शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

आफस्पा हटाया जाना स्वागतयोग्य

 

अवधेश कुमार

केन्द्र सरकार द्वारा मेघालय से आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्स्पा) यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून 1958 को पूरी तरह हटा लेना एवं अरुणाचल प्रदेश में भी इसे सिर्फ 3 जिलों के 8 पुलिस थानांे तक सीमित करना बहुत बड़ी घटना है। देश में आफस्पा को खत्म करने के लिए लंबे समय से कई स्तरों पर आंदोलन चलता रहा है। मणिपुर से इसे खत्म करने के लिए तो इरोम शर्मीला ने सबसे लंबा अनशन का रिकॉर्ड बना दिया। हालांकि जिस नरेन्द्र मोदी सरकार के बारे में धारणा है कि यह कड़े कानूनों तथा सुरक्षा बलों को संरक्षित कानूनों के तहत कार्रवाई में पूरी स्वतंत्रता देने का समर्थक है उसके काल में ऐसा निर्णय किया जाना कुछ लोगों को अचंभित कर रहा है। वैसे मोदी सरकार ने 2015 में ही त्रिपुरा से आफस्पा को हटा दिया था। उस समय भी कई हलकों में आश्चर्य प्रकट किया गया था। किंतु उसके बाद से त्रिपुरा में अनवरत उग्रवादी घटनाएं नहीं घटीं जिनसे कहा जाए कि उसने गलत समय कदम उठाया। उसके बाद से केन्द्रीय गृहमंत्रालय लगातार पूर्वोत्तर के सारे राज्यों की कानून व्यवस्था की समीक्षा करता रहा है एवं उसके आधार पर आफस्पा पर भी निर्णय होता रहा है। लगातार आफस्पा की समीक्षा हो रही है एवं उसके क्षेत्र में कमी की जाती रही है। सितंबर 2017 आते-आते मेघालय में आफस्पा 40 प्रतिशत क्षेत्र तक सिमट गया था। इसी तरह अरुणाचल प्रदेश में भी 2017 में केवल 16 थानों में ही यह प्रभावी था। पिछले 3 अप्रैल को केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने अरुणाचल प्रदेश के दो पुलिस थानों पश्चिमी सियांग जिले की लिकाबाली तथा पूरबी सियांग जिले के रस्किन पुलिस थाना से आंशिक तौर पर आफस्पा हटा लिया था। अब आफस्पा नगालैंड, असम, मणिपुर (7 विधानसभाओं को छोड़कर) तथा जम्मू कश्मीर में प्रभावी है। मोदी सरकार ने एक बड़ा परिवर्तन यह कर दिया है कि असम और मणिपुर राज्य की सरकारों के पास अब यह अधिकार है कि वे अपनी इच्छानुसार कानून को रखें या हटा दें।

यह सामान्य स्थिति नहीं है। इरोम शर्मीला का अनशन मणिपुर के लिए ही था। आज मणिपुर सरकार जिस दिन चाहे इसे हटा सकती है या जितना चाहे इसका क्षेत्र कम कर सकती है। वास्तव में एक समय जहां पूरे पूर्वोत्तर में आफस्पा लागू था वहीं पिछले एक वर्ष से यह कुछ ही क्षेत्रों में रह गया था। इनमें मेघालय का असम से लगने वाले 20 किलोमीटर का इलाका शामिल था। यद्यपि मिजोरम में हटाया नहीं गया लेकिन वहां व्यवहार में यह अमल में भी नहीं था। गृह मंत्रालय ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जिस तरह से उग्रवादी घटनाओं में कमी आई है उसमें इसे लागू रखना उचित नहीं था। असम में दिसंबर 2014 से मार्च 2018 के बीच नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड या एनडीएफब के 63 सदस्य मारे गए तथा 1052 पकड़े गए। 2016 की तुलना में पूरे पूर्वोत्तर में उग्रवादी घटनाओं में 37 प्रतिशत गिरावट आई है। सुरक्षा बलों के शहीद होने की घटना में 30 प्रतिशत तथा आम नागरिकों में 23 प्रतिशत गिरावट आई है। मोदी सरकार के कार्यकाल में 2014 से 2018 के बीच उग्रवादी घटनाओं में 63 प्रतिशत , नागरिकों की मौत में 83 प्रतिशत तथा सुरक्षा बलों के शहीद होने में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है। 1997 में जब उग्रवाद चरम पर था तबसे 2017 के बीच उत्तर पूर्व क्षेत्र में उग्रवादी घटनाओं में 85 प्रतिशत और नागरिकों तथा सुरक्षा बलों की मौत की घटनाओं में 96 प्रतिशत की गिरावट आई है। जहां 1997 में विद्रोहियों और सुरक्षाबलों के बीच झड़प में 289 सैनिकों की मौत हुई थी वहीं 2017 में ये सिर्फ 12 रह गई। इस दौरान घुसपैठ की संख्या में भी 85 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। ऐसी हालत में इस पर पुनर्विचार होना ही था।

जैसा हम जानते हैं कि पूर्वोत्तर हो या जम्मू कश्मीर उग्रवादी-आतंकवादी घटनाओं में वृद्धि के कारण जब स्थिति नियंत्रण से बाहर हुई तो इन्हें अशांत क्षेत्र घोषित करके आफस्पा लागू किया गया। पूर्वोत्तर में एनएससीएन, उल्फा एवं एनडीएफबी के अलावा कम से एक दर्जन अन्य संगठन सक्रिय रहे हैं। इनमें समय के अनुसार कमी आई। कई संगठन टूटे। मसलन, एनएससीएन के ही दो समूह हो गए जिसमंें खापलांग समूह उग्रवादी गतिविधियों में लगा रहा। युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) में टूट हुई, इसके अनेक नेता गिरफ्तार हो चुके हैं, पर परेश बरुआ ने उल्फा (इंडिपेंडेंट) संगठन बना लिया। इस कारण अभी कुछ समस्या है। किंतु त्रिपुरा और मिजोरम से उग्रवाद का सफाया हो चुका है, मेघालय एवं अरुणाचल में स्थिति काफी नियंत्रण में है, नगालैंड, असम और मणिपुर में सुरक्षा हालात में सुधार हुआ है। वास्तव में आफस्पा एक विशेष कानून है जो अतिविशेष परिस्थितियों में ही लागू किया जाना चाहिए। कानून और व्यवस्था की जिम्मेवारी स्थानीय पुलिस की है। यदि यह जिम्मेवारी लंबे समय तक सेना एवं अर्धसैनिक बलों को ढोनी पड़े तो यह निश्चय ही खतरनाक स्थिति मानी जाएगी। आफस्पा की धारा 4 सुरक्षा बलों को किसी भी परिसर की तलाशी लेने और बिना वॉरंट किसी को गिरफ्तार करने का अधिकार देता है। इसके तहत विवादित इलाकों में सुरक्षा बल किसी भी स्तर तक शक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं। संदेह होने की स्थिति में उन्हें किसी गाड़ी को रोकने, तलाशी लेने और उसे जब्त करने का अधिकार होता है। तलाशी या गिरफ्तारी के लिए किसी वारंट की आवश्यकता नहीं होती। वे कहीं भी छापा मार सकते हैं, संदेह होेने पर मोर्चाबंदी कर सकते हैं। यह भी सच है इस कानून के कारण भयावह स्थितियों में उग्रवादियों-आतंकवादियों या ऐसे दूसरे खतरों से जूझ रहे जवानों को कार्रवाई में सहयोग मिलने के साथ-साथ सुरक्षा भी मिलती है। वे निर्भय होकर कार्रवाई करते हैं। किंतु 1990 के बाद से जब से यह ज्यादा प्रभावी एवं विस्तारित हुआ है इसका विरोध भी हुआ है। अगर किसी को सेना की कोई कार्रवाई गलत लगती है तो वह उसके खिलाफ तब तक मुकदमा नहीं कर सकता, जब तक कि केन्द्र इसकी अनुमति न दे। यही विशेष प्रतिरक्षा सेना को मिली हुई है। सेना को मिले इसी रक्षा कवच को सबसे ज्यादा निशाना बनाया जाता है। विरोधी आरोप लगाते हैं कि कानूनी संरक्षण का लाभ उठाकर सेना आम नागरिकों के साथ भी अन्याय करती है। सुरक्षा बलों पर मानवाधिकार के दमन का आरोप लगा है तथा इसके विरुद्ध छोटे-बड़े अभियान चलते रहे है। हालांकि इसके समानांतर सुरक्षा बलों के समर्थन में भी लोग खड़े हुए हैं। खैर, पूर्वोत्तर में इसके अंत की शुरुआत हो गई है। सरकार का वर्तमान कदम बताता है कि यदि राज्यों की सुरक्षा स्थिति संभल गई तो यह आफस्पा हटाने पर खुले मन से विचार करेगा।

यह कानून 1958 में बना और 1972 में इसे संशोधित किया गया। 1972 का संशोधित रुप ही पूर्वोत्तर के राज्यों में लागू हुआ। जम्मू कश्मीर विशेष कानून 1990 में बना। हालांकि इस कानून के तहत भी सेना को बिल्कुल खुला हाथ मिल गया है ऐसा नहीं है। मामले की छानबीन का अधिकार पुलिस का ही है। सेना किसी को गिरफ्तार करती है तो उसे  निकट के पुलिस थाने को सुपूर्द करना पड़ता है। जब्त सामान भी पुलिस के हाथों ही करना है। इस तरह कहा जा सकता है कि आवश्यक विशेष अधिकार देते हुए भी सेना की भूमिका को इतना विस्तारित नहीं किया गया है कि पूरी कानून व्यवस्था का निर्धारक वही बन जाए। नागरिक एवं पुलिस प्रशासन की भूमिका को कायम रखा गया है। किंतु कई बार व्यवहार में तत्काल ऐसा करना संभव नहीं होता। उदाहरण के लिए सेना या अर्धसैनिक बल किसी आतंकवादी या संदिग्घ को पकड़ते हैं तो उसकी साजिशों, उसके साथियों आदि के बारे में उसी समय पूछताछ आवश्यक होता है ताकि उसके आधार पर आगे की कार्रवाई की जाए। यह सामान्य समझ की बात है कि अगर सेना उसे पकड़कर पहले पुलिस के हवाले करे और उसके बाद पूछताछ के आधार पर कार्रवाई करे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। आतंकवादियों-उग्रवादयों के खिलाफ ऑपरेशन के दौरान की स्थितियों की हम कल्पना कर सकते हैं। उस समय उनको किसी तरह पराजित करने का ही एकमात्र लक्ष्य होता है। या तो उन्हें मारना है या पकड़ना है और कोई पकड़ में आ गया तो फिर उससे अन्य साथियों, उसकी योजनाओं आदि की जानकारी प्राप्त कर कार्रवाई करना है। हालांकि समय के अनुसार इसमें सुधार हुआ है। जम्मू कश्मीर में पिछले काफी समय से पुलिस, सेना एवं अर्धसैनिक बलों के बीच बेहतर तालमेल और समन्वय से कार्रवाई हो रही है। अनेक कार्रवाई साथ होतीं हैं, इसलिए प्रक्र्रियाओं में समस्याएं नहीं आ रहीं। इसका लाभ भी मिला है। आगे और भी सुधार हो सकता है।

किंतु किसी भी स्थिति में आफस्पा को लंबे समय तक जारी नहीं रखा जाना चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह आपत स्थिति का कानून है। इसलिए पूर्वोत्तर में सुरक्षा स्थिति में ठोस सुधार के साथ इसे धीरे-धीरे समाप्त करना लोकतंत्र में स्वाभाविक नागरिक शासन की महत्ता को स्वीकार करना है। इसलिए इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए। वैसे 1958 मंे जब यह कानून बना तो राज्य को अशांत क्षेत्र घोषित कर आफस्पा लागू करने की जिम्मेवारी राज्य की ही थी। 1972 में संशोधन कर यह अधिकार केन्द्र को दे दिया गया। हम उन परिस्थितियों में नहीं जाना चाहते। आज असम और मणिपुर को अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्रता देना 1972 पूर्व की स्थिति में ले जाने का ही कदम माना जाएगा। उम्मीद है दोनों राज्य भी अपनी परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेंगे। किंतु जम्मू कश्मीर में सीमा पार आतंकवाद के कारण ऐसी स्थिति पैदा नहीं हुई है कि वहां आफस्पा को लेकर पुनर्विचार किया जाए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है पर इसके अलावा कोई चारा नहीं है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

कठुआ बर्बर दुष्कर्म मामला सीबीआई को सौंपा जाना चाहिए

अवधेश कुमार

इस समय पूरे देश में उबाल है। वास्तव में जम्मू के कठुआ में एक आठ साल की बच्ची आसिफा के साथ बर्बरता की जो घटना सामने आई है वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अंदर से हिला देने वाली है। अभी तक जो कुछ सामने आया है उसे सच मान लें तो इसकी तुलना यदि किसी घटना से की जा सकती है तो दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुई निर्भया कांड से। सामान्यतः जब भी ऐसी वीभत्स घटना कहीं घटती है तो पूरे देश में गुस्सा पैदा होता है और एक ही आवाज उठती है कि दोषियांे को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। ऐसी प्रतिक्रिया बिल्कुल स्वाभाविक है। कठुआ मामले में पुलिस ने जो आरोप पत्र दाखिल किया है उससे गुस्सा और बढ़ा है। इसमें बच्ची को पकड़कर बंधक बनाए रखने, नशीली दवाएं खिलाने, लगातार बलात्कार करने और फिर मार दिए जाने का जो विवरण है वह एकदम जमे हुए खून मंे भी उबाल पैदा कर देता है। आरोप पत्र में एसपीओ के बारे में कहा गया है कि जब सब उसकी हत्या करने जा रहे थे तो उसने कहा कि थोड़ा रुक जाओ एक बार और बलात्कार कर लूं और उसने किया। यही नहीं उन लोगों ने उसकी हत्या करने के बाद पत्थरों से कुचला। एक आठ साल की लड़की साथ ऐसा होने की कथा हमारे सामने आएगा तो प्रतिक्रिया क्या और कैसी होगी? किंतु सम्पूर्ण जम्मू और कठुआ का माहौल देखिए तो अलग ही तस्वीर है। वहां जांच करने वाली पुलिस टीम के खिलाफ भी चारों ओर आक्रोश है। पूरा जम्मू शत-प्रतिशत बंद रहा है। जम्मू बार एसोसिएशन खुलकर आरोपियों के पक्ष में आ गया है। धरना-प्रदर्शन हो रहा है। लोग सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं।

इस तरह दो तस्वीर है। पुलिस के आरोप पत्र को स्वीकार कर लें तो ऐसा लगेगा कि जम्मू के लोग और पूरा बार एसोसिएशन बलात्कारियों के पक्ष में खड़ा है जो शर्मनाक है। जिस तरह वकीलों ने न्यायालय में आरोप पत्र पेश करने से रोकने की कोशिश की उससे भी पहली नजर में क्षोभ पैदा होता है। किंतु विचार करने वाली बात है कि आखिर इतने लोग आरोपियों के पक्ष मेें क्यों खड़े हैं? क्या उनके अंदर की मनुष्यता मर गई है कि उस आठ वर्ष की मासूम के साथ हुई बर्बरता को महसूस नहीं कर रहे? क्या इतनी संख्या में लोग बलात्कारियों और हत्यारों का समर्थन कर सकते हैं? दुनिया मंे ऐसा नहीं होता कि एक साथ इतनी बड़ी संख्या जिसमें वकील समुदाय भी शामिल है और सभी पार्टियों के नेता भी, बलात्कारी और हत्यारे का खुलेआम साथ देते दिखें। जो प्रदर्शन हो रहे हैं उसमें लगभग सभी पार्टियों के नेता शामिल होते है। भाजपा के दो मंत्रियों ने क्या इसलिए इस्तीफा दे दिया कि मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती ने बलात्कारियों एवं हत्यारों को बचाने की इनकी मांग नहीं मानी? अगर कोई ऐसा मानता है तो उसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। सामान्य सोच में यह तर्क गले नहीं उतरता कि ये दो मंत्री या अन्य पार्टियों के नेता अपराधियों को बचाना चाह रहे हैं। कोई यदि किसी अपराधी या अपराधियों के साथ हो तो भी सार्वजनिक रुप से इतना आक्रोश प्रकट हुए सामने नहीं आता। जाहिर है, इस पूरे कांड पर जो कुछ हमारे सामने लाया गया है उससे जरा अलग नजरिए से भी विचार करने की आवश्यकता है।

मृत बच्ची का कुचला हुआ शरीर यदि बरामद हुआ है तो उसके अपराधी कोई या कुछ लोग तो हैं। जो हैं उन्हें कानून के कठघरे में खड़ा किया ही जाना चाहिए। इसे यदि कोई सांप्रदायिक रंग देता है तो वह निश्चय ही मनुष्य कहे जाने लायक नहीं है। किंतु, सजा तो वाकई उन्हीं को मिलनी चाहिए तो असली अपराधी हैं। पुलिस के आरोप पत्र को यदि थोड़ी भी गहराई से देखें तो उसमें कई प्रश्न ऐसे पैदा होते हैं जिनका उत्तर नहीं मिलता। इसी तरह उसमें कुछ ऐसी बातें भी हैं जो सामान्य तौर पर गले नहीं उतर सकती। जिस व्यक्ति सांझीराम को मुख्य आरोपी बनाया गया है वह सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी है। उसके बारे में कहा गया है वह अपने आसपास बकरवाल समुदाय को बसते देखना नहीं चाहता था इसलिए उसने ऐसी योजना बनाई ताकि इसके डर से वो वहां से भाग जाएं। यानी एक बच्ची के साथ बलात्कार करके हत्या कर दी जाए तो बकरवाल समुदाय के लोग वहां से चले जाएंगे। पुलिस ने पूरे अपराध का आधार इसी को बनाया है। क्या आपको लगता है कि वाकई ऐसा हो सकता है? किसी समुदाय के एक मासूम लड़की के साथ बर्बरता हो जाए और वह पूरा समुदाय वहां से चला जाए ऐसी कल्पना तो कोई मूर्ख ही कर सकता है। वहां अगर तनाव है तो रोहिंग्याओं और बंगलादेशियोें को लेकर। बकरवालों के वहां बसने का भी विरोध हुआ है किंतु उसे इस अपराध का आधार बना देना आसानी से पचता नहीं। इसलिए इस पूरी पुलिस कथा का आधार ही प्रश्नों के घेरे में है। इसको साबित करना भी कठिन होगा।

आगे की कथा देखिए। सांझीराम पहले अपने नबालिग भांजे को घोड़ा चराने वाली उस आठ वर्षीय लड़की का अपहरण और बलात्कार करने के लिए तैयार करता है। वह एक दोस्त को इसमें मिलाता है और दोनों मिलकर ऐसा कर भी देते हैं। दोनों उसे बेहोश कर मंदिर में बंधक बना लाते हैं। उस मंदिर की जो तस्वीर आई है उसमें कोई अलग से कमरा नहीं है। उसकी खिड़कियों में केवल ग्रील है कोई दरवाजा नहीं। उस मंदिर में कहां और कैसे लड़की को रखा गया होगा इसका उत्तर नहीं मिलता। आरोप पत्र में एक टेबुल की चर्चा है जिसके नीचे लंबे समय तक किसी को रखना संभव ही नहीं। उस मंदिर में लगातार लोग पूजा के लिए आते हैं और किसी को लड़की के वहां होने का पता नहीं चलता। 17 जनवरी को लड़की लाश मिलती है और 15 जनवरी को वहां भंडारा हुआ था। उसमें कितने लोग आए होंगे। किसी की नजर बंधक लड़की पर नहीं गई! इसी तरह सांझीराम का भांजा मुजफ्फरनगर में उनके बेटे को फोन करता है कि तुम भी आ जाओ यदि लड़की के साथ बलात्कार करना है। वह मुजफ्फरनगर से सीधे वहां पहंुच भी जाता है और बार-बार बलात्कार करता है। सांझीराम भी उससे बलात्कार करता है। यानी एक व्यक्ति अपने बेटे से बलात्कार करवाता है, अपने भांजे से बलात्कार करवाता है और स्वयं भी करता है। आप सोचिए, इस कथा पर आप यकीन कर सकते हैं? कोई बाप ऐसा होगा जो स्वयं अपने बेटे से बलात्कार करवाए? सांझीराम का बेटा विशाल मुजफ्फरनगर में जहां पढ़ता है वहां का रिकॉर्ड बता रहा है कि जिस दिन यानी 12 जनवरी को उसके कठुआ में होने की बात आरोप पत्र में है उस दिन उसकी परीक्षा थी जिसमंे वह उपस्थित था। अब कुछ लोग कह रहे हैं कि उसकी जगह कोई और परीक्षा दे रहा था। यानी उसका प्रभाव इतना व्यापक था कि उसे पास बालात्कार करने के लिए फोन आया और उसने मिनटों में अपनी जगह दूसरे को परीक्षा में बिठाने का इंताजम करके स्वयं फुर्र हो गया! अगर सांझीराम ने लड़की हत्या की या करवाई तो मंदिर से अपने घर के रास्ते पर वह भी घर से करीब 60 मीटर की दूरी पर ही क्यों फेंका? वह उसे जंगल में पीछे फंेक सकता था।

आरोप पत्र मंे ऐसी और भी बातें हैं जो तर्कों, तथ्यों और व्यावहारिकताओं की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। वैसे भी उतनी संख्या में लोग यदि सही न्याय की मांग कर रहे हैं तो केवल पुलिस टीम के आरोप पत्र के आधार पर उनकी अनसुनी कर देना किसी दृष्टि से उचित नहीं है। यह भी तो संभव है कि जम्मू कश्मीर में संाप्रदायिक आग भड़काने के लिए कुछ लोगों ने साजिशन बच्ची के साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर मंदिर से कुछ गज की दूरी पर शव फेंक दिया हो। ऐसा करने वाले यह सोच सकते हैं कि यदि एक मुसलमान लड़की साथ हिन्दुओं और उसमें भी मंदिर के अंदर अंजाम देने की खबर के बाद पूरे प्रदेश में आग लग सकती है। हम इस संभावना को खारिज नहीं कर सकते हैं। इसलिए लोग यदि सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं तो उसे स्वीकारा जाना चाहिए। किंतु मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती उसी आरोप पत्र के आधार पर फास्ट ट्रैक न्यायालय में मामला चलवाने पर अड़ी हुईं हैं। कुछ लोग इसे सांप्रदायिक रंग देकर आग भड़काने में भी लगे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कह दिया है कि दोषी बख्से नहीं जाएंगे। दोषी किसी सूरत में बख्से नहीं जाने चाहिएं। किंतु इतने व्यापक स्थानीय जन समुदाय की भावनाओं को नजरअंदाज करना तो न्याय का तकाजा नहीं है। जम्मू के लोग भी तो यही कह रहे हैं कि मृतका बच्ची के साथ सही न्याय हो एवं दोषियों को सजा मिले। अगर लोगों को पुलिस जांच पर विश्वास नहीं है तो मामले को तत्क्षण सीबआई को सौंपा जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश के उन्नाव का मामला सीबीआई को सौंपा जा सकता है तो फिर कठुआ का क्यों नहीं। 

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208 

 

 

 

 

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