर मीडिया के द्वारा सीधे देशव्यापी  प्रचार मिलता था। यदि यही कार्य वे दूसरे राज्य में करते तो उसे ऐसा प्रचार नहीं मिलता। आम आदमी पार्टी की इवेंट प्रबंधन कुशलता, प्रचार तंत्र के इस्तेमाल तथा उसके अनुरुप भूमिका निभाने की कला पर कोई प्रश्न नहीं उठ सकता। छोटे से छोटे कदम को महाक्रांति बताकर प्रचारित करना तथा दूसरे दलांे का उपहास उड़ाने में उन्हें महारथ हासिल है और इस समय दूसरे दलों के नेता उनसे इस मामले में मुकाबला करने में सफल नहीं हैं।   

इस प्रकार कह सकते हैं कि केजरीवाल एवं उनके रणनीतिकारों ने सुनियोजित तरीके से सब कुछ किया। विधानसभा का सत्र उनने स्वयं आयोजित किया। उसमें सबसे पहले अपने समर्थकों के बिजली शुल्क माफ करने के लिए सब्सिडी की मांग पारित कराई, फिर अपना भाषण दिया जिसमें संकेत दे दिया कि यह अंतिम सत्र है। आम आदमी पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति में ही यह तय हुआ होगा कि यही दो मामले पर जिसे पहले पूरा प्रचार दिया जाए, भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता के लिए जनलोकपाल को प्राथमिकता घोषित करते हुए ऐसी स्थिति अपनाएं जिसमें कांग्रेस, भाजपा, राज्यपाल सब एक पाले में नजर आएं और उसे आधार बनाकर इस्तीफा देते हुए स्वयं को शहीद बनाने की कोशिश की जाए। यही उन्होंने किया है। इसके पहले गैस मूल्य मामले पर मुकेश अंबानी, वीरप्पा मोईली, मुरली देवड़ा आदि पर प्राथमिकी दर्ज करना और कुछ नहीं केवल भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी प्रतिबद्धता जताना था, क्योंकि मामला पहले से उच्चतम न्यायालय में है। तो पहले मामले को गरमाया गया, युद्ध जैसी स्थिति बनाई गई, राज्यपाल, केन्द्र सरकार, कांग्रेस, भाजपा, दिल्ली पुलिस सबसे सीधा टकराव.......इन सबको मीडिया कवरेज मिलना ही था। भारत के किसी भी राज्य की सरकार को इतना प्रचार नहीं मिला, जितने इन 49 दिनों में अरविन्द केजरीवाल एवं उनकी सरकार को मिला। मुख्यमंत्री केजरीवाल कह रहे थे कि इस मुद्दे पर अगर हमारी सरकार जाती है तो फिर हम दिल्ली मेें 50 स्थानों पर विजीत होकर लौटेंगे। लेकिन उन्होंने अपने भाषण में ही यह साफ भी कर दिया कि उनका लक्ष्य संसद में जाना है। इसके लिए वे काम करने जा रहे हैं। 

जरा भाषण के कुछ पहलुओं पर गहराई से विचार करिए। विपक्ष एवं कांग्रेस दोनों उन्हें गैर अनुभवी, संविधान व निहित प्रक्रियाओं को न मानने वाला कहते थे। उसका जवाब उन्हांेने दिया कि हम नए थे, पर संसद में मिर्च स्प्रे तथा यहंा विधानसभा में माईक तोड़ने, कागज फाड़ने तथा मंत्री के मेज पर चूड़ियां रखना संसदीय व्यवस्था में कहां की मर्यादा है। यह तो संविधान में नहीं लिखा। आप विधानसभा और संसद को मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा कहते हो तो कोई मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा में हल्ला करने नहंी जाता वहां धर्म पुस्तकें नहीं फाड़ता। दरअसल, वे देश में यह संदेश दे रहे थे कि हमको उपदेश देने वाले लोकतंत्र के मंदिर को स्वयं अपवित्र करते हैं, ये स्वयं लोकतंत्र विरोधी है। प्रश्न है कि क्या दिल्ली एवं देश की जनता वाकई अरविन्द केजरीवाल एवं आम आदमी पार्टी की बातों को उसी तरह लेगी जैसी वे कल्पना कर रहे हैं? क्या उनका दोहरा रवैया जनता के सामने नहीं आएगा? क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि यह पार्टी काम से ज्यादा अपने प्रचार, विपक्षियों, विरोधियों के प्रति हिकारत की अमर्यादा दिखाने में अपना ज्यादा समय गंवाती है? 

विधानसभा में जब केजरवील विपक्ष को आरोपित कर रहे थे तो कुछ सदस्यों ने यह प्रश्न उठाया कि आपके लोग जब हम पर चिल्लाते हैं, फब्तियां कसते हैं, आप उप राज्यपाल को कांग्रेस का एजेंट कहते हैं, हमें भ्रष्ट कहते हैं तब ये उपदेश याद नहीं रहते। दिल्ली में उनको वोट देने वाले बड़ी संख्या में वे लोग थे जिनके लिए जन लोकपाल मायने नहीं रखता था। उनके लिए बिजली शुल्क में कमी, महंगाई कम होना, पानी की उपलब्धता, शिक्षालयों में बच्चांे के नामांकन आसान होना, अध्ययन बेहतर, अस्पतालों में आसानी से बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मिलना, सरकारी काम आसानी से हो जाना, ... आदि सर्वोपरि थे। इसके अलावा केजरीवाल ने ठेके पर काम करने वाले तथा अस्थायी कर्मचारियों का मुद्दा जोर शोर से उठाया...उनके साथ न्याय का वायदा किया था। लोग ये अवश्य सोचेंगे कि आखिर केजरीवाल की प्राथमिकता में ये काम थे ये नहीं? ऐसा नहीं है कि उनने कोई काम नहीं किए। बिजली कंपनियों का कैग से अंकेक्षण कराना एक बड़ा निर्णय था। 670 लीटर मुफ्त पानी का आदेश भी ठीक था। किंतु इससे एक लीटर आगे बढ़ने पर पूरा शुल्क अखड़ने वाला था। बिजली बिल घटाने का निर्णय अधूरा ही रहा और इसके बाद उनने कोई काम पूरा नहीं किया। जो कुछ उनने किया वे सारे एनजीओ के एजेंडे थे। आप सरकार ने जैसी जिद़ पकड़ी थी, जैसी हठधर्मिता अपनाई उससे कोई सार्थक परिवर्तन नहीं हो सकता है। संसदीय प्रणाली में यह संभव नहीं कि सरकार जो विधेयक लाए उसे उसी अनुसार स्वीकार कर लिया जाए। उसमें संशोधन आते हैं, उनमें कई स्वीकार होते हैं, कई अस्वीकार, कई बार वे संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए जाती है जिसमें सभी दलों के सदस्य होते हैं। आप को यह स्वीकार ही नहीं था कि उनके विधेयक की विहित प्रक्रिया के तहत मंजूरी मिले या उसमंे कोई संशोधन हो। यह फासीवादी सोच व आचरण है जिसकी संसदीय व्यवस्था मंे कोई स्थान नहीं। लेकिन उनने सब कुछ जब पहले से तय कर रखा था तो फिर उसी रास्ते पर उन्हें आगे बढ़ना था। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

आप सरकार गिराने की साजिश का आरोप

अवधेश कुमार

आम आदमी पार्टी का आरोप है कि भाजपा उसकी सरकार को गिराने की साजिश कर रही है। पार्टी ने तो पत्रकार वार्ता में बाजाब्ता नरेन्द्र मोदी, अरुण जेटली एवं डॉ. हर्षवर्धन का नाम तक ले लिया। उसके बाद जिस तरह अरुण जेटली के घर आक्रामक प्रदर्शन हुआ उससे साफ लगता है कि आप एक रणनीति के तहत काम कर रही है। पार्टी प्रवक्ता आशुतोष ने तो यहां तक कहा कि अरुण जेटली के मीडिया में बैठे लोग सरकार को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं। आशुतोष एक पत्रकार हैं और यह मानना चाहिए कि वे जो आरोप लगा रहे हैं वे तार्किक भी हांेगे और उसके कुछ साक्ष्य भी उनके पास होंगे। हां यह तो जरुरी नहीं है कि वे साक्ष्य ठोस रुप में प्रदर्शित करने योग्य भी हों। लेकिन दोनों नेता संजय सिंह और आशुतोष ने पत्रकारों से कहा कि वे किसी का प्रमाण नहीं दे सकते। संयोग देखिए, कांग्रेस के नेता शकील अहमद ने ट्वीट किया है कि क्या आम आदमी पार्टी के विधायक खरीदे जा रहे हैं? बीजेपी पैसे देकर इ्स्तीफे करा रही है? शकील अहमद के इस ट्वीट एवं आम आदमी पार्टी के आरोपों के बीच समानता को देखते हुए हमारा आपका क्या निष्कर्ष हो सकता है?

आम आदमी पार्टी ने अपना पक्ष मजबूत करने के लिए कस्तूरबा नगर से विधायक मदनलाल को सामने लाया है जिनका आरोप है कि सात दिसंबर को रात में उन्हें एक आईएसडी कॉल आई। बड़ी विचित्र स्थिति है। चुनाव परिणाम आए 8 दिसंबर को और फोन आ गया 7 दिसंबर को! ऐसे अंतर्यामी अगर भाजपा में हैं तो फिर वे राजनीति में अपना वर्चस्व आसानी से स्थापित कर सकते हैं। मदनलाल के अनुसार उसके बाद फिर तीन बार उनसे संपर्क करने की कोशिश की गई। खुद को नरेंद्र मोदी का करीबी बताने वाले उस शख्स ने भाजपा नेता अरुण जेटली से बात करवाने के लिए कहा। बकौल, मदनलाल उन्हें आम आदमी पार्टी के नौ विधायक तोड़ने के लिए कहा गया और इसकी एवज में उन्हें मुख्यमंत्री पद और बीस करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव भी दिया गया। मुख्य प्रश्न तो यही उठता है कि क्या भाजपा वाकई आम आदमी पार्टी की सरकार गिराने की साजिश रच सकती है? ऐन लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा को इससे राजनीतिक लाभ क्या हो सकता है? आम आदमी पार्टी अपने को शहीद बताकर जनता के बीच जाएगी, भाजपा को खलनायक साबित करेगी और भाजपा के लिए जवाब देना मुश्किल होगा। यानी कुल मिलाकर इसका लाभ आम आदमी पार्टी को ही मिलेगा। तो भाजपा अपने पैरों कुल्हाड़ी क्यों मारेगी? स्वयं नरेन्द्र मोदी के लिए पूरे चुनाव में इसका जवाब देना कठिन हो जाएगा। हम राजनीति में किसी पार्टी को प्रमाण पत्र नहीं दे सकते, पर राजनीतिक व्यावहारिकता का तकाजा भी इस आरोप की पुष्टि नहीं करता। इसी प्रकार किसी नेता को भी ईमानदारी का प्रमाण पत्र नहीं दिया जा सकता, पर अरुण जेटली का कभी साजिश रचने का रिकॉर्ड नहीं रहा है। दिल्ली विधानसभा में भाजपा के नेता डॉ. हर्षवर्धन का चरित्र भी अभी तक निष्कलंक है।

अगर आप पीछे लौटें तो सरकार बनने के पूर्व भी आप के नेताओं ने आरोप लगाया था कि उनके विधायकों को भाजपा तोड़ने की कोशिश कर रही है, उन्हें पद और पैसे के ऑफर दिए जा रहे हैं। यह बात अलग है कि उस समय न किसी का नाम लिया गया और न किसी विधायक को आरोप के साथ सामने लाया गया। प्रश्न है कि जिस नंबर से मदनपाल को कॉल आए उसे आप सामने क्यों नहीं लाती? मदनपाल ऐसी पार्टी के विधायक हैं जो तकनीकों के प्रयोग में आज की पार्टियों में सबसे ऊपर है। तो उन आवाजों को टेप क्यों नहीं किया? नेताओं की सलाह पर उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों का आराम से स्टिंग किया जा सकता है? जाहिर है, जो आरोप लगाए जा रहे हैं उन पर एकाएक विश्वास करना कठिन है। इसके पूर्व पहले स्वयं अरविन्द केजरीवाल ने जिन नेताओं को भ्रष्ट बताया और बाद मंें उसमें और नाम जोड़कर पार्टी ने जो सूची जारी की उसके पीछे भी उनने कोई प्रमाण नहीं दिया। उनमे कुछ नाम तो हैं जिन पर न्यायालय मंे मामला है, पर अन्यों के साथ ऐसा नहीं है। आप की यही शैली है। आरोप लगाओ, उसे जोर-जोर से प्रचारित करो और सामने वाले को अपनी रक्षा करने के लिए मजबूर करो। इससे तात्कालिक लोकप्रियता भी मिलती है, पर विवेकशील लोगों के अंदर इससे वितृष्णा पैदा होती है। 

फिर घटनाए क्या बतातीं हैं? भाजपा और अकाली दल को मिलाकर 32 विधायक हैं। सरकार बनाने के लिए उन्हें चारः विधायक चाहिए थे। पर्दे के पीछे अगर कुछ हुआ तो इसके बारे में वही बता सकता है जो होने से जुड़ा था। हो सकता है कि भाजपा के कुछ स्थानीय नेताओं ने आप विधायकों से संपर्क भी किया हो, लेकिन कम से कम पार्टी की ओर से सुनियोजित संगठित कोशिश का कोई संकेत नहीं मिला था। याद करिए जब विनोद कुमार बिन्नी ने विद्रोह किया तो भी आप के नेता योगेन्द्र यादव ने कहा कि वह वक्तव्य ऐसा था मानो डॉ. हर्षवर्धन पढ़ रहे हों। इस प्रकार भाजपा पर उनके विधायकों को तोड़ने की कोशिशों का आरोप आप की ओर से लगातार लगाया जाता रहा है। वैसे वर्तमान राजनीति में नैतिकता का तत्व जिस तरह निःशेष हुआ है और स्वयं आप भी आज उसी दौर में पहुंच चुकी है उसमें कुछ भी हो सकता है, पर मंत्रिमंडल गठन के समय ही बिन्नी का विद्रोह, फिर उनको मनाना, फिर विद्रोह ....के पीछे किसी पार्टी या नेता की जगह आप का आंतरिक द्वंद्व ही मुख्य कारण नजर आता था। विनोद बिन्नी, सरकार को समर्थन दे रहे विधायक शोएब इकबाल और निर्दलीय विधायक रामबीर शौकीन और अकाली दल के विधायक मनजिंदर सिंह सिरसा के बीच दिल्ली के इंपीरियल होटल में जिस मुलाकात की खबरें आईं उनके पीछे कौन थे? मनजिंदर सिंह ने यह स्वीकार किया कि बैठक में इस मुद्दे पर चर्चा हुई कि केजरीवाल सरकार पर कैसे दबाव बनाया जाए। साथ ही उन्होंने कहा कि बैठक में केवल वह ही नहीं बल्कि कई अन्य विधायक भी मौजूद थे। ये अन्य विधायक भी आप के ही थे।  शोएब इकबाल और रामबीर शौकीन यदि सरकार के खिलाफ बयान दे रहे थे तो वह भी मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल एवं उनके सहयोगियों द्वारा अपना साथ दे रहे विधायकों को संभाल पाने की अक्षमता की ही परिणति थी। शोएब तो बार-बार कह रहे थे कि वे किसी कीमत पर भाजपा की सरकार नहीं बनने देंगे। 

वस्तुतः आप के नेता जो भी आरोप लगाएं, उनकी सरकार के अंदर समस्या के कारण वे स्वयं हैं। उनका आंतरिक प्रबंधन कमजोर है जिसे वे अपने प्रचार प्रबंधन से ढंकने की जुग्गत करते रहते हैं। हालांकि उनने कई काम अच्छे किए हैं, मसलन, दिल्ली में खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का निषेध कर दिया, कैग द्वारा बिजली कंपनियों का अंकेक्षण आरंभ करा दिया.......लेकिन उनका मुख्य जोर छोटे से छोटे कदमों को अति प्रचार द्वारा क्रांतिकारी परिवर्तन साबित करने और स्वयं को पूरी राजनीति में महा नैतिक, महा पवित्र और महा परिवर्तनकारी साबित करने पर रहता है। दरअसल, इसी प्रचार प्रबंधन कला ने उन्हें लाभ पहुंचाया है। दिल्ली में होने के कारण उनको मीडिया का व्यापक कवरेज प्राप्त हो जाता है। अगर ये किसी दूरस्थ राज्य में होते तो कभी इस तरह राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां इन्हें प्राप्त नहीं होतीं। इतना प्रचार मिलने के बावजूद आशुतोष कहते हैं कि मीडिया संस्थानों में बैठे मोदी के कुछ लोग आप को निशाना बना रहे हैं। मीडिया मेें अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा के लोग हैं और वे अपने विचारों के अनुसार ही मत व्यक्त करेंगे। आशुतोष एक पत्रकार हैं और वे स्वयं ऐसा करते रहे हैं। तो फिर दूसरे ऐसा क्यंों नहीं करेंगे? यदि मीडिया के अंदर कोई मोदी समर्थक है तो वह आप का विरोध करेगा। वे यह क्यों सोचते हैं कि सभी आप का समर्थन ही करेंगे। आप वाले अपनी पार्टी एवं सरकार को ईमानदार व नैतिक मानते होंगे, लेकिन हमारा हक है कि हम उसे वैसा न माने। आप अपनी बात कहे और दूसरों को अपनी बात कहने दे। पता नहीं ये यह क्यों भूल रहे हैं कि हम भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा.... आदि पार्टियों की कितनी तीखी आलोचना करते रहते हैं और वे झेलते भी हैं...कई बार झल्लाकर कुछ नेता मीडिया की भी आलोचना करते रहते हैं, पर इस ढंग से तो कोई पेश नहीं आता। लोकतंत्र सहमति-असहमति के संतुलन से चलता है। सहमति-असहमति सामान्य, असामान्य, सतही-गहरी कुछ भी हो सकती है। इसे इसी रुप में लेना चाहिए। किंतु आम आदमी पार्टी पता नहीं क्यों अपनी आलोचना के साथ सामान्य नहीं रह पाती और प्रतिक्रिया में आरोप लगाने के साथ तीखी निंदा करने लगती है। बिना किसी सबूत के किसी नेता के घर इस प्रकार उग्र प्रदर्शन एवं हाय हाय का नारा आम आदमी पार्टी को शायद तात्कालिक रुप से संगठित बनाए रखे, लेकिन दूरगामी दृष्टि से उसके लिए भी घातक ही साबित होगा। 

अवधेश कुमार, ई.30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

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