सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

गोवा की आजादीः क्या देरी के लिए नेहरू जिम्मेदार थे?

राम पुनियानी

सन् 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान मोदी-भाजपा जो बातें कहते थे उनमें से एक यह भी थी कि जनता ने कांग्रेस को 60 साल सत्ता में रखा. अब जनता हमें 60 महीने दे और फिर देखे कि हम देश को किस तीव्र गति से विकास पथ पर अग्रसर करते हैं. स्वाधीनता से लेकर सन् 2014 तक कांग्रेस 49 वर्ष केन्द्र में सत्ता में रही. कई दूसरी सरकारें भी इस बीच सत्तासीन हुईं जिनमें इन्द्र कुमार गुजराल और देवेगौड़ा की सरकारों के अलावा अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार भी थीं. अतः यह कहना तथ्यों के विपरीत है कि कांग्रेस ने 60 वर्षों तक देश पर राज किया है. संभवतः भाजपा नेताओं ने ऐसा इसलिए कहा होगा क्योंकि 60 वर्ष और 60 महीने की तुकबंदी है.

पिछले 7-8 सालों के मोदी-भाजपा शासन में सामाजिक विकास के सभी सूचकांकों में गिरावट आई है. नोटबंदी से देश में हाहाकार मचा और जीएसटी ने छोटे व्यापारियों को बर्बादी की कगार पर ला खड़ा किया. कोरोना के प्रसार को नियंत्रित करने के नाम पर जो भयावह लॉकडाउन देश में लगाया गया उससे लाखों लोग अपनी आजीविका खो बैठे. विकास का कहीं दूर-दूर तक पता नहीं है और युवा दुःखी व आक्रोशित हैं क्योंकि उनके हिस्से में बेरोजगारी के सिवाए कुछ नहीं आया है.

प्रजातांत्रिक अधिकारों, अभिव्यक्ति की आजादी, धार्मिक स्वातंत्रता, पोषण, स्वास्थ्य आदि जैसे विषयों से संबद्ध सूचकांकों में जबरदस्त गिरावट आई है. चुनाव आयोग, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) एवं केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) सरकार के हाथ की कठपुतली बन गए हैं. न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिन्ह लगने लगे थे परंतु पिछले कुछ समय से उसमें सुधार परिलक्षित हो रहा है. इन विकट परिस्थितियों के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश की हर समस्या के लिए जवाहरलाल नेहरू को दोषी ठहराते हैं. मोदी ने हाल में कहा कि गोवा के देरी से (देश की आजादी के 14 साल बाद) स्वतंत्रता हासिल करने के लिए नेहरू की कमजोर नीतियां जिम्मेदार थीं. गोवा को देश की आजादी के समय, अर्थात 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र करवाया जा सकता था. सन् 1955 में 20 सत्याग्रहियों की मौत के बावजूद नेहरू ने कोई कदम नहीं उठाया. मोदी इस मुद्दे पर तो बहुत मुखर हैं किंतु चीन द्वारा भारत के एक बड़े भूभाग पर कब्जा कर लेने के मामले में वे चुप रहते हैं.

गोवा के उपनिवेश बनने और फिर स्वतंत्र होने का क्या इतिहास है? गोवा को सन् 1961 में भारतीय सेना ने ‘आपरेशन विजय‘ के तहत 26 घंटों में स्वतंत्र करवा लिया था. गोवा को सन् 1510 में पुर्तगाल ने अपना उपनिवेश बनाया था. पुर्तगाली सेना ने बीजापुर के सुल्तान आदिल शाह को हराकर गोवा पर कब्जा किया था. यह अंग्रेजों द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप के औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया शुरू करने के बहुत पहले की बात है. पुर्तगालियों ने कई सदियों तक गोवा पर शासन किया. उनका शासन अत्यंत कड़ा था. पुर्तगालियों की बड़े पैमाने पर खिलाफत पहली बार सन् 1718 में हुई जब वहां के पॉस्टरों के एक समूह ने टीपू सुल्तान की मदद मांगी और पुर्तगाली सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया. इसे पिंटो षड़यंत्र कहा जाता है.  यह विद्रोह बुरी तरह असफल हुआ और इसके कर्ताधर्ता पॉस्टरों को अमानवीय यातनाएं दी गईं.

सन् 1900 में एल. मेनेजेज़ ब्रेगांजा ने पुर्तगाली भाषा में होराल्डो नामक अखबार गोवा से निकालना शुरू किया.  यह अखबार पुर्तगाल का आलोचक था. सन् 1917 में गोवा में सेंसरशिप लागू कर दी गई. इससे आमजनों में असंतोष बढ़ा. सन् 1928 में टी. ब्रेगांजा ने गोवा कांग्रेस पार्टी का गठन किया. सन् 1946 में राममनोहर लोहिया ने गोवा की मुक्ति के लिए सत्याग्रह किया. उन्हें 18 जून को गिरफ्तार कर लिया गया. इस दिन को गोवा क्रांति दिवस के रूप में मनाया जाता है. गोवा के एक प्रमुख मैदान का नाम लोहिया के नाम पर रखा गया है.

इस सत्याग्रह के बाद गोवा में नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया. इसमें भाग लेने वाले क्रांतिकारी थे जिनमें पुणे के प्रसिद्ध पहलवान नाना काजरेकर, लोकप्रिय संगीत निदेशक सुधीर फड़के आदि शामिल थे. इन लोगों ने युनाईटेड फ्रंट ऑॅफ लिबरेशन के झंडे तले आजाद गोमांतक दल का गठन किया. यह दिलचस्प है कि लब्धप्रतिष्ठित गायिका लता मंगेशकर ने गोवा की स्वतंत्रता के लिए धन इकट्ठा करने हेतु पुणे में आयोजित एक संगीत कार्यक्रम में हिस्सेदारी की थी.

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पुर्तगाल के तानाशाह सलाजार ने देश के संविधान को संशोधित कर गोवा को पुर्तगाल का  अभिन्न हिस्सा घोषित कर दिया. इसके अलावा पुर्तगाल नाटो में शामिल हो गया जिसका अर्थ यह था कि नाटो के सभी सदस्य देश पुर्तगाल के राज्यक्षेत्र की रक्षा करने के लिए वचनबद्ध थे. नाटो का नेतृत्व अमरीका के हाथों में था और उस समय पुर्तगाल से सैन्य संघर्ष छेड़ने का अर्थ था अमरीका सहित बड़ी पश्चिमी ताकतों को भारत में हस्तक्षेप करने का न्यौता देना. अमरीका के राष्ट्रपति आईजनहावर एवं विदेश मंत्री डलेस ने यह घोषणा की थी कि गोवा पुर्तगाल का अभिन्न भाग है. इसका जवाहरलाल नेहरू ने विरोध किया था.

गोवा में जनमत संग्रह कराए जाने की मांग भी उठी थी जिस पर नेहरू ने जोर देकर यह कहा था कि गोवा के भारत में विलय के मामले में किसी बहस या विवाद की गुंजाइश नहीं है. इसके बाद केनेडी अमरीका के राष्ट्रपति बने जिनका भारत के प्रति रवैया कुछ नरम था.

सन् 1950 के दशक के पूर्वार्ध में एफ्रो-एशियन कान्फ्रेंस के सदस्यों ने भारत से गोवा का मुद्दा सुलझाने और वहां से पुर्तगालियों को निकाल बाहर करने का तकाजा किया. परंतु इसमें सबसे बड़ी बाधा नाटो और अमरीका की यह घोषणा थी कि गोवा पुर्तगाल का हिस्सा है. केनेडी के सत्ता में आने के बाद भारत का रूख भी बदल गया. यह साफ था कि पुर्तगाल को गोवा पर अपना नियंत्रण छोड़ने के लिए बातचीत से राजी करना मुश्किल होगा.

सन् 1955 में समाजवादी और साम्यवादियों ने इस मुद्दे पर आम सत्याग्रह शुरू किया. इन सत्याग्रहियों ने जब गोवा में प्रवेश किया तब वहां की सरकार ने उन पर गोलियां बरसाईं जिससे 20 सत्याग्रही मारे गए. इस घटना से व्यथित और क्रुद्ध नेहरू ने गोवा की आर्थिक नाकेबंदी की घोषणा की. पणजी में स्थित वाणिज्य दूतावास को बंद कर दिया और पुर्तगाल से कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए गए.

आर्थिक नाकाबंदी से गोवा पूरी दुनिया से कट गया. यहां तक कि वहां के नागरिक समाचार पाने के लिए भी तरस गए. इस समय वामन सरदेसाई और उनकी पत्नि लीबिया लोबो सरदेसाई ने एक भूमिगत रेडियो स्टेशन शुरू किया जिसका नाम ‘द वाइस ऑफ फ्रीडम‘ था. इस रेडियो स्टेशन के जरिए क्रांतिकारियों को सूचनाएं पहुंचाई जातीं थीं और झूठे पुर्तगाली प्रचार का पर्दाफाश किया जाता था. यह रेडियो स्टेशन नवबंर 1955 से दिसंबर 1961 तक गोवा से सटे वनक्षेत्र से संचालित होता रहा.

नेहरू ने केनेडी को कूटनीतिक चैनलों द्वारा यह संदेश भिजवाया कि अमरीका गोवा के मामले में हस्तक्षेप न करे. फिर 17 दिसंबर को नेहरू के आदेश पर आपरेशन विजय शुरू किया गया. यह अभियान अचानक शुरू किया गया था. भारतीय वायुसेना ने डबोलिन हवाईअड्डे के रनवे को नष्ट कर दिया. नौसेना ने गोवा के बंदरगाह को बंद कर दिया और 30 हजार भारतीय सैनिकों ने गोवा में प्रवेश किया. वहां मौजूद लगभग दो हजार पुर्तगाली सैनिकों को आसानी से परास्त कर दिया गया.

गोवा के गवर्नर को यह अहसास हो गया था कि बाहर से कोई सहायता आने वाली नहीं है और इसलिए अपनी सरकार के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए उसने आत्मसमर्पण कर दिया. दो दिन बाद 19 दिसंबर को गोवा केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में भारत का हिस्सा बन गया. सन् 1987 में यह जानने के लिए जनमत संग्रह किया गया कि गोवा के निवासी पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र का हिस्सा बनना चाहते हैं या गोवा को स्वतंत्र राज्य बनाना. बहुसंख्यक मतदाताओं ने अलग राज्य बनाने के पक्ष में मत व्यक्त किया और इस तरह गोवा भारतीय संघ का 25वां राज्य बन गया. नेहरू ने गोवा की आजादी के लिए जो प्रयास किए वे उनके परिपक्व कूटनीतिज्ञ और सच्चा देशभक्त होने का सुबूत हैं. जहां तक मोदी का सवाल है, वे जो चाहे वो कहने के लिए स्वतंत्र हैं. (अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन्  2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

विश्व समुदाय संभले, अन्यथा देर हो जाएगी

अवधेश कुमार

रूस द्वारा युक्रेन पर हमला भयभीत अवश्य करता है किंतु इसमें हैरत की कोई बात नहीं। हैरत केवल उन्हें होगी जो मान रहे थे कि अमेरिका और पश्चिमी देश रूस की घेराबंदी के लिए आरोपित कर रहे हैं। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के नेतृत्व में रूस जिस दिशा में बढ़ रहा था उसकी स्वाभाविक परिणति यूक्रेन पर हमला ही थी। इतनी भारी संख्या में सैनिकों की लामबंदी, आक्रामक युद्धाभ्यास, परमाणु युद्ध अभ्यास, पूर्वी यूक्रेन के हथियारबंद अलगाववादी नेताओं को हर तरह का समर्थन आदि दुनिया के सामने था। अंततः पुतिन ने अपनी योजना के अनुसार यूक्रेन के दो श्रेत्रों दोनेत्स्क और  लुहान्स्क को स्वतंत्र घोषित कर उसे मान्यता भी प्रदान कर दी। इसके बाद इन देशों की रक्षा के नाम पर वहां सैनिक हस्तक्षेप का आधार उन्होंने तैयार कर लिया । हमले के बाद पुतिन ने कहा कि रूस की सेना का विशेष ऑपरेशन आरंभ हो रहा है जिसका उद्देश्य यूक्रेन से उसकी सेना को हटाना है। उनकी भाषा बिल्कुल अल्टीमेटम की है कि यूक्रेन की सेना हथियार डाल दे और अपने घर लौट जाए। दूसरी ओर उन्होंने यूक्रेन के समर्थन में खड़े देशों को भी चेतावनी दी कि अगर उन्होंने किसी तरह का हस्तक्षेप किया तो परिणाम ऐसे होंगे जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की होगी।

कल्पना कर सकते हैं कि पुतिन ने किस दृढ़ता के साथ तैयारी की हुई है। ऐसा नहीं है कि यहां तक पहुंचने के पहले उन्होंने विश्व स्तर पर इसकी प्रतिक्रियाओं और अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के कदमों आदि का आकलन नहीं किया होगा। उन्हें पता है कि रूस इसके बाद प्रतिबंधित होगा। तो उस प्रतिबंध के बारे में भी उन्होंने सोचा होगा और उनके चरित्र को जानने वाले मानेंगे कि इसके जवाब की भी उन्होंने पूरी तैयारी की होगी। 

यूक्रेन का क्या होगा और रूस किस सीमा तक सैन्य अभियान को ले जाएगा इसके बारे में हम आप केवल अनुमान लगा सकते हैं। पहले पूरी स्थिति को देखिए। अमेरिका और नाटो के देश बार-बार रूस को चेतावनी देते रहे पर पुतिन इससे अप्रभावित रहे। अंततः यूक्रेन पर हमला हो गया और कोई देश यूक्रेन की मदद में उस रूप में आगे नहीं आया जिस प्रकार का भीषण हमला उसे झेलना पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्रसंघ की विवशता देखिए। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस कह रहे हैं कि हमने सोचा ही नहीं था कि रूस इस तरह हमले कर सकता है। हम आश्वस्त थे कि ऐसा नहीं होगा। उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए रूस से अपनी सेना वापस बुलाने की अपील की । अपील से अगर पुतिन को प्रभावित होना होता तो वे इस प्रकार की कार्रवाई करते ही नहीं । सच कहा जाए तो पूरा दृश्य विश्व के भविष्य की दृष्टि से आतंकित करने वाला है।  सैन्य शक्ति की बदौलत कोई देश इस तरह की कार्रवाई करें और उसे रोकने के लिए विश्व स्तर पर कहीं से भी पहल नहीं हो तो आगे क्या होगा इसकी कल्पना से ही सिहरन पैदा होती है। मामला चाहे जितना पेचीदा हो यह समाधान का तरीका नहीं हो सकता। इससे जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली विश्व व्यवस्था हो जाएगी । 

ऐसा नहीं है कि यूक्रेन बिल्कुल युद्ध करने या रूस को जवाब देने की स्थिति में नहीं है। वह बिल्कुल कमजोर देश नहीं है। बावजू रूस जैसे सैन्य महाशक्ति से मुकाबला उसके लिए असंभव है। सच कहें तो यूक्रेन अकेले रूस जैसी  महाशक्ति के समक्ष नहीं टिक सकता। उसमें भी तब जब उसके दो महत्वपूर्ण क्षेत्र व्यवहारिक रूप से रूस के नियंत्रण में हैं। भले वे स्वतंत्र घोषित किए गए हैं लेकिन उनकी स्वतंत्रता ही नहीं पूरी सैन्य नीति पुतिन के हाथों है। इसके अलावा बेलारूस में रूस पूरी युद्धक विमानों और सामग्रियों के साथ लंबे समय से मौजूद है। वहां उसका युद्धाभ्यास चल रहा है जिसमें परमाणु युद्धाभ्यास भी शामिल है। अमेरिका और यूरोपीय देश केवल धमकियों तक सीमित है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन शाब्दिक हमले कर रहे हैं कि वे और उनके सहयोगी देश माकूल जवाब देंगे। वह क्या जवाब दे सकते हैं?

 विश्व का दुर्भाग्य देखिए कि व्लादिमीर पुतिन साम्राज्यवादी नेता की तरह पूर्व सोवियत संघ के राज्यों को अपने नियंत्रण में रखने की निष्ठुर नीति । उनकी एक ही कोशिश है कि वे सभी देश सीधे उनके शासन में नहीं हो तो तो कम से कम वहां ऐसी सरकारें हो जो उनके नीतियों के अनुसार काम करें और उनके नेतृत्व को माने। यूक्रेन में 2014 में जन विरोध में रूसी समर्थित सरकार के हटने के बाद से ही उनकी आक्रामकता बढ़ती गई। अमेरिका और नाटो ने यूक्रेन की वर्तमान सरकार को सैग मदद दी। आज कोई उनके लिए लड़ने नहीं आया तो रूस वहां की सरकार को अपदस्थ कर सकता है। जब पूरे विश्व के सभी देश अपनी-अपनी सीमाओं में स्वयं को अकेले मान रहे हों तो  शक्तिशाली देश ऐसा ही आचरण करेंगे। यूक्रेन पर हमले को थोड़ा विस्तारित करें तो विश्व में ऐसे कई विवाद हैं जहां इस तरह की घटनाएं सामने आ सकतीं हैं। ताइवान ऐसा ही क्षेत्र है। चीन की दृष्टि वहां लगी हुई है। बीजिंग ओलंपिक्स यात्रा के दौरान व्लादिमीर पुतिन ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ लंबी बातचीत की। उस बातचीत का विवरण 5300 शब्दों में जारी हुआ। इतना बड़ा वक्तव्य सामान्यतः जारी नहीं होता। बिना स्पष्ट घोषणा किए  उसकी भाषा से साफ था कि चीन का समर्थन रूस को मिलेगा। वास्तव में यूक्रेन के प्रति रूस की नीति तथा ताइवान के प्रति चीन की नीति में काफी हद तक समानता है। जिस तरह पुतिन पूर्व सोवियत संघ के भौगोलिक विस्तार तक रूस को ले जाने की महत्वाकांक्षा पर काम कर रहे हैं ठीक वैसी ही चीनी विस्तारवाद की नीति भी है। यूक्रेन मामले पर पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप के विरुद्ध चीन खड़ा होता है तो स्थिति विकट होगी। दूसरी ओर चीन कल ताइवान को हड़पने की कोशिश करता है तो रूस भी उसका साथ देगा। पुतिन यूक्रेन में सफल होते हैं तो उनका अभियान यहीं तक नहीं रुकेगा और जॉर्जिया से लेकर कई बाल्टिक देशों तक इस नीति का विस्तार हो सकता है। इसी तरह चीन ताइवान के साथ-साथ मंगोलिया तक जा सकता है। इस आधार पर विचार करें तो विश्व के समक्ष उत्पन्न खतरे और चुनौतियों की भयावहता का आभास हो जाता है। 

विश्व युद्ध के खतरों को गलत मानने वाले थोड़ी गहराई से सोचें। वैसी स्थिति में होगा क्या। क्या सारे देश मुंह ताकते रहेंगे? या फिर उन्हें आगे आना होगा? जब वे आगे आएंगे तो क्षेत्रिय युद्ध होगा या विश्वयुद्ध? आखिर द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व ज्यादातर देश हिटलर की साम्राज्यवादी नीति को देखते हुए भी सैनिक टकराव से बचते रहे। जब हिटलर सीमा से आगे चला गया तब मजबूरी में यूरोपीय देशों को हस्तक्षेप करना पड़ा और फिर महायुद्ध में जैसा भीषण विनाश हुआ वह सबके सामने है। उस स्थिति से बचना है तो जाहिर है किसी देश की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं को विराम देना ही होगा। यूक्रेन के आंतरिक और रूस के साथ उसके विवाद का निपटारा हो यह विश्व समुदाय के हित में है। दुनिया में ऐसे बहुत सारे विवाद हैं और सबके समाधान के लिए युद्ध का विकल्प अपनाया जाने से संपूर्ण मानवता का नाश हो सकता है। कम से कम विश्व समुदाय मिल बैठकर विचार अवश्य करे कि इस समस्या से कैसे निपटा जाए। कितने समय तक सामने आ रही समस्याओं से कोई भागेगा? ऐसा नाहो कि जब तक समझ ले तब तक देर हो जाए। अवधेश कुमार,ई 30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092 ,मोबाइल -98110 27208

सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

राष्ट्रीय सेक्युलर मंच एवं गांधी भवन का संयुक्त आयोजन

 राष्ट्रीय सेक्युलर मंच एवं गांधी भवन का संयुक्त आयोजन
प्रतिवर्ष के अनुसार इस वर्ष भी दिनांक 28 फरवरी को हम सद्भावना दिवस के रूप में मनाएंगे। जैसा कि हम सब जानते हैं 28 फरवरी 2002 को देश के इतिहास के सबसे वीभत्स दंगों की शुरूआत हुई थी।
हम चाहते हैं कि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। इसके लिए क्या उपाय किए जाएं इस पर हम विचार करेंगे। इसके साथ ही पूर्व आईएएस अधिकारी स्वर्गीय एम. एन. बुच द्वारा गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को लिखे गए एक पत्र का वाचन किया जाएगा और उन घटनाओं पर लिखी गई कुछ मार्मिक कविताओं का वाचन भी होगा।
कार्यक्रम में आप आमंत्रित हैं।
कार्यक्रम विवरण
        दिनांक        -        28 फरवरी 2022
        समय        -        सायं 5.30 बजे
        स्थान        -        प्रवेश द्वार का बरामदा, गांधी भवन, भोपाल
       
     सधन्यवाद,
भवदीय
दयाराम नामदेव, एल. एस. हरदेनिया, (मो. 9425301582) आशा मिश्रा, शैलेन्द्र शैली, जावेद

रविवार, 20 फ़रवरी 2022

हिजाब पर बवाल: बहुआयामी निहितार्थ

राम पुनियानी

हिजाब के मुद्दे पर शुरू हुए विवाद ने गंभीर और चिंताजनक स्वरूप अख्तियार कर लिया है. कर्नाटक के उडुपी जिले के एक कालेज ने लड़कियों को हिजाब पहनकर कक्षा में प्रवेश देने से इंकार कर दिया. उसके बाद कालेज ने हिजाबधारी महिला विद्यार्थियों का कालेज के मुख्य द्वार के अंदर आना भी प्रतिबंधित कर दिया. हम सब ने वह शर्मनाक नज़ारा भी देखा जब भगवा साफे और शाल पहने हिन्दू धर्म के स्वनियुक्त पहरेदारों ने हिजाब पहने एक अकेली लड़की मुस्कान का रास्ता रोका और आक्रामक ढंग से 'जय श्रीराम' के नारे लगाए. मुस्कान ने इसका जवाब 'अल्लाहू अकबर' से दिया और अपना एसाइनमेंट जमा करने के बाद ही वह कालेज से गई. मुस्लिम लड़कियों ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, जिसने एक अंतरिम आदेश जारी कर कालेजों और स्कूलों में हिजाब और भगवा शाल पहनना प्रतिबंधित कर दिया.

इसके बाद कई महिला अधिकार संगठनों व अन्यों ने लड़कियों के हिजाब पहनने के अधिकार की जोरदार हिमायत की और दक्षिणपंथी तत्वों को लताड़ लगाई. इस घटनाक्रम से पूरे देश में साम्प्रदायिक तत्वों को बल मिला और विघटनकारी ताकतों को एक नया हथियार. सोशल मीडिया पर हिजाब पहनने वाली लड़कियों और महिलाओं के संबंध में अपमानजनक टिप्पणियां की जा रही हैं.

जो कुछ हो रहा है उससे आक्रामक हिन्दुत्ववादी समूह बहुत प्रसन्न है. उन्हें उनका एजेंडा आगे बढ़ाने का एक सुनहरा मौका मिल गया है. यह भी साफ़ है कि मुस्लिम समुदाय को आतंकित करने के लिए वे किस हद तक जा सकते हैं. जिन लोगों ने सुल्ली डील्स और बुल्ली बाई जैसे मोबाईल एप बनाए थे और जो धर्मसंसदों में कही गई बातों से इत्तेफाक रखते हैं, उनकी भी प्रसन्नता का पारावार नहीं है. वे जानते हैं कि हिजाब मुद्दे से देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा. मोहन भागवत का यह कहना कि वे धर्मसंसद में कही गई बातों से सहमत नहीं हैं केवल जनता की आंखों में धूल झोंकना है. आरएसएस के इन्द्रेश कुमार, जो राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के पथप्रदर्शक हैं, ने यह कहकर मुस्कान की निंदा की है कि उसने शांति भंग करने का प्रयास किया.

हमने यह भी देखा है कि देश के कई इलाकों में सार्वजनिक स्थलों पर नमाज अदा करने का विरोध किया जा रहा है. हालात यहां तक बिगड़ गए हैं कि नरसंहार विशेषज्ञ गेगरी स्टेनटन ने चेतावनी दी है कि नरसंहार के मामले में 1 से 10 अंकों के स्केल पर भारत 8वें अंक पर है. इसके पहले देश पर नागरिकता संशोधन अधिनियम और एनआरसी लादे गए जिससे ऐसा वातावरण बना मानों मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करने का प्रयास किया जा रहा है. दिल्ली दंगों में मुस्लिम युवकों को निशाना बनाया गया और यही सीएए के खिलाफ हुए आंदोलनों के मामले में भी हुआ. यह सब अत्यंत निंदनीय है.

हमें कुछ मुद्दों पर सावधान रहने की जरूरत है. हिन्दू दक्षिणपंथियों को मुस्लिम साम्प्रदायिकता और अतिवाद से बढ़ावा मिलता है. क्या हिजाब मुद्दे पर छिड़े विवाद में मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों की भागीदारी है? इस सिलसिले में हमें पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया की विद्यार्थी शाखा कैम्पस फ्रंट ऑफ इंडिया की गतिविधियों को भी ध्यान में रखना होगा. यह संगठन केरल में प्रोफेसर जोसफ पर हमले के पीछे था. यह समझना मुश्किल है कि एक लंबे समय से चली आ रही वह व्यवस्था, जिसके अंतर्गत मुस्लिम लड़कियां स्कूल पहुंचने तक हिजाब पहने रहती थीं और कक्षा में जाने पर उसे उतार देती थीं, को बदलने की भला क्या जरूरत पड़ गई? एक ओर से नारे लगाए जा रहे हैं कि "हिजाब पहनना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है" तो दूसरी ओर से कहा जा रहा है कि "देश शरिया के आधार पर नहीं चल सकता".

हिजाब पूरी दुनिया में बहस का विषय रहा है. जब फ्रांस में सार्वजनिक स्थानों पर हिजाब पहनने को प्रतिबंधित किया गया तब इसका जबरदस्त विरोध हुआ परंतु सरकोजी अपने निर्णय पर दृढ़ रहे. कई मुस्लिम-बहुल देशों में भी सार्वजनिक स्थलों पर हिजाब प्रतिबंधित है. इनमें शामिल हैं कोसोवो (सन् 2008 से), अजरबैजान (2010), टयूनिशिया (1981, यद्यपि 2001 में इसे आंशिक रूप से उठा लिया गया) व तुर्की. सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहमम्द बिन सलमान ने घोषणा की है कि मुस्लिम महिलाओं के लिए पूरे शरीर को ढंकने वाला अबाया पहनना अनिवार्य नहीं है. इंडोनेशिया, मलेशिया, ब्रुनेई, मालदीव और सोमालिया में भी यह अनिवार्य नहीं है. अलबत्ता ईरान, अफगानिस्तान एवं इंडोनेशिया के आचेह प्रांत में महिलाओं के लिए सार्वजनिक स्थानों पर अबाया पहनना कानूनन आवश्यक है.

भारत में स्थिति कहीं जटिल है. देश में बुर्के और हिजाब का प्रचलन काफी पहले से था परंतु बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद इसके प्रयोग में तेजी से वृद्धि हुई. वैश्विक स्तर पर खाड़ी क्षेत्र के तेल संसाधनों पर कब्जा ज़माने के अमरीका के अभियान और उससे जनित 'इस्लामिक आतंकवाद' की संकल्पना ने मुसलमानों में असुरक्षा के भाव को बढ़ाया.

बुर्के और हिजाब के प्रचलन में बढ़ोत्तरी का एक कारण भारतीयों का खाड़ी के देशों में रोजगार के लिए जाना भी है. जिस समय भारतीय काफी बड़ी संख्या में खाड़ी के देशों में जाया करते थे उस समय वहां बुर्का और हिजाब अनिवार्य था. जब ये लोग भारत लौटे तो अपने साथ हिजाब और बुर्के की अनिवार्यता का विचार भी ले आए. इन दिनों कई मुस्लिम अभिभावक लड़कियों को बचपन से ही हिजाब/बुर्का पहनाते हैं. इससे उन्हें इसकी आदत पड़ जाती है. उन्हें यह भी लगता है कि ऐसा करके वे अपने परिवार और समुदाय की भावनाओें का सम्मान कर रही हैं.

अगर कोई महिला अपनी मर्जी से हिजाब पहनना चाहती है तो उसकी इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए. परंतु समस्या यह है यदि पांच वर्ष की आयु से किसी लड़की को हिजाब पहनाया जायेगा तो वह उसकी 'इच्छा' बन जायेगा. इस्लाम के कुछ अध्येताओं का मत है कि कुरान के अनुसार, लड़कियों के लिए किशोरावस्था में कदम रखने के बाद से हिजाब पहनना ज़रूरी है. असग़र अली इंजीनियर और जीनत शौकत अली जैसे इस्लाम के जानकारों के अनुसार कुरान में नकाब और बुर्के का कहीं ज़िक्र ही नहीं है. हाँ, उसमें हिजाब (सात स्थानों पर) का ज़िक्र अवश्य है परन्तु उसका इस्तेमाल आड़ के तौर पर किया जाना है, गर्दन और चेहरे को ढंकने के लिए नहीं. हिजाब की तरह के वस्त्र कई समुदायों में इस्तेमाल होते हैं. ईसाई ननें, यहूदी और अन्य कई समुदायों की स्त्रियाँ हिजाब से मिलते-जुलते वस्त्र का प्रयोग करतीं हैं. भारत में भी एक समय घूंघट का व्यापक प्रचलन था यद्यपि समय के साथ इसमें तेजी से कमी आई है.

दरअसल, घूंघट, हिजाब इत्यादि के मूल में महिलाओं के शरीर पर नियंत्रण करने की पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति है. रूपकुंवर के सती हो जाने के बाद, भाजपा की तत्कालीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विजयाराजे सिंधिया के नेतृत्व में संसद के सामने प्रदर्शन हुआ. प्रदर्शनकारियों का नारा था कि सती होना हिन्दू महिलाओं का अधिकार है!

इस दौर में हिजाब जैसे मुद्दों पर विवाद खड़ा करना मुस्लिम लड़कियों के शिक्षा प्राप्त करने के प्रयासों को कमज़ोर करना है. इससे शिक्षा के ज़रिये उनके सशक्तिकरण में बाधा आएगी. मुस्लिम समुदाय इस मुद्दे पर जिस तरह की प्रतिक्रिया दे रहा है वह उसमें व्याप्त असुरक्षा के भाव का नतीजा है. अगर अदालत हिजाब के पक्ष में फैसला सुनाती है तो इससे मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा हासिल करने की प्रक्रिया कमज़ोर होगी. हिन्दू दक्षिणपंथी अत्यंत शक्तिशाली हैं. मुस्लिम दक्षिणपंथी, लोगों को भड़का कर हिन्दू दक्षिणपंथियों को मज़बूत कर रहे हैं. इससे असल नुकसान मुस्लिम लड़कियों और मुस्लिम समुदाय का होगा. क्या हम इसे रोक सकते हैं?

                                                                                                              

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन्  2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

एल. एस. हरदेनिया
ई-4, 45 बंगले,
टी. टी. नगर,
भोपाल 462003 (मध्यप्रदेश)

फोन 0755-2553982, 2556605

मो. 9425301582

 

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

मोहन भागवत द्वारा धर्म संसद का विरोध, अतिवादी हिंदुत्ववादियों और विरोधियों दोनों को उत्तर

अवधेश कुमार

मोहन भागवत द्वारा हाल में हिंदुत्व को लेकर अतिवादी आक्रामक बयानों की आलोचना बिल्कुल स्वाभाविक है। हालांकि इससे उस पूरे समूह में नाराजगी है, जो हिंदुत्व के नाम पर अतिवादी विचारों व व्यवहारों के समर्थक हैं। भागवत का यह कहना उन सबको नागवार गुजर रहा है कि धर्म संसद में जो कुछ कहा गया वह हिंदुत्व बिल्कुल नहीं है। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और हिंदुत्व से संबंधित नागपुर के कार्यक्रम में हिंदुत्व,  हिंदू राष्ट्र और अन्य प्रश्नों पर विस्तार से बोला है और यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की अधिकृत सोच मानी जाएगी। भागवत ने जो कुछ कहा वह नया नहीं है। दुर्भाग्य से सही समझ, सोच, नेतृत्व और मार्गनिर्देश के अभाव में पिछले कुछ वर्षों में हिंदुत्व की प्रतिक्रियावादी व्याख्या और उसके अनुसार व्यवहार करने वालों का समूह विकसित हुआ है। समस्या यह है कि हमारे देश में जब भी हिंदुत्व के नाम पर प्रतिक्रियावादी समूह या तत्व कुछ बोलते या कदम उठाते हैं तो उसे सीधे-सीधे संघ, भाजपा या पूरे परिवार से जोड़ दिया जाता है। 

 दूरगामी व्यापक लक्ष्यों के साथ अग्रसर कोई संगठन समूह इस तरह के अतिवादी विचार से स्वयं को कभी बांध नहीं सकता। विश्व इतिहास गवाह है कि प्रतिक्रियावादी विचारधारा वाले संगठन या समूहों की आयु बहुत लंबी नहीं होती। ऐसे लोगों को माहौल के कारण आरंभ में कुछ दिनों तक कुछ लोगों का समर्थन अवश्य मिलता है पर ये स्वयं अपने जीवन काल में ही कमजोर या अलग-थलग पड़ जाते हैं। अतिवादी घटनाओं की प्रतिक्रियाओं को तात्कालिक जन समर्थन मिलनि स्वभाविक होता है। किंतु सतत रूप से प्रतिक्रियावादी बने रहना किसी को भी उस विचारधारा की सच्ची और गहरी समझ से दूर रखता है । इस कारण उनके विचार और व्यवहार दोनों कभी भी संतुलित सहज स्वाभाविक और स्वीकार्य नहीं होते।

हालांकि यह दुर्भाग्य एकतरफा नहीं है। हिंदुत्व शब्द का विरोध करने वालों के साथ भी यही समस्या है। वे कतिपय नकारात्मक कारणों से जानबूझकर या अज्ञानता में हिंदुत्व की गहराई और व्यापकता को समझे बिना ही प्रतिक्रियाएं देते हैं। सीधे-सीधे हिंदू धर्म के अलावा अन्य सभी मजहबों और संप्रदायों के विरुद्ध घृणा व नफरत पैदा करने वाली विचारधारा के रूप में हिंदुत्व को व्याख्यायित किया जा रहा है। तस्वीर ऐसी बनाई जाती है मानो हिंदू धर्म की व्यापकता से परे निहायत ही संकुचित फासीवादी आक्रामक या उग्रवादी हिंसक तत्वों ने इस विचारधारा को अलग से जन्म दिया है। ये भी अपने विरोध और निंदा में सीमाओं का अतिक्रमण कर नकारात्मक अतिवाद का शिकार हैं। जैसे हिंदुत्व के नाम पर प्रतिक्रियावादी व्यक्तियों या समूह की व्याख्या गलत है वैसी ही इनकी भी। वे कहते हैं कि हमें इसे हिंदू राष्ट्र बनाना है। इनमें कुछ ऐसे तत्व हैं जो वाकई कहते हैं कि हिंदू राष्ट्र का अर्थ यहां केवल एक ही धर्म रहेगा। दूसरी तरफ हिंदुत्व के विरोध में झंडा उठाने वाले भी यही दुष्प्रचार करते हैं कि संविधान से सेकुलर शब्द हटाकर  हिंदू राष्ट्र लिख दिया जाएगा और लाल किले पर तिरंगा की जगह भगवा फहराया जाएगा। इनकी प्रतिक्रिया में वे कहते हैं कि हां ऐसा ही होना चाहिए। धर्म संसदों में दिए गए कई भाषणों में आपको इससे भी आगे की भाषा सुनाई देगी। दुर्भाग्य से हिंदुत्व से अनभिज्ञ या जानबूझकर इसके विरोध करने वालों को निंदा और दुष्प्रचार का पूरा आधार मिल जाता है। 

भागवत का पूरा वक्तव्य इन दोनों पक्षों को ध्यान में रखते हुए दिया गया लगता है। संघ परिवार की विचारधारा को निष्पक्ष होकर पढ़ने और समझने वाले मानेंगे कि हिंदू राष्ट्र से उनका अर्थ न संविधान बदलना है और न ही लाल किले या अन्य सरकारी संस्थानों पर तिरंगा हटाकर सीधे भगवा ध्वज फहरा देना है। भागवत ने कहा भी है कि हिंदू राष्ट्र बनाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह हिंदू राष्ट्र है ही। मूल समस्या हिंदू और राष्ट्र शब्द को न समझ पाने के कारण पैदा होती है। भारतीय संदर्भ में राष्ट्र का अर्थ वह नहीं है जो हम नेशनल स्टेट का मानते हैं। राष्ट्र का अभिप्राय ऐसी जीवन प्रणाली से है जो उस क्षेत्र विशेष के लोगों ने अपनाया हुआ है। इस दृष्टि से देखें तो भारत की संपूर्ण जीवन प्रणाली में हिंदुत्व स्वयमेव समाहित है। भारत में रहने वाले सभी हिंदू हैं कहने का तात्पर्य मजहब बदलकर सबको हिंदू धर्म में लाना नहीं हो सकता। राष्ट्रीयता के रूप में सभी हिंदू हैं उनका मजहब कोई भी हो सकता है। यह विचार केवल एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या वीर सावरकर जैसे लोगों का नहीं है। आप विवेकानंद से लेकर महर्षि अरविंद जैसे मनीषियों के विचारों को पढ़ेंगे तो उसमें भी यही भाव साफ-साफ परिलक्षित होता है। इस श्रेणी के सारे मनीषी अपने भाषणों में हिंदू राष्ट्र शब्द का  सहजता से प्रयोग करते हैं क्योंकि तब इसके बारे में इतनी भ्रांत धारणाएं नहीं बनाई गई थी और न इसका इस तरह विरोध था। महर्षि अरविंद ने 1893 के अपने उत्तरपारा भाषण में ही हिंदू राष्ट्र शब्द का प्रयोग किया था। स्वामी विवेकानंद भारत के संदर्भ में समानार्थी के रूप में हिंदू राष्ट्र का प्रयोग करते हैं। वे सब इसलिए ऐसा करते थे कि उन्हें अपनी धर्म संस्कृति के साथ राष्ट्र के वास्तविक अभिप्राय का बोध था। 

यह बात सही है कि विश्व भर में इस्लामी अतिवाद के डरावने उभार तथा भारत में उसके असर के कारण हिंदू समाज के अंदर व्यापक प्रतिक्रियाएं हुई।  सरकारों द्वारा सच्चाई न स्वीकार करने के कारण लोगों के अंदर गुस्सा भी पैदा हुआ और उसका प्रकटिकरण लोगों ने अन्य पार्टियों के विरुद्ध भाजपा को समर्थन देने के रूप में किया। लेकिन इसके समानांतर ऐसे तत्व भी विकसित हो गए जिनके लिए हिंदुत्व का अर्थ अन्य सभी मजहब का नकार तथा उनके मानने वालों से नफरत है। वे नाथूराम गोड्से जैसे एक हत्यारे को भी राष्ट्रभक्त कह कर उनका समर्थन करते हैं। हिंदुत्व की सर्व कल्याणकारी और व्यापक अवधारणा में दूसरे मजहब से नफरत और इस तरह की हिंसा के लिए कोई स्थान ही नहीं है। किसी मजहब के विचारों से असहमति या उसकी आलोचना करने में समस्या नहीं है किंतु ठोस तथ्यों पर आधारित होने के साथ उसकी भाषा अनुशासित और मर्यादित होनी चाहिए। इसी तरह किसी मजहब के अतिवादियों का विरोध करना भी उचित है किंतु उसमें उसी तरह के आचरण की आक्रामक वकालत हिंदुत्व के व्यापक लक्षणों के विरुद्ध है। वैसे भी हिंदुत्व और हिंदुत्व विरोधियों के बीच संघर्ष विचारधारा का है। इनका उत्तर विचारधारा और उसके आधार पर  विकसित जन समर्थन से ही किया जाना चाहिए। भागवत ने राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में हिंदुत्व के सभी पहलुओं की एक बार फिर से व्याख्या कर हिंदुत्व और हिंदुत्व मवादियों के संदर्भ में दोनों पक्षों द्वारा पैदा किए जा रहे भ्रमों का खंडन करने की सुविचारित प्रभावी कोशिश की है। उम्मीद करनी चाहिए कि इसका असर होगा और भ्रम के शिकार लोग भी अपनी सोच व व्यवहार पर पुनर्विचार करेंगे। राजनीतिक या अन्य कारणों से हिंदुत्व विचारधारा के विरोध करने वालों से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती लेकिन अगर स्वयं को हिंदुत्ववादी कहने वालों ने अपने व्यवहार को इसकी व्यापकता के अनुरूप संशोधित परिवर्तित नहीं किया तथा यह गलतफहमी पाले रहे कि संघ और भाजपा इसी विचारधारा को मानती है तो वे अपने साथ हिंदुत्व विचारधारा को ज्यादा क्षति पहुंचाते रहेंगे।

अवधेश कुमार, ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली-110092, मोबाइल-9811027208

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

माहौल बिगाड़ने के विरुद्ध घातक प्रतिक्रिया

अवधेश कुमार

पहले चरण के मतदान के साथ पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की शुरुआत हो गई है। वैसे तो ये सभी चुनाव महत्वपूर्ण है लेकिन सबसे ज्यादा नजर उत्तर प्रदेश एवं उसके बाद पंजाब पर लगी हुई है। पंजाब सुरक्षा की दृष्टि से जम्मू कश्मीर के बाद दूसरा सबसे संवेदनशील राज्य है। पिछले करीब 1 साल से पंजाब कांग्रेस में मची हलचल और कैप्टन अमरिंदर सिंह के विदाई के बाद बदलते  राजनीतिक समीकरणों के कारण लोगों की उत्सुकता यह जानने में है कि वहां के आगे की राजनीति का बागडोर किसके हाथों में रहेगा। जिस तरह पिछले कुछ महीनों में वहां फिर से उग्रवाद पैदा करने के प्रमाण मिले हैं उससे भी या चुनाव महत्वपूर्ण हो गया है।  इसके समानांतर भारत का शायद ही कोई कोना हो जहां राजनीति में रुचि रखने वाले व्यक्ति की निगाहें उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव पर न लगी हो। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद भारत भर में अपने समर्थकों और विरोधियों का समूह खड़ा किया है। उत्तर प्रदेश के चुनाव को  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ,उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य क साथ पूरी भाजपा का विरोध करन वालों ने जिस वैचारिक स्तर पर लिया है उससे यह किसी राज्य का विधानसभा  चुनाव न होकर राष्ट्रीय चुनाव जैसा हो गया है। आप देखेंगे कि सोशल मीडिया ही नहीं, मुख्य मीडिया के माध्यम से यह उन देशों में भी चर्चा का विषय बना है जिनकी अभिरुचि भारत में है। पंजाब को लेकर भी अभिरुचि भारत के बाहर है लेकिन उसका चरित्र उत्तर प्रदेश से अलग है। 


 इसमें असदुद्दीन ओवैसी का हमला देश और विदेश की मीडिया की सुर्खियां तथा व्यापक चर्चा का विषय बना ही था। एक सांसद पर हमला होगा तो  संसद के अंदर उसकी जानकारी देना सरकार का दायित्व बनता है। इस नाते केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने असदुद्दीन ओवैसी पर हुए हमले की पूरी जानकारी और कानूनी स्थिति को संसद में रख दिया। असदुद्दीन ओवैसी पर हमला से लेकर संसद के बयान तक  पश्चिम उत्तर प्रदेश का चुनाव अभियान अपने चरम पर आ चुका था।यद्यपि हमलावर गिरफ्तार हो चुके हैं। उनका पिछला कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है। वे किसी संगठन से भी नहीं जुड़े हैं। उनके सोशल मीडिया अकाउंट से पता चलता है कि किस तरह उनके अंदर  बढ़ते इस्लामिक कट्टरता को लेकर गुस्सा था और वे इसे राष्ट्रभक्ति के रूप में लेकर किसी भी स्तर पर जाने को तैयार थे। कानून अपने अनुसार उनको सजा देगा। अभी तक की जांच में   ऐसा कोई पहलू नहीं मिला है  जिससे रत्ती भर भी संदेह हो कि इसके पीछे किसी संगठन या किसी संगठित समूह की  भूमिका थी। लेकिन देख लीजिए ऐसा लग रहा है जैसे सुनियोजित तरीके से उन पर हमला कराया गया हो।  सच कहें तो उत्तर प्रदेश चुनाव में जिस तरह का  माहौल बनाया गया है प्रतिक्रियाएं भी उसी के अनुरूप आ रहीं हैं। सच यह है कि  पूरे चुनाव के दरमियान गैर भाजपा दलों ने मुसलमानों के अंदर डर का मनोविज्ञान पैदा करने की कोशिश की है। यद्यपि सपा और रालोद के शीर्ष नेता सार्वजनिक वक्तव्य में ऐसी कोई बात कहने से बचते हैं जिससे लगे कि वे किसी स्तर पर मुसलमानों को आकर्षित करने में लगे हैं। कारण साफ है। उन्हें भय है कि अगर यह संदेश चला गया कि वे मुसलमानों के वोट के लिए लालायित हैं तो वर्तमान वातावरण में हिंदुओं का बड़ा समूह इसके विरुद्ध मतदान कर सकता है। इसलिए वे सार्वजनिक स्तर पर नहीं बोलते लेकिन उस क्षेत्र का दौरा करने वाले जानते हैं कि किस तरह पूरा वातावरण बनाया गया है। मुसलमानों के अंदर भाजपा और और उसके समर्थक हिंदुओं का भय पैदा कर वोट लेने की रणनीति ने घातक तनाव और सांप्रदायिकता का वातावरण पैदा कर दिया है। इसके परिणाम क्या हो सकते हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं।

 दूसरी ओर असदुद्दीन ओवैसी  की सोच लंबे समय से देश के सामने है। हैदराबाद से बाहर निकलकर उन्होंने देश भर में  स्वयं को मुसलमानों का सबसे बड़ा रहनुमा साबित करने के लिए  जिस आक्रामकता से अपने घातक विचारों की अभिव्यक्ति की है उससे वातावरण  विषाक्त हो रहा है। वे  इस समय उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की बात ऐसे करते हैं मानो वर्तमान शासन में  उन्हें हिंदुओं के बड़े समूह के दबाव और आतंक में जीना पड़ रहा है। वे बैरिस्टर हैं इसलिए सोच समझकर ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करते जिससे कानूनी रूप से गिरफ्त में आ सकें।  ओवैसी बंधुओं के बयानों ने पूरे भारत में गैर मुस्लिम समुदाय खासकर हिंदुओं के बड़े समूह के अंदर गुस्सा पैदा किया है। कौन जानता है कि उनके भाषणों और बयानों के कारण स्थानीय स्तर पर कैसी स्थिति बनी होगी।  विवेकशील व्यक्ति कभी नकारात्मक या हिंसक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते,  किंतु हमारा संपूर्ण समाज हर समय विवेक और संतुलन से ही विचार करें यह आवश्यक नहीं।  असंतुलित , नासमझ और विषयों की सही समझ न रखने वाले  उत्तेजना में ना तक जा सकते हैं। पता नहीं लोग गुस्से में क्या-क्या कर बैठते हैं।  ओवैसी, सपा, रालोद, कांग्रेस या ऐसे अन्य दलों के नेता समझने को तैयार नहीं कि मुस्लिम वोट पाने या मुसलमानों को भाजपा के विरुद्ध उकसाने के उनके रवैया के विरुद्ध  भी प्रतिक्रिया हो रही है। ओवैसी पर जानलेवा हमला  समझने के लिए पर्याप्त है कि पूरा माहौल किस खतरनाक दिशा में जा रहा है।  यह तो सौभाग्य कहिए कि  हमारे समाज का बहुमत हिंसा को कभी समर्थन नहीं देता इसलिए इस तरह की हिंसक प्रतिक्रियाओं की बहुत ज्यादा संभावना नहीं दिखती। लेकिन अगर प्रतिक्रिया में ऐसे तत्व बन रहे हैं तो क्या थोड़ा ठहर कर अपनी पूरी राजनीति पर इन दलों को विचार नहीं करना चाहिए?

 बार-बार अगर जाट मुस्लिम एकता की बात की जाएगी तो उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया भी होगी। इसी तरह कोई बार-बार मुसलमानों का पीड़ित तथा  शासन के अंदर उन्हें दबा कुचला बताएगा तो उससे खीझ व गुस्सा पैदा होगा। वैसे भी  जिस जाट मुस्लिम एकता की बात की जा रही है वैसा ही धरातल पर नहीं है।   जाट  ऐसे नहीं है कि अपनी जाति के किसी एक व्यक्ति के कारण एक पार्टी के खिलाफ हो जाए। कानून व्यवस्था अपना काम करेगा लेकिन प्रति क्रियात्मक तनाव का वातावरण बनाते हुए कानून व्यवस्था को दोषी ठहराने वालों को क्या कहा जाएगा?  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा कैराना से लेकर अन्य जगहों के बारे में दिए गए वक्तव्यों को विरोधी सांप्रदायिकता का प्रतीक बताते हैं। इस पर हमारी आपकी जो भी राय हो लेकिन क्या कैराना से हिंदुओं का पलायन नहीं हुआ था? क्या वे हिंदू फिर से वर्तमान शासन में वापस नहीं आए? भाजपा स्वभाविक ही इसे उठाएगी और बताएगी कि पूर्व शासन में किस तरह एक समुदाय का मनोबल बढ़ा दिया गया था। ओवैसी, सपा रालोद या कांग्रेस के लिए मुसलमानों के विरुद्ध कोई घटना मुद्दा है तो हिंदुओं के साथ ऐसी घटनाएं मुद्दा क्यों नहीं  बन रही है?  आप अगर अपने वक्तव्य और रणनीति में  जिम्मेदार रहेंगे तो भाजपा को इसका अवसर नहीं मिलेगा।  आपको लगता है कि मथुरा का मुद्दा उठा देंगे तो मुसलमान वोट कट जाएगा  लेकिन भाजपा सोचती है कि यह मुद्दा हिंदुओं के दिलों में है इसे उठाना चाहिए तो उठा रही है। ओवैसी इसके विरुद्ध अगर आग उगलेंगे  तो हिंदुओं के अंदर प्रतिक्रिया होगी क्योंकि करोड़ों की आस्था वहां है। आप कहेंगे कि मुजफ्फरपुर दंगे को भुला दीजिए तो उसे भुलाने के लिए आपने क्या किया यह भी तो सवाल उठता है।

 पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाने वाले जानते हैं कि जमीन के स्तर पर ये सारे सवाल उठ रहे हैं। मतदाता अवश्य समझ रहे होंगे कि उत्तर प्रदेश ही नहीं संपूर्ण भारत और भारत के बाहर के लोग इस चुनाव को किस रूप में ले रहे हैं। इस चुनाव  को प्रभावित करने के पीछे कौन-कौन सी शक्तियां चारों तरफ सक्रिय हैं।ओवैसी हमला मतदान वे प्रदेश में कैसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं। निश्चित रूप से विवेकशील मतदाता इन सारी स्थितियों को देख रहे होंगे और उसके अनुसार ही हुए अपना मतदान करेंगे।

 अवधेश कुमार, ई 30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092, मोबाइल 981102 7208

शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

बजट में अर्थव्यवस्था के सभी अंगो का ध्यान रखा गया

अवधेश कुमार 

वित्त मंत्री  निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत चौथे बजट के बारे में अगर थोड़े शब्दों में कहना हो तो यही कहा जाएगा कि नरेंद्र मोदी सरकार की पहले से चली आ रही दीर्घकालीन लक्ष्य से भारत को मजबूत आर्थिक शक्ति बनाने के लक्ष्य को ही साधने वाला है। उन्होंने अपने भाषण के आरंभ में कहा भी की आजादी के 75 में वर्ष में अगले 25 वर्ष यानी आजादी के 100 वर्ष पूरा होने तक के आधार देने वाला बजट है।वित्त वर्ष 2023 के लिए कुल 39.45 लाख करोड़ रुपये का बजट भारत के बढ़ते वित्तीय आकार का द्योतक है। हालांकि प्रश्न उठाया जा सकता है कि जब  कुल आमदनी 22.84 लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान है तो फिर इतने खर्च के लिए धन आएगा कहां से? हम सब जानते हैं कि सरकार हम एक स्रोतों से बजट लक्ष्य को पूरा करने के लिए धन प्राप्त करती है और यह एक स्थापित व्यवस्था है। कोरोना की मारने विश्व के अन्य देशों की तरह भारत की अर्थव्यवस्था को भी काफी क्षति पहुंचाई। हालांकि देश की अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति 2020-21 की तुलना में बेहतर है। 2020-21 में राजकोषीय घाटा 9.3% की ऊंचाई तक चला गया था जो खतरनाक था। 2021-22 में इसे घटाकर सकल घरेलू उत्पाद का 6.8% का लक्ष्य रखा गया था और यह पूरा हुआ। 2025 26 तक राजकोषीय घाटा का लक्ष्य 4.5% तक लाने का लक्ष्य सरकार ने पहले से घोषित किया हुआ है। अप्रैल से नवंबर 2021 के जो वास्तविक आंकड़े हैं उनके अनुसार इस वित्तीय वर्ष का राजकोषीय घाटा लक्ष्य से भी बेहतर यानी 6.6% रह सकता है। 

यह कोरोना महामारी से पीड़ित अर्थव्यवस्था के लिए सामान्य उपलब्धि नहीं है। यह उपलब्धि तब और बड़ी हो जाती है जब पता चलता है कि 2021-22 के प्रस्तावित बजट खर्च में अनुपूरक मांग जोड़कर 35 लाख करोड़ से 38 लाख करोड़ कर दिया गया जबकि दूसरी ओर विनिवेश से 1.75 लाख रुपए रुपए की आय का लक्ष्य था जबकि प्राप्ति इसके 5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो पाई है। 

इन सबके बावजूद अगर राजकोषीय घाटा लक्ष्य भी बेहतर प्रदर्शन कर रहा है तो इसका मतलब है कि विकास की गति तेज है और राजस्व अपेक्षा अनुरूप प्राप्त हो रहा है। 2021-22 के बजट में 17.9 लाख करोड़ प्राप्ति का लक्ष्य था। आयकर विभाग ने जो आंकड़े दिए है उसके अनुसार 16 दिसंबर 2021 तक शुद्ध प्रत्यक्ष कर संग्रह 9.5 लाख करो रुपए हो चुका है। यह पिछले वर्ष की तुलना में 61% ज्यादा है। वित्त मंत्रालय ने भी आंकड़ा जारी किया है जिसके अनुसार 2021-22 में प्रतिमाह औसतन 1.2 लाख करो रुपए का जीएसटी कर संग्रह हो रहा है। बजट पेश करने के पहले ही पिछले महीने का जीएसटी आंकड़ा 1.38 लाख करोड़ रहा है। इस तरह संतोषजनक कर राजस्व की प्राप्ति से केंद्र सरकार की आय बढ़ी है और राजकोषीय घाटा में अपेक्षा से बेहतर सुधार बता रहा है कि भारत मंदी के दौर से बाहर निकल रहा है। 2021-22 की पहली और दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर यानी आर्थिक वृद्धि दर क्रमश 20.1% और 8.4% रहने के बाद पूरे वर्ष सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर 9.2% रहने की संभावना है। बजट में इसे रेखांकित किया गया है। आर्थिक विकास दर में वृद्धि का एक बड़ा कारण सकल स्थाई पूंजी निर्माण के बेहतर स्थिति है जो वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 11% से ज्यादा बढ़ा और 2019-20 से तुलना करें तो 1.5% ऊपर चला गया है। यह तभी होता है जब अर्थव्यवस्था में बेहतर निवेश हो। इसलिए निर्मला सीतारमण के पास आत्मविश्वास और भविष्य के लिए बेहतर अपेक्षाओं के पर्याप्त आधार उपलब्ध है। इस समय वित्त मंत्री के सामने मुख्य लक्ष्य हर हाल में विकास की गति को और तेज करना तथा आम जन को ध्यान में रखते हुए समावेशी विकास करना है। इसके लिए निवेश बढ़ाना तथा लोगों की आय बढ़ाना आवश्यक है । इससे ही रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे तथा लोगों को महंगाई की मार से निजात मिलेगी। लोगों की जेब में पैसा आएगा तो वह खरीदारी करेंगे और इससे पूरी अर्थव्यवस्था ठीक तरीके से संचालित होगी। सीतारमण ने बजट भाषण में अपनी प्राथमिकताएं इस प्रकार बताई- पीएम गति शक्ति, समावेशी विकास, उत्पादकता वृद्धि और निवेश, सनराइज अपॉर्च्युनिटी, ऊर्जा संक्रमण और जलवायु पर कदम और निवेश का वित्तपोषण।  उन्होंने यह भी कहा कि पीएम गति शक्ति 7 इंजनों द्वारा संचालित होती है: सड़क, रेलवे, हवाई अड्डे, बंदरगाह, जन परिवहन, जलमार्ग और रसद बुनियादी ढांचा। सभी 7 इंजन अर्थव्यवस्था को एक साथ आगे बढ़ाएंगे।  मापदंडों के आधार पर विचार करें तो 20000 करोड़ रुपए के निवेश से 2022-23 के बीच नेशनल हाईवे की लंबाई 25000 किमी तक बढ़ाए जाने का ऐलान है। मोदी सरकार सड़क रेल जलवायु यातायात को विश्व का आधुनिकतम मजबूत स्वरूप देने पर लगातार काम कर रही है। इसमें पहाड़ी क्षेत्रों में पारंपरिक सड़कों के लिए राष्ट्रीय रोपवे विकास कार्यक्रम को पीपीपी मोड में भी लेने की बात है।  इसी तरह सौर ऊर्जा लक्ष के साथ डीजल डिजिटल गतिविधियों को ऊंचाई तक ले जाना सरकार का एक बड़ा लक्ष्य है। 2030 तक सौर क्षमता के 280 गीगावाट के लक्ष्य के लिए 19,500 करोड़ रुपए का अतिरिक्त आवंटन किया गया है। इस साल 5 जी सेवा शुरू होगी । 2025 तक गांवों में ऑप्टिकल फाइबर बिछाने का काम पूरा होगा। अगले तीन  वर्षों के दौरान बेहतर दक्षता वाली 400 नई पीढ़ी की वंदे भारत ट्रेनें लाई जाएंगी। अगले तीन वर्षों के दौरान 100 प्रधानमंत्री गति शक्ति कार्गो टर्मिनल विकसित किए जाएंगे और मेट्रो प्रणाली के निर्माण के लिए नवीन तरीकों का कार्यान्वयन होगा। ये ऐसी महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं जिनके पूरा होने में निश्चित रूप से समय लगेगा लेकिन फोकस करके काम किया जाए तो भारत आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिए पहले से बेहतर आधारभूत संरचना वाला देश बनेगा। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम यानी एमएसएमई के योगदान को कोई नकार नहीं सकता। इसके लिए भी कई महत्वपूर्ण घोषणाएं की गई हैं। इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम के तहत 130 लाख से अधिक एमएसएमई को कर्ज दिए गए हैं। ईसीएलजीएस के दायरे को 50 हजार करोड़ रुपए से बढ़ाकर 5 लाख करोड़ रुपए तक कर दिया गया है। इससे 2 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त कर्ज मिल सकेगा। रेलवे छोटे किसानों और छोटे व मध्यम उद्यमों के लिए नए उत्पाद और कुशल लॉजिस्टिक सेवा तैयार करेगा। उद्यम, ई-श्रम, एनसीएस और असीम के पोर्टल्स को इंटर लिंक किया जाएगा, जिससे इनकी पहुंच व्यापक हो जाएगी। इसमें ऋण सुविधा, उद्यमशीलता के अवसरों को बढ़ाना शामिल होगा।

अर्थव्यवस्था में कार्बन फुटप्रिंट पहल को कम करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं में सॉवरेन ग्रीन बांड जारी किए जाएंगे।

कृषि क्षेत्र की ओर पूरे देश की नजर थी। भारत में कृषि जितना बेहतर होगा किसानों की आय जितनी बढ़ेगी आर्थिक ताकत को उतना ही सशक्त आधार मिलेगा। सरकार 2022 यानी इस वर्ष तक किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य पर कायम है। वित्त मंत्री ने कहा कि समावेशी विकास सरकार की प्राथमिकता है जिसमें धान, खरीफ और रबी फसलों के लिए किसान शामिल हैं। इसके तहत 1,000 लाख मीट्रिक टन धान की ख़रीद की उम्मीद है। इससे 1 करोड़ से अधिक किसान लाभान्वित होंगे। रबि के लिए 2021-22 में गेहूँ खरीफ में 2021-22 में 163 लाख किसानों से 1208 लाख मीट्रिक टन गेहूं और धान खरीदे जाने का लक्ष्य है। इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत 2.37 लाख करोड़ रुपये का भुगतान किसानों के खाते में सीधे होगा।न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर जारी विवाद के बीच सरकार ने बजट के माध्यम से इसकी अस्पष्ट घोषणा करना उचित समझा है।  साल 2023 को सरकार ने मोटा अनाज वर्ष घोषित किया है। सरकार मोटे अनाज उत्पादों की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ब्रांडिंग पर जोर देगी। सिंचाई पर भी खासा जोर है। 44605 करोड़ रुपये की लागत से केन-बेतवा लिंक परियोजना को शुरू करने का ऐलान हुआ है।किसानों और स्थानीय आबादी को सिंचाई, खेती और आजीविका की सुविधा प्रदान करने वाली 9 लाख हेक्टेयर से अधिक किसानों की भूमि की सिंचाई प्रदान करने के लिए किया जाएगा। फसल मूल्यांकन, भूमि रिकॉर्ड, कीटनाशकों के छिड़काव के लिए किसान ड्रोन के उपयोग से कृषि और कृषि क्षेत्र में प्रौद्योगिकी की लहर चलने की उम्मीद है। वित्त मंत्री ने किसानों को डिजिटल और हाईटेक सेवाएं देने के लिए निजी और सार्वजनिक भागीदारी यानी पीपीपी मॉडल की शुरुआत करने की घोषणा की। किसानों के लिए प्राकृतिक खेती को अपनाने के लिए, राज्य सरकारों और एमएसएमई की भागीदारी के लिए व्यापक पैकेज पेश किया जाएगा। ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा दिया जाएगा। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत 48,000 करोड़ रुपये से 80 लाख सस्ते घर बनाना जन कल्याण, विकास, रोजगार और समावेशी विकास  के लक्ष्य को एक साथ साधता। आत्मनिर्भर भारत के तहत 16 लाख नौकरियां तथा स्टार्ट अप के द्वारा 60 लाख का लक्ष्य महत्वाकांक्षी है, लेकिन यह कई परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। 

तो लक्ष्य और सारी घोषणाएं उम्मीद पैदा करती हैं। समावेशी विकास किसी अर्थव्यवस्था का लक्ष हो सकता है। अर्थव्यवस्था में सभी वर्गों का ध्यान रखे जाने से लगता है सरकार संतुलित समावेशी आर्थिक विकास के रास्ते पर आगे बढ़ रही है। हालांकि आयकर छूट की सीमा न बनाए जाने से निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग में थोड़ी निराशा है किंतु लगता है इसके लिए और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अगर आर्थिक विकास बढ़ता है हमारी आपकी आय बढ़ती है तो बहुत समस्या नहीं होगी लेकिन कोना के कारण देश के बड़े बढ़ती आय घटी और खर्च बड़ी है।अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ रही है और या उत्साहजनक स्थिति है। लेकिन वित्त मंत्री ने स्वयं कहा कि सारे लक इस बात को ध्यान में रखकर तय किए गए हैं कि कोरना महामारी अब नहीं आएगी। कामना करें कि मां मारी पहले की तरह आक्रमण नहीं करेगी।

अवधेश कुमार,  ई-30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली-110092, मोबाइल-9811027208



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