शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

इसे अंधराष्ट्रवाद कहना राष्ट्रीय भावनाओं का अपमान

 अवधेश कुमार

इस समय भारत के अधिकतर व्यक्तियों के पास कोई न कोई सुझाव है। हर निवासी को ऐसे आतंकवादी दुस्साहस के बाद अपने देश की सुरक्षा तथा आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष की मांग एवं इसके लिए सुझाव देने का अधिकार है। हालांकि यह भारत देश है जहां ऐसी पीड़ा और क्षोभ पैदा करने वाली घटना में भी कुछ लोगों को राजनीति नजर आ रही है। कुछ लोग मीडिया द्वारा शहीदों के शवों के अंतिम ंसंस्कारों से लेकर लोगों के आक्रोश प्रकटीकरण की कवरेज को अंधराष्ट्रवाद या उन्माद पैदा करने वाला कारनामा साबित करने पर तुले हैं। भारत माता की जय तथा वंदे मातरम का सामूहिक नारा भी इन्हें अंधराष्ट्रवाद लग रहा है। ऐसे लोगों के बारे में क्या शब्द प्रकट किया जाए यह आप तय करिए। क्या यह अंधराष्ट्रवाद है? अंधराष्ट्वाद पश्चिम द्वारा दिए गए शब्द जिंगोइज्म का हिन्दी अनुवाद है। हालांकि इसका अर्थ यह नहीं है जैसा बताया जा रहा है। अंधराष्ट्रवाद के अंदर बिना किसी कारण के अपने देश को सबसे बेहतर मानने का गुमान तथा दूसरे राष्ट्रों से घृणा,उनका विरोध तथा उन पर हमला करने तक विस्तारित होता है। उसका एक स्वरुप फासीवाद, साम्राज्यवाद भी है। ऐसे महाज्ञाता लोग जो देश की मानसिकता को प्रदूषित करने की भूमिका निभा रहे हैं वह पुलवामा में आतंकवादियों की वारदात से छोटा अपराध नहीं है। आखिर ये चाहते क्या हैं? हमारे यहां पड़ोसी आतंकवादियांे को भेजकर हमला कराए, एक साथ इतने जवानों को शहीद कर दे और देश इसलिए चुप रहें कि वे अगर गुस्सा प्रकट करेंगे तो लोग उन्हें जिंगोइस्ट, फासिस्ट आदि शब्दों से गालियां देंगे?

इसका साफ उत्तर है, नहीं। जो लोग ऐसा लिख-बोल रहे हैं उनसे पूछिए कि आपके पास इसका क्या समाधान है तो इनके पास कोई उत्तर नहीं है। इनमें ऐसे लोग भी शामिल हैं जो पाकिस्तान के पिट्ठू और देश को तोड़ने की खुलेआम बात करने वाले, भारत का खाते हुए स्वयं को भारत का नागरिक न मानने वाले, स्वयं को पाकिस्तानी कहने वाले हुर्रियत नेताओं से जाकर गले मिलते हैं, संभव होने पर उनको अपने बुद्धि विलास कार्यक्रम में बुलाकर सम्मान करते हैं....। यह बात अलग है कि भारत के आम समाज में इन्हें कभी स्वीकृति नहीं मिलती। किंतु इन्होंने भी अपना एक समुदाय सृजित कर लिया है जिसकी ताकत हर प्रकार की सत्ता में है। साहित्य, पत्रकारिता, कला, अकादमी, एक्टिविज्म,एनजीओ से लेकर सत्ता के दूसरे अंगों और यहां तक कि विदेशों तक इनका प्रभाव है। हां, ये कभी समाज के मुख्यधारा के अंग नहीं हैं लेकिन वे पत्रकारों, लेखकों यहां तक कि नेताओं और नौकरशाहों तक पर स्थायी मनोवैज्ञानिक दबाव निर्मित करने में काफी हद तक सफल रहते हैं। दुनिया में ऐसा शायद ही कोई देश होगा जहां आतंकवाद और देश की सुरक्षा के मुद्दे पर इस तरह की गलीज सोच रखने वाला प्रभावी समुदाय होगा।

यह कितनी अजीब स्थिति है। एक ओर दुनिया के बड़े-छोटे देश भारत के प्रति संवेदना और सहयोग का वक्तव्य दे रहे हैं। विदेशी नेताओं और नौकरशाहों का फोन हमारे यहां रहे हैं, कुछ देशों ने तो भारत के संघर्ष में खुलेआम साथ देने का बयान दे दिया है। अमेरिका ने तो पाकिस्तान को सीधी चेतावनी दी है। दूसरी ओर यह वर्ग है जो मानने लगा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कारण देश में इस घटना के बाद से जिंगोइज्म पैदा हो रहा है जो एक दिन हमें बर्बाद कर देगा। कैसी शर्मनाक सोच है। आखिर भारत में इस समय पाकिस्तान के अलावा किसी देश के खिलाफ वातावरण है? भारत के लोग जिंगोइस्ट होते तो वे कितने देशों से नफरत तथा गुस्सा पालते और प्रकट करते। इसका विस्तार से चर्चा इसलिए जरुरी है कि कल अगर पाकिस्तान के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई होती है तो इनके शब्दवाण ज्यादा तीखे होंगे। ये सरकार पर आरोप लगाएंगे कि जिंगोइज्म पैदा कर इसका राजनीतिक लाभ लेने की नीति पर काम हो रहा है। मोदी इसका राजनीतिक फायदा उठाना चाहता है।

कुछ ऐसा ही करीब 20 वर्ष पूर्व करगिल युद्ध के समय था। भारत की सीमा में पाकिस्तानी घुसपैठियों के जगह जमा लेने की सूचना पर पूरे देश में उबाल था। सरकार ने पाकिस्तान को पहले चेतावनी दी और न मानने पर फिर सैनिक कार्रवाई आरंभ हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने स्वयं मोर्चा संभाला एवं रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस उनके सक्रिय सहायक के नाते भूमिका निभाते रहे। देश का बहुमत उस युद्ध में एकजुट था। किंतु उस समय के समाचार पत्र या टीवी के फुटेज निकाल लीजिए। ये लोग उस समय भी सरकार के खिलाफ विषवमन करते रहे। अपने देश की नीति के खिलाफ बोलते रहे। जार्ज फर्नांडिस जब युद्धसीमा पर जाकर सैनिकों के साथ वंदे मातरम और भारत माता की जय का नारा लगाते तो ये उन्हें फासिस्ट घोषित करते थे। जब उन्होंने निर्णय किया कि परंपरा तोड़कर युद्ध में शहीद हुए सैनिकों का शव उनके घर भेजा जाए तो इसका कुछ हलकों में तीखा विरोध हुआ। इसे भी जिंगोइज्म पैदा करने का कदम घोषित किया गया। सैनिकों के शव का दर्शन करने भीड़ उमड़ने लगी, राष्ट्रवाद की लहर पैदा हुई और दूसरी ओर ये छाती पीटकर स्यापा करते रहे। संयोग से उस समय सरकार का लोकसभा में पतन हो चुका था तथा चुनाव की घोषणा कभी भी होने वाली थी। इसे वाजपेयी द्वारा लोगों की भावनायें भड़काकर चुनावी लाभ लेने की चाल साबित की जाती रही। और कुछ नहीं मिला तो जार्ज फर्नांडिस को कफनचोर बोला गया। जो ताबूत मंगाए गए थे उसमें भ्रष्टाचार की बात उठाई गई। यह बात अलग है कि उसके काफी सालों बाद उच्चतम न्यायालय ने इस आरोप का निराधार करार दे दिया।

कहने का तात्पर्य यह कि ये तत्व हमेशा रहे हैं, आमलोगों से लेकर कई बार नीति-निर्माताओं तक को भ्रमित कर देते हैं। एक युद्ध हमें आतंकवादी और बाहरी दुश्मन से लड़ना होता है तो दूसरा अपने अंदर के इन कुंठित महाज्ञानियों से। करगिल में हमें यही करना पड़ा। हालांकि हमारे जवानों ने अपने शौर्य और अनुशासन ने करगिल युद्ध में विजय प्राप्त की तथा पाकिस्तान के कई हजार सैनिकों को मौत की नींद सुला दिया। वस्तुतः अभी तो इनका स्वर निकलना आरंभ हुआ है। जैसे-जैसे भारत कार्रवाई की ओर बढ़ेगा इनके स्वर ज्यादा प्रबल और तीखे हांेगे। पूरे करलिग युद्ध को भी इनने बदनाम करने की कोशिश की। यहां तक मानने में हमंे कोई हर्ज नहीं है कि सीआरपीएफ के उतने बड़े काफिले पर आतंकवादी हमला करने में सफल हुआ तो यह हमारी सुरक्षा व्यवस्था में चूक है। आखिर कोई आतंकवादी समूह अपने एक आत्मघाती को विनाश मचाने वाले विस्फोटकों से भरी गाड़ी को वहां तक ले जाने में सफल हुआ, घंटों वहां प्रतीक्षा करता और पकड़ में क्यों नहीं आया? हमें इसकी जांच करानी चाहिए। पर हम ऐसी स्थिति तो बनाए नहीं रख सकते कि हमारे जवानों के लिए भी सड़कों से गुजरने में जान का जोखिम बना रहे। तो इसका जो कारण है उसे जड़मूल से नष्ट करने के लिए जो भी संभव हो किया जाए। और जब तक जरुरी हो तब तक कार्रवाई की जाए। इसमंें देश का जितना संसाधन लगे लगाया जाए, जितने लोगांें की बलि चढ़नी हो चढ़े......किंतु यह स्थिति खत्म होनी चाहिए। अपने को सुरक्षित करने के लिए की जाने वाले सैन्य कार्रवाई या परोक्ष युद्ध की रणनीति को परास्त करने के लिए किया गया हमला या आतंकवादियों तथा उनको पालने पोसने वालों का विनाश करना जिंगोइज्म की श्रेणी में नहीं आता। एक देश के नाते अपने को सुरक्षित करना तथा सम्पूर्ण मानवता को भयमुक्त करने का पुण्यकार्य है। जिंगोइज्म रटने वालों के लिए तो पाप और पुण्य शब्द ही लोगों को भ्रमित करने वाले हैं। तो इनके शब्दजाल से भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। हां, इनके कारण हमको दो मोर्चों पर एक साथ लड़ना होगा। इसमें किसे राजनीतिक लाभ मिलेगा किसे नहीं मिलेगा यह विचार का विषय होना ही नहीं चाहिए। आखिर चुनाव में जो भी जीतेगा वो होगा तो भारत का ही दल। इस आधार पर राष्ट्र की रक्षा और सुरक्षा संबंधी कार्रवाई नहीं हो सकती। वास्तव में मूल बात यह है कि क्या हमारी मानसिक तैयारी आतंकवाद और परोक्षयुद्ध के अंत करने तक संघर्ष की है या नहीं? यही वह प्रश्न है जो सबसे ज्यादा मायने रखता है। जिंगोइज्म-जिंगोइज्म चिल्लाने वालांें को नजरअंदाज करते हुए या कई बार उनको करारा प्रत्युत्तर देते हुए देश को मानसिक रुप से अपने तथा आने वाली पीढ़ी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तैयार रहना होगा। यह जिंगोइज्म नहीं राष्ट्र के प्रति हमारा दायित्व है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

इन त्रासदियों का अपराधी कौन है

 

अवधेश कुमार

इस त्रासदी का वर्णन करने के लिए शब्द तलाशना मुश्किल है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जहरीली शराब ने जैसा कहर बरपाया है उससे दिल तो दहला ही है, हर विवेकशील व्यक्ति के अंदर गुस्सा पैदा हो रहा है। आखिर यह कैसा समाज है, कैसी शासन व्यवस्था है जहां जीवन को हर क्षण जोखिम में डालने का धंधा खुलेआम चल रहा है। अगर आप उस क्षेत्र के नहीं हैं तो कल्पना करिए कि तीन जिलांे में जहरीली शराब पीने से 100 से ज्यादा लोग असमय मौत के मुंह में समा जाएं, उतनी ही संख्या में बीमार अस्तपतालों में जीवन और मौत से जूझ रहें तो तस्वीर कैसी होगी! एक गांव में दो दर्जन लाशें एक के बाद एक पहुंचे तो कैसा कोहराम मचता होगा। जिस परिवार के सभी वयस्कों की एक साथ मृत्यु हो जाए उसके शेष सदस्यों की दशा कैसी होगी! अगर कोई प्राकृतिक आपदा आ जाए और उसमें लोग हताहत हों तो हमें मन मारकर अपनी विवशता स्वीकार करनी पड़ती है, क्योंकि उसमें हम कुछ कर नहीं सकते। किंतु यह तो आमंत्रित मौतें है। यह भी नहीं है कि जहरीली शराब से पहली बार लोग काल के गाल में समा रहे हों। कोई ऐसा वर्ष नहीं गुजरता है जिसमें कहीं न कहीं जहरीली शराब से मृत्यु की घटनाएं सामने नहीं आतीं। अगर दो-चार मौतें हों तो वो अखबारों के स्थानीय पन्नों पर सिमट जातीं हैं और हमको पता नही ंचलता या वो खबर में आती ही नहीं, अन्यथा कहीं न कहीं ऐसी घटना होती रहती हैं। हर सामने आने वाली घटना के बाद कार्रवाइयां होतीं हैं और फिर कुछ अंतराल के बाद कहीं न कहीं जहरीली शराब अपना कहर बरपा देता है। प्रश्न है कि ऐसा क्यों होता है?

जो सूचना मिल रही है उसमें एक घटना तो सामाजिक कुरीति से जुड़ा है। उत्तराखंड के हरिद्वार के बालुपुर गांव में एक मृत्युभोज में शराब परोसी गई थी जो दुर्योग से जहरीली निकली। यह कैसी रीति है? आखिर मृत्युभोज में शराब परोसने की प्रथा का क्या औचित्य है? श्राद्धकर्म के पीछे मृतक की आत्मा की मुक्ति या उसे बेहतर पुनर्जन्म की भावना होती है। कुप्रथायें ऐसे ही बिना विचारे चलती रहती है। हालांकि उत्तराखंड या पहाड़ के कई इलाकों में यह प्रथा आज की तो है नहीं। अगर शराब जहरीली नहीं होती तो वह इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी का कारण नहीं बनता। तो मूल कारण जहरीली शराब है। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में तो कोई मृत्युभोज नहीं था, उत्तराखंड के रुड़की में ही ऐसा कार्यक्रम नहीं था। अभी तक की सूचना के अनुसार उत्तर प्रदेश में छापों में करीब 10 हजार लीटर अवैध शराब और 50 हजार किग्रा लहन बरामद हो चुका है। उत्तराखंड में 1100 लीटर से ज्यादा शराब और 28 हजार किग्रा लहन जब्त किया जा चुका है। उत्तर प्रदेश में 300 मामले दर्ज किए गए हैं और 175 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। इसी तरह उत्तराखंड मंें करीब 50 मामले दर्ज किए गए। सहारनपुर और कुशीनगर के पुलिस कप्तानों को हटा दिया है तथा अनेक आबकारी अधिकारियों-कर्मचारियों का निलंबन हो रहा है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने अवैध शराब भट्ठियों और दूकानों का अंत करने तथा माफियाओं के जाल को ध्वस्त करने के लिए 15 दिनों का अभियान चलाया है। जांच के लिए एसआईटी गठित हो चुकी है। अगर इससे अवैध शराब का व्यापार खत्म हो जाए तो जरुर शाबाशी दी जाएगी। किंतु ऐसा होगा इसे लेकर संदेह की गुंजाइश ज्यादा है। कारण, हर ऐसी घटना के बाद यही माहौल बनता है। आखिर सरकारें या हम नागरिक भी त्रासदियों के बाद ही क्यों जगते हैं? उत्तर प्रदेश के ही कुशीनगर जिले में वर्तमान घटना वाले सप्ताह में जहरीली शराब पीने से 11 लोगों की मौत की खबर आई थी। वहां कार्रवाई भी हुई। किंतु सरकार और प्रशासन शायद यह मानकर राज्यव्यापी अभियान चलाने पर विचार नहीं किया कि अवैध शराब का कारोबार एक जिले तक ही सीमित है। वहां के पुलिस प्रशासन ने इसका ठिकरा बिहार पर फोड़ दिया। सीमावर्ती जिला होने के कारण यह कहना आसान है, जबकि बिहार में शराबबंदी लागू है। वहां चोरी से शराब मिलते हैं, पर भट्ठी लगाकर शराब बना पाना आसान नहीं है। सच यह है कि बिहार में ज्यादा शराब पड़ोस के राज्यो ंसे जा रहा है। अगर कुशीनगर की घटना के साथ ही सरकार और प्रशासन ने राज्यव्यापी अभियान चला दिया होता तो इतने लोगों की जिन्दगियां बच जातीं।

हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने आबकारी अधिनियम 1910 में संशोधन करके उसे कड़ा बनाया था। लेकिन उस समय आबकारी मंत्री का बयान था कि पड़ोसी राज्यों खासतौर पर हरियाणा से अवैध शराब की तस्करी और स्थानीय स्तर पर बनने वाली अवैध शराब की वजह से प्रदेश के आबकारी राजस्व में भारी गिरावट आई है। इसके अलावा ऐसी अवैध जहरीली शराब पीने से जनहानि की घटनाएं भी हुई हैं। वस्तुतः शराब से राजस्व पाने की भूख हर राज्य में शरबाखोरी को प्रोत्साहित करता है। शराब पीने पर कोई पाबंदी नहीं। इसमें संपन्न लोगों के लिए अनेक किस्म के महंगे शराब उपलब्ध हैं जबकि गरीब और निम्न मध्यमवर्ग देसी शराब पर निर्भर है। पूरे देश की यही दशा है। इन घटनाओं के बाद जो रिपोर्टें आ रहीं हैं उनसे साफ है कि जगह-जगह वैध-अवैध भट्ठियां चल रहीं हैं। वे किस तरह शराब बनाते हैं इनकी निगरानी करने वाला कोई नहीं है। कच्ची शराब बनाने के लिए पुराना गुड़ और शीरे के साथ महुआ आदि का प्रयोग तो आम बात है। लेकिन इन्हें इतना सड़ा दिया जाता है कि इनमें दुर्गंध आने लगता है और तब माना जाता है कि इससे ज्यादा नशीली शराब तैयार होगी। यह परंपरागत तरीका रहा है। हाल के वर्षों में यूरिया, आयोडेक्स, ऑक्सिटॉसिन से लेकर शराब को ज्यादा नशीली बनाने के लिए चूहे मारने वाली दवा और यहां तक कि सांप और छिपकली तक मिलाने के मामले भी पकड़ में आ चुके हैं। डीजल, मोबिल ऑयल, रंग रोगन के खाली बैरल और पुरानी हांडियों (बर्तन) का इस्तेमाल के साथ भैंस का दूध निकालने के लिए इस्तेमाल होने वाले ऑक्सिटॉसिन के इंजेक्शन को भी मिलाया जाता है। इन सबके मिश्रण से बने शराब से यदि तत्काल मौत न भी हो तो लीवर, गुर्दे, फेफड़े, आंत आदि को क्षति पहुंचाकर मनुष्य को धीरे-धीरे किसी काम का नहीं रहने देता। गुड़ और शीरे में ऑक्सिटॉसिन मिलाने से मिथाइल एल्कॉहॉल बन जाता है। ज्यादा मिथाइल एल्कॉहॉल से शरीर के अनेक हिस्से काम करना बंद कर देते हैं,ब्रेन डेड हो जाता है।

प्रश्न है कि भारत का ऐसा शायद ही कोई राज्य हो जहां से देसी शराबों में इस तरह के जहरीले सामग्रियों के मिश्रण के सबूत नहीं मिले हों। यहां उन सबकी फेहरिस्त गिनाना संभव नहीं। सब कुछ देश के सामने है। प्रश्न है कि बावजूद यदि ऐसा हो रहा है तो फिर इसके लिए किसे दोषी कहा जाएगा? कौन अपराधी है? बिना प्रशासन के मिलीभगत के इतने बड़े पैमाने पर यह संभव ही नहीं। जिनको भट्ठी का लाइसेंस मिलता है वो भी किन सामग्रियों का उपयोग करते हैं इसका ध्यान रखना आबकारी विभाग का दायित्व है। आबकारी विभाग सख्त हो तो जहरीली सामग्री मिलाने का साहस कोई कर ही नहीं सकता। और अवैध भट्ठियां कैसे चलतीं हैं यह बताने की आवश्यकता ही नही। आदिवासी इलाकांे में तो खैर छोटे स्तरों पर शराब बनाने का प्रचलन सदियों से हैं और उनमें से बहुतेरे को पता भी नहीं कि वे गैरकानूनी काम करते हैं। पर सामान्य इलाकों में तो सब कुछ जानसमझकर होता है। अगर सरकारें सख्त तथा इसके प्रति सचेष्ट रहें और प्रशासन को समय-समय पर उसका दायित्व याद दिलाता रहे तो ऐसी घटनाएं हो ही नहीं सकती। ऐसा लगता ही नहीं कि देश या राज्य सरकारों की प्राथमिकता में देसी शराबों में जहरीली सामग्रियों के उपयोग तथा अवैध शराब को रोकना शामिल है। आप घटना के बाद लाख कार्रवाइयां कर दीजिए उससे मृतक तो वापस आने से रहे। छोटा मुआवजा घोषित करने से जिम्मेवारी खत्म नहीं हो जाती। किंतु इसके साथ हम समाज के अंग के रुप में स्वयं को भी जिम्मेवारी से मुक्त नहीं कर सकते। आखिर समाज ऐसे तत्वों के खिलाफ संगठित होकर आवाज क्यों नहीं उठाता? अनेक प्रदेशों में महिलाओं ने शराब के खिलाफ आंदोलन किया है, पर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती बन जाती है,क्योंकि पूरे समाज का साथ उन्हें नहीं मिलता। सबसे बढ़कर विचार करने वाली बात यह भी है कि क्या भारत देश नशामुक्ति के खिलाफ दृढ़ होकर खड़ा नहीं हो सकता। गांधी जी ने आजादी के एक बड़े लक्ष्य के रुप मंें नशामुक्ति को रखा था। आज पूरे देश का ढांचा ऐसा हो गया है कि कोई एक राज्य नशे पर रोक लगाने का कदम उठाता है तो उसे कहीं से सहयोग नहीं मिलता और वह विफल हो जाता है। मुख्य खलनायक तो नशे के लिए कुछ सामग्रियों को कानूनी रुप से मान्य कर देना है। विरोध करने पर राजस्व का तर्क दिया जाता है। किंतु नशे के कारण जो बीमारियां होतीं हैं, अपराध होते हैं, सामाजिक अशांति होती है उन पर होने वाले खर्च की तुलना करने का साहस सरकारे करें तो राजस्व का सच सामने आ जाएगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स,दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

यह ममता बनर्जी की जीत तो नहीं कही जा सकती

 
अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय का आदेश प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का धरना खत्म करने का आधार बना। हालांकि उन्होंने न्यायालय के आदेश को अपनी नैतिक जीत, पश्चिम बंगाल की जीत बता दिया। आखिर इस आदेश में ऐसा क्या है जिसे उनकी जीत मानी जाए? न्यायालय ने अभी सीबीआई कर्मियों के साथ पश्चिम बंगाल पुलिस के दुर्व्यवाहर पर विचार नहीं किया है। न्यायालय के सामने ममता का विरोध और धरना भी विचार का विषय नहीं था। उसके सामने पहला विषय सीबीआई को कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ की अनुमति देने का था। यह न्यायलय ने दे दिया। उसने पश्चिम बंगाल की तरफ से पेश हुए अधिवक्ता अभिषेक सिंघवी से ही पूछ दिया कि आखिर उनको सीबीआई के सामने पेश होने में समस्या क्या है? मुख्य न्यायाधीश ने यह भी पूछा कि पश्चिम बंगाल को जांच के हमारे आदेश से क्या दिक्कत है? सीबीआई ने राजीव कुमार की गिरफ्तारी की अनुमति की अपील की ही नहीं थी। इसलिए यह कहना कोई मायने नहीं रखता कि गिरफ्तारी की अनुमति नहीं मिलना सीबीआई के लिए धक्का है। सीबीआई ने यह कहा ही नहीं था कि वह राजीव कुमार के आवास पर उनको गिरफ्तार करने गई थी। उच्चतम न्यायालय के आदेश का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि राजीव कुमार को अब सीबीआई के सवालों का जवाब देने शिलांग जाना होगा। यानी पश्चिम बंगाल में उनसे पूछताछ नहीं होगी। इसका अर्थ क्या है? क्या यह ममता सरकार के व्यवहार पर बिना बोले न्यायालय की टिप्पणी नहीं है?

इन सबका अर्थ निकालने के लिए हम स्वतंत्र हैं। किंतु जिस तरह सीबीआई की टीम को कोलकाता पुलिस ने अपराधी की तरह पकड़ा, उनको गाड़ी में बिठाकर थाने ले गए, सीबीआई के संयुक्त निदेशक के घर को घेर लिया गया, क्षेत्रीय कार्यालय को पुलिस घेराव के कारण सुरक्षा के लिए सीआरपीएफ को उतारना पड़ा वो सारे वाकये उच्चतम न्यायालय के सामने थे। आगे ऐसा न हो, इसलिए राजीव कुमार एवं ममता बनर्जी के प्रभाव से बाहर के क्षेत्र में उनसे पूछताछ होगी। वहां राजीव कुमार एक सामान्य नागरिक होंगे। उनकी सुरक्षा में कोलकाता पुलिस नहीं होगी। चूंकि सारदा चिटफंड एवं रोजवैली घोटाला का यह मामला सीबीआई को उच्चतम न्यायालय के आदेश से मिला है, इसलिए उसके काम में बाधा डालना वास्तव में न्यायालय की भी अवमानना होगी। सीबीआई ने राजीव कुमार के साथ पश्चिम बंगाल के पुलिस महानिदेशक वीरेंद्र कुमार तथा मुख्य सचिव मलय कुमार डे पर न्यायालय की अवमानना का मामला चलाने की भी अपील की है। इन अधिकारियों ने सीबीआई के अनुरोध की लगातार उपेक्षा की। साथ ही  पुलिस बल भी इनके मातहत आता है जिसने न्यायालय के आदेश के तहत जाचं करनेवालों के साथ अपराधी जैसा व्यवहार किया तथा सीबीआई के लिए काफी देर तक आतंक का माहौल कायम कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में नोटिस जारी कर दिया है जिसका जवाब इन्हें 18 फरबरी तक देना है। साथ ही 20 फरबरी को अगली सुनवाई  में प्रमुख सचिव, महासचिव और कुमार तीनांें को व्यक्तिगत रूप से भी पेश होना होगा।

यह किसी तरह अनुकूल आदेश तो नहीं है। अगर न्यायालय ने इन्हें जवाब के साथ उपस्थित होने का आदेश दिया है तो इनकी मेहमानबाजी के लिए नहीं। इनके जवाब से संतुष्ट न होने पर वह कार्रवाई भी कर सकता है। इस आदेश को अगर ममता बनर्जी अपनी जीत, लोकतंत्र की विजय तथा नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की पराजय कह रहीं हैं तो इस पर कोई टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है। उच्चतम न्यायालय का रुख सुनवाई के दौरान हुई टिप्पणियों से भी स्पष्ट हो जाता है। हम यह नहीं कहते कि राजीव कुमार दोषी है। वे सक्षम पुलिस अधिकारी माने जाते रहे हैं। उनके नाम कई उपलब्धियां हैं, साहस के कई कारनामें हैं। किंतु इस मामले में उनका रवैया अस्वीकार्य रुप से असहयोगात्मक रहा है यह साफ है। सीबीआई ने यदि उच्चतम न्यायालय में उन पर आरोप लगाए हैं तो उस पर सहसा अविश्वास नहीं किया जा सकता। उच्चतम न्यायालय में एजेंसी झूठा शपथपत्र देगी तो उसे लेने के देने पड़ जाएंगे। सीबीआई ने 14 पृष्ठो का जो शपथपत्र दिया है उसमें कौल रिकार्ड से लेकर आरोपियों से बरामद सबूत नष्ट करने तथा दोषियों को बचाने का आरोप है। उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई को केवल गिरफ्तारी का आदेश नहीं दिया। लेकिन पूछताछ के बाद अगर वो छापा मारना चाहती है तो ऐसा करने में कोई रोक नहीं है।

ममता बनर्जी आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू के बाद दूसरी मुख्यमंत्री थी जिन्होंने 16 नवंबर 2018 को राज्य में सीबीआई के प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया था। दिल्ली पुलिस इस्टेब्लिशमेंट कानून के अनुसार सीबीआई को राज्यों के मामलों की जांच के लिए सहमति जरुरी है। किंतु सहमति वापस लेने का अर्थ यह नहीं है कि उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय किसी मामले की जांच का आदेश दे तो भी सीबीआई ऐसा नहीं करती। संभव है ममता के फैसले के बाद कुछ अधिकारियों को गलतफहमी हुई हो कि अब सीबीआई उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। शायद ममता के कुछ सहयोगियों को भी गलतफहमी रही हो। तो उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद यह गलतफहमी दूर हो गई होगी। ममता चाहे इस पूरे प्रकरण का जैसे मूल्यांकन करें, राजीव कुमार के घर पर पहुंचकर तथा धरना देकर उन्होंने सीबीआई का ही पक्ष मजबूत किया है। अगर सीबीआई को नहीं रोका जाता तो वह उच्चतम न्यायालय शायद ही जाती। अब वे ज्यादा आत्मविश्वास और आक्रामकता से कार्रवाई करेंगे।

 इस प्रकरण के कई पहलू और हैं जिस पर विचार करना आवश्यक है। चन्द्रबाबू नायडू की उपस्थिति में मेट्रो सिनेमा से धरना खत्म करते हुए ममता बनर्जी ने कुछ और बातें कहीं। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार राज्य की एजेंसियों समेत सभी जांच एजेंसियों पर नियंत्रण रखना चाहती है। मोदी को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर गुजरात लौट जाना चाहिए। मोदी अपनी दादागिरी चला रहे हैं। कोई भी उनके खिलाफ बोलता है तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है। मोदी जी ने संविधान को नष्ट कर दिया, गणतंत्र को नष्ट कर दिया। मेरा कहना है मोदी हटाओ और देश बचाओ। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह पूरा भाषण राजनीतिक है। इसमें कोई तथ्य नहीं है। यह भाषण वो लगातार दे रहीं हैं। प्रश्न है कि इसका सीबीआई की जांच बाधित करने से क्या संबंध है? इसका अर्थ साफ है। ममता पिछले लंबे समय से इस रणनीति पर काम कर रहीं हैं कि उनको नरेन्द्र मोदी से सीधे टकराने वाली नेता और मुख्यमंत्री के रुप में जाना जाए। उसके लिए हर अवसर को गलत दिशा देकर वो टकराव की भंगिमा अख्तियार करतीं हैं। 19 जनवरी को विपक्षी नेताआंे को परेड ग्राउंड में एक मंच पर इकट्ठा कर उन्हांेने यह बताने की कोशिश की विपक्ष में मैं अकेले इतनी प्रभावी हूं कि सभी मेरे बुलावे पर आ सकते हैं।

वास्तव में इस मामले में ऐसा कुछ नहीं था कि धरना देने की आवश्यकता हो। राजीव कुमार से पूछताछ उनकी पुलिस ने नहीं होने दिया। उनकी पुलिस ने सीबीआई अधिकारियों को हिरासत में लिया। ममता बनर्जी ने स्वयं कहा कि हम चाहते तो उनको गिरफ्तार कर सकते थे लेकिन हमने उनको छोड़ दिया। तो इसमें उत्पीड़ित कौन हुआ? सीबीआई या ममता बनर्जी या उनके चहेते अधिकारी? मामला उच्चतम न्यायालय के आदेश पर सीबीआई की वैध कार्रवाई का था। उच्चतम न्यायालय में पश्चिम बंगाल के वकील ने भी केवल सीबीआई का ही नाम लिया। आगामी लोकसभा चुनाव में उनके सामने भाजपा सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभर रही है जिससे अंदाजा उनको है।  इससे निपटने के लिए वो लगातार एक मुख्यमंत्री की अपनी भूमिका भूलकर अलोकतांत्रिक हरकत पर उतर जातीं हैं। यह सब वो जानबुझकर करती हैं। वो यह मानती हैं आम बंगाली का आत्माभिमान इससे उनके पक्ष में जागेगा कि केन्द्र सरकार और भाजपा उनको अपमानित ऐर परेशान कर रही है। लेकिन विवेकशील लोगों को सच पता होगा। उनको लगता होगा कि इससे चुनाव में पुलिस और प्रशासन का उनको पूरा समर्थन मिल जाएगा तथा वे सब भाजपा विरोधी हो जाएंगे। 2016 के विधानसभा चुनाव में यह खेल उन्होने खेला था। किंतु चुनाव आयोग सब देख रहा है। जरुरत पड़ने पर वह बाहरी पुलिस और सुरक्षा बल बुलाकर चुनाव करा सकता है। इन सबसे परे यह प्रश्न तो उठेगा ही कि जो लाखों गरीब और निम्नमध्यम वर्ग दोनों मामलों में लुट गए, बरबाद हो गए उनको न्याय दिलाने में मुख्यमंत्री के नाते ममका बनर्जी की कोई जिम्मेवारी है या नहीं? आखिर उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई को यही जिम्मेवारी तो सौंपा है जिसकी वो मुखालफत कर रही थी।

अवधेश कुमार, ईज्ञ30, गणेश नगर, पांडव नगर कौम्प्लेक्स, दिल्लीज्ञ110092, दूरभाष-01122483409, 9811027208

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

प्रवासी भारतीयों को भावनातमक रूप से जोड़ने की कोशिश

 

अवधेश कुमार

भारत इस मायने में सौभाग्यशाली है कि विश्व में शायद ही ऐसा देश हो जहां भारतवंशियों की उपस्थिति नहीं हो। ऐसे भारतवंशियों की संख्या 3 करोड़,9 लाख 95 हजार 729 हैं। ये सब भारतवंशी हैं जो कई कारणों से विदेश में जाकर बस गए, या वहां काम कर रहे हैं। इतनी बड़ी शक्ति का ठीक प्रकार से उपयोग कर उनका भारत को लाभ पहुंचाने की स्थिति निर्मित करने का दायित्व हमारा है। नरसिंह राव के शासनकाल में इस पर फोकस देना आरंभ हुआ जिसने अटलबिहारी वाजपेयी के काल में बेहतर ठोस रुपकार लिया, मनमोहन सिंह के काल में भी काम होता रहा, पर नरेन्द्र मोदी के काल में ही उसे वास्तविक चरित्र मिल पाया यह सच है। यह नहीं कह सकते कि इस दिशा में जितना कुछ और जैसा होना चाहिए वैसा ही सब कुछ हो गया है पर उस प्रक्रिया में तेजी से पायदान पार हुए हैं तथा जिस भावनात्मकता और प्रेरणा से भारतवंशी इस दौरान भारत के निकट आएं हैं, उनकी भावना और प्रेरणा को बनाए रखने के लिए सरकारी स्तर पर जितने कदम इस दौरान उठे हैं, जैसे सतत प्रयास हुए हैं वैसा पहले नहीं हुआ। इन सब पर अनेक बार चर्चा हुई है, इसलिए यहां विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं। प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन आए भारतवंशियों को अपनत्व महसूस कराने  तथा वे जहां हैं वहां भारतीय हितों के लिए काम करने की स्थायी प्रेरणा देने का भारत के लिए सबसे बड़ा अवसर होता है। यह केवल औपचारिक सम्मेलनों के परंपरागत ढांचे में ही संभव नहीं हो सकता। सम्मेलन के परे भी ऐसा माहौल बनाने की जरुरत होती है जो उनके मन पर अमिट छाप छोड़ सके। क्या वाराणसी में आयोजित 15 वें प्रवासी सम्मेलन को इन कसौटियों पर खरा माना जा सकता है?

यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस बार सम्मेलन का विषय  नव भारत के निर्माण में प्रवासी भारतीयों की भूमिका थी। मीडिया की सुर्खियां तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण का वह अंश बना जिसमें उन्होंने बिना नाम लिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कथन का हवाला देते हुए कहा कि एक प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया था कि केन्द्र से चले धन का 15 प्रतिशत ही जनता तक पहुंच पाता है। उन्होंने कहा कि हमने नकेल डाली और मजबूत इच्छाशक्ति के साथ पूरा 100 पैसा गरीबों तक पहुंचाया। उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की जो छवि भारत की आपके मन में थी वह बदली है। प्रधानमंत्री ने इसके अलावा अनेक ऐसी बातें कहीं, भारतवंशियों की कठिनाइयों और उनकी सोच को ध्यान में रखते हुए उठाए गए तथा भविष्य में उठाए जाने वाले कदमों की जानकारियां दीं जो उनको भारत से औपचारिक और स्वाभाविक जुड़ाव को सशक्त करेगा। मसलन, उन्होंने कहा कि सरकार प्रवासी भारतीयों की यात्रा को आसान बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठा रही है। चिप-आधारित ई पासपोर्ट, इसके लिए वैश्विक पासपोर्ट सेवा नेटवर्क की केंद्रीकृत प्रणाली तैयार करने से लेकर प्रवासी भारतीयों के लिए पीआईओ, वीजा और ओसीआई कार्ड को सोशल सिक्योरिटी सिस्टम से जोड़ने के प्रयासों तथा वीजा प्रक्रिया को और सरल बनाने पर काम करने की सूचना दी। प्रधानमंत्री ने हर सम्मेलन में ऐसे कुछ कदम उठने की घोषणा की और उसे मूर्त रुप दिया गया।

ऐसी और भी बातों का यहां उल्लेख किया जा सकता है। किंतु यहां सम्मेलन की व्यवस्थाओं तथा आए भारतवंशियों के साथ सरकारी व्यवहार की चर्चा करना इसलिए आवश्यक हैं, क्योंकि यह उनके मानस पटल पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है। जिनने बाबतपुर हवाई अड्डे का दृश्य देखा होगा वे मानेंगे कि इस तरह के स्वागत की उन्हें कल्पना नहीं रही होगी। जहाज से उतरते ही हवाई अड्डे का दृश्य बिल्कुल संस्कृतिमय। भारत की विविधताओं का दर्शन। उसके साथ एक-एक अतिथि को माला पहनाकर भारतीय परंपरा के अनुसार चंदन टीका से स्वागत, वहां से उनकी निर्धारित संख्या के अनुसार सजी धजी गाड़ियो से निवास पहुंचाना और वहां भी ऐसा स्वागत एवं व्यवहार की कोई अभिभूत हुए बिना नहीं रह सके। वास्तव में इस सम्मेलन की जैसी तैयारी की गई वैसा पहले कभी नहीं हुआ। नया अस्थायी शहर ही बसा दिया गया। वाराणसी में वरुणा पार इलाके के बड़ा लालपुर में मुख्य आयोजन स्थल ट्रेड फैसिलिटी सेंटर को सजा-संवारकर बिल्कुल बदल दिया गया। वहां गंगोत्री से गंगा सागर तक गंगा के भव्य रूप के साथ काशी की विरासत को फसाड सीन से दर्शाया गया। ट्रेड फैसिलिटी सेंटर के पास ऐढ़े गांव में 42 एकड़ क्षेत्र के प्रवासी शहर में मेहमानों के लिए 3000 कॉटेज बनाई गई। इनमें सारी सुविधाएं उपलब्ध थीं। जिम, योग व स्पा सेंटर, एटीएम, मुद्रा एक्सचेंज काउंटर, ई-रिक्शा आदि की भी व्यवस्था थी। फूड कोर्ट में कॉन्टिनेंटल, भारतीय-चीनी व्यंजनों भारत के सभी राज्यों के खास व्यंजनों के साथ वाराणसी स्टॉल भी लगा।

सम्मेलन की तिथियां और योजनायें ऐसे बनाईं गईं जिनसे इनकी यात्रा का विस्तार प्रयागराज कुंभ तथा गणतंत्र दिवस समारोह तक हो सके। लग्जरी कारों और बसों से भारतवंशियों को कुंभ स्नान के लिए वारणसी से प्रयागराज ले जाया गया। कुंभ नहाने के बाद सभी को चार लग्जरी ट्रेनों से दिल्ली ले जाया गया। यहां प्रवासी भारतीय गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल हुए। सम्मेलन के दौरान राजघाट पर गंगा महोत्सव का आयोजन हुआ। प्रवासी भारतीयों ने गंगा आरती में भाग लिया, सुबह-ए-बनारस का दृश्य देखा। उनको काशी विश्वनाथ सहित वाराणसी के प्रसिद्ध मंदिरों में दर्शन कराए गए। प्रसिद्ध कलाकारों के अलावा अलग-अलग विद्यालयों के छात्र-छात्राओं को अलग-अलग देशों की संस्कृति और वेशभूषा के अनुसार तैयार कर कार्यक्रम प्रस्तुत किया गाय। अतिथियों को किसी तरह की असुविधा न हो, इसके लिए 50 प्रवासी भारतीयों पर एक अधिकारी तैनात थे। सम्मेलन में आए जितने प्रवासी भारतीयों की प्रतिक्रियायें मीडिया में आईं वो संतोष प्रदान करने वालीं हैं। अनेक के उद्गार यही थे कि ऐसे शानदार व्यवहार की उम्मीद उन्हें नहीं थी। जो पहले आ चुके हैं उनकी प्रतिक्रिया थी कि इसके पूर्व ऐसा कभी नहीं हुआ। 30 वर्ष पहले वाराणसी आए पोलैंड के एक प्रवासी भारतीय का कहना था कि उन्होंने सोचा भी नहीं था कि यह शहर कभी ऐसा हो जाएगा। हमें अपनी सांस्कृति के साथ ऐसा अनुभव हो रहा है मानो यूरोप के किसी विकसित शहर में हों। यह उद्धरण साबित करता है कि परंपरा और संस्कृति के साथ विकास का दिग्दर्शन कराने में सरकार सफल हुई।

निस्संदेह, आर्थिक विकास, शासन के चरित्र में परिवर्तन आदि बातों का भी असर होता है। इसलिए प्रधानमंत्री ने विकास के साथ दुनिया में भारत के बढ़ते प्रभाव आदि का उल्लेख कर अच्छा ही किया। पर्यावरण पुरस्कार तथा अंतर्राष्ट्रीय सौर उर्जा के लिए 100 से ज्यादा देशों का संगठन बनाकर एक नई व्यवस्था की ओर बढ़ने की चर्चा से भी भारतवंशियों के अंदर अपने मूल देश के प्रति गर्व का भाव पैदा हुआ होगा। किंतु भारतवंशी इसके साथ अपने मूल देश में अपनी संस्कृति, सभ्यता, अध्यात्म, कला आदि का वो रुप देखने की तमन्ना रखते हैं जिनकी मोटा-मोटी कल्पना उनके अंतर्मन में रहती है। एक बड़े तबके ने अपने देशों में जितना संभव है इन थातियों को बचाकर रखा है। इन सबको और जानने-समझने की जिज्ञासा की पूर्ति ही उनको यह अहसास कराता है कि यह उनका ही मूल देश है। प्रधानमंत्री आग्रह कर रहे थे कि आप जहां हैं वही भारत का दूत बनकर काम करें। वे बनें तो किस बात का दूत? उनसे आप पर्यटन के लिए कम से कम पांच लोगों को लाने का आग्रह कर रहे थे। वे लाएं तो दिखाएं क्या? इनकी भी कल्पना देनी जरुरी थी और इसमें भारतीय विरासत ही मुख्य भूमिका में आ सकता है। प्रवासी तीर्थ दर्शन योजना शुरू करने की घोषणा इस मायने में ऐतिहासिक हो सकता है। इससे भारतवंशियों तथा उनके साथ आनेवालों को तीर्थ स्थानों के सुगम दर्शन की सुविधा सुलभ कराई जायेगी। मुख्य अतिथि मॉरिशस के प्रधानमंत्री प्रवींद जन्नाथ ने जब कहा कि भारत अतुल्य है और भारतीयता सार्वभौम तो उसका आधार क्या था? उन्होंने अध्यात्म और संस्कृति की ही बात की। उन्होंने कहा कि काशी में तुलसी ने रामायण लिखी, हम सब यहां आये हैं और बाबा विश्वनाथ और मां गंगा का आर्शीवाद लेकर जायेंगे। उन्होंने जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी और उनके सरकार के कार्यक्रमों की प्रशंसा की उसका विवरण हमारे यहां राजनीतिक विवाद का विषय बन जाएगा। किंतु यह भारत में आ रहे बदलावों तथा उठाए जा रहे कदमों की प्रशंसा थी जिनसे प्रभावित होकर कई देशों ने उनका अनुसरण किया है। इस तरह प्रवासी भारतीय सम्मेलन अपने स्पष्ट उद्देश्यों के अनुरुप माहौल बनाने में सफल माना जाएगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

 

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