शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

देश की छवि बट्टा लगाने की भूमिका

 

अवधेश कुमार

इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली तथा इस समय भी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के बाद दूसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष विदेश की धरती पर जाकर लगातार ऐसे बयान दें जिनसे न केवल देश की छवि को बट्टा लगे बल्कि वे स्वयं हास्य के पात्र बन जाएं। वास्तव में अत्यंत दुख के साथ हर विवेकशील भारतीय को यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि राहुल गांधी ने जर्मनी के हैम्बर्ग से लेकर लंदन तक के अपने बयानों में भारत को वाकई नीचा दिखाने की भूमिका अदा की है। हालांकि कांग्रेस पार्टी के पास अपने अध्यक्ष के वक्तव्यों की रक्षा करने तथा उसके पक्ष में तर्क देने के अलावा कोई चारा नहीं है, लेकिन पार्टी के अंदर भी आम सोच यही होगी कि राहुल जी को इस तरह नहीं बोलना चाहिए। वैसे भी वो देश की स्थिति का जैसा डरावाना दृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं वह सच नहीं है। आम भारतीय यह समझ रहा है कि राहुल गांधी विदेश में भी एक विपक्षी नेता की तरह ऐसे आरोप सरकार पर लगा रहे हैं जिनसे मोदी विरोध की जगह देश का विरोध हो रहा है। पता नहीं यह समझ राहुल गांधी और उनके सलाहकारों-रणनीतिकारों के अंदर क्यों नहीं पैदा हो रही?

हैम्बर्ग के बुसेरियस समर स्कूल में हुए कार्यक्रम में राहुल ने कहा कि दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों को अब सरकार से कोई फायदा नहीं मिलता। उनको फायदा देने वाली सारी योजनाओं का पैसा चंद बड़े कॉर्पाेरेट के पास जा रहा है। क्या इसे स्वीकार किया जा सकता है? आप देखेंगे इनके कल्याण की योजनाओं की राशि हर बजट में बढ़ती गई है तथा अनेक नई योजनाएं चलाईं गई हैं। इसी तरह यह भी सच नहीं है कि रोजगार गारंटी योजना, भोजन का अधिकार, सूचना का अधिकार, बैंकों का राष्ट्रीयकरण ये सारे विचार ही काफी हद तक नष्ट हो गए हैं।  किंतु ये सच है या झूठ इससे ज्यादा महत्व की बात है कि आप कहां यह सब बोल रहे हैं। जहां वे बोल रहे थे वहां 23 देशों के प्रतिनिधि थे। आप अपने देश में सरकार पर जितना आरोप लगाना है लगाइए। विदेश में जब आप ऐसा बोलते हैं तो देश की छवि यह बनती है कि इससमय भारत में अल्पसंख्यों, दलितों, आदिवासियों के लिए कयामत के दिन आ गए हैं, नागरिकों के सारे अधिकार छीने जा रहे हैं और बैंकों को बेच दिया जा रहा है। एक ओर दुनिया में भारत की छवि उभरती हुई महाशक्ति की बन रही है, हर मंच पर हमारे प्रधानमंत्री या किसी मंत्री की बात को गौर से सुना जाता है, उसको महत्व मिलता है और दूसरी ओर हमारे विपक्षी दल के नेता देश की एक अराजक तस्वीर पेश करते हैं।

उन्होंने भीड़ द्वारा हिंसा का मुद्दा उठा दिया और कहा इसका कारण बेरोजगाारी है। उनकी बात सुनिए, ‘कुछ साल पहले प्रधानमंत्री जी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में नोटबंदी का फैसला किया उसके बा और एमएसएमई के नकद प्रवाह को बर्बाद कर दिया, अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लाखों लोग बेरोजगार हो गए। बड़ी संख्या में छोटे व्यवसायों में काम करने वाले लोगों को वापस अपने गांव लौटने को मजबूर होना पड़ा। जीएसटी को गलत तरीके से लागू किया उससे कारोबार खत्म हो रहा है। इससे लोग काफी नाराज हैं। लिंचिंग के बारे में जो कुछ भी हम सुनते हैं, वो इसी का परिणाम है। उन्होंने कहा कि भारत में लंबे-लंबे भाषण देकर नफरत फैलाई जा रही है। किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। नौजवान अपना सुरक्षित भविष्य नहीं देख पा रहा। जरा सोचिए, इससे भारत की कैसी छवि बनेगी? यह व्याख्या भी विचित्र है। उनके कहने से तो यही ध्वनि निकलती है कि नोटबंदी के कारण बंद कारखानों से व्यवसायों से वापस लौटे कामगार गांवों में समूह बनाकर हत्याएं कर रहे हैं। एक दूसरे समुदायों के विरुद्ध नफरत फैलाया जा रहा है। जिसे भारत के बारे में सच नहीं पता वह तो यही सोचेगा कि यहां तो बिल्कुल कानून का राज खत्म हो गया है और सरकार की नीतियों से बेरोजगार हुए लोग भारी संख्या में हिंसा कर रहे हैं और उसे रोक पाना नामुमकिन हो रहा है। देश के बेरोजगारों का समूह केवल हिंसा कर रहा है। विदेशियों के बीच ऐसा बोलना शर्म का विषय है। उच्चतम न्यायालय ने 17 जुलाई को भीड़ द्वारा हिंसा पर फैसला देते हुए कहा था कि पिछले 10 सालोें में 86 घटनाएं हुईं जिनमें 33 लोग मारे गए।

राहुल ने खूंखार आतंकवादी संगठन आईएसआईएस की पैदाइश और भारत में इसके पनपने की जो व्याख्या की वह तो अद्भुत है। उन्होंने कहा कि 2006 में अमेरिका-इराक युद्ध के बाद कबाइली लोगों को नौकरी से बाहर कर दिया। इन लोगों ने धीरे-धीरे नेटवर्क फैलाया और आईएसआईएस बनाया। यही नहीं उन्होंने यह भी कह दिया कि भारत में भी बेरोजगारी बढ़ रही है। प्रधानमंत्री के पास कोई विजन नहीं है। अगर हम कोई विजन नहीं देंगे तो वहां भी आईएसआईएस पैदा हो जाएगा। यह केवल भारत और यहां की सरकार की आलोचना नहीं है, अपने का हास्यास्पद बनाना भी है। यूरोप और अमेरिका के लोगों को आईएसआईएस, अल कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के पैदा होने का कारण बेहतर पता है। वे जानते हैं कि उसके पीछे बेरोजगारी की कोई भूमिका है ही नहीं। ये दुनिया मंें इस्लामिक साम्राज्य स्थापित करने की उन्मादी मंसूबे से खड़े संगठन हैं। ये सम्पूर्ण आधुनिक सभ्यता जिसमें वर्तमान शिक्षा व्यवस्था, अर्थव्यवस्था और रोजगार के ढांचे हैं उनको ही नष्ट करने का लक्ष्य रखते हैं। राहुल के भाषण सुनने वाले या मीडया में उसे पढ़ने-देखने वाले यही सोच रहे होंगे कि भारत इतने अज्ञानियों का देश है जहां दूसरे सबसे बड़े दल के नेता को आतंकवादी संगठनों की पृष्ठभूमि और मंसूबों तक का नहीं पता। यह हमारे लिए भी चिंता का विषय है कि हमारे देश के इतने बड़े नेता की ऐसे अज्ञानी की छवि बनी है।

कांग्रेस ने पिछले दो वर्षों से यह रणनीति बनाई है कि राहुल गांधी को विदेश दौरा कराकर ऐसे कार्यक्रम किए जाएं जिनसे उनकी छवि में निखार आए। राहुल के रणनीतिकार मानते हैं कि जिस तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विदेशी दौरों में दिए गए भाषणों से प्रवासी भारतीयों, विदेशी नेताओं के साथ देश के अंदर भी लोकप्रियता मिली है उसका मुकाबला करने के लिए ऐसा किया जाना जरुरी है। आज कांग्रेस कह रही है कि मोदी स्वयं विदेशों मेें इसी तरह आलोचना करते रहते हैं तो हम क्यों नहीं करे? मोदी ने प्रवासी भारतीयों की सभाओं में पूर्व सरकार की आलोचना कई जगह अवश्य की, लेकिन उसमें उन्होंने देश को निचा दिखाने की जगह एक उभरती हुई शक्ति और आत्मविश्वास से लबरेज समाज की छवि प्रस्तुत की। उससे बाहर रहने वाले भारतवंशियों के अंदर ही नहीं देश के अंदर भी भारत के सुखद भविष्य के प्रति नए आत्मविश्वास का संचार हुआ है। मोदी ने विदेशियों के बीच बोलते हुए कभी पूर्व सरकारों या विपक्ष की चर्चा नहीं की है, केवल भारत का पक्ष मजबूती से रखा है। आपके भाषण उसके विपरीत हैं। आपने भाजपा, संघ एवं मोदी की आलोचना में देश की छवि को ही दांव पर लगा दिया। विकास के मुद्दे पर लड़खड़ता हुआ, बेरोजगारों के गुस्से से हिंसा में जलता, समुदायों में घृणा वाले ....यानी हर स्तर पर डरावनी स्थिति का सामना करने वाला देश बना दिया है। आप कह रहे हैं कि संघ सत्ता में आने के बाद हर संस्था पर कब्जा करता है। उसमें आपने उच्चतम न्यायालय तक का नाम ले लिया। महिलाओं की स्थिति पर बोलते-बोलते कह दिया कि अंततः यह संस्कृति का प्रश्न है। यानी भारत की संस्कृति में ही पुरुषों का स्त्रियांें पर दबदबा रहा है या पुरुष स्त्री को दोयम दर्जे का मानते रहे हैं। केवल वर्तमान ही नहीं भारत के अतीत की भी आपने छीछालेदर कर दी। विदेश की सरकारों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाआंे के पास भारत को जानने के अपने स्रोत हैं, अन्यथा इसे वे स्वीकार लें तो न यहां कोई निवेश आएगा, न पर्यटक आएंगे, न रेटिंग एजेंसियां भारत की अच्छी रेटिंग करेंगी। यही नहीं राहुल की बातों को स्वीकार लें तो लोकतांत्रिक अधिकारों के दमन के नाम पर भारत पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। आप विदेश में विदेशियों के समक्ष अपने देश की इस तरह मिट्टी पलीद करेंगे और फिर यह उम्मीद करेंगे कि भारतीय आपके नेतृत्व में कांग्रेस को चुनावों में वोट दें। यह नहीं हो सकता। किंतु यह चुनावी लाभ हानि से ज्यादा हमारे देश की छवि का प्रश्न है जिसको बट्टा लगाने वाले का हरसंभव विरोध करना होगा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208 

 

 

 

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

पुरस्कार वापसी राजनीतिक एजेंडा का छद्म अभियान था

 

अवधेश कुमार

यह अच्छा हुआ कि तीन वर्ष पहले पुरस्कार वापसी के घृणात्मक अभियान की पोल एक साहित्यकार ने सप्रमाण खोली है। हालांकि साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इस पर नहीं लिखते तो भी तटस्थ और निष्पक्ष पत्रकारों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को इसके पीछे एक व्यक्ति के खिलाफ माहौल बनाने की योजना का पता था। साफ दिखाई दे रहा था कि पूरा अभियान कहीं न कहीं से संचालित हो रहा है। इसके पीछे कोई स्वतःस्फूर्त प्रेरणा हो भी नहीं सकती थी। देश में ऐसा वातावरण था ही नहीं जिसमें किसी लेखक को कुछ लिखने या बोलने पर किसी तरह की बंदिश हो। विश्वनाथ तिवारी ने यही कहा है कि सारे लेखक, कवि जहां चाहते अपनी बात पूरी स्वतंत्रता से रख रहे थे लेकिन झूठ यह फैला रहे थे कि अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में आ गई है।

वास्तव में पूरा अभियान राजनीतिक था, जिसका एक ही लक्ष्य था प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के खिलाफ माहौल बनाना। नरेन्द्र मोदी या उनकी सरकार की मुखालफत करने में कोई समस्या नहीं है, लेकिन यह खुलकर होना चाहिए। इन रचनाकारों में इतना नैतिक बल नहीं था कि ऐसा कर सकें तो छद्म रुप से पुरस्कार वापसी के जरिए यह कुप्रचार करने की कोशिश करने लगे कि देश में सहिष्णुता खत्म हो रही है, बोलने और लिखने पर पाबंदी लग चुकी है। केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने पिछले वर्ष फरवरी में लोकसभा में बताया कि इन लेखकों ने यह कहते हुए अपने पुरस्कार लौटाए थे कि उनकी अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला किया जा रहा है और अकादमी इस मुद्दे पर चुप है। पिछले तीन सालों में 39 लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए हैं। इन लेखकों ने कन्नड़ लेखक और साहित्य अकादमी बोर्ड के सदस्य एमएम कलबुर्गी की हत्या और दादरी कांड में एक मुस्लिम अखलाक की हत्या पर विरोध जताते हुए कहा था कि अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है और अगर अब नहीं बोले तो खतरे और बढ़ जाएंगे। 30 अगस्त, 2015 को कलबुर्गी की गोली मार कर हत्या कर दी गई। इसी समय दादरी के बिसहारा गांव में गोहत्या करने और गोमांस खाने का आरोप लगाते हुए लोगों ने अखलाक नामक व्यक्ति को इतना मारा की उसकी मृत्यु हो गई। कलबुर्गी की हत्या के बाद लेखक उदय प्रकाश ने 5 सितबर 2015 को साहित्य सम्मान लौटाकर सबसे पहले विरोध की शुरुआत की। पुरस्कार वापसी के बाद अकादमी ने 23 अक्टूबर 2015 तथा इसके बाद 17 दिसम्बर को बैठक बुलाकर प्रस्ताव द्वारा पुरस्कार लौटा चुके लेखकों से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया था। इसमें हत्या की कड़े शब्दों में निंदा भी की गई थी। इस अनुरोध को केवल एक लेखक राजस्थान के नन्द भारद्वाज ने स्वीकार कर पुरस्कार लौटाने का अपना निर्णय वापस लिया था। 

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को लेखकों की ओर से एक पत्रक देकर मांग की गई कि ब्रिटेन यात्रा के दौरान वे मोदी से भारत में बढ़ रहीं असहिष्णुता पर बात करें। यह वैसा ही प्रयास था जैसे मोदी के सत्ता में आने के पूर्व कुछ सांसदों के हस्ताक्षर वाला पत्र अमेरिकी राष्ट्रपति को भेजा गया था। इसे आप राजनीतिक एजेंडा नहीं तो और क्या कहेंगे? इनने विदेश में देश की छवि तक की चिंता नहीं की। सच यह था कि कलबुर्गी और अखलाक की हत्या नहीं होती तो ये कुछ दूसरा मुद्दा तलाश कर लेते। 2014 के चुनाव में जब यह स्पष्ट होने लगा कि मोदी के नाम पर भाजपा सत्ता में आ रही है तो कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति ने बयान दिया कि यदि मोदी प्रधानमंत्री होंगे तो मैं देश छोड़ कर चला जाऊंगा। क्या यह किसी उदार चरित्र वाले वह भी रचनाकार का बयान हो सकता है? इतनी घृणा इनके अंदर एक व्यक्ति को लेकर थी। सब जानते हैं कि अशोक वाजपेयी अनंतमूर्ति के मित्र हैं। उन्हें अकादेमी पुरस्कार अनंतमूर्ति के साहित्य अकादेमी अध्यक्ष काल में मिला था। वाजपेयी मोदी विरोधी उस अभियान के भी अगुवा थे जो आम चुनाव के ठीक पहले से कुछ लेखकों द्वारा चलाया जा रहा था। उस समय जनसत्ता के संपादक ओम थानवी की कृपा से इन्हें एक मंच भी मिला हुआ था। 9 अप्रैल, 2014 के जनसत्ता में 40 लेखकों ने बाजाब्ता मतदाताओं से भाजपा को वोट न देने की अपील की। इनमें वे नाम शामिल हैं जिन्होंने साहित्य अकादेमी पुरस्कार लौटाए। अशोक वाजपेयी के नेतृत्व में ही पांच लोग पुरस्कार अभियान के अगुवा थे तथा इनके मख्य मित्रों की संख्या दो दर्जन के आसपास थी जो इसमें शमिल हुए। बाकी या तो दबाव या फिर प्रचार पाने की लालसा से इनसे जुड़े। सच यह है कि इनने चाहे जैसे माहौल बनाए लेकिन इनका दिली समर्थन बहुत कम था। तिवारी ने यही कहा है कि बहुत से लेखकों, मित्रों और परिचित-अपरिचित बुद्धिजीवियों के ई-मेल फोन, पत्र आदि लगातार मिलते रहे, जिनमें अधिकांश या कहूं लगभग सभी पुरस्कार वापस करने वालों के विरुद्ध थे।

वास्तव में ये पांच सूत्रधार अपने निकट के लेखकों द्वारा उनके परिचित लेखकों को बार-बार फोन कराकर पूछते रहते थे कि आप कब लौटा रहे हैं? या क्या आप नहीं लौटा रहे हैं? तथाकथित असहिष्णुता विरोधी आंदोलन के लिए इन लेखकों ने देशव्यापी नेटवर्किंग और अभियान चलाया था। कैसे लेखकों पर दबाव बनाया जा रहा था इसके दो उदाहरण देखिए। विश्वनाथ तिवारी को लेखक रमाशंकर द्विवेदी ने 30 अक्टूबर 2015 को फोन पर बताया कि उन्हें साहित्य अकादेमी के एक अवकाश प्राप्त लेखक ने फोन पर पुरस्कार लौटाने के विषय में पूछा। 12 अक्टूबर को अंग्रेजी के वरिष्ठतम लेखक (93 वर्षीय) शिव के. कुमार ने तिवारी को ई-मेल किया। इसमें उन्होंने कहा कि कुछ लोगों ने मुझे भी पुरस्कार और पद्मभूषण लौटाने को कहा है लेकिन मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं। यह एक राजनीतिक पाखंड के सिवा कुछ नही है। किसी तरह की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई अंकुश नहीं है। मुझे उम्मीद है आप इन सबसे विचलित नहीं होंगे।

अगर इनका उद्देश्य राजनीतिक नहीं होता तो जिन राज्यों में हत्या की घटनाएं (कर्नाटक, उत्तर प्रदेश) हुई उनसे प्राप्त पुरस्कार वापस किए जाते। कानून-व्यवस्था तो राज्य सरकारों का विषय है। जब काशीनाथ सिंह से पूछा गया कि आपने उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का पुरस्कार क्यों नहीं लौटाया जबकि अखलाक की हत्या उत्तर प्रदेश में ही हुई है उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में अभिव्यक्ति की आजादी है, यहां सहिष्णुता को समस्या नहीं। घटना उत्तर प्रदेश में हुइ वहां आजादी है पर भारत में नहीं। जैसा विश्वनाथ तिवारी ने लिखा है, काशीनाथ सिंह ने स्वयं फोन पर उनसे कहा था कि वे पुरस्कार नहीं लौटाएंगे। इसके तीन दिन बाद ही उन्होंने मीडिया के सामने पुरस्कार वापसी की घोषणा कर दी। क्यों किया ऐसा? ध्यान रखिए, काशीनाथ सिंह ने भी चुनाव में मोदी का खुलकर विरोध किया था। तसलीमा नसरीन ने उस समय साफ कहा था कि लेखकों का यह विरोध मोदी सरकार से है।

ये किस कदर झूठ फैला रहे थे इसका भी उदाहरण देखिए। तथाकथित असहिष्णुता का यह अभियान जब समाप्त हो रहा था उस समय 22 नवंबर, 2015 को अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता में लिखा कि - एक लेखक की दिन दहाड़े हत्या के बाद साहित्य अकादेमी ने शोकसभा तक नहीं की। सच यह है कि इसके एक महीने पहले यानी 23 अक्टूबर, 2015 का अकादेमी की कार्यकारिणी का वह प्रस्ताव उन्हें मिल चुका था जिसमें शोकसभा का पूरा ब्यौरा है तथा अखबारों में और अकादेमी के वेबसाइट पर भी सूचना उपलब्ध थी कि अकादेमी ने बेंगलुरु में बाकायदा निमंत्रण-पत्र छापकर बड़ी शोकसभा आयोजित की थी। क्या इसके बाद कहने की आवश्यकता है कि उस पूरे अभियान का सहिष्णुता या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं था? इसका एक ही एजेंडा था- मोदी विरोध। इनके न चाहते हुए भी मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे। यह इनसे सहन नहीं हो रहा था। इसलिए कलबुर्गी और अखलाक की दुखद हत्या का उन्होंने उपयोग करके प्रच्छन्न एजेडा चलाया। इससे पता चलता है कि जिन रचनाकारों को देश ने इतना सम्मान दिया, उन्हें अपना आइकॉन माना वे वाकई इतने तुच्छ और छोटे व्यक्तित्व वाले हैं कि लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए किसी व्यक्ति को स्वीकार नहीं कर सकते, जिसे ये अपना वैचारिक विरोधी मानते हैं। अब सारा सच एक बार फिर सामने आने के बाद देश को यह तय करना चाहिए कि इनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए। ये आगे भी ऐसा कुछ कर सकते हैं। आम चुनाव आने वाला है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

वाजपेयी ऐसे राजनेता जिसे हम भूल नहीं सकते

 

अवधेश कुमार

अटलबिहारी वाजपेयी की पूरी जीवन यात्रा के मूल्यांकन के लिए कुछ आधार बनाना होगा। उनको भारतीय राजनीति को शलाका पुरुष मानने वाले बिल्कुल सही है। राजनीति में इतना लंबा दौर गुजारने के बावजूद वैचारिक प्रतिबद्धता रखते हुए, घोर विरोधियों के प्रति भी बिल्कुल उदार आचरण एवं उसे जीवन भर कायम रखना तथा किसी से निजी कटुता न होना सामान्य बात नहीं है। वस्तुतः आजादी के दौर के राजनेताओं में राष्ट्रीय राजनीति में वे अंतिम व्यक्ति बच गए थे। इसका असर उनकी सोच एव व्यवहार पर था। हालांकि वो एक विशेष विचारधारा के प्रतिनिधि थे, लेकिन राजनीति को देखने का उनका दृष्टिकोण आजादी के दौरान भारत के बारे में देखे गए सपने से निर्धारित था। आजादी के बाद जिन महापुरुषों के साथ उनको काम करने का अवसर मिला उन सबका भी असर उन पर था। 1947 से लेकर लंबे समय तक देश में जो घटनाएं घटीं, भारत के सामने जो संकट और चुनौतियां आईं, उनसे निपटने के लिए तब के हमारे नेतृत्व ने जो कुछ किया उन सबका गहरा असर अटल जी के मनोमस्तिष्क पर पड़ा। जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जम्मू कश्मीर यात्रा के समय वो उनके साथ थे। वाजपेयी जी ने कई बार कहा कि मुखर्जी ने उनको कहा कि जाओ और देशवासियों को बताओ कि मैं बिना परमिट के कश्मीर में प्रवेश कर गया हूं। जैसा हम जानते हैं डॉ. मुखर्जी वहां से वापस नहीं लौटे। उनको गिरफृतार कर लिया गया और संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मौत हो गई। उनके पिता जी एक कवि एवं रचनाकार थे जिन्होंने पुत्र के रुप में इनको उसी रुप में विकसित करने की कोशिश की। संघ का प्रचारक बनने के बाद उन्होंने राष्ट्रधर्म पत्रिका से लेकर पांचजन्य, स्वदेश और वीर अर्जुन जैसे पत्रों का संपादन करने का दायित्व मिला।

इन घटनाओं के जिक्र करने का उद्देश्य यह बताना है कि अटल जी के राजनीतिक व्यक्तित्व निर्माण में सबकी सम्मिलित भूमिका थी। चाहे विपक्ष के नेता के रुप में हों, विदेश मंत्री के तौर पर या फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद उनकी सम्पूर्ण भूमिका में आपको यह सब परिलक्षित होता है। 1957 में पहली बार लोकसभा पहुंचने के बाद उनके भाषणों को देख लीजिए, उसमें जनसंघ की विचारधारा के अनुसार घटनाओं पर टिप्पणियां हैं, संघ के गीतों और उनकी कविताओं की पंक्तियां हैं, किंतु कहीं भी प. जवाहरलाल नेहरु या उनके साथियों के प्रति एक शब्द भी ऐसा नहीं है जिसे आप सम्मान को कम करने वाला कह सकते हैं। उस समय कश्मीर से लेकर पाकिस्तान, तिब्बत, केरल में राष्ट्रपति शासन... आदि ऐसे अनेक मुद्दे थे जिन पर जनसंघ और कांग्रेस के बीच सहमति नहीं हो सकती। किंतु संसदीय लोकतांत्रिक राजनीति की मर्यादाओं का उन्होंने पूरा पालन किया। 1962 के युद्ध के समय जनसंघ के सारे प्रमुख नेताओं के साथ मिलकर वाजपेयी जी ने सरकार का साथ देने तथा कार्यकर्ताओं को देश भर में जितनी शक्ति हो उसके अनुसार सरकारी मशीनरी का सहयोग करने का निर्णय किया। इसी का परिणाम था कि संघ के स्वयंसेवक ने दिल्ली सहित कई शहरों की यातायात में सहयोग किया।

नेहरु जी अटल जी को बहुत प्यार करते थे। बकौल अटल जी एक बार उन्होंने लोकसभा में कांग्रेस और नेहरु सरकार की नीतियों पर तीखा हमला किया। शाम को एक कार्यक्रम मंें नेहरु जी ने उनको देखा और कहा कि आज तो बहुत अच्छा भाषण मारे। यह जो उदार व्यवहार था नेहरु जी का उनका असर न हो ऐसा कैसे हो सकता है। 1971 में बंाग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय अटल जी पूरी तरह सरकार के साथ खड़े थे। यहां तक कि आपातकाल में उन्हें जेल जाना पड़ा। उस दौरान भी उन्होंने जो कविताएं लिखीं उनमें शासन की आलोचना तो है पर इन्दिरा जी पर कोई सीधी निजी तीखी टिप्पणी नहीं। वाजपेयी जी के राजनीति काल में वह समय आया जब 1977 में उन्हें फैसला करना था कि जनसंघ अलग होकर चुनाव लड़ेगा, गठबंधन में या फिर पार्टी का विलय कर दिया जाए। उस समय लालकृष्ण आडवाणी जनसंघ के अध्यक्ष थे। किंतु वाजपेयी जी के प्रभाव से ही यह संभव हुआ कि जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया। संघ के नेता भी वाजपेयी जी के कारण ही इसके लिए तैयार हुए। जनता सरकार के दौरान विदेश मंत्री के रुप में चीन और पाकिस्तान से संबंध सुधारने की उनकी कोशिश पर लोगों को आश्चर्य हुआ, क्योंकि आम धारणा यही थी कि ये तो पाकिस्तान और चीन के घोर विरोधी हैं। उस दौरान संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा में हिन्दी में भाषण देकर वाजपेयी जी ने इतिहास बनाया। मातृभाषा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है।

एक पत्रकार, कवि और दूसरी पार्टियों के नेताओं के साथ संबंध और संवाद का ही प्रभाव था कि जब उनकी पार्टी के सामने 1998 में सरकार बनाने का अवसर आया तो उन्होंने एक साथ कई पार्टियों को साथ लेकर सरकार के लिए एजेंडा बनाकर अपने तीन प्रमुख मुद्दों को बाहर किया। यही वह काल था जब उन्हांेने सरकार बनने के ढाई महीने के अंदर ही पोकरण में 11 और 13 मई 1998 को दो नाभिकीय परीक्षण कराया। पूरी दुनिया इससे भौचक्क रह गई। अमेरिका हक्का-बक्का था कि उसके उपग्रहों की नजर से इसकी तैयारी बच कैसे गई। जाहिर है, उसकी तैयारी में वाजपेयी उनके रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस तथा वैज्ञानिक सलाहकार डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने मिलकर इतनी गोपनीयता बरती कि यह मिशन सफल हो सका। वाजपेयी जी को मालूम था कि इसकी प्रतिक्रिया दुनिया भर मंे भारत के विरुद्ध होगी। अमेरिका से लेकर जापान, ऑस्ट्रेलिया सबने भारत पर कठोर प्रतिबंध लगा दिया। वही समय एक नेतृत्व की परीक्षा का था। वाजपेयी अपने कदम को पीछे हटाने को तैयार नहीं हुए और विदेश मंत्री जसवंत सिंह के माध्यम से इतना सघन कूटनीतिक अभियान चलाया कि धीरे-धीरे अमेरिका भारत से सहमत हुआ और अन्य देशों के रवैये में बदलाव आया। बाद में युपीए सरकार के समय अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश एवं हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ जो नाभिकीय सहयोग समझौता हुआ उसकी नींव अटल जी ने ही डाल दिया था।

वाजपेयी के काल का सबसे बड़ा प्रयास जम्मू कश्मीर को सामान्य स्थिति मंें लाना तथा पाकिस्तान से हर हाल में संबंध सुधारने की कोशिश के रुप में सामने आया। स्वयं बस लेकर लाहौर जाने का ऐतिहासिक कदम उठाया और मिनारे-ए-पाकिस्तान जाकर यह संदेश दिया कि देश के रुप में भारत पाकिस्तान को स्वीकार करता है। हालांकि वहां से वापसी के कुछ समय बाद ही करगिल युद्ध आरंभ हो गया। बिना सीमा पार किए पाकिस्तान को युद्ध में पूरी तरह परास्त करना तथा इस दौरान दुनिया भर का समर्थन जुटाने का कौशल हमारे सामने है। संसद पर हमले के बाद सीमा पर सेना को हमला करने की अवस्था खड़ा कर पाकिस्तान को कुछ घोषणाएं करने को विवश किया। इसके बावजूद जनरल परवेज मुशर्रफ को पहले आगरा बुलाया और बैठक असफल होने के बावजूद प्रयास नहीं छोड़ा। अंततः जनवरी 2004 में वे दोबारा पाकिस्तान गए और मुशर्रफ ने समझौता में स्वीकार किया कि आतंकवाद के लिए अपनी भूमि का उपयोग नहीं करेंगे। पाकिस्तान के साथ समग्र वार्ता की शुरुआत हुई। आर्थिक नीतियों में उदारवाद के वे समर्थक थे तथा संघ एवं उससे जुड़े अनेक संगठनों के तीखे विरोध के बावजूद वे उस पर कायम रहे। अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने विरोधी नेताओं के तीखे विरोध को झेलते हुए व्यवहार में कभी तीखापन नहीं लाया। इसलिए उनके प्रति सभी दलो के नेताओं का सम्मान बना रहा।

आज अगर सभी दलांें एवं विचारधारा के नेताओं, लोग अटल जी को लेकर द्रवित हैं तो इसमें उनके पूरे जीवन के आचरण का ही योगदान है। अटल जी जैसे राजनेता का व्यक्तित्व वास्तव में अतुलनीय है। इतनी बहुमुखी प्रतिभा और क्षमता तथा उन सबके होते हुए अहं से परे रहककर अपने कर्तव्यों के निर्वहन के प्रति इतना समर्पित रहना सामान्य बात नहीं है। ऐसे व्यक्ति को यह देश कभी भूल नहीं सकता। इतिहास में उनका नाम हमेशा सम्मान से लिया जाएगा। आज के नेताओं के लिए वे विचार और आचरण में प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः0112483408, 9811027208 

 

 

शनिवार, 11 अगस्त 2018

ममता बनर्जी की विपक्षी एकता की कोशिशों का कितना असर होगा

 

अवधेश कुमार

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी लगातार 2019 आम चुनाव के लिए नरेन्द्र मोदी और भाजपा विरोधी विपक्षी गठबंधन की कवायदें कर रहीं हैं। अभी हाल में उनका दो दिवसीय दिल्ली प्रवास हुआ। इसमें उन्होंने लगभग सारे विपक्षी दलों के नेताओं से तो मुलाकात की ही, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शिवसेना और भाजपा के भी कुछ असंतुष्ट माने जाने वाले नेताओं से बातचीत की। पिछले मार्च में भी उनका ऐसा ही राजनीतिक दौरा हुआ था। उस समय भी उन्होंने ज्यादातर विरोधी दलों के नेताओं से मिलकर एक महागठबंधन पर चर्चा की थी। हालांकि तब कांग्रेस उनकी सूची में सबसे बाद में आया और उन्होंने सोनिया गांधी से मुलाकात की। उन्हांेंने बयान दिया कि भाजपा एवं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के खिलाफ हर जगह विपक्ष का एक उम्मीदवार उतारा जाए। इस बार वो एक कार्यक्रम लेकर आईं थीं। विपक्ष को एकजुट करने के नाम पर उन्होंने 19 जनवरी 2019 को कोलकाता में एक रैली का आयोजन किया है। उनको उम्मीद है कि वहां से विपक्षी एकता का एक संदेश देश मेें भर दिया जा सकेगा। यह तर्क पहली नजर में आकर्षिक करता है कि अगर भाजपा एवं राजग के खिलाफ हर क्षेत्र में विपक्ष का एक उम्मीदवार उतारा जाए तो विजय प्राप्त की जा सकती है। उसी तरह इस तर्क को भी आसानी से काटना मुश्किल है कि अगर भाजपा एवं राजग से परे सारे दल एक साथ आ जाएं तो वाकई 2019 का किला फतह हो जाएगा। किंतु क्या वाकई यह इतना ही आसान है?

इसका सही उत्तर पाने के लिए ममता बनर्जी और उनके जैसे कुछ नेताओं के उत्साह को राजनीतिक हकीकत के आईने मंें देखना होगा। मान लीजिए, 19 जनवरी 2019 की रैली में विपक्षी दलोे के ज्यादातर नेता शामिल हो जाएं तो उसका अर्थ क्या होगा? क्या वह वाकई एक महागठबंधन का आधार बनेगा? ध्यान रखिए, तेलांगना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव ने सबसे पहले चुनाव पूर्व एक मोर्चा की बात की और उसके बाद उन्होंने कोलकाता आकर ममता बनर्जी से मुलाकात की। दोनों एक साथ मीडिया के सामने आए और जो बयान दिया उसमें साफ था कि यह मोर्चा गैर भाजपा के साथ गैर कांग्रेस भी होगा। चन्द्रशेखर राव ने भी इसके लिए कोलकाता के बाद दिल्ली से चेन्नई तक की यात्रा की। बेंगलूरु में एच. डी. कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में विपक्षी दलों के एकत्रीकरण में वे कांग्रेस के साथ न दिखें इसलिए शामिल नहीं हुए। शपथग्रहण से पहले ही जाकर कुमारस्वामी को शुभकामनाएं दीं। ममता बनर्जी अभी भी भाजपा विरोधी गैर कांग्रेसी मोर्चा के ही पक्ष में हैं या बदल गईं हैं इस पर उन्होंने अपना मत स्पष्ट नहीं किया है। हालांकि पिछली बार से विपरीत उन्होंने एक साथ सोनिया गाध्ंाी एवं राहुल गांधी से मुलाकात की। पिछली बार उन्होंने राहुल गांधी की अनदेखी की थी। उस समय सोनिया गांधी से मिलने के बाद उन्होंने कहा था कि मिलकर उन्होंने उनके स्वास्थ्य का हालचाल लिया, जबकि अन्य नेताओं से मिलने के बाद उन्होंने राजनीतिक बयान दिया था। इस तरह थोड़ा बदलाव तो दिखता है, पर ममता की तरफ से अस्पष्टता बनाए रखना भी महत्वपूर्ण है।

हालांकि इस बीच कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक राहुल गांधी की अध्यक्षता में हुई जिसमेें गठबंधन में चुनाव लड़ने की बात की गई लेकिन इस समय गठबंधन की सम्पूर्ण कवायद के केन्द्र में ममता बनर्जी हीं हैं। कोलकाता में उन्होंने स्वयं बयान दिया है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ेगी। वह कांग्रेस या वामदलों के साथ गठबंधन नहीं करेगी। अगर अपने प्रदेश में उनका यह रवैया है तो फिर अन्य प्रदेशों के नेतृत्व को वे कैसे गठबंधन के लिए तैयार कर पाएंगी? वैसे भी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस एवं वामदल दोनांे तृणमूल कांग्रेस के साथ संघर्ष कर रहे हैं। ममता की सोनिया एवं राहुल से मुलाकात के बाद पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष सुधीर रंजन मजुमदार ने विस्तृत बयान दिया। उन्होंने ममता को गिरगिट की संज्ञा देते हुए कहा कि यहां वो हमारी पार्टी को खत्म करने पर तुली हैं और दिल्ली में गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहीं हैं ताकि सबके सहयोग से प्रधानमंत्री बन सकें। उन्होंने और भी कई आरोप लगाए। केवल भाजपा नहीं कांग्रेस और वामदल भी ममता पर पश्चिम बंगाल में राजनीतिक आतंक पैदा कर लोकतंत्र का गला घोंटने का आरोप लगाते हैं। अपने कार्यकर्ताआंें की हत्या का आरोप ये तृणमूल कांग्रेस पर लगा रहे हैं। इस माहौल के रहते हुए प्रदेश मंें इनके साथ गठबंधन की कितनी संभावना बन सकती है इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने तो साफ कह दिया है कि चुनाव पूर्व किसी महागठबंधन की संभावना नहीं है। जो भी होगा वो चुनाव के बाद होगा। निस्संदेह, इस समय कोई निश्चित अनुमान लगाना कठिन है, पर कांग्रेस का केन्द्रीय नेतृत्व इसे लेकर उहापोह में है। उनको लग रहा है कि प्रदेश में गठबंधन करने से उनकी बची-खुची पार्टी भी टूट का शिकार हो सकती है। इसलिए होगा क्या कहना जरा कठिन है।

ममता बनर्जी की निजी महत्वाकांक्षा को लेकर भी कई दल आशंकित है। इसको ध्यान में रखते हुए ही उन्होंने यह बयान दिया कि वो प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार नहीं हैं। देखना होगा इसका असर कितना होता है। कार्यसमिति की बैठक से बाहर निकले कांग्रेस के नेताओं ने भी यह कहना आरंभ कर दिया है कि हम प्रधानमंत्री पद को लेकर कोई मतभेद नहीं चाहते। इसका फैसला चुनाव के बाद होगा। कांग्रेस ने फरबरी महीने में ही राहुल गांधी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया था। चाहे तृणमूल कांग्रेस हो या कांग्रेस पार्टी या बसपा.....कोई भी पार्टी अपने नेता के अतिरिक्त आसानी से किसी को स्वीकार नहीं कर सकती। नेता कौन होगा यह चुनाव परिणाम के बाद की स्थिति पर निर्भर करेगा। चुनाव में ये उतनी सीटें ले आएं यह आवश्यक है। इस संदर्भ में तत्काल मूल प्रश्न यह है कि आखिर विपक्षी गठबंधन की मुहिम की कोशिशों में सबसे आगे दिख रहीं ममता के पास ऐसी विचारधारा, देश को लेकर व्यापक विजन और राजनीतिक एकता के सूत्र हैं जिनसे भाजपा विरोधी सारी पार्टियां एक छाते के नीचे आ सके? अभी तक उन्होंने मोदी विरोध के अलावा कोई विचार देश के सामने नहीं रखा है। ममता स्वयं भी विचारधारा को लेकर अस्पष्ट है। ममता ने दिल्ली में ही बयान दिया कि वो शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को भी कोलकाता रैली में आने निमंत्रण देंगी। इसका सीधा अर्थ तो यही निकाला जाएगा कि वो गठबंधन में शिवसेना को भी शमिल करना चाहती हैं। शिवसेना सांसद संजय राउत से भी उनकी भेंट हुई। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद कांग्रेस ने साफ किया शिवसेना से वो किसी प्रकार का गठबंधन नहीं कर सकते, क्यांेंकि उससे विचारधारा पर मतभेद है। ऐसा मत रखने वाले दूसरे दल भी हैं। वास्तव में ममता अगर भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी कहतीं हैं तो फिर उससे ज्यादा मुखर रुप से हिन्दुत्व की बात करने वाली शिवसेना इस तथाकथित सेक्यूलर खेमे का सदस्य कैसे हो सकती है?

ममता के इस रुख से संदेश यह निकलता है कि उनक पास विचार, विजन और सूत्र के रुप में सिर्फ मोदी विरोध है। इसके आधार पर निर्मित होने वाली छोटी-बड़ी एकता बहुत ज्यादा असरकारक नहीं हो सकती। वैसे भी आज की स्थिति में अपना अस्तित्व बचाने के लिए कुछ दल किसी-किसी राज्य में साथ आ सकते हैं, पर इससे देशव्यापी चुनाव पूर्व महागठबंधन बनना मुश्किल है। दलांे की अपनी राजनीतिक पहचान और जनाधार भी ऐसे महागठंधन के मामले में बाधा है। उदाहरण के लिए आंध्रपदेश से तेलुगू देशम एवं वाईएसआर कांग्रेस दोनों ममता की रैली में आ सकते हैं, पर न ये दोनों एक साथ चुनाव लड़ सकते हैं और न ही ये कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सकते हैं। तेलांगना राष्ट्र समिति के के. चन्द्रशेखर राव अपना मत पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं। बीजू जनता दल ऐसी किसी गठंबंधन का अंग बनने से परहेज कर रहा है। असम एनसीआर को लेकर ममता के बयानों से उनकी पार्टी के राज्य अध्यक्ष ही सहमत नहीं है। तो पहले ममता को ही अपनी विचारधारा और वक्तव्यों को लेकर कहीं ज्यादा स्पष्ट और संयत होने की आवश्यकता है जिसका संकेत नहीं मिल रहा। इसलिए उनकी लाख कवायदों के बावजूद मोदी विरोधी किसी महागठबंधन की ठोस संभावना परिलक्षित नहीं हो रही है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स,  दिल्लीः 110092, दूरभाषः 01122483408,  9811027208

शनिवार, 4 अगस्त 2018

2019 में चिदम्बरम कहां से दिलाएंगे कांग्रेस को 300 सीटें

 

अवधेश कुमार

राहुल गांधी की अध्यक्षता में संसदीय सौंध में आयोजित कांग्रेस की पहली कार्यसमिति की बैठक की ओर देश का ध्यान इसलिए था, क्योंकि 2019 लोकसभा चुनाव की दृष्टि से यहां से पार्टी की रणनीति और लक्ष्यों के संदर्भ में कुछ स्पष्ट निर्णय लिया जाना था। हालांकि इसकी विस्तृत जानकारी हमारे सामने नहीं आई लेकिन जितनी आई उनसे यह कहना मुश्किल है कि राहुल गांधी एवं कांग्रेस के रणनीतिकारों ने 2014 और उसके बाद की लगातार पराजय के बावजूद इसके कारणों और इससे उबरने को लेकर गहरा मंथन किया है। उनके अंदर पराजय से  उबरने की छटपटाहट तो है पर यह कैसे हो इस दिशा में आशाजनक सोच और रणनीति का अभाव एक बार फिर उजागर हुआ। गठबंधन से चुनाव लड़ेंगे, राहुल गांधी हमारी ओर से चेहरा होंगे, भाजपा एवं संघ की सोच नहीं किंतु उनकी जनता तक पहुंचने के तरीके अपनाना चाहिए..... आदि बातें ऐसी नहीं है जिनसे यह विश्वास हो कि लंबे समय तक एकच्छत्र राज करने वाली पार्टी ने अब सही दिशा पकड़ ली है। नरेन्द्र मोदी को सत्ता से हटाना है यह एक सामान्य लक्ष्य हो सकता है, किंतु यह कांग्रेस जैसी पार्टी का मुख्य लक्ष्य नहीं हो सकता। दूसरे, अगर हराना है तो उसका विकल्प हम कार्यक्रम एवं नीतियों के स्तर पर क्या दे रहे हैं यह भी स्पष्ट नहीं हुआ। और तीसरे, अगर मोदी को हराना भी है तो उसके लिए हमारे अस्त्रागार में कौन-कौन से अचूक अस्त्र हैं इनकी भी कोई झलक सामने नहीं रखी जा सकी।

कार्यसमिति की बैठक में पार्टी के वरिष्ठ नेता पी. चिदम्बरम ने अगले चुनाव मंे कितनी सीटें जीती जा सकतीं हैं इसका एक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अभी भी 12 राज्यों में कांग्रेस का मजबूत जनाधार है। इनमें यदि हम परिश्रम करें तो 150 सीटें जीत सकते हैं। इसके अलावा शेष राज्यों में हम अगर 150 सीटें जीत लें तो यह संख्या 300 तक पहुंच सकती है। चिदम्बरम का यह अपना गणित हो सकता है। कोई अति आशावादी कांग्रेसी भी यह स्वीकार नहीं करेगा कि 2019 के आम चुनाव में पार्टी 300 के आसपास पहुंच सकती है। अगर इतना आत्मविश्वास पार्टी में हो जाए तो फिर वह चुनाव पूर्व गठबंधन को अपनी मुख्य नीति बनाएगी ही क्यों। 1984 के बाद किसी पार्टी को 300 सीटें नहंीं मिलीं हैं। कांग्रेस को 1991 में सर्वाधिक 232 सीटें मिलीं थीं उसमें भी राजीव गांधी की निर्मम हत्या से मिली सहानुभूति का बहुत बड़ा योगदान था। हत्या के पहले संपन्न चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन काफी कमजोर था। हत्या के कारण बीच में कुछ समय के लिए चुनाव स्थगित किया गया। उसके बाद जहां-जहां चुनाव हुए वहां पार्टी का प्रदर्शन पहले दौर की तुलना में बेहतर हुआ। 1996 के बाद से कांग्रेस और भाजपा एक दूसरे के मुख्य प्रतिद्वंद्वी बने। 1999 तक भाजपा अपनी सीमाओं में कांग्रेस को पीछे छोड़ती रही। 1996 के बाद 2009 मंें उसे सबसे ज्यादा 206 सीटें प्राप्त हुईं थीं। उसका कारण भी स्वयं कांग्रेस नहीं, भाजपा का जनता को सत्ता में वापस आने का विश्वास न दिला पाना, लालकृष्ण आडवाणी के प्रति संघ परिवाार के कार्यकर्ताओं की वितुष्णा एवं कांग्रेस का गठबंधन करके चुनाव लड़ना था। पश्चिम बंगाल एवं तमिलनाडु में उसका प्रदर्शन गठबंधन के कारण ही तो संभव हुआ। आंध्रप्रदेश में वाईएसआर के कारण उसने सारी पार्टियों को पीछे छोड़ दिया। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह से निराश मुसलमान मतदाताओं तथा भाजपा से विमुख सवर्ण मतदाताओं ने कांग्रेस का रुख किया और उसे 22 सीटें मिल गईं।

कोई भी देख सकता है इन राज्यों की आज की परिस्थितियां भिन्न हैं। उत्तर प्रदेश मंें बसपा सपा कांग्रेस को एक खिलाड़ी तक मानने को तैयार नहीं है। आंध्र और तेलांगना दोनों जगहों में कांग्रेस इतनी असक्त है कि शेष बचे महीनों में उसके उठकर खड़ा होने की भी उम्मीद नहीं की जा सकती। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के साथ उसका गठबंधन हो सकता है। वामपंथी स्वयं अपने जनाधार के लिए छटपटा रहे हैं वे कांग्रेस की क्या मदद करेंगे। तमिलनाडु की राजनीति में रजनीकांत और कमल हासन दो नए खिलाड़ी आ गए हैं। वहां के बारे में भी कुछ कहना मुश्किल है। हालांकि जिन 12 राज्यों की बात चिदम्बरम ने की उनमें उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, तेलांगना एवं आंध्रप्रदेश नहीं हो सकते हैं। इतनी व्यावहारिकता उन्होंने अवश्य दिखाई होगी। जिन 12 राज्यों पर उनका फोकस हो सकता है उनमें 247 लोकसभा स्थान आते हैं। इनमें कांग्रेस 2014 में केवल 29 स्थानों पर जीत सकीं। अब 29 सीट को सीधे 150 तक ले जाने की कल्पना करना चिदम्बरम के वश की ही बात हो सकती है। वैसेहो तो कुछ भी सकता हैं। भाजपा के पास उत्तर प्रदेश में केवल 9 सीटें थीं और उसने अकेले 71 जीत लिया। किंतु उसके लिए एक वर्ष पूर्व से नरेन्द्र मोदी ने माहौल बनाना आरंभ कर दिया था। अमित शाह तब उपाध्यक्ष के नाते रामेश्वर चौरसिया के साथ वहीं पूरा समय लगाकर काम कर रहे थे। वैसा कांग्रेस कहीं करती नहीं दिख रही। यह भी ध्यान रखिए कि कांग्रेस को 2014 में केवल 19 प्रतिशत मत मिले। 2009 में जब उसने 206 सीटें जीतीं उसके पास 28.56 प्रतिशत मत थे। 2004 में भी 145 सीटें उसे मिलीं थी तो 26.53 प्रतिशत मत थे। 300 तो छोड़िए यदि उसे 150 सीटें भी पार करनी है तो 27 प्रतिशत से ज्यादा मत चाहिए। आठ प्रतिशत मतों की एकमुश्त बढ़ोत्तरी सामान्य अवस्था में नहीं हो सकती। इसके लिए लहर चाहिए।

यह न भूलिए कि भारत जैसे देश के चुनावों में कुछ वोट तो मुद्दों पर मिलते हैं, पर अच्छे प्रदर्शन के लिए माहौल निर्मित करना होता है। यह केन्द्र की सत्तारुढ़ पार्टी या गठबंधन के विरुद्ध के साथ  प्रतिकूल राज्य सरकारों के विरुद्ध भी होना आवश्यक है। एक ओर सत्ता के विरुद्ध जन माहौल एवं दूसरी ओर अपने पक्ष में यह सकारात्मक विश्वास कि हम इस समय उपस्थित दलों और नेताओं में सबसे बेहतर विकल्प हैं। अगर आप ऐसा माहौल बना लेते हैं तो गठजोड़ करने वाली पार्टियां भी दबाव में आकर आपको ज्यादा सीटें दे सकतीं हैं। कांग्रेस अभी तक इन दोनों कसौटियों पर बिल्कुल कमजोर साबित हो रही हैं। विपक्ष और पक्ष में माहौल निर्मित करने का कोई अभियान आज तक पार्टी ने चलाया ही नहीं है। कार्यसमिति की बैठक या उसके बाद भी ऐसा कोई कार्यक्रम उसका सामने नहीं आया है। राहुल गांधी के पास कई सूचनाएं भी सही नहीं है। जैसे उन्हांेने कहा कि संघ और भाजपा आदिवासियों के बीच नहीं थे और वे गए वैसे ही हमें भी जाना है। उनको पता होना चाहिए कि आदिवासियों के बीच वो पहले वोट मांगने नहीं गए। संघ का वनवासी कल्याण आश्रम वर्षों से सेवा का काम कर रहा है। उसके लिए जीवनदानी प्रचारक वहां काम करते है। उसके बाद एकल विद्यालय आरंभ हुआ। तब भी वे सभी आदिवासियों तक नहीं पहुंच पाए हैं। जब राहुल को इस सच का पता ही नही ंतो फिर आप कैसे उनका स्थानापन्न कर सकते हैं। उसी तरह संघ द्वारा आयोजित विद्यालयों के बारे में उन्होंने कहा कि भाजपा सत्ता से चोरी करके उनको धन मुहैया कराती है। संघ के विद्यालय देश भर में तब भी चलते थे जब भाजपा कहीं सत्ता में नहीं थी। कांग्रेस की सरकारों ने कई बार इनकी जांच की लेकिन कभी भी उनके पास सरकारी फंड किसी स्रोत से आने की बात प्रमाणित नहीं हुई। जब आपके पास तथ्य ही सही नहीं रहेंगे तो आप उनको कमजोर कर उनके स्थान पर अपने को खड़ा करने की सही रणनीति भी नहंी बना सकते।

जहां तक नेतृत्व का प्रश्न है तो राहुल के पास ऐसे कई अवसर आए जब वे देश में यह संदेश दे सकते थे कि नरेन्द्र मोदी के समानांतर उनके अंदर भी नेतृत्व के सारे गुण मौजूद हैं। ऐसा संदेश मिलने के बाद देश उनके बारे में विचार करना आरंभ कर सकता था। इससे माहौल निर्मित होने का ठोस आधार बनता। अभी हाल का अविश्वास प्रस्ताव ऐसा ही एक सुनहरा अवसर था। क्या कांग्रेस के कट्टर समर्थक भी मानेंगे कि राहुल अपने भाषण से देश को ऐसा संदेश देने मंे सफल रहे? इससे बड़ा अवसर कम से कम 2019 के चुनाव के पहले तो उनको नहीं मिलने वाला। जाहिर है, ये सारे पहलू यथार्थ की धरातल पर रहने वाले कांग्रेस समर्थकों के लिए ंिचता के कारण हैं। आज की स्थिति में कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इतनी सीटें पाती नजर नहीं आ रहीं हैं जितने की वह कल्पना कर रही है।

अवधेश कुमार, इः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092,दूरभाषः01122483408, 9811027208

http://mohdriyaz9540.blogspot.com/

http://nilimapalm.blogspot.com/

musarrat-times.blogspot.com

http://naipeedhi-naisoch.blogspot.com/

http://azadsochfoundationtrust.blogspot.com/