गुरुवार, 29 नवंबर 2018

उद्धव ठाकरे की अयोध्या राजनीति

 

अवधेश कुमार

जबसे शिवसेना ने घोषणा की थी कि उद्धव ठाकरे अयोध्या का दौरा करेंगे तभी से इसका कई दृष्टिकोणों से विश्लेषण हो रहा था। यह प्रश्न उठ रहा था कि अयोध्या जाने का निर्णय उनको क्यों करना पड़ा? बाला साहब ठाकरे के स्वर्गवास के बाद शिवसेना की कमान थामे उनको छः वर्ष हो गए। इस बीच उनको अयोध्या आने की याद नहीं आई। अचानक उनकी अंतरात्मा में श्रीराम भक्ति पैदा हो गई हो तो अलग बात है। किंतु जिसके अंदर भक्ति पैदा होगी वह तिथि तय करके, उसकी पूरी तैयारी कराके नहीं आएगा। 24 नवंबर को उनके अयोध्या पहुंचने के काफी पहले से उनके 22 सांसद, लगभग सभी विधायक एवं प्रमुख नेता अयोध्या में उनके कार्यक्रमों की तैयारी तथा माहौल बनाने में जुटे थे। पूरे अयोध्या को इन्होंने शिवेसना के भगवा झंडे तथा नारों से पाट दिया था। शिवेसना की हैसियत या उद्धव ठाकरे का वैसा जनकार्षण नहीं है कि उनके दर्शन या स्वागत के लिए भीड़ उमड़ पड़े। बावजूद महाराष्ट्र से आए शिवेसना के उत्साही कार्यकर्ताओं ने कुछ समय के लिए वातावरण को उद्धवमय बनाने में आंशिक सफलता पाई। लक्ष्मण किला में पूजा तथा सरयू घाट पर आरती करते उद्धव, उनकी पत्नी तथा पुत्र की तस्वीरें लाइव हमारे पास आतीं रहीं। प्रश्न है कि क्या इतने से उनका उद्देश्य पूरा हो गया?

इस प्रश्न के उत्तर के लिए समझना होगा कि उनका उद्देश्य था क्या? अयोध्या आने के पहले मुखपत्र सामना में उन्होंने केन्द्र सरकार पर ही नहीं हिन्दू संगठनों पर भी तीखा प्रहार किया था। कहा गया कि मन की बात बहुत हो गई अब जन की बात हो। हिन्दू संगठनों से पूछा गया था कि मेरे अयोध्या आने से उनको परेशानी क्यों हो रही है? सरकार से पूछा गया था कि लगातार मांग करने के बावजूद सरकार अयोध्या पर चुप्पी क्यों साधी हुई है? बहुत सी बातें थी जिसे हम शिवसेना शैली मान चुके हैं। लक्ष्मणकिला में पूजा में उपस्थित प्रमुख संतों को देखकर उनका आत्मविश्वास भी बढ़ा होगा। इसके बाद उन्होंने अपने संक्षिप्त भाषण में केन्द्र सरकार के बारे में कह दिया कि कुंभकर्ण तो छः महीना सोता था और उसके बाद जगता था यह तो स्थायी रुप से सोने वाला कुंभकर्ण है जिसे मैं जगाने आया हूं। यह कहdj कि सिना से कुछ नहीं होता उसमें दम होना चाहिए, दिल चाहिए, ह्रदय चाहिए और वह मर्द का होना चाहिए उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री पर हमला किया। मंदिर वहीं बनायेंगे तारीख नहीं बतायेंगे नहीं चलेगा हमें तारीख चाहिए। एक सहयोगी दल के नाते यह सरकार के मुखिया पर अविश्वास एवं तीखा प्रहार था। उसके बाद मांग वही थी, अध्यादेश या विधेयक लाएं। 25 नवंबर की पत्रकार वार्ता भी उनकी अत्यंत संक्षिप्त थी। उनको एवं रणनीतिकारों को पता था कि पत्रकार अनेक असुविधानजनक सवाल पूछेंगे जिनका उत्तर देना कठिन होगा। इसलिए एक छोटा वक्तव्य तथा तीन सवालों का जवाब देकर खत्म कर दिया। यह सवाल पूछा गया था कि उत्तर भारतीयों पर हमले होते हैं तो आप चुप रहते हैं जिसका वो संतोषजक जवाब दे नहीं सकते थे। आखिर राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के पूर्व आरंभिक दिनों में शिवेसना भी यही करती थी। उसकी उत्पत्ति सन्स औफ द स्वॉयल यानी महाराष्ट्र महाराष्ट्रीयनों के लिए विचार से हुआ था।

बहरहाल, उद्धव अपना संदेश देकर वापस चले गए। उन्होंने संत समिति द्वारा आयोजित विशाल सभा में भाग लेने की कोशिश भी नहीं की। उस पर एक शब्द भी नहीं बोला। यह भी उनकी स्वयं को सबसे अलग दिखाने रणनीति थी। शिवसेना एवं स्वयं उद्धव बालासाहब के बाद पहचान की वेदना से गुजर रहे हैं। बालासाहब ने परिस्थितियों के कारण क्षेत्रीयतावाद से निकलकर प्रखर हिन्दुत्ववादी नेता की छवि बना ली थी। उनकी वाणी में जो प्रखरता और स्पष्टता थी उद्धव उससे वंचित हैं। हिन्दुत्व के आधार पर ही शिवसेना राजनीति में प्रासंगिक रह सकता है तथा उद्धव भी। उद्धव के नेतृत्व में शिवसेना अंतर्विरोधी गतिविधियो में संलग्न रही है। जैन समुदाय के पर्व के समय मांस बिक्री पर प्रतिबंध का विरोध करते हुए शिवसैनिकों ने स्वयं मांस के स्टॉल लगाकर बिक्री की। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि शिवसेना भाजपा पर तो प्रहार करती है, लेकिन अपनी कोई निश्चित वैचारिक दिशा ग्रहण नहीं कर पा रही। भाजपा से अलग दिखाने के प्रयासों में उसकी स्वयं की विश्वसनीयता और जनाधार पर असर पड़ा है। इस कारण शिवसैनिकों की परंपरागत आक्रामकता में भी कमी देखी जा रही है।

इसका राजनीतिक असर भी हुआ है। भाजपा महाराष्ट्र में उसके छोटे भाई की भूमिका में थी। आज वैसी स्थिति नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 23 क्षेत्रों मे विजय मिली, जबकि शिवसेना को 18 में। यह परिणाम यथार्थ का प्रमाण था। किंतु शिवेसना उसे मानने को तैयार नहीं थी। शिवेसना ने कहा कि भाजपा की सीटें इसलिए ज्यादा हो गई क्योंकि हमारे मत उसके उम्मीदवारों को मिल गए हमारे उम्मीदवारों को उनके पूरे मत नहीं मिले। यह विश्लेषण सही नहीं था। अपने को साबित करने के लिए विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने गठबंधन तोड़ दिया। परिणाम भाजपा ने 122 विधानसभा सीटों पर विजय पाई जबकि शिवसना 63 में सिमट गई। उसके बाद स्थानीय निकाय चुनावों में भी भाजपा का प्रदर्शन शिवसेना से बेहतर रहा। शिवसेना अपनी स्थिति को मान ले तो शायद शांति से वह भाजपा के साथ मिलकर गठबंधन के नाते बेहतर एकजुट रणनीति बना सकती है। किंतु प्रदेश में बड़ा भाई बने रहने की उसकी सोच ऐसा होने के मार्ग की बाधा है। बालासाहब की अपनी छवि थी, जो उन्होंने परिस्थितियों के अनुरुप मुखर बयानों, सही रणनीतियों तथा कर्मों से बनाई थी। भाजपा भी उनका सम्मान करती थी। उन्होंने गठबंधन होने के बाद उद्धव और उनके साथियों की तरह कभी भाजपा पर प्रहार नहीं किया। अटलबिहारी वाजपेयी एवं लालकृष्ण आडवाणी से उनके व्यक्तिगत रिश्ते थे। संध के अधिकारियों से भी वे संपर्क में रहते थे। उद्वव ऐसा नहीं कर पा रहे हैं और अपनी अलग पहचान बनाने की अकुलाहट में प्रदेश एवं केन्द्र सरकार में होते हुए भी वे एवं उनके लोग विपक्ष की तरह आक्रामक बयान दे रहे हैं।

उनके अयोध्या आगमन को इन्हीं परिप्रेक्ष्यों में देखना होगा। श्रीराम मंदिर निर्माण की इच्छा उद्धव के अंदर होगी, लेकिन यह यात्रा राजनीतिक उद्देश्य से किया गया था। अयोध्या का मामला संघ, संत समिति एवं विश्व हिन्दू परिषद के कारण फिर चरम पर पहुंच गया है। उद्धव को लगा है कि प्रखर हिन्दुत्व नेता की पहचान तथा पार्टी के निश्चित विचारधारा का संदेश देने के लिए यह सबसे उपयुक्त अवसर है। इसमें रास्ता यही है कि भाजपा को राममंदिर पर कठघरे में खड़ा करो और स्वयं को इसके लिए पूर्ण समर्पित। यही उन्होंने अयोध्या में किया। उन्होंने कहा कि भाजपा चुनाव के समय राम-राम करती है और चुनाव के बाद आराम। उसके बाद वे और तल्ख हुए। कह दिया कि भाजपा रामलला हम आयेंगे मंदिर वहीं बनायेंगे को पूरा करे या लोगों को कह दे कि यह भी एक चुनावी जुमला था। उन्होंने बार-बार अयोध्या आने का ऐलान किया। देखना होगा कि आगे वे आते हैं या नहीं। किंतु साफ है कि जब तक सरकार कोई कदम नहीं उठाती वो इसी तरह आक्रामकता प्रदर्शित करते रहेंगे। किंतु उद्धव भूल गए कि भाजपा की तरह वे भी कठघरे में है। यह सवाल उन पर भी उठेगा कि इतने दिनों तक उन्हें श्रीराम मंदिर निर्माण की याद क्यों नहीं आई? उनके सांसद संयज राउत दावा कर रहे थे कि रामभक्तों ने 17 मिनट 18 मिनटा या आधा घंटा में काम तमाम कर दिया। उस समय शिवसेना आंदोलन में कहां थी? यह सफेद झूठ है कि शिवसैनिकों ने बाबरी ध्वस्त किया। वो उन शिवसैनिकों को सामने लाएं। जितनी छानबीन हुई उसमें शिवसैनिको का नाम कहीं नहीं आया। भाजपा 1992 तक तो आंदोलन में समर्पण से लगी थी। 1998 तक घोषणा पत्र के आरंभ में इसे शामिल करती थी। शिवेसना ने कभी ऐसा नहीं किया। यदि उद्धव में श्रीराम मंदिर निर्माण को लेकर इतनी ही उत्कंठा थी तो उनको उच्चतम न्यायालय में अपने वकील खड़ाकर त्वरित और प्रतिदिन सुनवाई की अपील करनी चाहिए थी। वे प्रधानमंत्री से मिल सकते थे। अपने लोगों को मस्जिद पक्षकारों से बात करने के लिए नियुक्त कर सकते थे। इनमें से कुछ भी उन्होंने नहीं किया। जनता पूरी भूमिका का मूल्यांकन करेगी। अयोध्या आकर पूजा, आरती की औपचारिकता तथा मंदिर के लिए अध्यादेश की माग एवं प्रधानमंत्री की निंदा से वे बालासाहब की तरह महाराष्टृर में हिन्दू ह्रदय सम्राट की छवि नहीं पा सकते।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्पलेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208 

 

 

 

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

पंजाब में आतंकवादी हमला बड़े खतरे का संकेत

 

अवधेश कुमार

यह निस्संदेह राहत की बात है कि पंजाब पुलिस ने अमृतसर के निरंकारी भवन पर हमला करने वालों को गिरफ्तार कर लिया है।  गिरफ्तार आतंकवादी का संबंध खालिस्तान लिबरेशन फोर्स से है। उसे पाकिस्तानी एजंेंसी आईएसआई से समर्थन मिला था। दोनों हमलावर प्रशिक्षित नहीं थे। पाकिस्तान में किसी हैप्पी से ग्रेनेड मिलने की बात उसने कबूली है। यह हैप्पी पाक स्थित केएलएफ का प्रमुख हरमीत सिंह हैप्पी ही है, जो आरएसएस नेताओं तथा कार्यकर्ताओं और ईसाई पादरी की हत्या के लिये रची गई साजिश का भी मास्टरमाइंड है। पंजाब पुलिस ने इससे पहले पांच ऐसे हथगोले, एके 47 राइफल सहित हथियार बरामद किये, जिन्हें सीमा पार से भेजा गया था। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने जिस दृढ़ता से आतंकवादियों को परास्त करने तथा सांप्रदायिक सौहार्द्र बनाए रखने का ऐलान किया है वह स्वागतयोग्य है। किंतु आरंभ में उनकी पुलिस ने जिस तरह के बयान दिए उससे निराशा हुई थी। वस्तुतः जिनने 1980 के दशक में पंजाब के भयावह आतंकवाद के दृश्य देखें हैं उनका दिल निश्चय ही अमृतसर जिले के राजासांसी क्षेत्र के अदलीवाल गांव के निरंकारी भवन पर हुए हमले से दहल गया होगा। रविवार को निरंकारी भवनों हर जगह अनुयायी एकत्रित होते हैं ओर सत्संग चलता है। सत्संग के बीच बाइक सवार दो युवक आएं और मंच के पास बम चलाकर भाग जाएं तो साफ है कि वो निरंकारी के लोगों की हत्या करना चाहते थे।

भले ये प्रशिक्षित आतंकवादी नहीं थे, पर 1980 के दशक में खालिस्तानी आतंकवादी ऐसे ही बाइकों पर नकाबपोश के रुप में आकर हमले करते थे। इसलिए यह तरीका भी भविष्य के लिए खतरनाक संकेत है। पंजाब पुलिस अपने बचाव में जो भी तर्क दे लेकिन यह स्थान अमृतसर शहर से केवल सात किलोमीटर की दूरी पर है। इसे दूरस्थ गांव नहीं माना जा सकता। पंजाब पुलिस का अधिकृत बयान था कि उनके पास किसी भी संभावित खतरे को लेकर कोई इनपुट नहीं था। निरंकारी समाज को लेकर किसी भी तरह का मुद्दा नहीं था और न ही ऐसा कोई इनपुट पुलिस के पास था। क्या पुलिस के पास ऐसी सूचना होगी कि फलां संस्थान और फलां जगह हमला होगा तभी उसे सटीक इनपुट माना जाएगा? धार्मिक स्थलों पर हमले का इनपुट तो था। कुछ ही दिनों पहले थलसेना प्रमुख जनरल विपीन रावत ने कहा था कि पंजाब में आतंकवादी शक्तियां फिर से सिर उठा रहंी हैं और तुरत कार्रवाई नहीं की गई तो हमारे लिए कठिनाइयां बढ़ जाएंगी।

जाहिर है, पंजाब पुलिस ज्ञात तथ्य को छिपाने का प्रयास कर रही थी। हमले के तीन दिनों पहले ही खबर आई थी कि खुफिया एजेंसियों ने दिल्ली पुलिस को इनपुट भेजा है कि कश्मीर का खूंखार आतंकी जाकिर मूसा अपने साथियों के साथ पंजाब के रास्ते दिल्ली या राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पनाह ले सकता है। इनपुट में कहा गया था कि जैश-ए-मोहम्मद के 6 से 7 आतंकवादी हमले की साजिश रच रहे हैं। सीमा पार से छह-सात आतंकवादियों के पंजाब में घुसने की खबर थी। जाकिर मूसा के अमृतसर में देखे जाने की खबर आई थी। खुफिया ब्यूरो को इनपुट मिला कि जाकिर मूसा गिरोह के सात आतंकवादी फिरोजपुर आए थे। पठानकोट जिले के माधोपुर के नजदीक ड्राइवर की हत्या कर एसयूवी कार छीनने वाले चार लोग भी अभी तक फरार है। पंजाब पुलिस के हवाले से ही यह बताया गया था कि ये चार आतंकवादी आतंकी मंसूबों को अंजाम देने की खातिर पंजाब में घुसे हैं। ये चारों संदिग्ध जम्मू रेलवे स्टेशन के सीसीटीवी फुटेज में भी नजर आए थे। दिल्ली से सुरक्षा एजेंसियों ने पांच और संदिग्ध आतंकवादियों की तस्वीरें पंजाब के पुलिस महानिदेशक सुरेश अरोड़ा को मेल की गई थीं। इनका हमले में हाथ नहीं है लेकिन इन सब सूचनाओं के बाद पिछले कई दिनों से पंजाब में हाईअलर्ट तो था।

पिछले 1 नवंबर को पटियाला में शबनमदीप सिंह नामक खालिस्तानी आतंकवादी गिरफ्तार हुआ था। इसने कहा था कि दीपावली से पूर्व हमले की योजना है। इसने बस स्टैंड जैसे भीड़ वाले इलाके में विस्फोट की योजना की बात बताई थी। इसके बाद आखिर पुलिस को क्या इनपुट चाहिए था? जालंघर में ही एक कश्मरी युवक ग्रेनेड के साथ पकड़ा गया था। इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर पुलिस के साथ पंजाब पुलिस ने हाल ही में पंजाब के संस्थानों में पढ़ रहे कश्मीरी छात्रों के दो गिरोहों का पर्दाफाश किया था, जिनके संबंध कश्मीरी आतंकवादी संगठनों से थे। यह खबर भी लंबे समय से थी कि लंदन से कनाडा तक के खलिस्तान समर्थक पंजाब मंे फिर से हिंसा और अशांति की स्थिति पैदा करने के लिए सक्रिय हैं तथा पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई अपने स्तर पर काम कर रही है। 18 महीनों में स्वयं पंजाब पुलिस ने 15 से ज्यादा आतंकवादी मॉड्यूल को नष्ट करने का दावा किया है। अगर आपने 15 मॉड्यल पकड़े तो निश्चय ही ऐसे अनेक मॉड्यूल छिपे हुए होगे। आंकवादियों ने कैप्टन अमरींदर सिंह एवं सेना प्रमुख जनरल रावत को जान से मारने की धमकी दिया हुआ है। इन सबके बाद कैसा इनपुट चाहिए यह समझ से परे है। 12 अगस्त को लंदन के सिख्ख फार जस्टिस के बैनर से 2020 सिख जनमत संग्रह रैली निकाली गई। इसमें खालिस्तानी उग्रवादी समूहों के बचे आतंकवादियों को संदेश निहित था कि आप सक्रिय हो, आपके साथ बड़ा समुदाय खड़ा है। यह अलग बात है कि इनसे बड़ी संख्या में सिख्खों ने ही लंदन में इनके विरोध मेें रैली निकालकर करारा जवाब दे दिया। किंतु इससे इन दुष्ट समूहों की सक्रियता का पता तो चल ही गया। 

इसलिए ऐसे हमले की आशंका नहीं होने के किस बयान को स्वीकार नहीं किया जा सकता। पंजाब में अशांति पैदा करने वाले भारत विरोधी खालिस्तानी समूह भाड़े के हत्यारों से बीच-बीच में अलग-अलग संगठनों की हत्यायें करवा रहे थे। आरएसएस और शिवसेना के नेताओं की हत्या का उद्देश्य यह था कि इससे हिन्दू गुस्से में सिखों से लड़ने लगंे और प्रदेश सांप्रदायिक दंगांें की चपेट में आ जाए। ठीक यही दृष्टिकोण निरंकारी अनुयायियों पर हुए हमले में भी देखा जा सकता है। निरंकारी मिशन एक बड़ा समूह है। बाबा बूटा सिंह द्वारा 1929 में स्थापित संत निरंकारी मिशन के दुनिया भर में एक करोड़ से ज्यादा अनुयायी माने जाते हैं। ठीक सत्संग के समय हमला करने का सीधा उद्देश्य यही हो सकता है कि ये गुस्से में ंिहंसा आरंभ कर दें। संत निरंकारी मिशन स्वयं को न तो कोई नया धर्म मानते हैं और न ही किसी मौजूदा धर्म का हिस्सा, बल्कि वे मानव कल्याण के लिए समर्पित एक आध्यात्मिक आंदोलन के रुप में स्वयं को देखते हैं। स्थापना के समय से ही सिख समुदाय का एक वर्ग इसका विरोध करता रहा है। वे इसे सिख विरोधी धर्म कहते हैं। 40 वर्ष पूर्व 13 अप्रैल 1978 को वैसाखी के दिन अमृतसर में निरंकारी भवन पर हुए हमले के बाद पंजाब हिंसा की चपेट में आ गया था और भिंडरावाले एक वर्ग में लोकप्रिय हुआ। हमले के बाद अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच हिंसक संघर्ष हुआ जिसमें 13 अकाली कार्यकर्ता मारे गए थे। इसके विरोध में रोष दिवस मनाया गया। जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने इसको उग्र रुप दिया और उसके बाद क्या हुआ हम सब जानते हैं। पंजाब के आतंकवाद पर काम करने वाले कई विद्वान मानते हैं कि अगर वह हमला न हुआ होता तो भिंडरावाले और उसके साथी एक वर्ग के हीरो बनकर नहीं उभरते एवं उस प्रकार के भयावह चरमपंथ का आविर्भाव नहीं होता।

तो पंजाब को हिंसा की आग में झोंकने के हाल के वर्षों के सारे प्रयासों, आतंकवादियों से संबंधित इनपुट, गिरफतारियां, आतंकवादी मॉड्यूल को विफल करने तथा अंततः निरंकारी मिशन के सत्संग पर हमले के बाद यह मानने में कोई हिचक नहीं है कि पंजाब को ठीक 1980 के दशक के भयावह दौर में ले जाने की साजिशें रची जा चुकीं हैं। हमले का स्थान और समय बताता है कि निरंकारी मिशन पर हमला बिल्कुल सुनियोजित साजिश का हिस्सा है। भारत विरोधी समूह निश्चय ही इससे 1978 दुहराने की उम्मीद कर रहे होंगे। लेकिन पंजाब के लोगों ने हिंसक संघर्ष का जो दंश झेला है उसमें वे दोबारा किसी सूरत में नहीं फंसेंगे। निरंकारी अनुयायियों ने जिस तरह का धैर्य दिखाया है, उनके प्रवक्ताओं ने जैसा संतुलित बयान दिया है उससे इनकी साजिश विफल हो चुकी है। किंतु ये आगे भी  हमले की कोशिश और भाड़े के हत्यारों से हत्यायें करवायेंगे। उम्मीद है पुलिस आगे कोई बहाना तलाशने की जगह ऐसे साजिशों को समयपूर्व नष्ट करने में सफल होगी। राज्य को केन्द्र तथा दूसरे राज्यों की सुरक्षा एजेंसियों के साथ सतत् समन्वय बनाकर अलगाववादी हिंसा को सिर उठाने के पहले ही कुचलने की हरसंभव कार्रवाई करनी चाहिए। जरुरत हो तो केन्द्र सरकार पंजाब और पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों, गृह सचिवों, पुलिस प्रमुखों सहित अन्य सुरक्षा बलों के प्रमुखों के साथ खुफिया एजेंसियों की बैठक बुलाकर आकलन करे तथा सुरक्षा ऑपरेशन की योजना बनाकर आगे बढ़ा जाए।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पंाडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

 

शनिवार, 17 नवंबर 2018

तालिबान के साथ मॉस्को वार्ता में भागीदारी उचित

 

अवधेश कुमार

रुस की राजधानी मास्को में आतंकवादी संगठन तालिबान के साथ बातचीत में शामिल होने की खबर ने देश में हलचल पैदा कर दिया। भारत का आतंकवादी संगठनों से किसी तरह की बातचीत में भागीदारी न करने का रुख रहा है। अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान के तालिबानों के साथ कतर की राजधानी दोहा में वार्ता की कोशिशों का भारत ने कभी खुलकर विरोध नहीं किया लेकिन प्रधनमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कई अवसरों पर साफ बोला है कि अच्छे और बुरे आतंकवादी नहीं होते, आतंकवादी आतंकवादी होते हैं। इसमें अचानक भारत के शामिल होने से कुछ प्रश्न पैदा होगे। इस खबर के आते ही जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने कह दिया कि जब तालिबान के साथ भारत बातचीत कर सकता है तो यहां के संगठनों के साथ क्यों नहीं करता? इस पर देश में विवाद चल रहा है और आगे भी चलेगा। यह भारत है जहां राजनीतिक दलों के नेताओं का विचार देशहित की सोच से नहीं, वोट की चिंता से निर्धारित होते हैं। दुर्भाग्य यह है कि विरोधी दल सरकार को दुश्मन मानकर स्टैंड तैयार करते और बयान देते हैं। मास्को वार्ता सम्मेलन के साथ भी यही हुआ है। कोई यह समझने के लिए तैयार नही है कि आखिर भारत का भाग लेना विदेश नीति की दृष्टि से लाभकारी है या नहीं? इसका दूरगामी प्रभाव क्या होगा? सबसे बढ़कर अगर भारत उसमें शामिल नहीं होता तो क्या होता?

मास्को ढांचा बातचीत पहले भी हुई है और भारत की ओर से संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी शामिल हुए थे लेकिन उसमें तालिबान नहीं था। पहली बार दोहा स्थित तालिबान के राजनीतिक दफ्तर से एक दल भाग ले रहा है। भारत की ओर से मंत्री नहीं सेवानिवृत्त्त राजनयिक टीसीए राघवन और अमर सिन्हा भाग ले रहे हैं। अमर सिन्हा अफगानिस्तान में भारत के राजदूत और राघवन पाकिस्तान में उच्चायुक्त रहे हैं। विवाद बढ़ने पर विदेश मंत्रालय की ओर से प्रवक्ता रवीश कुमार सामने आए। उन्होंने कहा कि मॉस्को बैठक में भारत ने गैर-अधिकारिक स्तर पर भाग लेने का फैसला किया। रवीश कुमार ने दोहराया कि भारत ऐसे सभी प्रयासों का समर्थन करता है जिससे अफगानिस्तान में शांति और सुलह के साथ एकता, विविधता, सुरक्षा, स्थायित्व और खुशहाली आए। भारत की नीति रही है कि इस तरह के प्रयास अफगान-नेतृत्व, अफगान-मालिकाना हक और अफगान-नियंत्रित होनी चाहिए और इसमें अफगानिस्तान सरकार की भागीदारी होनी चाहिए। इसके बाद कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती। भारत वहां तालिबान से बातचीत नहीं कर रहा है। अफगान सरकार भी इसमें सीधे तौर पर भाग नहीं ले रही है। उसके यहां से हाई पीस काउंसिल इसमें भाग ले रहा है। इसी तरह भारत की हिसेदारी गैर-अधिकारी स्तर पर होगी।

सच यह है कि भारत ने रुस के निमंत्रण को स्वीकार करने के पहले काफी विचार-विमर्श किया। अफगानिस्तान से भी बातचीत की गई। अफगानिस्तान की चाहत है कि शांति एवं पुनर्निर्माण के जो भी प्रयास हों उसमें भारत की भागीदारी रहे। वह हम पर ज्यादा भरोसा करता है। अफगानिस्तान में हमारी सक्रियता पाकिस्तान और चीन को संतुलित करता है जो हमारे राष्ट्रीय हित में है। हम वहां  पुनर्निर्माण के काम में व्यापक स्तर पर लगे हैं। क्या स्थिति होती यदि अफगानिस्तान के चाहने के बावजूद भारत उससे अपने को अलग रखता? यह मूर्खता होती जिसका खामियाजा न जाने कितने वर्षों तक भारत को भुगतना पड़ता। पाकिस्तान और चीन दोनों की चाहत थी कि भारत इसमें शामिल नहीं हो। रूस ने मॉस्को ढांचा बातचीत में अफगानिस्तान, भारत, ईरान, कजाखस्तान, किर्गिस्तान, चीन, पाकिस्तान, तजाकिस्तान, तुर्कस्मेनस्तान, उज्बेकिस्तान, अमेरिका और अफगान तालिबान को न्योता दिया था। इसमें अमेरिका को छोड़कर सभी भाग ले रहे हैं। ऐसी किसी प्रक्रिया से प्रत्यक्ष तौर पर बाहर रहकर भारत क्या पा लेता?

हा, रुस के इरादे को लेकर संदेह हैं। ऐसा नहीं है कि भारत को इसका पता नहीं है या इस पर विचार विमर्श नहीं किया गया। राष्ट्रपति पुतिन के नेतृत्व में रुस अमेरिका के समानांतर महाशक्ति के रुप में स्वयं को खड़ा करने की रणनीति पर काम कर रहा है। अफगानिस्तान में उसे लेकर आशंकायें हैं और अच्छे संबंध नहीं है। सम्मेलन द्वारा रुस उस देश में अपनी प्रभावी उपस्थिति चाहता है। ध्यान रखिए जब अफगानिस्तान में मजहबी लड़ाकुओं ने संघर्ष आरंभ किया उस समय यह सोवियत संघ के समूह के कम्युनिस्ट शासन के अंतर्गत था एवं नजीबुल्ला उसके द्वारा बिठाए गए अंतिम राष्ट्रपति थे। सोवियत संघ की सेनाएं वहां से वापस गई और चरमपंथियों ने नजीबुल्ला की हत्या कर दिया। संभव है पुतिन के अंदर अपने इस पूर्व प्रभाव वाले देश में सक्रिया भूमिका निभाने की भावना प्रबल हुई हो। रूस यह भी नहीं चाहता कि अफ़ग़ानिस्तान में केवल अमेरिका की मौजूदगी रहे। कुछ लोग इसे शांति वार्ता की जगह अमेरिका के सामनांतर स्वयं को खड़ा कने का सम्मेलन भा कह रहे हैं। रुस पर तालिबानों की मदद करने का आरोप भी लगता है। ऐसा माना जाता है कि रुस अमेरिका से कुछ बातें वहां मनवाना चाहता है। रूस ने इससे इनकार किया है। लेकिन तालिबान के ठिकानों से मिले रूसी हथियार इसकी पुष्टि करते हैं। रुस की नीति यह थी कि आईएसआईएस से लड़ने के लिए तालिबानों की मदद की जाए। यह खतरनाक नीति थी पर थी। माना जाता है कि इस समय अफ़ग़ानिस्तान में दो लाख या इससे अधिक तालिबानी लड़ाके हैं। इनमें से ज़्यादातर पाकिस्तान के शरणार्थी शिविरों से आए हुए लोग हैं। इन लड़ाकों को नियमित रूप से वेतन और अन्य खर्च देना होता है। तो कहां से आता है इसके लिए धन? पाकिस्तान की इसमें भूमिका है, पर उसकी हैसियत सारा खर्च उठाने की न थी, न है। इसलिए तालिबान ने नए मददगार तलाशे। ईरान ने भी तालिबान को लंबे समय तक हर स्तर की मदद की थी। हां, आज की स्थिति में ईरान तालिबान की वित्तीय सहायता नहीं करता। साफ है कि तालिबान को कई देशों से हथियार और धन मिल रहे हैं। इसमें रुस का नाम पाकिस्तान के साथ आ रहा है। तालिबान फिर अपने-आप ताकतवार तो हुआ नहीं है।

31 जनवरी 2018 को जारी हुए बीबीसी के एक अध्ययन के अनुसार तालिबान अफ़ग़ानिस्तान के 70 प्रतिशत हिस्से में खुलकर गतिविधियांे को अंजाम दे रहे हैं जिसमें से छह प्रतिशत पर उसका पूरा नियंत्रण है। अफ़ग़ान सरकार ने इस रिपोर्ट को गलत बताया। 70 प्रतिशत से कम भी हो लेकिन उनका प्रभाव क्षेत्र काफी विस्तृत है इस भयावह सच को नकारा नहीं जा सकता।  अगर इसके पीछे रुस की भूमिका है तो फिर अफगानिस्तान ने इसमें अपने यहां से प्रतिनिधि भेजना क्यों स्वीकार किया? रुस लंबे समय से अफगानिस्तान सरकार को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि उसकी रुचि वहां शांति स्थापित करने तथा विकास प्रक्रिया में भागीदारी की है। शायद परिस्थितियां देखकर अफगानिस्तान सरकार ने स्वयं शामिल होने की बजाय गैर आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल भेजा। भारत की नीति स्पष्ट है, जहां अफगानिस्तान वहां भारत। यही श्रेष्ठ नीति है। वैसे भी रुस और चीन की कोशिश तालिबान को भी हर प्रक्रिया में एक कोण बना देने की लग रही है। तालिबान को मान्यता देने का भागीदार भारत नहीं बन सकता लेकिन उसकी अनुपस्थिति का लाभ लेकर ये देश ऐसा कर लें यह भी हमारे हित में नहीं है। वहां हमारे गैर आधिकारिक प्रतिनिधि इसके विरुद्ध तर्क दे सकते हैं। इस तरह मास्को वार्ता में भागीदारी हर दृष्टि से भारत के दूरगामी हित में है। 

हालांकि मॉस्को सम्मेलन से अफगानिस्तान में शांति स्थापना की दिशा में कोई ठोस परिणाम निकलने की अभी संभावना नहीं है। तालिबान ने बयान जारी किया कि हमारा प्रतिनिधमंडल अमरीका की घुसपैठ पर चर्चा केंद्रित रखेगा। शांति वार्ता के पहली शर्त होती है, हिंसा का रुकना। तालिबान ने आतंकवादी हमले बंद नहीं किए हैं। अमेरिका के बिना अफगानिस्तान के लिए किसी शांति प्रयास का कोई अर्थ नहीं है। अमेरिका तालिबान से क़तर में बातचीत कर रहा है। जुलाई और अक्तूबर में दो दौर की बातचीत संपन्न हो चुकी है। तालिबान की मुख्य मांग विदेशीे सेनाओं की वापसी की है तथा वह कहता रहा है कि अमेरिका के अलावा किसी से बातचीत व्यर्थ है। तालिबान अफ़ग़ान सरकार को कठपुतली का प्रशासन कहता है और हिंसा रोकने को तैयार नहीं। ऐसी मानसिकता में शांति संभव ही नहीं है। बावजूद इसके अगर रुस वार्ता आयोजित किया है, अफगानिस्तान सहित 10 देशों तथा तालिबान को भाग लेने के लिए तैयार किया तो हमें उससे कतई दूर नहीं रखना चाहिए था। अफगानिस्तान संबंधी प्रयासों में पाकिस्तान और चीन रहे तथा हम न रहें यह तो पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

 

 

 

 

 

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

अयोध्या पर 1990 के दशक की स्थिति पैदा करने के संकेत

 

अवधेश कुमार

अयोध्या के विवादास्पद स्थल पर राममंदिर निर्माण का मुद्दा राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से आगे बढ़ते हुए अब साधु-संतों के अभियान तक पहुंच गया है। हमको आपको ही नहीं, स्वयं भाजपा को भी कुछ महीने पूर्व तक उम्मीद नहीं थी कि राममंदिर का मुद्दा इस तरह उफान मारता हुआ उनके सामने आकर बड़ी चुनौती के रुप में खड़ा हो जाएगा। करीब तीन दशक बाद राजधानी दिल्ली ने साधु-संतों का इतना बड़ा आयोजन हुआ है। तालकटोरा स्टेडियम से निकलती आवाजें दो दिनों तक मीडिया की सुर्खियां बनी रहीं। 1990 के दशक में जब राममंदिर निर्माण का आंदोलन चरम पर था, हमने ऐसे दृश्य जगह-जगह देखे थे। संत सम्मेलन के दूसरे और अंतिम दिन जो प्रस्ताव पारित हुआ उसका शीर्षक देखिए-  सन्तों का यह धर्मादेश - कानून बनाओ या अध्यादेश। वस्तुतः कार्यक्रम के बैनर पर ही लिखा था, धर्मादेश। इसका अर्थ हुआ कि साधु-संतों ने अपने प्रस्ताव को धर्मसत्ता के आदेश के रुप में सरकार के सामने रखा है। जरा ध्यान दीजिए, 5 अक्टूबर को विश्वहिन्दू परिषद एवं संतों की उच्चाधिकार समिति को बैठक हुई जिसमें सरकार से संसद में कानून बनाकर मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त करने की मांग की गई.... उसके बाद विजयादशमी के वार्षिक संबोधन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी यही कहा कि कुछ भी करिए, चाहे संसद में कानून बनाना हो तो बने लेकिन मंदिर अब बनना चाहिए... और अब संत सम्मेलन।

इस तरह एक महीने के अंदर ही लगभग वैसा ही माहौल निर्मित होता दिख रहा है जैसा 1990 के दशक में था। संघ की तीन दिवसीय कार्यकारिणी की मुंबई बैठक में भी 2 नवंबर को सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने यह पूछने पर कि क्या वह पहले तरह मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन करेगा, कहा कि आवश्यकता हुई तो अवश्य करेंगे। संघ मंदिर निर्माण आंदोलन मंें सीधे शामिल नहीं था लेकिन योजना से लेकर उसे साकार करने का पूरा सूत्र उसके हाथों ही था। हालांकि मंदिर आंदोलन ने देश में आलोड़न का स्वरुप तभी लिया जब भाजपा ने उसे अपनाया। भाजपा इसे प्रस्ताव के रुप में स्वीकार करे इसके पीछे भी संघ की ही भूमिका थी। यह संभव नहीं कि संतों का इतना बड़ा कार्यक्रम हो और संघ ने इससे अपने को दूर रखा हो। साधु-संतो ंके जमावड़े का महत्व वह नहीं समझ सकते जिनको इनकी शक्ति का ज्ञान नहीं है। संत सम्मेलन में हिन्दू धर्म के सभी पंथों, पीठों, अखाड़ों, प्रमुख मठों आदि की उपस्थिति रही। साधु-संतो ंके मानने वालों की अपार संख्या है। इसलिए इनकी शक्ति को महत्वहीन मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। इन सबको फिर से साथ लाने के लिए नेपथ्य में कितना प्रयास हुआ होगा, दिल्ली में उनके रहने से लेकर भोजनादि तथा सभा स्थल तक लाने-ले जाने तथा सभा से संबंधित सारी व्यवस्थायें अपने आप तो नहीं हो गई होंगी। इतना व्यवस्थित कार्यक्रम का अर्थ ही है कि सरकार सहित राजनीतिक पार्टियों को दबाव में लाने तथा देश में फिर से मंदिर निर्माण के पक्ष में माहौल बनाने की तैयारी हो चुकी है।

यह कहना आसान है कि जब चुनाव सिर पर है तभी इनको मंदिर याद आया है। यह प्रश्न निस्संदेह उठेगा कि चाहे विहिप हो या संघ या साधु-संत इनने यही समय क्यों चुना? निस्संदेह, मंदिर समर्थक अगर कुछ पहले से दबाव के कार्यक्रम आरंभ करते तो यह प्रश्न नहीं उठता कि भाजपा को चुनाव में लाभ पहुंचाने के लिए मंदिर का मुद्दा उठा दिया गया है। हालांकि इसमें सबसे ज्यादा राजनीतिक जोखिम किसी का बढ़ा है तो वह भाजपा ही है। अगर नरेन्द्र मोदी सरकार अध्यादेश नहीं लाती है तो संदेश यह जाएगा कि ये मंदिर बनाना नहीं चाहते और इससे उसके मंदिर समर्थक मतदाता नाराज होकर दूर जा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि संघ, विहिप आदि को इसका आभास नहीं है। बावजूद इसके यदि वे खुुलकर सरकार से अल्टिमेटम की भाषा में बात कर रहे हैं तो इसका अर्थ एक ही है, इनका धैर्य अब जवाब दे गया है। नरेन्द्र मोदी की प्रखर हिन्दुत्ववादी छवि के कारण आम उम्मीद थी कि यदि वे प्रधानमंत्री बने तो मंदिर का रास्ता निकाल देंगे। इस भाव से पूरे संघ परिवार एवं साधु-संतो ंके बड़े वर्ग ने भाजपा के पक्ष में काम किया। चूंकि साढ़े चार वर्ष तक इस दिशा में एक भी प्रयास सरकार की ओर से नहीं हुआ, उच्चतम न्यायालय से भी जल्द फैसला आने की उम्मीद खत्म हो गई, इसलिए इनका विकल होना स्वाभाविक है। आवाज देर से भले उठी है किंतु ये अभी भी नहीं बोलते तो इनकी अपनी विश्वसनीयता और साख खत्म हो जाती। संघ के लोग कहते हैं कि सरकार आज है कल नहीं भी रह सकती है, लेकिन हमें तो समाज के बीच काम करना है। हम लोगों को क्या जवाब देंगे? मोहन भागवत ने यही कहा कि लोग पूछते हैं कि जब अपनी सरकार है तब मंदिर क्यों नहीं बन रहा है। इसलिए यह अभियान केवल चुनाव तक चलेगा और रुक जाएगा ऐसा नहीं है। 

सच यही है कि मंदिर आंदोलन फिर से आरंभ हो चुका है। पहले भी साधु साधु-संत ही अगुवाई कर रहे थे, पुनः वे आगे आ गए हैं। यह न मानिए कि संत सम्मेलन करके वे सरकार के कदमों की प्रतीक्षा करने वाले हैं। संत सम्मेलन ने भले आंदोलन का प्रस्ताव पारित नहीं किया लेकिन लंबे अभियानों की योजना सामने रख दिया है। तत्काल चार विशाल धर्मसभायें होंगी। 25 नवंबर को एक साथ अयोध्या, नागपुर एवं बंेगलूरु में सभायें करने के बाद 9 दिसंबर को एक बड़ी सभा दिल्ली में आयोजित होगी। 1990 के बाद मंदिर निर्माण के लिए बड़ी संख्या में पहली बार साधु-संत एकत्रित होंगे। देखना होगा उस दिन क्या घोषणाएं होतीं हैं एवं मोदी सरकार की ओर से कोई बयान आता है या नहीं। उस सभा के बाद देश में प्रचंड आलोड़न की स्थिति पैदा करने की कोशिश अवश्य होगी। दिल्ली धर्मसभा के बाद देश के सभी जिलों में सभायें की जाएगी। इसका अर्थ एक ही है कि मंदिर निर्माण होने तक अभियान चलता रहेगा। सभाओं के समानांतर भी कार्यक्रम हैं। उदाहरण के लिए 18 दिसंबर को गीता जयन्ती से मंदिर का संकल्प लेते हुए एक सप्ताह तक अपनी-अपनी उपासना पद्धति के अनुसार 2-3 घंटे का धार्मिक अनुष्ठान करने की अपील की कई है, दीपावली के दिन एक दीपक श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर के लिए जलाने का आह्वान किया गया है....। ठीक इसी तरह का कार्यक्रम हमने मंदिर आंदोलन के दौरान 1988 से लेकर 1992 तक देखा था। इसी से पूरे देश का हिन्दू किसी न किसी रुप मेें आंदोलन से जुड़ गया था भले उसमें उसकी प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं हो।

फैजामाद जिला को अयोध्या कर देने. श्रीराम की 151 मीटर ऊंची प्रतिमा लगाने की घोषणा, राजा दशरथ के नाम पर मेडिकल कौलेज, राम के नाम पर हवाई अड्डा. सरयू किनारे नई अयोध्या के निर्माण की योजना आदि से हिन्दुत्ववादी प्रसन्न अवश्य हैं। आखिर अयोध्या में 7डी रामलीला, रामकथा गैलरी, रामलीला पर लाइट ऐंड साउंड शो के अलावा म्यूजिकल फाउंटेन बनाए जाएंगे तो अयोध्या का महत्व विश्व पटल पर बढ़ेगा। किंतु इससे मंदिर निर्माण की मांग करने वाले संतुष्ट होकर नहीं बैठने वाले। विधानसभा चुनाव खत्म होने के दो दिनों बाद दिल्ली में 9 दिसंबर की विशाल धर्मसभा का आयोजन बिल्कुल उस समय के महत्व के दृष्टिगत ही तय हुुआ है। लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा अपने मतदाताओं के बड़े वर्ग की उपेक्षा करने का जोखिम नहीं उठा सकती। उसे निर्णय करना ही होगा। चुप्पी साधे या अस्पष्ट रुख रखने वाले दलों को भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि वे मंदिर के पक्ष में हैं या विरोध में। सरकार के लिए थोड़ी राहत की बात है तो यही कि प्रस्ताव का पूरा अंश विरोधी नहीं है। उसमें कहा गया है कि श्रीराम जन्मभूमि मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त न होने के कारण हम आहत हैं पर भारत सरकार के देश, धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीय सुरक्षा व राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़े अनेक कार्यों से संतुष्ट भी हैं। हमारी जो भी अपेक्षाएं हैं वो इसी सरकार से है और हमारा विश्वास है कि हमारी समस्याओं का समाधान भी यही सरकार करेगी तथा अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी। हां, इस बात की गारंटी नहीं हो सकती कि अगर सरकार अनिर्णय की अवस्था में रही तो भी इनका स्वर यही रहेगा। वैसे भी संत सम्मेलन के अंदर प्रस्ताव के अंश से असहमति के स्वर भी उभरे।

अवधेश कुमार, इः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शनिवार, 3 नवंबर 2018

अहिंसक आवाज को बंद करने की कोशिश

 

अवधेश कुमार

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नव माओवादियों के भयावह हमले ने केवल देश नहीं दुनिया का ध्यान खींचा है। दुनिया का इसलिए क्योंकि इसमें वीडियो पत्रकार भी शहीद हुआ तथा दो पत्रकारों की जान केवल संयोग से बच गई। वे चूंकि एक गड्ढे में लेटे थे इसलिए गोलियां उनके सिर से निकल जा रहीं थीं। इन पत्रकारों को स्कॉट कर रहे तीन पुलिसकर्मी भी शहीद हुए। अगर दोनों तरफ से करीब 45 मिनट तक गोलीबारी होती रही तो इसका मतलब साफ है हमला बहुत बड़ा था। जिन्दा बचे दोनों पत्रकारों संवाददाता धीरज कुमार तथा सहायक वीडियो पत्रकार मोरमुकुट शर्मा ने जो विवरण दिया है उसे सुनने के बाद दिल दहल जाता है। आतंक और भय का कैसा माहौल हो सकता है इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। अपने जीवन का अंत मानकर मोरमुकुट ने मोबाइल पर जो वीडियो शुट किया उससे भी स्थिति साफ हो जाती है। वास्तव में इनके साथ चल रहे सात जवानों का साहस व शौर्य तथा उनकी सहायता में पहुंची स्थानीय पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में पुलिस बल की संघर्ष रणनीति ने ही इनकी जीवन रक्षा की अन्यथा उन नवमाओवादियों ने इनको खत्म करने की हरसंभव कोशिश की। देश भर में निंदा और विरोध के बाद इनने बयान जारी कर स बात से इन्कार किया है इनका इरादा मीडिया पर हमला करना था। किंतु सारी परिस्थितियां इनके झूठ का पर्दाफाश करतीं हैं। घात लगाकर हमले का अर्थ ही है कि वे वहां इंतजार कर रहे थे कि कब वहां से पत्रकारों की टीम गुजरे और वे हमला करें। इन्हें नक्सली कहना इसलिए उचित नहीं कि नक्सल आंदोलन भी हिंसक और अमानवीय था किंतु उस दौरान किसी आम आदमी या पत्रकार आदि की वे हत्यायें नहीं करते थे। अब तो इनके लड़ाके निर्दोष निहत्थे जनता से भरी बसों को उड़ाने में अपनी विजय मानते हैं।

एक मनुष्य के रुप में पत्रकार एवं सर्वसामान्य जनता के बीच कोई अंतर नहीं। जिन्दगी की कीमत सबकी एक ही है। फिर भी एक पत्रकार समाज की आवाज बनता है। एक पत्रकार जनता के प्रतिनिधि के रुप में संघर्ष क्षेत्र में भी बिना किसी अस्त्र के अपना काम करता है। वह अपने कलम, कैमरा-माइक या लैपटॉप का अहिंसक सिपाही होता है। पत्रकारों की किसी टीम में कैमरामैन को अग्रिम मोर्चे पर रहना होता है। साहू भी बारुदी सुरंग वाले उस क्षेत्र में सबसे अगली बाइक पर थे। इसलिए वे और उनकी बाइक चला रहे जवान सबसे पहले सीधे निशाने पर आ गए। इन नवमाओवादियों ने विधानसभा चुनाव के बहिष्कार का एलान किया हुआ है। हर बार चुनाव में वे ऐसा करते हैं। आगामी 12 नवंबर को छत्तीसगढ़ के नवमाओवाद प्रभावित इलाकों मंें मतदान है। वे हर हाल में इसे विफल करना चाहते है। पिछले चुनावों में उनके बहिष्कार के बावजूद जनता मतदान करने के लिए निकली। दंतेवाड़ा क्षेत्र में इनके बहिष्कार के बावजूद 2013 में     61.93 प्रतिशत, 2008 में    55.60 प्रतिशत तथा 2003 में 60.28 मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया। इससे साफ है कि जनता का बहुमत उनके विरुद्ध है भले एक बड़ी संख्या उनके डर से मतदान केन्द्र तक न आए। इसका उन्हें अच्छी तरह पता है कि 12 नवंबर को भी लोग मतदान करने निकलेंगे। उन्हें भयभीत करने के लिए वे जितना कुछ कर सकते हैं कर रहे है। कई खबरों आ रहीं है कि कहीं सरपंच को पीटा गया तो कहीं धमकी दी गई ...। जगह-जगह ये पोस्टर चिपकाते हैं।

इस बार इन्होंने एक पोस्टर और चिपकाया जिसमें पत्रकारों को क्षेत्र में चुनाव बहिष्कार की कवरेज के लिए आमंत्रित किया गया है। यह पोस्टर क्यों चिपकाया गया इसके बारे में अलग-अलग बातें हैं। इस घटना के बाद यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्या पत्रकारों को अपने जाल में फंसाने के लिए ये पोस्टर लगाए गए थे? उनको यह पता था कि पत्रकार आएंगे। वे बिना सुरक्षा के आ नहीं सकते। जाहिर है, उनके साथ कुछ सुरक्षाकर्मी होंगे। यह बिल्कुल संभव है कि शिकार करने की रणनीति के तहत उन्होंने यह पोस्टर लगाया हो। यह भी प्रश्न उठ सकता है कि अगर वे पहले से वहां घात लगाकर बैठे थे तो क्या उन्हें इन पत्रकारों के क्षेत्र में पहुंचने की सूचना मिल चुकी थी? अगर मिली थी तो उसका स्रोत क्या हो सकता है? निश्चय ही यह जांच का विषय है लेकिन इस संदेह को किसी तरह खारिज नहीं किया जा सकता है। इन पर हमला ठीक उसी जगह हुआ जहां माओवादियों के पोस्टर लगे हुए थे। वस्तुतः ये उस जगह पोस्टर को शूट करने लगे। वीडियो शूट करने के बाद जैसे ही ये बाइकों पर बैठे तो खेतों में छिपे हथियारबंद झुड ने हमला कर दिया। तो क्या उन्हें अनुमान था कि पत्रकार यदि गुजरेंगे तो वे पोस्टर को अवश्य शूट करेंगे? अभी तो ऐसा ही लगता है। इसका मतलब है कि उन्होंने यह जानते हुए हमला किया यह पत्रकारों का दल है जिसे सुरक्षाकर्मी अपने सुरक्षा कवच में ले जा रहे हैं।

पिछले एक दशक में 12 हजार से ज्यादा लोगों की बलि इस संघर्ष में चढ़ चुकी है जिसमें करीब 2700 सुरक्षा बलों के जवान है, पर इस तरह पत्रकारों के दल पर कभी हमला नहीं हुआ था। ध्यान रखने की बात है कि वीडियो पत्रकार अच्युतानंद साहू को सिर मेें गोली लगी इसलिए उनकी जान पहले ही जा चुकी होगी। बावजूद इसके माओवादियों ने पीछे से उनकी गर्दन काट दी। उनके हाथ में कैमरा था। यह देखते हुए उनने ऐसा किया तो फिर इसमें कोई संदेह रह ही नहीं जाता कि उनके निशाने पर इस बार पत्रकार ही थे। बचे दोनों पत्रकारों की ओर भी वे लगातार गोलीबारी करते रहे। इनके पास जो पेंड़ था उसे इनने गोलियों से छलनी कर दिया। हथगोले भी फेंके गए। अगर पत्रकारों का बड़ा समूह होता तो न जाने और कई की जानें जाती। संयोग से यह केवल तीन लोगों की टीम थी। यह भले नई प्रवृति लगे, पर इन नवमाओवादियों की अंध हिंसा को देखते हुए आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सक्रिय पत्रकारों में ऐसे लोग न के बराबर हैं जो इनकी हिंसा का समर्थन करें। मीडिया ने हाल के वर्षों में इनकी हिंसा की नीति के खिलाफ देश में वातावरण बना दिया। इनके चुनाव बहिष्कार को जनता द्वारा नकारने की हर बार मीडिया पूरा कवरेज देती है। इनकी निंदा करती है। इनके जनसमर्थनविहीन होने की सच्चाई उजागर करती है।  इस बार मीडिया दूर से ही सही उन यह बता रही है कि वर्षों से मतदान न करने वाले कुछ गांवों में भी मतदान होनेवाला है।  यह टीम भी वैसे ही एक गांव निलवाया जा रही थी जहां बनाए गए नए मतदान केंद्र के साथ स्थानीय लोगों से बात करने की योजना थी। उस गांव के लोगों ने 1998 के बाद से मतदान नहीं किया है। वास्तव में ऐसे आधा दर्जन गांवों में दो दशक बाद मतदान कराने के लिए सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त किए गए हैं जहां के लोग मतदान नहीं कर पाते थे। दंतेवाड़ा जिले में नदी पार के साथ ही कुआकोंडा-अरनपुर क्षेत्र में ऐसे आधा दर्जन गांव हैं जहां पिछले कई चुनावांें में एक भी वोट नहीं पड़ा। इस बार सुरक्षा इंतजाम देखकर गांववाले मतदान की मानसिकता में दिख रहे हैं।

निश्चय ही इस टीम की रिपोर्टिंग के बाद देश भर में इनकी सोच के विपरीत संदेश जाता तथा दूसरे गांवों पर भी इसका असर होता। इन नव माओवादियों ने इस आवाज को निकलने के पहले ही हिंसा की बदौलत बंद करने की कोशिश की है। वे भूल रहे हैं कि जिन भी शक्तियों ने पत्रकारों की आवाज बंद करने या उनके सामने किसी प्रकार का भय पैदा कर काम में बाधा डालने का यत्न किया वो या तो उसी दौरान असफल हुए या कुछ समय के लिए उनको सफलता मिली भी तो बाद में पराजित हुए। पत्रकारिता चैतन्य प्राणी द्वारा अंजाम दी जाने वाली विधा है। न इस प्रकार के हमलों से पत्रकारों की आवाजें बंद हुईं हैं न होंगी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारों के खिलाफ हिंसा पर काम करने वाली संस्थाओं का आंकड़ा है कि अपने काम को अंजाम देते समय औसतन हर महीने कम से कम आठ पत्रकारों को अपनी जिन्दगी से हाथ धोना पड़ रहा है जिनमें से आधी संख्या संघर्ष क्षेत्र में काम करने वालों की है। यानी हिंसक शक्तियां एक तरफ तथा पत्रकारों की अहिंसक और नैतिक शक्ति दूसरी तरफ। यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक दुनिया के किसी कोने में हिंसा करने वाले ऐसे दिग्भ्रमित उन्मादी शक्तियां सक्रिय रहेंगी। नव माओवादी भी समझ लें कि उन्होंने अहिंसक सिपाहियों को चुनौती दी है। हालांकि इस घटना से पत्रकारों की सुरक्षा तथा उनके जान जाने के बाद उनके परिवार के  भरण-पोषण का मुद्दा फिर से सामने आया है जिसका समाधान हमें करना है। परंतु इससे हिंसक शक्तियों के खिलाफ पत्रकारों की आवाज बंद नहीं हो सकती।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

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