रविवार, 31 जुलाई 2022

ईश्वर के पहरेदार बने बैठे ये 'स्वयंभू धर्म दूत'


तनवीर जाफ़री
इज़राइल के चैनल 13 के एक यहूदी टीवी पत्रकार गिल तामरी ने पिछले दिनों सऊदी अरब के पवित्र शहर मक्का में प्रवेश कर वहाँ का एक वीडियो बनाया और उस वीडियो को सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया। उसके बाद सऊदी अरब प्रशासन में खलबली मच गयी। सऊदी पुलिस ने इस मामले में पूरी तत्परता दिखाते हुये सऊदी अरब के ही निवासी एक व्यक्ति को गिरफ़्तार कर लिया गया है। आरोप है कि  इसी  व्यक्ति ने चैनल 13 के इसराइली टीवी पत्रकार गिल तामरी को मक्का में प्रवेश कराने में सहायता की थी। हालांकि अपनी मक्का यात्रा के बाद पत्रकार तामरी ने यह कहते हुये माफ़ी मांगी है कि वे -'धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने के लिए मक्का और इस्लाम की सुंदरता दुनिया को दिखाना चाहते थे ' । 
वीडियो में तामरी को स्वयं ये बोलते भी सुना जा सकता है कि  ''सऊदी क़ानून के अनुसार ग़ैर-मुसलमानों का यहाँ आना वर्जित है। मेरे लिए भी यहां पहुंचना असंभव था।  परन्तु मुझे यहां एक बहुत अच्छे व्यक्ति (गाईड ) मिले जिन्होंने अपनी जान ख़तरे में डालकर मुझे यहां ले जाने का फ़ैसला किया ''। इस पूरे प्रकरण में मक्का पुलिस का कहना है कि 'मक्का में प्रवेश करने वाले इसराइली पत्रकार पर आगे क़ानूनी कार्रवाई की जा रही है। मक्का पुलिस प्रवक्ता ने एक बार फिर पुरज़ोर तरीक़े से यह कहा है कि सऊदी अरब आने वाले लोग यहाँ के नियम-क़ानूनों का पालन करें, ख़ासतौर पर दो पवित्र मस्जिदों और अन्य पवित्र जगहों के मामले में।अन्यथा क़ानूनों का उल्लंघन करने वालों को सऊदी क़ानून के अनुसार सज़ा दी जाएगी। ग़ौर तलब कि मक्का शहर के चारों ओर नगर की एक सीमा निर्धारित की गयी है और इन सीमाओं के प्रवेश द्वार पर बड़े अक्षरों से बोर्ड पर लिखा गया है कि -'ग़ैर मुस्लिमों का मक्का की सीमाओं में प्रवेश वर्जित,केवल मुस्लिम मक्का में दाख़िल हो सकते हैं।'

इस घटना के बाद एक बार फिर वही बहुचर्चित सवाल विश्व स्तर पर पूछा जाने लगा है कि आख़िर हज की रस्म अदा करने के लिये सऊदी अरब के पवित्र मक्का शहर में ग़ैर मुस्लिमों का प्रवेश क्यों वर्जित है। हज के तौर तरीक़ों और हज अदायगी को क़रीब से देखने की उत्सुकता रखने वाले दुनिया के तमाम लोग सऊदी सरकार के इस फ़ैसले से व्यथित हैं। केवल ग़ैर मुस्लिम ही नहीं बल्कि दुनिया के मुसलमानों का भी एक बड़ा वर्ग जो हमेशा से सऊदी सरकार के इस 'ग़ैर मुस्लिम का मक्का प्रवेश निषेध ' नीति का विरोधी रहा है वह भी पुनः मुखरित हो उठा है। ग़ौर तलब है कि हज स्थल मक्का (काबा शरीफ़ ) चूँकि सऊदी अरब में इत्तेफ़ाक़न इसलिये स्थित है क्योंकि इस्लाम धर्म की शुरुआत अरब से ही हुई और यही इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब की जन्म व कर्मस्थली भी रही है। परन्तु चूँकि इस्लाम विश्वस्तर पर फैल चुका है और पूरी दुनिया के लोग हज या उमरा करने मक्का आते जाते रहते हैं इसलिये दुनिया का मुसलमान इन पवित्र धार्मिक स्थलों पर अपना भी समान अधिकार समझता है। कई बार मुस्लिम जगत में यह चर्चा भी हो चुकी कि सऊदी अरब में हज उमरा आदि धार्मिक गतिविधियों के नियम क़ायदे यहाँ तक कि अलग अलग देशों का वीज़ा कोटा निर्धारण करने के लिये इस्लामी देशों की विश्वस्तरीय संयुक्त कमेटी बनायी जाये।परन्तु ठीक इसके विपरीत सऊदी सरकार इन स्थानों पर अपना आधिपत्य समझती है। और इस पवित्र क्षेत्र में अपनी ही सोच विचार के अनुसार नियम क़ानून निर्धारित व लागू  करती है। ग़ैर मुस्लिमों के मक्का प्रवेश निषेध  मामले पर वह यही कहकर पल्ला झाड़ती कि अन्य देशों की तरह किसी भी क्षेत्र या किसी भी व्यक्ति को वीज़ा देना या न देना उसका अपना अधिकार है इसके लिये कोई चुनौती नहीं दी जा सकती।

परन्तु मक्का के अतिरिक्त भी अनेक इस्लामी धर्मस्थल ऐसे हैं जहां पूरे वर्ष और चौबीस घंटे मक्का और मदीना से भी ज़्यादा दर्शनार्थियों व पर्यटकों की भीड़ रहती है। उदाहरण के तौर पर करबला,नजफ़ सीरिया और इराक़ के अनेक रौज़े हर समय दर्शानार्थियों से भरे रहते हैं। भारत और पाकिस्तान की अनेकानेक विश्व स्तरीय मस्जिदें व दरगाहें हर समय आम लोगों के दर्शन व भ्रमण के लिये  खुली रहती हैं। ऐसी जगहों पर सरकार या धर्मस्थान का प्रबंधन न किसी से किसी का धर्म पूछता है न जाति न नागरिकता। ऐसे में विश्व के सबसे महत्वपूर्ण इस्लामी धर्मस्थल मक्का पर सऊदी सरकार द्वारा थोपा गया 'प्रवेश प्रतिबंध क़ानून ' न केवल समानता जैसे इस्लामी सिद्धांतों को चुनौती देता है बल्कि इस्लाम विरोधी भावना रखने वालों को तरह तरह के निराधार तर्क गढ़ने के भी अवसर देता है।
सऊदी सरकार के इस फ़ैसले में शिया व बरेलवी समुदाय को लेकर भी काफ़ी विरोधाभास है। क्योंकि इन दोनों ही समुदाय के लोग बड़ी संख्या में हज व  उमरा करने के लिये जाते रहते हैं। और सऊदी सरकार इनको वीज़ा भी देती है। परन्तु अहमदिया मुसलमान अन्य ग़ैर मुस्लिमों की तरह हज करने नहीं जा सकते। इन्हें सऊदी सरकार ग़ैर मुस्लिम की श्रेणी में रखती है। अरब,भारत,बंगलादेश, अफ़ग़ानिस्तान व पाकिस्तान के अनेक सुन्नी वहाबी मुसलमान समय समय पर शिया व बरेलवी समुदाय के विरुद्ध फ़तवे जारी कर इन्हें भी ग़ैर मुस्लिम और मुशरिक (बहुदेववादी ) बताते रहे हैं। क्योंकि यह लोग ताज़ियादारी करते हैं,पीरों फ़क़ीरों की मज़ारों पर दुआएं मांगते हैं,या अली मदद बोलते हैं,और इन सब के सामने हाथ उठाकर दुआएं मांगते हैं। इसलिये वहाबी मतावलंबी इन समुदाय के लोगों को कभी काफ़िर तो कभी मुशरिक की उपाधियों से नवाज़ते रहते हैं। सवाल यह है कि जब सऊदी अरब में भी वहाबी विचारधारा की हुकूमत है तो वह शिया व बरेलवी मुसलमानों पर भी मक्का में प्रवेश वर्जित करने का साहस क्यों नहीं करती ?और अहमदिया मुसलमानों पर क्यों प्रवेश निषेध किया हुआ है ? क्या यह वहाबियों को तय करना है कि एक अल्लाह का कलमा पढ़ने के बावजूद उनकी नज़रों में कौन सा मुस्लिम समुदाय मुसलमान है और कौन मुशरिक या काफ़िर?    
                              
किसी भी धर्म के किसी भी धर्मस्थान में धर्म या जाति के आधार पर किसी भी श्रद्धालु को जाने से मना करने का अधिकार मेरे विचार से किसी भी व्यक्ति,सरकार अथवा शासक को नहीं होना चाहिये। जिस तरह चर्च,गुरद्वारे,इमाम बरगाहें,दरगाहें और विश्व की सुप्रसिद्ध मस्जिदें सभी के लिये खुली हैं उसी तरह मक्का,हज स्थल आदि भी पूर्णतयः प्रतिबंध मुक्त होने चाहिये। भारत में भी अनेक मंदिरों  में महिलाओं,दलितों व मुसलमानों का जाना प्रतिबंधित है। यह प्रतिबंध भी समाप्त होने चाहिये। ऐसे प्रतिबंधों से तो संकीर्णता का ही सन्देश जाता है और यह भी कि गोया -'ईश्वर के पहरेदार बने बैठे ये 'स्वयंभू धर्म दूत'।

गुरुवार, 28 जुलाई 2022

रुबिया सईद अपहरण मामले की कानूनी परिणति बदले समय का प्रमाण

अवधेश कुमार

समय का चक्र घूमते हुए एक समय न्याय की परिधि तक अवश्य पहुंचता है। क्या किसी ने कल्पना की थी कि 32 वर्ष पहले कश्मीर में स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद की छोटी बेटी रुबिया सईद अपहरण का मामला फिर से खुलेगा और न्यायिक प्रक्रिया मुकाम पर पहुंचने की ओर अग्रसर होगी? पिछले 16 जुलाई को जम्मू के टाडा न्यायालय में रुबिया सईद ने यासीन मलिक समेत चारों आरोपियों की पहचान की। जम्मू-कश्मीर ही नहीं पूरा देश मान चुका था कि रुबिया अपहरण का मामला आया गया हो चुका है। लेकिन जैसी स्थिति पैदा हो चुकी है उसमें यासीन मलिक सहित शेष  आरोपियों को सजा मिलना निश्चित है। यासीन मलिक आतंक के वित्तपोषण मामले में राजधानी दिल्ली की तिहाड़ जेल में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहा है। यह दूसरा मामला होगा जिसमें यासीन को सजा मिलने की संभावना है। जिस दिन नरेंद्र मोदी सरकार ने अलगाववादी नेताओं तथा पूर्व आतंकवादियों से नेता बने लोगों के विरुद्ध गैरकानूनी गतिविधियां निवारक कानून के तहत मामला दर्ज किया उसी दिन साफ हो गया था कि कश्मीर में 90 के दशक में हुए भयावह अन्याय के न्यायिक प्रतिकार का रास्ता बन चुका है। आतंकवाद के वित्तपोषण मामले में लोगों की गिरफ्तारियां हुई और सजा मिलनी शुरू हो चुकी है। जो भी गिरफ्तार हुए जाहिर है उनसे संबंधित सारे मामले खंगाल कर नए सिरे से उन पर कानूनी प्रक्रिया भी आरंभ हुई। इसी के तहत यासीन मलिक से जुड़े मामले भी पुलिस और एनआईए ने खोल दिया।

इस मामले में यासीन मलिक के साथ उन्हीं के संगठन जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट यानी जेकेएलएफ के कमांडर मेहराजुद्दीन शेख, मोहम्मद उस्मान मीर और मंजूर अहमद सोफी भी सुनवाई के दौरान न्यायालय में मौजूद रहे। यासीन मलिक ने दिल्ली में होने के कारण वर्चुअली  न्यायिक प्रक्रिया में भाग लिया किंतु उसने खुद जम्मू के न्यायालय में पेश होकर जिरस करने का आग्रह किया। न्यायालय ने यासीन के विरुद्ध प्रोडक्शन वारंट जारी कर दिया है। न्यायिक प्रक्रिया पर हम नजर रखेंगे। रुबिया सईद अपहरण तब सर्वाधिक चर्चित मामला था। केंद्रीय गृह मंत्री की बेटी के अपहरण की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार में  गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद पर ही कई हलकों में आरोप लगा था कि उन्होंने जेल में बंद आतंकवादियों को छुड़ाने के लिए अपनी बेटी के अपहरण का नाटक रचवाया था। श्रीनगर के सदर पुलिस थाने में 8 दिसंबर, 1989 को रुबिया सईद अपहरण का मामला दर्ज हुआ था। इसके अनुसार रुबिया ट्रांजिट बैन में श्रीनगर के ललदेद अस्पताल से नौगांव अपने घर जा रही थी। तब वह एमबीबीएस के बाद अस्पताल में इंटर्नशिप कर रही थी। जब वह चांदपुरा चौक के पास पहुंची तो उसी में सवार तीन लोगों ने बंदूक के दम पर वैन रोका और रुबिया का अपहरण कर लिया। बाद में उन्होंने अपने साथियों को जेल से छोड़ने की मांग की। ये कुख्यात आतंकवादी थे। अपहरण के मामले में थाने में यासीन मलिक, मेहराजुद्दीन शेख ,मोहम्मद जमाल, अमीर मंजूर अहमद सोफी के अलावा अली मोहम्मद अमीर, इकबाल अहमद, जावेद अहमद मीर, मोहम्मद रफी, वजाहत बशीर और शौकत अहमद बख्शी के नाम शामिल है।

गृह मंत्री की कुर्सी पर बैठे बड़े नेता की बेटी का अपहरण भारत के इतिहास की असाधारण घटना थी। पूरा देश सकते में था। अंततः सरकार ने 13 दिसंबर को पांच आतंकवादियों को रिहा किया, जिसके बाद रुबिया को छोड़ा गया। छोड़े गए आतंकवादियों में शेर खान पाक अधिकृत कश्मीर का रहने वाला था जिसे बाद में सुरक्षा बलों ने मार गिराया। दूसरा भी सुरक्षा बलों के साथ श्रीनगर में मारा गया। जावेद जरगर और नूर मोहम्मद याहिन जेल में हैं। हां, अल्ताफ अहमद तत्काल बेंगलुरु में एक रेस्त्रां चला रहा है। यह सामान्य स्थिति नहीं थी कि इतने बड़े अपहरण के आरोपी खुलेआम घूमते ही नहीं रहे, जम्मू-कश्मीर में सम्मान पूर्वक जीवन जिया। यासीन मलिक हीरो की तरह रहते थे। जिस तरह की कार्रवाई मोदी सरकार आने के बाद हुई वह पहले भी हो सकती थी।

समस्या केवल जम्मू कश्मीर के संदर्भ में सही राजनीतिक सोच तथा इच्छाशक्ति की थी। सही सोच और इच्छाशक्ति के अभाव के कारण ही प्रदेश की स्थिति बिगड़ी, आतंकवादी निर्भय हुए और बड़े समूह के अंदर हीरो माने जाने लगे। अलगाववादियों को सम्मानजनक स्थान भी केंद्रीय राजनीतिक नेतृत्व की गलत सोच के कारण ही प्राप्त हुआ। समय के साथ बहुत चीजें बदली हैं। इस मामले को जम्मू के विशेष टाडा न्यायालय में ठीक प्रकार से प्रस्तुत किया गया। न्यायालय ने 29 जनवरी ,2021 को रुबिया सईद अपहरण मामले में यासीन व अन्य को आरोपी करार दे दिया। इसमें तीन प्रत्यक्ष गवाह हैं जिनमें रूबिया के अलावा फेस्टिवल डॉक्टर शहनाज हैं।

रुबिया सईद अपहरण मामले का खुलना और यहां तक पहुंचना केवल एक अपहरण की न्यायिक प्रक्रिया भर नहीं है। यह जम्मू कश्मीर और उसके संदर्भ में आए व्यापक बदलाव का प्रमाण है। रुबिया सईद अपहरण कांड जम्मू कश्मीर में आतंकवाद को आगे बढ़ाने का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। उससे आतंकवादियों का हौसला बढ़ा और उन्होंने जो कहर बरपाया वह इतिहास का भयानक अध्याय बन चुका है। कश्मीरी हिंदुओं और सिखों का निष्कासन और पलायन परवर्ती घटनाएं हैं। इस एक प्रकरण के बाद आतंकवादी निर्भय होकर वारदातों को अंजाम देने लगे थे। पुलिस प्रशासन का धरातल पर नामोनिशान नहीं रहा। तब फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। उन्होंने बाद में बयान दिया कि रुबिया की रिहाई के प्रयास में केंद्र सरकार से किसी तरह का सहयोग नहीं मिल रहा था। उनके अनुसार आतंकवादियों को छोड़ने के लिए कहा जा रहा था। सामान्यतः फारूक अब्दुल्लह की बातों पर विश्वास करना कठिन होता है। किंतु इस मामले में वीपी सिंह सरकार में शामिल वर्तमान में केरल के राज्यपाल मोहम्मद आरिफ खान ने भी कहा है कि फारुख और उनके अधिकारियों ने कहा था कि रुबिया को छुड़वाने के लिए आतंकवादियों को रिहा करने की जरूरत नहीं है। आरिफ खान के अनुसार उन्होंने यही बात तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह और गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद को बताया। उनका कहना है कि इसके बाद उन्हें उस प्रक्रिया से ही अलग कर दिया गया।

स्पष्ट है कि केंद्र सरकार आतंकवादियों से लोहा लेने को तैयार नहीं थी और घुटने टेक दिए। अगर उस समय संकल्पबद्धता दिखाई गई होती तो जम्मू कश्मीर की स्थिति काफी हद तक अलग होती। आतंकवादियों को रिहा न करने का मतलब होता आतंकवाद के विरुद्ध सख्त अभियान व कार्रवाई। वीपी सिंह के बाद आई नरसिंह राव की सरकार ने भी रुबिया अपहरण मामले को आगे बढाने में रुचि नहीं दिखाई। 

हालांकि उस दौरान आतंकवाद के विरूद्ध कार्रवाई हुई एवं जम्मू कश्मीर में इतनी शांति स्थापित हुई जिससे 1996 में विधानसभा चुनाव कराया जा सका। पहली बार वर्तमान मोदी सरकार ने आतंकवाद, अलगाववाद और हिंसा से संबंधित वारदातों को उसके सही परिप्रेक्ष्य के साथ कानून के कठघरे तक लाने का साहस किया है। इसके द्वारा संदेश दिया गया है कि जो कुछ पहले हुआ वह अब संभव नहीं है तथा जिन्हें आतंकवादी, अलगाववादी और गैर कानूनी गतिविधियों के बावजूद सम्मान मिलता रहा उनको उनकी असली जगह यानी कानून के कटघरे से लेकर जेल तक पहुंचाया ही जाएगा। यह हो भी रहा है। रुबिया सईद का गवाही देने के लिए न्यायालय में आना भी सामान्य घटना नहीं है। इससे पता चलता है कि जम्मू कश्मीर का वातावरण कितना बदल चुका है। स्वयं मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी पुत्री पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती इस मामले को खुलवाने के पक्ष में नहीं थे। बावजूद मामला खुला, परिवार की ही सदस्या उस समय अपहृत रुबिया न्यायालय तक आई और उसने वही बोला जो कानून के तहत इन्हें सजा दिलाने के लिए पर्याप्त है। यह प्रदेश के बदले हुए वातावरण में ही संभव हुआ है। पहले माहौल यही था कि यदि मामले को आगे बढ़ाया गया तो रुबिया एवं अन्य गवाह इन्हें पहचानने से इंकार कर दे या न्यायालय में पेश होने से बचें।

तो इसका भी विश्लेषण करना पड़ेगा कि आखिर ऐसी स्थिति कैसे पैदा हो गई कि रुबिया सामान्य तरीके से न्यायालय पहुंची और उन्होंने गवाही दी? वह आगे जिरह में भी उपस्थित होने को तैयार हैं। इसका अर्थ है कि अब आतंकवादियों का भय कम हुआ है तथा बदली हुई आबोहवा का आभास वहां के राजनीतिक परिवारों को हो चुका है। उन्हें पता है कि अगर हमने न्यायिक प्रक्रिया में सहयोग नहीं किया तो  हमारे साथ भी कानून अपने तरीके से काम करेगा। इसे ही कानून का राज कहते हैं जिसकी आवश्यकता जम्मू कश्मीर में सबसे ज्यादा थी। इस तरह कुल मिलाकर रूबिया सईद अपहरण प्रकरण की कानूनी प्रक्रिया ने साफ संदेश दे दिया है कि यह पहले वाला जम्मू कश्मीर नहीं है। अब उन सभी मामलों में न्याय होगा जिनमें इसकी आवश्यकता थी लेकिन पूरी नहीं की गई।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्ली-110092, मोबाइल- 9811027208

शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

मजहबी कट्टरता और हिंसा के खतरो में संघ क्या करे

अवधेश कुमार

शायद ही कोई ऐसा समय हो जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी न किसी रूप में चर्चा में नहीं रहता। किसी घटना में उसकी भूमिका हो या नहीं लेकिन विरोधी घसीट कर ले ही आते हैं । ज्ञानवापी मामले में प्रत्यक्ष रूप से संघ के न होने के बावजूद  विरोधी हर चर्चा में उसका नाम लेते हैं । उदयपुर और अमरावती के हत्यारों ने कहीं भी संघ का नाम नहीं लिया । उन्होंने साफ कहा है कि हमने नबी के अपमान का बदला लिया है फिर भी विरोधियों के लिए यह संघ के हिंदुत्व की प्रतिक्रिया है। ऐसे समय संघ के प्रांत प्रचारकों की बैठक पर देश की नजर होनी स्वाभाविक थी। राजस्थान के झुंझुनू में आयोजित कोरोना के बाद प्रांत प्रचारकों की  बैठक में सरसंघचालक से लेकर अधिकतर अखिल भारतीय अधिकारी उपस्थित थे । देश में जितना संतप्त माहौल है उसमें विरोधियों एवं समर्थकों दोनों को उम्मीद थी कि संघ इन पर विस्तृत आक्रामक प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा। संघ के उस समय और उसके बाद के  बयानों में भी संयम और संतुलन का पुट ज्यादा है। 2025 में संघ अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरा कर लेगा। बैठक में शताब्दी वर्ष को लेकर कुछ लक्ष्य और कार्यक्रम निर्धारित किए गए। वे सारे अपने आप महत्वपूर्ण है।

 यह बैठक संघ के शिक्षा वर्गों के बाद आयोजित होती है। संघ प्रतिवर्ष मई-जून में देशभर में शिक्षा वर्ग आयोजित करता है। प्रथम वर्ष, द्वितीय वर्ष, तृतीय वर्ष के 3 शिविर होते हैं। तृतीय वर्ष प्रशिक्षण का अंतिम वर्ष होता है जिसका आयोजन संघ के मुख्यालय नागपुर में किया जाता है। शेष संख्या के अनुसार अलग-अलग प्रांतों में आयोजित होता है।  बैठक के बाद आयोजित पत्रकार वार्ता में अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने इस संबंध में जो जानकारियां दी उसमें दो विन्दू विरोधियों एवं समर्थकों दोनों के लिए है।एक, इस वर्ष संघ शिक्षा वर्गों में 40 वर्ष से कम आयु के 18 हजार 981 व 40 वर्ष से अधिक आयु के 2 हजार 925 ने प्रशिक्षण लिया। कुल मिलाकर  पूरे देश के प्रथम, द्वितीय व तृतीय वर्ष के 101 वर्गों में कुल 21 हजार 906 संख्या रही।

दो ,वर्तमान में शाखाओं की संख्या 56 हजार 824 है जिसे शताब्दी वर्ष आते-आते शाखाओं की संख्या एक लाख तक ले जाना है।

जिन्हें प्रशिक्षण शिविरों और शाखाओं का ज्ञान नहीं उन्हें लगेगा कि यह संख्या बहुत बड़ी नहीं। जरा सोचिए ,भारत ही नहीं दुनिया में ऐसा कौन संगठन है जो वर्ष के दो महीने में निश्चित समयावधि के बीच इतनी बड़ी युवा आबादी को वैचारिक एवं शारीरिक रूप से प्रशिक्षित कर लेता है? ध्यान रखिए प्रशिक्षण के पूर्व सभी को प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है । इस तरह उसने इस वर्ष इतनी बड़ी संख्या में प्रतीज्ञित प्रशिक्षित कार्यकर्ता तैयार कर लिया है। राजनीतिक दलों में सदस्य बनाना आसान होता है। संघ के प्रशिक्षण शिविरों में कष्ट साध्य परिश्रम करना होता है जिसके लिए संकल्प और मानसिक तैयारी चाहिए। ऐसे प्रशिक्षित लोग ही संघ की विचारधारा संगठन को आगे बढ़ाते हैं। आलोचक संघ की आलोचना करते रहेंगे, इसके आगे बढ़ने का कारण कार्य प्रणाली है जिसमें शाखा मूल है और प्रशिक्षण शिविर के द्वारा कैडर यानी स्वयंसेवक तैयार होते हैं। आज उसकी शाखाएं 56 हजार के आसपास है तो वह विश्व की इतनी बड़ी शक्ति है। कल्पना करिए,  उसकी संख्या एक लाख हो जाएगी तो ताकत कितनी बड़ी होगी? विरोधी अगर संघ से मुकाबला करना चाहते हैं तो उन्हें इतनी बड़ी संख्या में प्रतिबद्ध कार्यकर्ता तैयार करने की हैसियत बनानी होगी जो किसी के पास नहीं दिखती। कोरोना काल के बाद स्वयंसेवकों ने जल प्रबंधन, कचरा प्रबंधन, पर्यावारण व स्वच्छता आदि क्षेत्र में सक्रिय योगदान किया । कोरोना के बाद अवश्य शिक्षा वर्गों का यह पहला वर्ष था लेकिन अनवरत हर वर्ष यह प्रक्रिया चलती है। जाहिर है भारी संख्या में उसके कार्यकर्ता तैयार होते रहते हैं। अभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अनेक केंद्रीय मंत्री प्रदेश के प्रदेश के मुख्यमंत्री मंत्री अनेक राज्यपाल संघ के प्रतिज्ञित प्रशिक्षित स्वयंसेवक हैं। नकारात्मक सोच और तरीके से इतनी संख्या में कार्यकर्ता तैयार नहीं हो सकते। संघ ने  एक लाख शाखा का लक्ष्य तय किया है तो उसके आसपास 2024 तक अवश्य पहुंच जाएंगे। जाहिर है ,जो मानकर चल रहे थे हैं कि संघ कट्टरवादी संगठन है और धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगा उनके लिए यह सूचना निश्चय ही निराशा का कारण बनेगा। 

बैठक के बाद कहा गया कि समाज के सहयोग से सहभागिता बढ़ती जा रही है। ऐसे ही कुटुंब प्रबोधन व कुरीतियों के निवारण के लिए सामाजिक संस्थाओं, संतों व मठ-मंदिरों के सहयोग से स्वयंसेवक कार्य कर रहे हैं। इसके पूर्व मार्च में आयोजित प्रतिनिधि सभा की बैठक में स्वरोजगार और स्वावलंबन की बात की गई थी और उसके तहत कुछ हजार कार्यकर्ताओं को स्वावलंबन की शिक्षा भी दी गई है। निश्चित रूप से इतने बड़े संगठन को समाज के हर क्षेत्र में भूमिका निभानी चाहिए और उनमें समाज सुधार, रोजगार, पर्यावरण, जल प्रबंधन आदि आएंगे। किंत स्थापना का शताब्दी वर्ष आते-आते चुनौतियां बढ़ीं हैं। जब 1925 में विजयादशमी के दिन डॉ केशव बलिराम हेडगेवार ने इसकी स्थापना की उस समय आजादी के आंदोलन के बीच मुस्लिम संगठनों और नेताओं की भूमिका के कारण हिंदू समाज के अंदर कई तरह की चिंता व्याप्त थी। डॉ हेडगेवार भारतीय मुस्लिम कट्टरवाद के प्रति कांग्रेस की उदासीनता से निराश थे। उन्होंने हिंदुओं का संगठन आरंभ किया और इसका असर होने लगा। हालाकी संघ चाह कर भी हिंदू-मुस्लिम आधार पर भारत के विभाजन को नहीं रोक सका लेकिन गैर मुस्लिमों खासकर हिंदुओं और सिखों की सुरक्षा, उनको पाकिस्तान से सुरक्षित वापस लाने, शरणार्थियों की व्यवस्था एवं पुनर्वसन में उसने भूमिका अदा की। 29 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या के कारण प्रतिबंध नहीं लगता तो संघ की यह भूमिका काफी विस्तारित होती। संघ की दृष्टि से देखें तो वर्तमान स्थितियां काफी गंभीर एवं चिंताजनक हैं। यह कहना उचित नहीं होगा कि चुनौतियां ठीक वैसी सी ही हैं जो संघ की स्थापना या आजादी के पूर्व थी ।  संघ मूल्यांकन करें तो उसे चार चिंताजनक बातें दिखाई देंगी। 

पहला, मुस्लिम समाज के बीच एक बड़े वर्ग के अंदर मजहबी कट्टरता तेजी से बढ़ रहा है। दूसरे, चूंकि मुस्लिम राजनीतिक- गैर राजनीतिक और मजहबी नेताओं के एक समूह ने संघ, भाजपा और यहां तक कि आमहिंदुओं का भय पैदा किया है इसलिए संभव है कुछ लोगों में अलगाववाद की भावना भी बड़ी हो ।तीसरा, अंतरराष्ट्रीय जिहादी विचारधारा से प्रभावित हिंसा के लिए उद्धत लोग भी सामने आए हैं। बिहार की राजधानी पटना और फुलवारी शरीफ में पीएफआई द्वारा  2047 तक भारत के इस्लामिक देश बनाने के लक्ष्य एवं हथियार प्रशिक्षण का पकड़ में आना तथा उदयपुर और अमरावती का कत्ल आईएस, अल कायदा और तालिबान की धारा को ही प्रतिबिंबित करता है। अलग-अलग भागों में नूपुर शर्मा का समर्थन करने वालों को जान से मारने की धमकियां भी इसे पुष्ट करती है। देश के अलग-अलग भागों में जुमे की नमाज के बाद हुए हिंसक प्रदर्शन और कानपुर आदि जगहों के दंगों ने खतरो का प्रत्यक्ष अनुभव कराया है। नूपुर शर्मा मामले में भाजपा की चुप्पी , प्रवक्ताओं के डिबेट से दूर रहने आदि के कारण हिंदुओं के अंदर डर पैदा हुआ है।

इसमें देश के सबसे बड़े हिंदू संगठन के साथ केंद्र में सत्तारूढ़ दल की मातृ संस्था होने के कारण संघ की जिम्मेवारी बढ गई है। संघ सीधे कोई काम नहीं करता स्वयंसेवक करते हैं, पर उन्हें मार्गदर्शन का दायित्व उसी का है। संघ का लक्ष्य देश की एकता अखंडता कायम रखने के साथ अखंड भारत है इसलिए वह नहीं चाहेगा किअलगाववादी मजहबी हिंसक ताकतें बढ़ें। इसलिए उसे तीन काम करना चाहिए ।  एक,  हिंदू समाज के अंदर भय और गुस्सा नकारात्मक मोड़ न ले इसके लिए वातावरण बनाना। दूसरे, ऐसे वक्तव्य एवं कार्य योजना लेकर सामने आना जिससे लोगों के अंदर व्याप्त भय कम होते -होते खत्म हो जाए तथा आत्मविश्वास बढ़े।तीन, हिंसक प्रदर्शनों और हिंसा के विरुद्ध स्वयंसेवकों को समाज के साथ समय-समय पर अनुशासित व गरिमामय तरीके से सड़कों पर उतर कर  अहिंसक प्रदर्शन व धरना आदि का स्वभाव बनाना। आम स्वयंसेवक एवं संघ के दूसरे अनुषांगिक संगठनों के ज्यादातर कार्यकर्ताओं में सड़कों पर उतरने ,धरना प्रदर्शन करने का चरित्र नहीं है। खतरे बड़े हैं तो इसे पैदा करना होगा । इससे देश में व्याप्त भय दूर होगा, हिंसक तत्वों के अंदर व्यापक जन विरोध का भय पैदा होगा तथा सरकार में राजनीतिक नेतृत्व एवं प्रशासन पर सक्रिय कार्रवाई का दबाव बढ़ेगा।

अवधेश कुमार, ई- 30 ,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, मोबाइल- 98110 27208



रविवार, 17 जुलाई 2022

जो उनके लिये 'वंशवाद' वह इनके लिये 'राष्ट्रवाद' कैसे?


तनवीर जाफ़री

ख़बर है कि 2024 में भारतीय जनता पार्टी 'वंशवाद की राजनीति' के विरुद्ध बिगुल फूंकने की तैयारी में है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 'वंशवाद की राजनीति' के विरुद्ध काफ़ी मुखर होकर बोलते रहे हैं। चाहे वह कानपुर में राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के पैतृक गांव परौंख में दिया गया उनका भाषण हो या पिछले दिनों हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक या अत्र तत्र कहीं भी, हर जगह उनका मुख्य फ़ोकस 'वंशवाद की राजनीति' के विरोध पर आधारित ही रहा। सूत्रों के अनुसार जिसतरह बीजेपी ने पिछले चुनावों में कांग्रेस और भ्रष्टाचार मुक्त भारत के नारे दिए थे उसी तरह अगले चुनावों में पार्टी  'वंश-मुक्त भारत' के नारे को अपने चुनाव अभियान में शामिल कर सकती है। परन्तु सवाल यह है कि भारतीय जनता पार्टी व उसके नेताओं की नज़रों में 'वंशवाद ' की व्यापक परिभाषा है क्या ? क्या वास्तव में राजनीति की 'वंशवादी' व्यवस्था ही देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है ? क्या कांग्रेस या कई अन्य क्षेत्रीय राजनैतिक दल ही 'वंशवादी राजनीति ' का शिकार हैं और भाजपा इससे पूरी तरह अछूती है ? या फिर भाजपा अपने दल के वंशवादी नेताओं या अपने समर्थक 'वंशवादियों ' के अतिरिक्त केवल अपने विरोधी 'वंशवादियों ' को ही 'वंशवादी राजनीति ' करने वालों की श्रेणी में डालती है ?

सबसे ताज़ातरीन उदाहरण तो महाराष्ट्र का ही है। जब शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने भाजपा से नाता तोड़ने के बाद एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिलकर महा विकास अघाड़ी का गठन किया और मंत्रिमंडल में अपने पुत्र आदित्य ठाकरे को शामिल किया उस समय से लेकर अब तक यही शोर-शराबा होता रहा कि शिवसेना वंशवादी राजनीति का प्रतीक है। अब उसी राज्य से प्राप्त ख़बरों के अनुसार भाजपा ने राज ठाकरे के सुपुत्र अमित ठाकरे को विभाजित शिवसेना के शिंदे गुट व भाजपा द्वारा नव गठित सरकार के मंत्रिमंडल में शामिल कर उद्धव ठाकरे की कथित  'वंशवादी राजनीति ' को ' वंशवाद' के ही शस्त्र से ही हमलावर होने की योजना बनाई है।  इससे राज ठाकरे व उनके मनसे समर्थक ख़ुश होंगे और उद्धव ख़ेमा आहत होगा और इन दोनों ही ख़ेमों की खाई और गहरी भी होगी। गोया बाल ठाकरे के एक पौत्र आदित्य ठाकरे को बढ़ावा दिया जाना 'वंशवादी राजनीति ' का हिस्सा था और बाल ठाकरे के ही दूसरे पौत्र अमित ठाकरे को मंत्री बनाना 'राष्ट्रवादी राजनीति ' कहलायेगी ?

कुछ दिनों पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के 26 वर्षीय सुपुत्र आर्यमन सिंधिया को किसी भी संस्था या संगठन के पहले पद की ज़िम्मेदारी सौंपते हुए ग्वालियर डिवीज़न क्रिकेट एसोसिएशन GDCA  का उपाध्यक्ष बनाया गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया का चश्म-ए-चिराग़ होने के अतिरिक्त आख़िर उनमें और क्या विशेषता है ? यह सिंधिया घराने की अगली पीढ़ी के राजनैतिक प्रवेश की तैयारी नहीं तो और क्या है? विजय राजे सिंधिया से लेकर वसुंधरा राजे उनके पुत्र दुष्यंत सिंह,स्वयं ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि सब वंशवाद की ही बेल तो है? इसी प्रकार गृह मंत्री अमित शाह के पुत्र जय शाह को 2019 में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सेक्रेटरी बनाया गया। आज वे एशियन क्रिकेट काउंसिल के अध्यक्ष भी हैं। अमित शाह का कुलदीपक होने के अतिरिक्त भी क्या उनकी कोई योग्यता या विशेषता है ? परन्तु इसे भी वंशवाद नहीं बल्कि राष्ट्रवाद कहिये। भाजपा में शीर्ष में अनेक नेताओं ने वंशवादी बेल को बख़ूबी सींचा है और अब भी सींच रहे हैं। उदाहरणार्थ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के विधायक पुत्र पंकज सिंह, हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के फ़ायर ब्रांड सुपुत्र व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर,दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय साहब सिंह वर्मा के सांसद पुत्र प्रवेश सिंह वर्मा, उत्तर प्रदेश के 3 बार मुख्यमंत्री व राज्यपाल रहे स्व कल्याण सिंह के सांसद पुत्र राजवीर सिंह और राजवीर सिंह के भी विधायक पुत्र संदीप सिंह जोकि वर्तमान में उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में शिक्षा राज्य मंत्री भी हैं। इसी तरह स्वर्गीय प्रमोद महाजन की पुत्री पुनम महाजन,गोपीनाथ मुंडे की प्रीतम मुंडे व पंकजा मुंडे,भाजपा नेता वेद प्रकाश गोयल के पुत्र केंद्रीय मंत्री पीयुष गोयल, लालजी टंडन के सुपुत्र आशुतोष टंडन, ठाकुर प्रसाद के सुपुत्र रविशंकर प्रसाद, यशवंत सिन्हा के पुत्र जयंत सिन्हा, देवेंद्र प्रधान के पुत्र धर्मेंद्र प्रधान,बीएस येदियुरप्पा के पुत्र बी. वाई राघवेंद्र,कैलाश विजयवर्गीय के 'बैट दनादन फ़ेम सुपुत्र 'आकाश विजय वर्गीय विधायक,गंगाधर फ़नवीस के नूर-ए- नज़र देवेंद्र फ़डनवीस, सांसद दीया कुमारी, किरण रिजिजू, रीता बहुगुणा जोशी,आदि जैसी दर्जनों और राज्य स्तर पर सैकड़ों मिसालें ऐसी मिलेंगी जिनमें भाजपाइयों द्वारा वंशवाद की बेल को बख़ूबी खाद पानी दिया जा रहा है।

इसी प्रकार जब जम्मू कश्मीर में सरकार बनानी थी तो राज्य में महबूबा मुफ़्ती भी वंशवादी नहीं थी और उनकी पी डी पी भी पक्की राष्ट्रवादी थी। अब साथ छूटते ही वह वंशवादी भी हैं और पी डी पी राष्ट्रविरोधी भी। पंजाब में दो दशक से भी लंबे समय तक बादल परिवार के अकाली दल से गठबंधन रहा,वंशवाद की कोई चर्चा नहीं हुई,आज भी हरियाणा में देवी लाल के पौत्र दुष्यंत चौटाला को उनकी इसी योग्यता के आधार पर मुख्यमंत्री बनाया गया है कि वे स्व देवी लाल जी के वंश के ध्वजवाहक हैं अन्यथा पहली बार में ही विधायक बनने पर उपमुख्यमंत्री बनना भला किसी साधारण जे जे पी कार्यकर्त्ता के भाग्य में कहाँ ? परन्तु जब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनकी पार्टी के अन्य शीर्ष नेता जनसभाओं में वंशवाद पर निशाना साधते हैं तो उन्हें अपने निशाने पर देश का प्रथम वंशवादी राजनैतिक परिवार नेहरू गांधी परिवार नज़र आता है परन्तु इसी परिवार के मेनका गाँधी व वरुण गांधी मां-बेटे राष्ट्रवादी नज़र आते हैं ,वंशवादी नहीं ? भाजपा को समाजवादी पार्टी,राष्ट्रीय जनता दल,बीजू जनता दल,तथा दक्षिण भारत की अनेक पार्टियां जो भाजपा  विरोधी हैं उन सबमें इनको वह 'वंशवाद ' दिखाई देता है जो इनके अनुसार देश की राजनीति व लोकतंत्र के लिये घातक है।

यदि भाजपा की यही धारणा है तो इस पैमाने पर तो केवल देश की वामपंथी पार्टियां ही सबसे उपयुक्त नज़र आती हैं। परन्तु भाजपाई व संघ विचारधारा व सिद्धांतों के मुताबिक़ तो कम्युनिस्टों से भी देश को उतना ही ख़तरा है जितना ईसाईयों व मुसलमानों से ? ऐसे में वंशवाद से निपटने का आख़िर उपाय क्या रह जाता है। क्या यही कि जो भाजपाई वंशवादी नेता हैं उन्हें वंशवादी नहीं बल्कि राष्ट्रवादी और यदि हो सके तो उन्हें  'महा राष्ट्रवादी ' मान लिया जाये और जो भाजपा विरोधी ख़ेमे से संबद्ध हैं उनपर वंशवादी होने का टैग लगाकर उन्हें लोकतंत्र व राजनीति के लिये ख़तरा घोषित कर दिया जाये।    

तनवीर जाफ़री 

गुरुवार, 14 जुलाई 2022

शिंजो आबे की मृत्यु संपूर्ण विश्व के लिए क्षति

अवधेश कुमार

जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे की हत्या से विश्व स्तब्ध है। भारतीय समय के अनुसार सुबह 8 बजे के आसपास जब वह नारा शहर में एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे तभी हमलावर ने नजदीक आकर पीछे से गोली मार दी। नारा पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है और प्रसिद्ध ओसाका शहर से सड़क मार्ग से 1 घंटे की दूरी पर स्थित है। हमलावर ने 2 गोलियां मारी थी। इसमें एक गोली पीछे से सीने तक आ गई और उसी समय लग गया था कि उनका बचना मुश्किल है। बताने की आवश्यकता नहीं कि जापान जैसे विकसित देश में चिकित्सा की प्रणाली उन्नत है और पूरी कोशिश उनको बचाने की की गई। हालांकि जापान में कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि ऐसी घटना भी हो सकती है। जो दृश्य हमने देखा और जितनी खबरें हैं उनके अनुसार एक छोटी सी जगह पर सड़क पर लगे रैलिंगों के बीच में रविवार को होने वाले उच्च सदन के चुनाव के लिए भाषण दे रहे थे और करीब एक सौ लोग उनके आसपास धा। उनकी सुरक्षा में केवल चार सुरक्षा गार्ड थे। जाहिर है, सुरक्षा गार्ड भी निश्चिंत रहे होंगे क्योंकि इस तरह की घटना जापान में जो मौत हुई ही नहीं तो ज्यादा सतर्क और चौकन्ना होने की आवश्यकता है कोई महसूस भी नहीं करता। हमलावर ने इसी का लाभ उठाया और जापान के इस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय तथा पूरे इतिहास के सफलतम प्रधानमंत्रियों में से एक को मौत की नींद सुला दिया।

जापान के वर्तमान प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा ने इसे बर्बर बताते हुए कहा है कि सहन नहीं किया जाएगा। दुनिया में जिन नेताओं के जीवन पर गंभीर खतरे की आशंका थी उनमें शिंजो आबे शामिल नहीं थे।  गोली मारने वाला 41 साल का यामागामी तेत्सुया पूर्व नौसैनिक है। वह मैरिटाइम सेल्फ डिफेंस फोर्स का सदस्य था। हमलावर के हाथ का बंदूक कैमरे की तरह लग रहा था क्योंकि उसने उस काले कपड़े में लपेट रखा था। इस कारण लोगों ने उसे पत्रकार समझा और उसने नृशंसता कर दी । जापान में हथियार खरीदने या रखने के इतने कड़े नियम हैं कि सामान्य आदमी उसे नहीं ले सकता। हमलावर ने घर में बनाए हुए हथियार का उपयोग किया। साफ है कि उसने काफी पहले से इसकी तैयारी की होगी। कहा जाता है कि वह उनकी सुरक्षा संबंधी नीतियों के विरुद्ध था। लेकिन कोई नीतियों से इतना विरोधी हो जाए और गोली मार दे यह सामान्यतः गले के नीचे नहीं उतरता। लेकिन अभी तक की सूचना इतनी है तो तत्काल यही मानकर चलना होगा।

वास्तव में शिंजो आबे की मृत्यु केवल जापान ही नहीं संपूर्ण विश्व के लिए क्षति है और भारत के लिए तो यह बहुत बड़ी क्षति है। भारत ने शिंजो आबे के निधन पर एक दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया। अपना सबसे बड़ा नागरिक सम्मान पद्म विभूषण प्रदान कर भारत ने शिंजो आबे के दोनों देशों के द्विपक्षीय और अंतरराष्ट्रीय रिश्तो में योगदान को स्वीकार किया था। शिंजो आबे ने अगर जापान में सबसे लंबे समय यानी 9 साल तक प्रधानमंत्री पर रहने का रिकॉर्ड बनाया तो साफ सै कि वे कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। 67 साल के शिंजो आबे ने अपनी पार्टी लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को विखंडन से उबारते हुए जापान की सबसे शक्तिशाली और प्रमुख पार्टी के रूप में परिणित किया। 1993 में पहली बार सांसद बनने से लेकर वे लगातार राजनीति में सक्रिय रहे। 2006 में 52 साल की उम्र में वह देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री बने लेकिन उनका कार्यकाल लंबा नहीं रहा और 2007 में इस्तीफा देना पड़ा। 2012 में पार्टी का अध्यक्ष चुने जाने के बाद वे उसी वर्ष दोबारा प्रधानमंत्री बने और फिर लगातार बने रहे। अपने पेट की बीमारी, जिसे उन्होंने अल्सरेटिव कोलाइटिस बताया था, के कारण पद से इस्तीफा दिया। उस समय उन्होंने लिखा कि इस बीमारी के कारण उनके लिए अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कठिन हो गया है। इस तरह 23 अगस्त 2020 को उन्होंने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया था। इधर उनके स्वास्थ्य में सुधार हुआ और फिर से सक्रिय थे।

हालांकि प्रधानमंत्री पद से हटने के बावजूद वे कभी पूरी तरह निष्क्रिय नहीं रहे। शिंजो आबे जापान के सफलतम प्रधानमंत्रियों में से एक माने जाते हैं। उन्होंने जापान को राजनीतिक अस्थिरता से उबारकर स्थिरता प्रदान किया, अर्थव्यवस्था को सुधारा और इन सब के साथ वैश्विक स्तर पर एक सक्रिय राष्ट्र की भूमिका निभाते हुए अंतरराष्ट्रीय राजनीति को नई दिशा देने की पहल की। चीन की आक्रामकता का उन्होंने न सिर्फ मुखर विरोध किया बल्कि उसकी विस्तारवादी नीति का सामना करने के लिए अपनी रक्षा नीति में बदलाव किया और उसके अनुसार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सामान्य एवं रक्षा संबंध विकसित किया। जापान के संविधान की धारा 19 उसे अन्य देशों की तरह सैनिक बनाने और दूसरे देशों के साथ युद्धाभ्यास करने पर निषेध लगाता था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान प्रतिबंधित था और इसलिए उसे अपनी सेना बनाने की इजाजत नहीं मिली। बाद में सेल्फ डिफेंस फोर्स जरूर गठित हुआ लेकिन वह अत्यंत ही छोटे स्तर पर तथा उसकी भूमिका केवल आंतरिक सुरक्षा तक ही सीमित हो सकती थी। उन्होंने इस धारा में संशोधन किया और जापान की सेना दूसरे देशों के साथ युद्धाभ्यास कर सकती है। इसी के साथ जापान के भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि के युद्धाभ्यास आरंभ हुए। मालाबार युद्धाभ्यास उन्हीं में से एक है। आबे ने आर्थिक सुधार से लेकर निवेश आदि से संबंधित अपने देश के वर्ण क्रम में काफी बदलाव किया । वर्तमान सरकार उसी नीति को आगे बढ़ाया रहे हैं।  हालांकि उनकी सुरक्षा नीति को लेकर जापान में मतभेद थे और इस पर बहस हो रही थी। लेकिन अगर देश में उनकी  लोकप्रियता सर्वाधिक थी तो इसका अर्थ यही है कि उनकी नीतियों से बहुसंख्यक जापानी सहमत हैं। वास्तव में उन्होंने लोगों के बीच, सभाओं में, संसद में, मीडिया में बार-बार जापान के समक्ष उत्पन्न खतरे, वैश्विक स्थिति तथा भविष्य के जापान को रक्षा दृष्टि से सशक्त बनाने कि अपने अवधारणा को लगातार इस तरह प्रस्तुत किया के लोगों ने उसे सही माना। जापान के लिए सामान्य बात नहीं थी पुलिस टॉप कारण जापान अपने में सिमटे हुए देश के रूप में ही द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से विकसित हुआ था और यही मानसिकता वहां हावी थी। उनके कार्यकाल की शुरुआत और आज के जापान आज का जापान आरक्षा हुआ अंतरराष्ट्रीय संबंधों की दृष्टि से व्यापक रूप से बदल चुका है। जापान ने एक दिशा पकड़ ली है।

क्वाड पूरी तरह शिंजो आबे के मस्तिष्क की ही उपज है। 2007 में वे उसे मूर्त रूप नहीं दे सके लेकिन आज क्वाड अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच एक महत्वपूर्ण गठबंधन बना है तो इसके पीछे उनकी ही भूमिका है। चीन आबे को लेकर कितना चौकन्ना रहता यह बताने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने यह निर्णय कर लिया था कि पूरा एशिया प्रशांत क्षेत्र में उसको वृहत्तर भूमिका निभानी है और इसके लिए उसे अपने रक्षा क्षेत्र का विस्तार करना होगा। उन्होंने इसी कारण दूरगामी दृष्टि से भारत की सक्रिय भागीदारी को महसूस किया तथा उसे धरातल पर लाने की शुरुआत कर दी। यह उन्हीं की अवधारणा थी कि हिंद महासागर और प्रशांत महासागर दोनों को मिलाकर सामरिक नीति बनाई जानी चाहिए। 2006 में जब भारत आए थे तो उन्होंने संसद में दो समुद्रों के संगम से शख्स एक भाषण दिया था। वह एक ऐतिहासिक भाषण था जिसमें हिंद महासागर और प्रशांत महासागर को एक साथ मिलाकर सामरिक व्यापारिक नीति की विस्तृत अवधारणा थी। आज अगर हिंद प्रशांत की सम्मिलित नीतियां हमारे सामने है तो इसके पीछे शिंजो आबे की ही प्रबल भूमिका थी। वास्तव में हिंद प्रशांत की पूरी अवधारणा उनकी है जिसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया,भारत, ब्रिटेन सहित अनेक देशों नेस्वीकार किया। उस पर आज उस पर उस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। चीन को उन्होंने हमेशा एशिया ही नहीं संपूर्ण विश्व के खतरे के रूप में देखा और उनकी सोच से ज्यादातर देश धीरे-धीरे सहमत हुए।

इससे माना जा सकता है कि जापान के इतिहास में खासकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय सोच और उसे क्रियान्वित कर देने वाले वे पहले प्रधानमंत्री हुए। भारत के साथ द्विपक्षीय ही नहीं वैश्विक सामरिक साझेदारी की शुरुआत शिंजो आबे के कारण हुई। शिंजो आबे ने जापान भारत के वैश्विक स्तर पर साथ मिलकर काम करने के ढांचा विकसित की । दोनों ने मिलकर अफ्रीका के ऐसे 20 देशों की पहचान की जहां अनेक क्षेत्रों में निवेश किया जा सकता है। वेब पांच बार भारत आए जिनमें एक बार यूपीए कार्यकाल में और चार बार नरेंद्र मोदी के शासनकाल में। नरेंद्र मोदी के साथ उनकी व्यक्तिगत संबंध भी काफी अच्छे थे और इसका प्रभाव दोनों देशों के संबंधों पर पड़ा। नरेंद्र मोदी ने उनकी मृत्यु पर जो व्यथा व्यक्त की है वह इसका प्रमाण है। शिंजो अबे के रूप में भारत ने केवल निवेश और तकनीकी सहयोग की दृष्टि से ही नहीं अंतरराष्ट्रीय राजनीति और समर नीति क्या स्तर पर भी एक गहरा मित्र खो दिया है।

अवधेश कुमार,ई- 30,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल- 98110 27208

शुक्रवार, 8 जुलाई 2022

गुजरात दंगे पर उच्चतम न्यायालय का फैसला, मोदी के विरुद्ध चलता रहा झूठा अभियान

अवधेश कुमार 


गुजरात दंगों पर उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ का फैसला इस मायने में महत्वपूर्ण है कि इसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को  दंगों की साजिश रचने के आरोपों से बरी किए जाने पर मुहर लगी है तथा इसके विरुद्ध अभियान चलाने वाले को झूठा कहा गया है। न्यायालय के फैसले में स्पष्ट लिखा है कि विशेष जांच दल यानी एसआईटी की अंतिम रिपोर्ट के विरुद्ध दायर याचिका आधारहीन ही नहीं, गलत बयानों और तथ्यों से भरी थी। याचिका में कहा गया था कि गोधरा घटना के बाद राज्य में हुई हिंसा के पीछे उच्चस्तरीय साजिश थी और यह पूर्व नियोजित थी। जैसा हम जानते हैं लंबे समय तक नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगा का खलनायक साबित करने के लिए अनेक एनजीओ, राजनीतिक पार्टियां, नेता, एक्टिविस्ट, पत्रकार, कानूनविद, कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीश अभियान चलाए हुए थे। सबका लक्ष्य एक ही था कि किसी तरह साबित करो कि  मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने साजिश रच कर मुसलमानों के विरुद्ध दंगे कराए और मंत्री ,नेता ,कार्यकर्ता, पुलिस, प्रशासन सब उनके निर्देश पर काम कर रहे थे । 451 पृष्ठों के विस्तृत फैसले में न्यायालय ने स्पष्ट कहा है इस तरह के आरोपों को प्रमाणित करने के लिए एक भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। न्यायालय ने इससे आगे बढ़कर कहा है कि मामले को गर्म बनाए रखने के लिए याचिकाकर्ताओं ने कानून का दुरुपयोग किया। इसी आधार पर न्यायालय ने मामले को सनसनीखेज बनाने वाले अधिकारियों के खिलाफ कानून सम्मत कार्रवाई की अनुशंसा की है। क्या इसके बाद अलग से कुछ कहने की आवश्यकता रह जाती है कि गुजरात दंगों को लेकर किस तरह के झूठे और एकपक्षीय अभियान चलाए गए?

तीस्ता सीतलवाड़ से लेकर गुजरात के पूर्व डीजीपी श्री कुमार आदि की गिरफ्तारी तथा आगे अन्यों की संभावित गिरफ्तारी पर भी छाती पीटने वाले लोग हैं। लेकिन उच्चतम न्यायालय ने यूं ही तो नहीं उन सबके विरुद्ध कानून सम्मत कार्रवाई की बात कही है। उच्चतम न्यायालय के फैसले को इस रूप में लिया गया है कि दंगा कराने के आरोपों से वर्तमान प्रधानमंत्री एवं तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी बेदाग और निर्दोष साबित हुए हैं। सच यह है कि विशेष जांच दल यानी सीट ने उन्हें बरी किया था और इस पर न्यायालयों की मुहर भी लग गई थी। जिनका एजेंडा दंगों की सिहरन भरी यादों को बार-बार कुरेद कर जिंदा रखने में था, जिन्होंने देश और दुनिया में पूरा झूठ फैलाया और उसके आधार पर काफी कुछ प्राप्त किया वे कैसे इसे स्वीकार कर चुप बैठ सकते थे। तीस्ता सीतलवाड़ ने जाकिया जाफरी को हथियार बनाया और उनके माध्यम से बार-बार अपील दायर करवाई। न्यायालय ने इसका विवरण देते हुए कहा है की 8 जून, 2006 को 67 पृष्ठ की शिकायत दी गई थी। इसके बाद 15 अप्रैल, 2013 को 514 पृष्ठों की प्रोटेस्ट पिटिशन दाखिल की गई। इसमें उन सभी लोगों की निष्ठा पर सवाल उठाया गया था, सबको झूठा बेईमान बताया गया जो प्रक्रिया में शामिल थे।

जरा सोचिए , 2002 के फरवरी-मार्च में दंगे हुए और हफ्ते भर के अंदर शांत भी हो गए।  जिनका एजेंडा हर हाल में मुसलमानों के अंदर भय पैदा करना, हिंदू मुसलमानों के बीच विभाजन की खाई पैदा कर नरेंद्र मोदी, भाजपा, संघ आदि को मुसलमानों का खलनायक साबित कर अपना स्वार्थ साधना था वे हर प्रकार के सनसनी के झूठे तथ्य सामने लाकर अभियान चलाते रहे। उस समय की कानूनी स्थितियों पर को याद करिए। मानवाधिकार आयोग, उच्चतम न्यायालय ,निचले न्यायालय, उच्च न्यायालय और अंततः दंगों से जुड़े मामलों को गुजरात से बाहर महाराष्ट्र में स्थानांतरित करवाना….क्या क्या नहीं हुआ। प्रचारित यही होता था कि चुके मोदी ने दंगे करवाए इसलिए वह हर प्रकार की कानूनी कार्रवाई व न्यायिक प्रक्रिया को बाधित  कर रहे हैं। एसआईटी ने क्लीन चिट दे दी तो उस पर भी प्रश्न इन लोगों ने उठाना शुरू कर दिया। न्यायालय ने सीट के रिपोर्ट के बारे में जो कहा है उस पर नजर डालिए—एसआईटी की फाइनल रिपोर्ट जैसी है वैसी ही स्वीकार होनी चाहिए। न्यायालय ने इसकी रिपोर्ट को तथ्यों और ठोस तर्को पर आधारित कहा है,जिसमें और कुछ करने की जरूरत नहीं है।

दंगे हुए यह सच है और उसमें दिल दहलाने वाली घटनाएं हुई। समस्या यह है कि विरोधियों ने दंगों की एकपक्षीय ऐसी तस्वीर बनाई जिससे लगता था कि 27 फरवरी, 2002 को अयोध्या से साबरमती एक्सप्रेस से लौट रहे 59 कारसेवकों को गोधरा स्टेशन पर दो कोच में आग लगा कर जिंदा जलाने की घटना से इनका कोई लेना-देना नहीं हो। ये ऐसे वक्तव्य देते थे मानो ट्रेन में जिंदा जलाए जाने वाले लोग मनुष्य थे ही नहीं। गोधरा कांड को अलग कर देंगे तो गुजरात दंगा समझ ही नहीं आएगा। रेल दहन के विरुद्ध आक्रोश पैदा हुआ और लोगों ने मुसलमानों पर हमला शुरू कर दिया। 26 मार्च ,2018 को उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई के पूर्व निदेशक आरके राघवन की अध्यक्षता में विशेष जांच दल का गठन किया था। 8 मार्च, 2012 को क्लोज रिपोर्ट में मोदी और 63 लोगों को बरी किया गया। इसे न्यायालय में चुनौती दी गई।  

उच्चतम न्यायालय की मॉनिटरिंग में दंगों से संबंधित सारे मामलों की छानबीन करने वाले विशेष जांच दल यानी सीट को पूरी बुद्धि लगाकर भी मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी तथा अन्य लोगों द्वारा मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा कराने की साजिश नजर नहीं आई, मजिस्ट्रेट न्यायालय और फिर उच्च न्यायालय ने भी इसे सही माना लेकिन तीस्ता सीतलवाड को ये सब दोषी नजर आते रहे। इसका मतलब जानबूझकर गलत उद्देश्य से अभी तक मामले को खींचा गया था। ऐसा नहीं है कि उस दंगे के लिए कोई दोषी नहीं हो। अब तक कई नेताओं सहित अधिकारियों और पुलिस के लोगों को सजा मिल चुकी है। उच्चतम न्यायालय ने यही कहा है कि कुछ अधिकारियों की निष्क्रियता या विफलता को राज्य प्रशासन की पूर्व नियोजित आपराधिक साजिश नहीं कहना चाहिए। अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति इसे राज्य प्रायोजित अपराध भी नहीं कहा जा सकता है।

उच्चतम न्यायालय के फैसले का एक महत्वपूर्ण पक्ष गुजरात सरकार के कुछ अधिकारियों के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां तथा कानूनी कार्रवाई की मुखर अनुशंसा है। पीठ ने लिखा है कि इनमें गलत उद्देश्य के लिए मामले को जारी रखने की बुरी मंशा नजर आती है। इसमें लिखा है कि जो प्रक्रिया का इस तरह से गलत इस्तेमाल करते हैं उन्हें कटघरे में खड़ा करके उनके खिलाफ कानून के दायरे में कार्रवाई की जानी चाहिए।  अगर ये नहीं होते तो गुजरात दंगों के घाव कब भर जाते। लेकिन कुछ राजनीतिक इरादे वाले एनजीओ, एक्टिविस्टों, पत्रकारों और नेताओं के लिए वह इस कारण भी मुख्य एजेंडा था क्योंकि इसके कारण उनको सम्मान के साथ धन भी प्राप्त हो रहा था। जाहिर है ,इनके खिलाफ व्यापक जांच की आवश्यकता है ताकि यह तलाश किया जा सके कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया और कहीं भारत विरोधी शक्तियां भी तो इनके साथ नहीं लगी हुई थी। इसमें कुछ अधिकारियों का नाम लिखा गया है जिसमें संजीव भट्ट, हरेन पांड्या, आरबी श्रीकुमार आदि शामिल है। इसमें लिखा है कि राज्य सरकार के इस तर्क में दम नजर आता है कि भारतीय पुलिस सेवा के तत्कालीन अधिकारी संजीव भट्ट, गुजरात के पूर्व गृह मंत्री हरेन पांड्या और भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी आरबी श्रीकुमार की गवाही केवल मुद्दे को सनसनीखेज और राजनीतिक बनाने के लिए थी। तो  न्यायालय ने अपना जो निष्कर्ष दिया है वह महत्वपूर्ण है। उसने लिखा है कि अंत में हमें ऐसा लगता है कि गुजरात के असंतुष्ट अधिकारियों के साथ-साथ अन्य लोगों का प्रयास गलत बयान देकर सनसनी पैदा करना था। विरोधी इसे राज्य प्रायोजित मुस्लिम हत्या की ही संज्ञा देते रहे हैं। 

दुनिया भर में इसे राज्य द्वारा मुस्लिम नरसंहार के रूप में प्रचारित किया गया और इस अभियान का कितना नकारात्मक असर हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं। लंबे समय तक विदेश यात्रा करने वाले भारत के नेताओं से इस पर प्रायोजित प्रश्न पूछे जाते रहे। कई देशों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने इसे उठाया। अमेरिका ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में घोषणा कर दी कि उन्हें वहां आने का वीजा नहीं दिया जाएगा। पूरी दुनिया में केवल नरेंद्र मोदी की बदनामी नहीं नहीं हुई बल्कि भारत की छवि कलंकित हुई। 2002 के बाद से भारत में पकड़े गए कई आतंकवादियों ने कहा कि गुजरात दंगों के बारे में जो बताया गया उससे वह आतंकवादी बना। कल्पना किया जा सकता है कि झूठे प्रचार से देश को कितनी हानि हुई होगी। तो इसके लिए किसे जिम्मेदार ,दोषी या अपराधी माना जाए ? कानूनी एजेंसियों की छानबीन से ही इस साजिश का पूरा सच सामने आएगा और हो सकता है ऐसे तथ्य भी हाथ लगे जिनसे हम आप वाकिफ नहीं है। इनको सजा मिलने के बाद ही गुजरात दंगों से संबंधित कानूनी कार्रवाई और प्रक्रियाएं पूर्ण होंगी। अभी तक यह अधूरी है। उच्चतम न्यायालय ने इसका रास्ता प्रशस्त कर दिया है। 

अवधेश कुमार,ई- 30 ,गणेश नगर ,पांडव नगर कंपलेक्स ,दिल्ली -110092, मोबाइल- 98110 27208



रविवार, 3 जुलाई 2022

मां की गुहार सुन हिंदू राव अस्पताल पहुंचे अमनदूत के अध्यक्ष संजीव जैन ने किया बच्चे के लिए रक्तदान

आज अमनदूत एनजीओ के अध्यक्ष संजीव जैन ने हिंदू राव हॉस्पिटल में इलाज करा रहे एक जरूरतमंद मरीज को ब्लड डोनेट किया। जानकारी के अनुसार, उन्हें हिंदू राव हॉस्पिटल से एक मां का फोन आया कि मेरे बच्चे की तबीयत खराब है और उसे खून की जरूरत है तो संजीव जैन तुरंत हिंदू राव हॉस्पिटल पहुंचे और बच्चे के लिए ब्लड डोनेड किया। 

महिला ने संजीव जैन से कहा कि मेरे बच्चे को खून की जरूरत है परंतु मुझे कोई भी ब्लड डोनर नहीं मिल रहा है। यह सुनने के बाद संजीव जैन ने स्वयं ही ब्लड डोनेट करने का फैसला किया। इस पर महिला ने ब्लड डोनेट कर ब्लड उपलब्ध कराने पर संजीव जैन को धन्यवाद दिया। इसके बाद संजीव जैन ने संवाददाताओं से कहा कि मैं पहले इंसान हूं। मैंने एक बच्चे की जान बचाने के लिए अपना कर्तव्य निभाया। संजीव जैन इससे पहले भी परोपकार के कार्य कर चुके हैं।

इस्लाम को कलंकित करती है कन्हैया की हत्या

तनवीर जाफ़री

मंहगाई, बेरोज़गारी, भय, भूख, भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता, जातिवाद, लोकतांत्रिक, आर्थिक व सीमावर्ती चुनौतियों जैसी अनेक समस्याओं से जूझ रहे हमारे देश में आये दिन कोई न कोई ऐसा  'भूचाल' आ जाता है या जानबूझकर लाया जाता है जिससे देश की यह वास्तविक समस्यायें नेपथ्य में चली जाती हैं। ऐसा ही एक विषय जिसे लेकर विगत एक महीने से भी अधिक समय से पूरा देश उद्वेलित हो रहा है वह है भारतीय जनता पार्टी की प्रवक्ता के रूप में एक भाजपाई नेत्री नूपुर शर्मा द्वारा गत 27 मई को ज्ञानवापी मस्जिद के मुद्दे पर एक टीवी चैनल पर डिबेट के दौरान पैग़ंबर हज़रत मोहम्मद साहब पर की गई एक आपत्तिजनक टिप्पणी। नूपुर शर्मा द्वारा पैग़ंबर मोहम्मद साहब पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद मुस्लिम समुदाय के लोग देश के कई राज्यों में सड़कों पर प्रदर्शन करने उतर आए थे। इस दौरान कई जगहों पर प्रदर्शनकारियों के उग्र हो जाने के चलते हिंसा भी भड़क उठी थी। कई इस्लामिक देशों ने भी इस टिप्पणी पर भारत सरकार से नाराज़गी दर्ज कराई थी। परिणाम स्वरूप भाजपा ने नूपुर शर्मा को प्रवक्ता पद व पार्टी से हटाते हुए यह भी कहा था कि नूपुर शर्मा का बयान भारत सरकार का मंतव्य नहीं है। परन्तु दो कट्टरपंथी लोगों ने इसी प्रकरण के चलते पिछले दिनों उदयपुर में नुपुर शर्मा समर्थक कन्हैया नामक एक दर्ज़ी की बेरहमी से गला रेत कर हत्या कर दी। बताया जा रहा है कि हत्यारों में से एक कुछ समय पूर्व पाकिस्तान भी गया था अतः इस हत्याकांड में पाकिस्तान की कथित साज़िश की भी पड़ताल की जा रही है।

इन सब के बीच इसी प्रकरण में पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायाधीश जेबी परदीवाला की अवकाशकालीन बेंच ने नुपुर शर्मा की एक अर्ज़ी पर सुनवाई करते हुए उसे कड़ी फटकार लगाई और कहा कि शर्मा के बयान ने पूरे देश में अशांति फैला दी है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सुनवाई के दौरान नुपुर शर्मा की टिप्पणियों को "तकलीफ़देह" बताया और कहा कि "उनको ऐसा बयान देने की क्या ज़रूरत थी?" सर्वोच न्यायालय ने ये सवाल भी किया कि एक टीवी चैनल का एजेंडा चलाने के अलावा ऐसे मामले पर डिबेट करने का क्या मक़सद था, जो पहले ही न्यायालय के अधीन है? माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने शर्मा की बयानबाज़ी पर सवाल किया और कहा, "अगर आप एक पार्टी की प्रवक्ता हैं, तो आपके पास इस तरह के बयान देने का लाइसेंस नहीं है." सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि उन्हें टीवी पर जाकर पूरे देश से माफ़ी मांगनी चाहिए थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "जिस तरह से नुपुर शर्मा ने देशभर में भावनाओं को उकसाया, ऐसे में देश में ये जो भी हो रहा है उसके लिए वह अकेली ज़िम्मेदार हैं। माननीय अदालत ने यह भी कहा, "जब आपके ख़िलाफ़ एफ़आईआर हो और आपको गिरफ़्तार नहीं किया जाए, तो ये आपकी पहुँच को दिखाता है। उन्हें लगता है उनके पीछे लोग हैं और वो ग़ैर-ज़िम्मेदार बयान देती रहती हैं"। अदालत ने इसके अतिरिक्त भी अनेक तल्ख़ टिप्पणियां कीं।

उपरोक्त अदालती टिप्पणियों से एक बार फिर यह ज़ाहिर हो गया कि देश में सत्ता अपने निजी एजेंडे पर चलने के लिये भले ही बेलगाम क्यों न हो परन्तु इसके बावजूद देश में क़ानून का राज है और देश की अदालतों के फ़ैसले ही सर्वमान्य हैं। परन्तु यदि कोई भी पक्ष भावनाओं को भड़काने के नाम पर हिंसा का सहारा ले या निर्मम हत्या का सहारा लेने लगे तो उसे किसी भी क़ीमत पर सही नहीं ठहराया जा सकता। वैसे भी यदि पूरे विश्व में 'भावनाओं को भड़काने' के नाम पर हत्याएं होने लगें और क़ानून के बजाये हिंसा का सहारा लिया जाने लगे फिर तो पूरा संसार ही सुलग उठेगा। आज इस दुनिया में जहां हज़रत इमाम हुसैन के मानने और उनपर अपनी जान तक न्योछावर करने वाले करोड़ों लोग हैं वहीं दुनिया में यज़ीद समर्थक भी मौजूद हैं। राम को आराध्य मानने वाले हैं तो रावण के समर्थक भी मिल जायेंगे। जहां हमारे ही देश में गाँधी को महात्मा कहने व उन्हें अपना आदर्श मानने वाले हैं वहीं उनके हत्यारे गोडसे के चाहने वालों की भी कमी नहीं। तो क्या वैचारिक मतभेद के चलते लोगों की 'भावना आहत' हो और लोग एक दूसरे की हत्या और हिंसा पर उतारू हो जायें ?

कोई भी व्यक्ति किसी के भी विचारों से सहमत या असहमत हो सकता है। अकेले कन्हैया लाल ही नुपुर शर्मा का समर्थक नहीं बल्कि लाखों लोग उसके साथ खड़े दिखाई दे रहे हैं। यदि उदयपुर जैसी घटना हर जगह घटित होने लगे फिर तो न क़ानून बचेगा न देश न ही इंसानियत। वैसे भी क्रूर हत्यारों ने जिस तरह कन्हैया की हत्या कर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक को धमकी दे डाली और हत्या की वीडीओ बनाकर सोशल मीडिया पर डालने जैसा दुस्साहस किया वह निश्चित रूप से न केवल अक्षम्य अपराध है बल्कि यह किसी बड़ी साज़िश का हिस्सा भी प्रतीत होता है। इस्लाम धर्म वैसे भी बदले से अधिक क्षमा करने की प्रेरणा देता है। अपने उद्भव काल से लेकर आज तक पूरे विश्व में इस्लाम की बदनामी व रुस्वाई का कारण ही कट्टरपंथी व अतिवादी मुसलमानों के हिंसक कारनामे रहे हैं। करबला से लेकर तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान तक इसके अनेक उदाहरण नज़र आते हैं। नुपुर शर्मा के आपत्तिजनक बयान से दुनिया के मुसलमानों में जितना उबाल आया था वैसी ही स्थिति कन्हैया की बेरहमी से की गयी हत्या के बाद खड़ी हो गयी है। मुसलमानों के विरोध के मौक़े की तलाश में बैठे लोगों को एक बार फिर 'ऊर्जा ' मिल गयी है जिसके ज़िम्मेदार कन्हैया के हत्यारे तथा ' धार्मिक भावनाओं ' के नाम पर हिंसा भड़काने वाले अतिवादी प्रवृति के लोग हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस्लाम और इंसानियत दोनों को ही कलंकित करती है कन्हैय्या की नृशंस हत्या।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

कन्हैया लाल के अपराधी केवल हत्यारे नहीं

अवधेश कुमार

उदयपुर के कन्हैयालाल दर्जी की दिनदहाड़े गला काटकर हत्या करने की भयानक घटना से देश का बड़ा समूह उद्वेलित है। न तो कन्हैयालाल को जिबह करने वाला रियास अख्तरी और गौस मोहम्मद इस सोच के दो ही है और न कन्हैयालाल उनके निशाने पर एकमात्र व्यक्ति। न जाने कितने रियास और गौस मजहब के नाम पर ऐसे ही अनेक कन्हैयालालों को जिबह करने के लिए तैयार बैठे हैं। कन्हैयालाल की हत्या ठीक वैसे ही है जैसे फ्रांस में 16 अक्टूबर, 2020 को सैमुअल पेटी शिक्षक का एक चेचेन मुसलमान जेहादी आतंकवादी ने सिर कलम कर दिया था। हत्यारा अब्दुलाख अबौयदोविच  अंजोरोव को बताया गया था कि पेटी ने अपनी कक्षा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बोलते हुए छात्रों को शार्लो हेब्दो के 2012 के कार्टून दिखाए थे ,जिसमें पैगंबर मोहम्मद साहब की आपत्तिजनक छवि दिखाई गई थी। उसके बाद पेटी के विरुद्ध इसी तरह अभियान चलाए गए, जिस तरह इस समय भाजपा की नूपुर शर्मा, नवीन जिंदल और उनके समर्थकों को लेकर चलाया जा रहा है। बाद में पता चला कि जिस दिन पेटी द्वारा शार्लो  हेब्दो का कार्टून दिखाने की बात थी उस दिन वो स्कूल गए ही नहीं थे। कन्हैयालाल को नूपुर शर्मा के पक्ष में एक फेसबुक पोस्ट लिखने के कारण जान गंवानी पड़ी। उस घटना के तुरंत बाद फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि यह विशिष्ट इस्लामी आतंकवादी हमला है और हम इसके सामने झुकेंगे नहीं। पूरे फ्रांस में लोगों ने बाहर निकलकर इसका विरोध किया और लाखों लोगों ने कहा कि हम भी सैमुअल पेटी हैं। हमारे यहां ऐसा कुछ नहीं हुआ।  उस समय फ्रांस की मस्जिदों के अनेक इमामों, मौलानाओं ने हत्या की निंदा की और कहा कि इस्लाम में इसके लिए कोई स्थान नहीं है।

वैसा ही दृश्य भारत में है। जो नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल को गुस्ताख ए रसूल घोषित कर रहे थे वो सब हत्या की निंदा में लग गए हैं। एक दिन पहले मोहम्मद जुबेर की गिरफ्तारी को मोदी सरकार की मुस्लिम विरोधी सोच का प्रमाण बताने वाले मुस्लिम चेहरे भी इसकी निंदा कर रहे हैं। प्रश्न है कि अगर ये सारे लोग इस तरह की हिंसा व हत्या के विरोधी हैं तो ऐसी स्थिति पैदा क्यों हुई जिसमें कन्हैयालाल की बलि चढ़ गई और अनेक की जान खतरे में हैं?

सच यह है कि सिर कलम करने का वातावरण बनाने और रियाज एवं गौस जैसों की जिहादी कट्टरता को परवान चढ़ाने के पीछे उन सारे मुस्लिम नेताओं, बुद्धिजीवियों , स्वयं को सेकुलर- लिबरल मानने वाले हिन्दू बुद्धिजीवियों ,पत्रकारों एक्टिविस्टों की भूमिका है जिन्होंने न केवल नूपुर शर्मा नवीन जिंदल प्रकरण को विकृत तरीके से पेश किया बल्कि लंबे समय से यह प्रचारित करते रहे हैं कि भारत में मुसलमानों के साथ शासन -प्रशासन दोयम दर्जे का व्यवहार कर रहा है , उनकी धार्मिक गतिविधियों तक को बाधित की जा रही है। क्या ऐसी संख्या हजारों लाखों में नहीं है जिन्होंने  लंबे समय से दुष्प्रचार किया मानो मुसलमान इस देश में मजहबी अल्पसंख्यक होने के कारण उत्पीड़ित हैं? 

क्या ज्ञानवापी पर न्यायालय के फैसले के बाद यह शोर नहीं मचाया गया कि हमारी सारी मस्जिदें छिन जाएंगी, नमाज पढ़ने पर बंदिशें लग जाएंगी? एक टीवी डिबेट की बहस में यह कहे जाने को कि आप हमारे देवी देवताओं के बारे में इस तरह बोलते हो अगर मैं आपको इस तरह कहूंगी तो कैसा लगेगा मोहम्मद साहब और इस्लाम के अपमान का इतना बड़ा मुद्दा बना दिया गया कि दुनिया भर में जिहादी सोच वालों को खाद पानी मिल गया। इस घटना की निंदा करने वाले में वे लोग भी हैं, जो उन विरोध प्रदर्शनों के नेतृत्वकर्ताओं में थे या भागीदार थे जिनमें बाजाब्ता बैनर लगे थे कि गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा सिर तन से जुदा सिर तन से जुदा और यही नारे भी लग रहे थे।

जब आप ऐसा माहौल बनाएंगे ,इस तरह के पोस्टर लेकर सड़कों पर निकलेंगे ,नारे लगाएंगे तो उसका हस्र यही होगा। सेकुलरवाद की विकृत सोच और वोट बैंक के कारण अनेक सरकारें ऐसी नीतियां अपनातीं हैं,जो व्यवहार में मुस्लिमपरस्त हो जाती हैं। कन्हैयालाल को धमकियां मिलती रही, पुलिस में शिकायत की गई, पर वह इतना अरक्षित था कि जेहादी सिर कलम कर चले गए। बाद में आप उसे पकड़कर सजा दे ही दीजिए इससे क्या होगा? ऐसी सोच वाले मजहब का फर्ज मान दुनिया भर में अपराध को अंजाम देते हैं और कभी ऐसे अपराधियों को अफसोस प्रकट करते नहीं देखा गया। अशोक गहलोत सरकार अपने राज्य में बढ़ते मुस्लिम कट्टरवाद, जिहादी सोच के विस्तार की कोई शिकायत सुनने को तैयार नहीं। हिंदू शोभा यात्राओं पर हमले हुए,  करौली में दंगे हुए और उसका रवैया बदला नहीं। गहलोत मानने को तैयार नहीं कि राजस्थान में इस्लामी कट्टरवाद जड़ जमा चुका है। उल्टे वे भाजपा - संघ को दोषी ठहराते हैं और इस मामले में तो उन्होंने स्वयं को दोषी मानने की बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से ही देश को हिंसा के विरुद्ध संबोधित करने की मांग कर दी। इससे ऐसे कट्टरपंथियों का मनोबल बढ़ता है। 

उत्तर प्रदेश में भी राजधानी लखनऊ में कमलेश तिवारी की ऐसी ही हत्या हुई थी। योगी आदित्यनाथ सरकार उसके बाद से सतर्क रहते हुए ऐसी कार्रवाइयां कर रही है जिनसे जिहादी कट्टरपंथियों का मनोबल कमजोर रहता है। 10 जून को जुम्मे की नमाज के बाद सड़कों पर उतर कर की गई हिंसा पर आदित्यनाथ सरकार की कार्रवाइयां सबके सामने है। लिबरल चेहरा लगाए इनके देश भर के समर्थकों द्वारा हाय तौबा मचाने तथा योगी आदित्यनाथ के मुस्लिम विरोधी होने के दुष्प्रचारों के बावजूद सरकार अपने रुख पर कायम है। गहलोत और दूसरी सरकारों के सामने भी यह एक उदाहरण है। लेकिन कोई इसका अनुसरण करने को तैयार नहीं।

पाकिस्तान के एक मुस्लिम पत्रकार ने तो यह कह दिया कि उन्हें पूरा वीडियो नहीं मिला लेकिन जितना वीडियो उन्होंने देखा उसके आधार पर सच यही है कि पहले मुसलमान डिबेटर ने हिंदू देवताओं को अपमानित कर भाजपा की प्रवक्ता को उकसाया। उसके अनुसार भाजपा की प्रवक्ता कह रही है कि मैं ऐसा कहूंगी तो आपको कैसा लगेगा और यह बताता है कि कैसे उसको उकसाया गया। लेकिन भारत के किसी मुस्लिम नेता, बुद्धिजीवी, मौलाना ने यह बात नहीं कही। उल्टे जुबेर की गिरफ्तारी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं मोदी सरकार के मुस्लिम विरोधी सोच का परिचायक बताया गया। 7 जनवरी, 2015 को शार्लो पत्रिका और उसकी जगह सुपर मार्केट में दो आतंकवादी हमलों में 17 लोगों के मारे जाने के बाद की डिबेट में भी मुस्लिम प्रवक्ता हमले की निंदा कर रहे थे लेकिन कार्टून छापने के बारे में वक्तव्य ऐसे दे रहे थे जिससे हमला न्यायसंगत साबित होता था। यही इस मामले में भी है।

कैसे इनकी भूमिका से देश में मजहबी कट्टरता बढी और हमें खून व विध्वंस का शिकार होना पड़ा इसके कई उदाहरण है। उच्चतम न्यायालय ने अभी गुजरात दंगों के मामले में स्पष्ट कर दिया कि उसके पीछे तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार और उच्च स्तरीय प्रशासन का किसी प्रकार का षड्यंत्र नहीं था। पिछले 20 वर्षों से यही प्रचारित किया गया कि गुजरात सरकार ने साजिश रचकर जानबूझकर मुसलमानों का नरसंहार कराया तथा प्रशासन को कोई कार्रवाई नहीं करने दी। सितंबर 2002 में गांधीनगर के अक्षरधाम पर हुए आतंकवादी हमले के बाद से अनेक वर्षों तक के हमलों में पकड़े गए आतंकवादियों का बयान यही होता था कि गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम से उनके अंदर गुस्सा था और  बदला लेने के लिए उन्होंने ऐसा किया है। बाटला हाउस मुठभेड़ को झूठा करार देने वाले लेख, वीडियो, तकरीरें हजारों की संख्या में देश और दुनिया भर में गई। इसके प्रतिशोध में मुस्लिम युवकों के एक समूह ने इंडियन मुजाहिदीन संगठन बनाया तथा अनेक आतंकवादी हमले किए।

इसलिए इनकी आलोचना या निंदा के मायने तब तक नहीं होंगे जब तक ये स्वयं को दोषी मानकर अपना व्यवहार पूरी तरह नहीं बदलते। ऐसा होना नहीं है। दुर्भाग्य से नूपुर शर्मा प्रकरण को भाजपा ने भी बिल्कुल गलत तरीके से हैंडल किया। अपने सारे प्रवक्ताओं को टीवी पर भेजना बंद कर दिया। ठीक यही व्यवहार भाजपा का कन्हैयालाल हत्या प्रकरण में भी रहा। फ्रांस हमारे सामने एक उदाहरण है जो अनेक आतंकवादी हमला झेलने के बावजूद नहीं झुका। यह तभी हुआ जब वहां की जनता खुलकर ऐसी जिहादी सोच और आतंकवाद के विरुद्ध सड़कों पर आई। भारत की समस्या यह है विरोध करने वाले स्वयं को सोशल मीडिया पर अपनी भड़ास निकालने तक सीमित है। कुछ लोग गुस्से में आकर तोड़फोड़ ,आगजनी, हिंसा करने लगते हैं। तोड़फोड़, आगजनी, हिंसा से हम उन्हीं आतंकवादियों और अपने कट्टर इस्लामी सोच के ऊपर लिबरलवाद का चेहरा लगाए लोगों के कुत्सित इरादों को ही सफल करेंगे।

फ्रांस के लोगों ने विरोध में हिंसा नहीं की। साहस के साथ जब भी हमले हुए  सड़कों पर उतरे, अहिंसक प्रदर्शन किया। यही भारत में किये जाने की जरूरत है। अहिंसक आक्रोश प्रदर्शनों के द्वारा इनका प्रतिकार भी होगा एवं सरकारों पर कठोर कार्रवाई का दबाव बढ़ेगा तथा सेकुलर लिबरल चेहरे लगाए हिंदू मुस्लिम नेताओं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्टों, मौलानाओं आदि के अंदर भी व्यापक जन विरोध का डर पैदा होगा। अवधेश कुमार,ई- 30,गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092, मोबाइल -98110 27208

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