शनिवार, 27 जनवरी 2018

मेहबूबा की इस अपील का मतलब क्या है

 

अवधेश कुमार

जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती एक ही साथ भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पाकिस्तान से अपील की है कि जम्मू-कश्मीर को जंग का अखाड़ा मत बनाइए। उन्होंने कहा है कि सीमा पर खून की होली चल रही है। महबूबा ने नए पुलिस कॉन्स्टेबलों की पासिंग आउट परेड में शिरकत करते हुए ये बातें कहीं। महबूबा ने कहा कि प्रधानमंत्री कहते हैं कि देश को विकास के रास्ते पर चलना चाहिए, लेकिन हमारे राज्य में इसका ठीक उल्टा हो रहा है। उन्हांेने कहा कि मैं प्रधानमंत्री और पाकिस्तान से अपील करती हूं कि जम्मू और कश्मीर को जंग का अखाड़ा मत बनाइए, दोस्ती का पुल बनाइए। पहली नजर में ऐसा लगता है कि मेहबूबा मुफ्ती भावुक होकर ऐसी अपील कर रही हैं जिनके पीछे खून-खराबा का अंत और शांति स्थापित करने की मानवीय कामना है। देश का एक-एक व्यक्ति चाहेगा कि जम्मू कश्मीर के अंदर एवं उससे लगी नियंत्रण रेखा एवं अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर शांति स्थापित हो। लेकिन क्या यह एकपक्षीय तरीक से संभव है? अगर भारत के चाहने से यह संभव होता तो कब का हो चुका होता। जम्मू कश्मीर के लोग आज शांति और अमन की जिन्दगी जी रहे होते तथा भारत और पाकिस्तान दोस्ती कि मिसाल होते। ऐसा नहीं हुआ तो उसमें भारत कहीं भी कारण नहीं है। यहीं पर मेहबूबा की अपील पर प्रश्न खड़ा हो जाता है।

वो जम्मू कश्मीर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं। इस नाते उनको प्रदेश के अंदर तथा सीमा पर जो कुछ हो रहा है उसका और उसके पीछे की ताकतों के बारे में पूरा सच पता है। बावजूद इसके यदि वो एक ही सांस में भारत के प्रधानमंत्री और पाकिस्तान का नाम लेतीं हैं तो इसे क्या कहा जा सकता है? क्या अंतर्राष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम का उल्लंघन भारत कर रहा है? अगर नहीं तो फिर भारतीय प्रधानमंत्री से अपील  क्यों? यह प्रश्न इसलिए बनता है क्योंकि 19 जनवरी से बिना किसी उकसावे के जिस तरह पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी हुई है और वह भी रिहायशी इलाके में वर्तमान समस्या उससे पैदा हुई है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगने वाले पांच जिलों जम्मू, कठुआ, सांबा, पूंछ और राजौरी में पाकिस्तान की गोलीबारी से 11 जानें जा चुकी हैं। इनमें छह नागरिक, तीन सेना के और दो बीएसएफ जवान शामिल हैं। स्वयं जम्मू कश्मीर पुलिस जो मेहबूबा के अंदर काम करती है उसका बयान है कि अखनूर से लेकर आरएस पुरा तक पाकिस्तानी रेंजर्स ने बिना किसी कारण के अंधाधुंध गोलाबारी कर भारतीय नागरिकों और सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया है। रिहायशी इलाकों में की गई अंधाधुंध गोलाबारी में कई मवेशी भी मारे गए हैं। आज हालत यह है कि जम्मू कश्मीर पुलिस स्वयं लाउडस्पीकर से लोगों को अपना इलाका छोड़ने की अपील कर रही है। वास्तव में पाकिस्तान की ओर से लगातार गोलाबारी से हालात बिगड़ने के बाद जम्मू कश्मीर पुलिस ने रेड अलर्ट जारी किया है और सीमावर्ती इलाकों के बाशिंदों से अपने-अपने इलाकों से जाने को कहा है। जम्मू कश्मीर पुलिस ने एक परामर्श में कहा कि प्रशासन ने समूचे इलाके (जम्मू क्षेत्र) में रेड अलर्ट जारी किया है और लोगों को वहां से जाने को कहा है।

आज का सच यह है कि जम्मू के सीमावर्ती इलाकों में अनेक गांव सुनसान हो गए हैं। इलाके में लगातार गोलाबारी से बुरी तरह परेशान लोग सुरक्षा के लिए पलायन कर रहे हैं। संघर्ष विराम उल्लंघन के चलते सीमावर्ती बस्तियों से करीब 50,000 से अधिक लोगों को पलायन करना पड़ा है। लोगों को उनकी बस्तियों से निकालकर सुरक्षित जगह पहुंचाना भी इस समय एक चुनौती बन गया है। जब रिहायशी इलाकों पर अंधाधुंध गोलीबारी होगी तो फिर लोगों को निकालना स्वाभाविक ही कठिन हो जाता है। पता नहीं किसे कब गोली लग जाए, कहां गोला गिर जाए.....। ऐसा हो भी रहा है। लोग निकलेंगे तो अपना कुछ सामान तथा अपने मवेशियों को लेकर ही जाएंगे। अपने स्थायी वास से किसी के लिए अचानक पलायन करना कितना कठिन हो सकता है इसका अनुमान आप स्वतः लगा सकते हैं वह भी सीमा पार से हो रही अंधाधुंध गोलीबारी के बीच। प्रशासन ने जम्मू क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा से लगे इलाकों में 300 से अधिक शैक्षणिक संस्थानों को बंद कर दिया है। यह नौबत क्यों आई है? साफ है कि समस्या हमारी ओर से है ही नहीं। जो कुछ है वह पाकिस्तान की ओर से है।

इसमें यदि मेहबूबा मुफ्ती एक साथ भारत के प्रधानमंत्री एवं पाकिस्तान का नाम लेती हैं तो उनके इरादे पर संदेह होना स्वाभाविक है। अगर इसकी जगह वो पाकिस्तान को दुत्कारतीं तो देश को अच्छा लगता एवं यह व्यावहारिक भी होता। यदि वो पाकिस्तान को ललकारते हुए कहतीं कि आप इस तरह बिना उकसावे के हमारी ओर गोलीबारी करेंगे तो फिर हमें भी आपको आपकी भाषा में जवाब देने को मजबूर होना पड़ेगा तो उनको पूरे भारत का समर्थन मिलता। इसके विपरीत मेहबूबा के बयान से ऐसी ध्वनि निकलती है मानो इसमें भारत भी पाकिस्तान की तरह बराबर का हिस्सेदार है। मोदी विकास की बात अवश्य करते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई हम पर गोलीबारी करे और हम उसको जवाब में केवल फूल भेजें। भारत ने दोस्ती की भी कोशिश की लेकिन अपने नागरिकों और जवानों की कीमत पर नहीं। क्या मेहबूबा यह नहीं जानतीं कि पाकिस्तान ने पिछले वर्ष 860 बार युद्धविराम का उल्लंघन कियां? यह अपने-आपमें एक रिकॉर्ड है। कोई देश इतनी बड़ी संख्या में युद्धविराम का उल्लंघन करें यानी बिना उकसावे के गोलीबारी करे तो फिर उसके साथ दोस्ती का पुल कैसे बन सकता है जिसकी अपील मेहबूबा कर रहीं हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने तो अपने शपथग्रहण समारोह मेें ही दक्षिण एशिया के सारे नेताओं को आमंत्रित कर शुरुआत ही दोस्ती के पैगाम से किया था। क्या हुआ उसका परिणाम? बिना पूर्व कार्यक्रम के केवल तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के जन्म दिवस पर लाहौर चले गए और उनके घर पर बैठकर बातचीत की, उनकी मां के चरण छुए। इससे ज्यादा दोस्ती का पुल बनाने के लिए कोई कर सकता है? लेकिन जवाब में जब उड़ी होगा, पठानकोट होगा, गुरुदासपुर होगा तो दोस्ती की पुल नहीं बन सकती। इससे तो बने बनाए पुल ढह जाएंगे। वही हुआ है।

वास्तव में मेहबूबा को समझना होगा कि भारत पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद और हिंसावाद से पीड़ित होकर मजबूरी में हिंसक जवाब देता है। हमें सर्जिकल स्ट्राइक क्यों करना पड़ा? आप यदि आतंकवादियों को बाजाब्ता प्रशिक्षण देेने के लिए शिविर सहित सारी सुविधाएं देंगे..उनको घुसपैठ कराने के लिए गोलीबारी करेंगे और जब तक उनकी घुसपैठ न हो जाए उन्हें आश्रय भी देंगे तो ऐसी कार्रवाई करनी होगी। यह अपनी रक्षा के लिए हिंसक होना है। पाकिस्तान ने भारत के पास तीन ही विकल्प छोड़ा है, या तो आप आतंकवादियों एवं उनकी सेना, रेंजर की मार झेलिए या फिर इनका हिंसक प्रतिकार करिए या उनके होने वाले हमले का पूर्वानुमान कर उसे रोकने के लिए कार्रवाई कर दीजिए। इसमें दोस्ती का विकल्प है ही नही। यही भारत कर रहा है। अभी ही भारत ने पाकिस्तानी गोलीबारी का माकूल जवाब दिया है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भारत द्वारा पाकिस्तान के सात जवानों को मार गिराने, अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगे पाकिस्तान की चार सीमा चौकियों को तबाह करने तथा वहां की सेना का एक पेट्रोलियम डिपो नष्ट करने की सूचना है। पाकिस्तान मीडिया में कहा जा रहा है कि भारत की गोलीबारी में अनेक आम नागरिक मारे गए और काफी बड़े इलाके में तबाही हुई। अगर पाकिस्तान अपनी हरकत से बाज नहीं आता तो ऐसी कार्रवाई हमें और करनी पड़ेगी। बीएसएफ के महानिदेशक केके शर्मा ने साफ कहा है कि बीएसएफ कभी शुरुआत नहीं करती लेकिन हमला हो तो जवाब देना हमें आता है। ऐसी स्थिति में मेहबूबा की यह अपील हर दृष्टि से केवल अस्वीकार्य नहीं है आपत्तिजनक भी है। हिसंा और अशांति पैदा करने के मामले में पाकिस्तान एक विकृत मानसिकता वाले खलनायक की तरह है जिससे आज की स्थिति में दोस्ती की पुल संभव नहीं। जब तक वह कश्मीर में हिंसा पैदा करके उसे भारत से अलग करने की अपनी खतरनाक सोच से बाहर नहीं आता उसके रवैये में परिवर्तन मुश्किल है। मेहबूबा यह बात अच्छी तरह जानतीं हैं। बावजूद इसके यदि वो इस तरह दोनों देशों को एक ही पलड़े में रखकर अपील कर रही है तो फिर उनके पूछना ही होगा कि मैडम, आपका इरादा क्या है।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शनिवार, 20 जनवरी 2018

हज सब्सिडी खत्म करने का औचित्य

 

अवधेश कुमार

सरकार द्वारा हज यात्रा पर वर्षों से दी जाने वाली सब्सिडी खत्म करने को लेकर देश में स्वाभाविक ही दो राय बन गए हैं। एक राय है कि यह कदम उचित है। किसी समुदाय के व्यक्तियों के धार्मिक कर्मकांड पर सरकार धन क्यों खर्च करे। इसके समानांतर दूसरा तर्क यह है कि जो संपन्न हैं वो तो आराम से हज यात्रा पर चले जाते है। उनका इससे कुछ नहीं बिगड़ेगा जो कुछ असर होगा वो गरीबों पर होगा जो सब्सिडी के कारण हज की अपनी चाहत को पूरी कर लेते थे। इस फैसले के बावजूद इस बाद सबसे ज्यादा करीब 1 लाख 75 हजार लोग हज यात्रा पर बिना सब्सिडी के जाएंगे। आजादी के बाद ऐसा पहली बार होगा। इस नाते यह कदम बहुत बड़ा है। हज के लिए सब्सिडी दिया जाना सही था या नहीं और इसे समाप्त करने के कदम को सही माना जाए या गलत इस पर विचार करने के पहले कुछ अन्य पहलुओं पर विचार करना जरुरी है।

वास्तव में हज सब्सिडी हटाना मोदी सरकार की समग्र हज नीति का एक अंग है। सरकार पिछले वर्ष से हज नीति में बदलाव और उसे व्यावहारिक एवं सबके लिए अनुकूल बनाने पर काम कर रही थी। इस बात का संकेत उसके विचार-विमर्श में ही मिल गया था कि सब्सिडी खत्म की जाएगी। अल्पसंकख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने हज नीति के लिए होने वाली बैठकों में इसका साफ संकेत दे दिया था। दरअसल, 2012 में ही उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने फैसला दिया था कि हज सब्सिदी को अगले दस वर्षों के अंदर खत्म कर दिया जाए। उसने यह भी कहा था कि हज के लिए सब्स्डिी देना वास्तव में मुसलमानों को लालच देने के समान है। इसलिए इसे जारी नहीं रखना चाहिए। तो उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुसार इसे खत्म होना ही था। पूर्व सरकार ने इस दिशा में कुछ नहीं किया। कहा जा सकता है कि 10 वर्ष पूरा होने में अभी चार वर्ष बाकी था। किंतु 10 वर्ष अंतिम समय सीमा थी। जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि इसे 10 वर्ष में खत्म करना था, सरकार ने चार वर्ष पहले ही खत्म कर दिया वो उच्चतम न्यायालय की पूरी टिप्पणी को ध्यान में नहीं ला रहे।

अक्टूबर 2017 मे केन्द्र सरकार ने जो नई हज नीति पेश की उसमें हज सब्सिडी खत्म करने तथा और 45 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं को बिना मेहरम के हज पर जाने की इजाजत देने का प्रस्ताव साफ तौर पर उल्लिखित था। 45 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के बिना मेहरम के हज पर जाने की घोषणा हो चुकी है। मेहरम उसे कहते हैं जिससे महिला का निकाह नहीं हो सकता। मसलन, पिता, सगा भाई, बेटा और पौत्र-नवासा मेहरम हो सकते हैं। यह अकेली या अकेली जाने की इच्छा रखने वाली महिलाओं के मार्ग की बड़ी बाधा थी जो खत्म हो गई है। भारत से करीब 1300 महिलाएं इस बार बिना मेहरम के हज यात्रा करेंगी। इसी में हवाई मार्ग के साथ समुद्री मार्ग से भी यात्रा के विकल्प पर काम करने की बात थी। 1995 से समुदी्र रास्ते का विकल्प बंद हो गया था। अब सऊदी अरब सरकार से समझौते के बाद यह फिर से आरंभ हो रहा है। हज नीति में कहा गया था कि पोत कंपनियों की रुचि और सेवा की थाह लेने के लिए विज्ञापन दिया जाएगा। समुद्री मार्ग से यात्रा वैसे भी कम खर्चीला होगा। पहले समुद्र के रास्ते हज यात्रा में 12 से 15 दिनों का समय लगता था, लेकिन अब तीन से चार दिन में यात्रा पूरी हो जाएगी। एक तरफ का रास्ता 23 सौ नाटिकल मील का है। 1995 में मुंबई के यलो गेट से सऊदी अरब के जेद्दाह तक जल मार्ग पर यात्रा होती थी। नई हज नीति में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए हज कोटे का प्रावधान उनके यहां की मुस्लिम आबादी के अनुपात में किए जाने का प्रावधान है जो उचित ही है। नई हज नीति में हज समिति और निजी टूर ऑपरेटरों के जरिये जाने वाले हज यात्रियों के अनुपात को भी स्पष्ट किया गया है। अब कुल कोटे के 70 प्रतिशत हज यात्री हज समिति के जरिये जाएंगे तो 30 प्रतिशत निजी टूर ऑपरेटरों के जरिये हज पर जाएंगे। नई हज नीति पर वक्तव्य देते हुए मुख्तार अब्बास नकवी ने इसे एक बेहतर नीति बताया है। उनके अनुसार यह पारदर्शी और जनता के अनुकूल नीति होगी। यह हज यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी।

हालांकि भारतीय हज समिति ने नई हज नीति के मसौदे का विरोध किया था। उसने अपनी आपत्ति मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी को भी सौंपी थी। सरकार का कहना है कि उन आपत्तियों पर भी विचार किया गया एवं जो सुझाव मान्य थे उन्हें स्वीकार किया गया। बावजूद इसके इस पर एक राय बनाना मुश्किल है। वास्तव में हज सब्सिडी खत्म करना ऐसा निर्णय है जिससे पूर्व की सभी सरकारें बचतीं रहीं हैं। जिस तरहे से इसका अब भी विरोध हो रहा है उसे देखते हुए इसके कारण को समझना आसान है। कोई मुसलमानों के एक वर्ग को नाराज नहीं करना चाहता था। यह बात अलग है कि इससे गरीब मुसलमानों को शायद ही कोई लाभ था। ऐसे गरीब कम ही होंगे जिन्होंने इस सब्सिडी का लाभ उठाते हुए जबसे समुद्री जहाज बंद हुआ था हज किया होगा। वैसे कुछ मुस्लिम संगठन खुद भी सब्सिडी का विरोध करते रहे हैं। उनका तर्क था कि किसी की मदद से हज करने का कोई प्रावधान शरीया में नहीं है। हालांकि यह मजहबी विषय है, इसलिए हम इसमें यहां नहीं पड़ना चाहते। ध्यान रखिए, सब्सिडी हज यात्रियों को सीधे नहीं मिलती थी। सऊदी अरब तक आने-जाने के लिए हवाई यात्रा खर्च 55 से 60 हजार रुपए आता है। इसमें से केवल 12 हजार रुपये हज जाने वाले को देने होते हैं शेष राशि सरकार सब्सिडी के रूप में भुगतान करती थी। सरकारी एयरलाइन कंपनी एयर इंडिया को इसका जिम्मा सौंपा जाता रहा है, लेकिन कई संगठनों ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि निजी एयरलाइन कंपनी यह काम 15 से 20 हजार रुपए में ही कर रही हैं। सरकार ने हाजियों की दो श्रेणी (ग्रीन और अजीजिया) निर्धारित कर रखी हैं। पिछली बार सरकार ने ग्रीन श्रेणी के लिए अधिकतम 2,39,600 रुपये तय किए, वहीं अजीजिया श्रेणी के लिए ये रकम 2,06,200 रुपये थी। खाने-पीने पर हाजियों को खुद ही खर्च करना पड़ता है।

विरोधियों का कहना है कि सरकार ने हज सब्सिडी खत्म करके मुसलमान विरोधी भावना का परिचय दिया है। वैसे भी भाजपा एवं संघ परिवार लंबे समय से हज सब्सिडी का विरोध करती रही है। यह बात अलग है कि जब 1998 में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी तो इसके बारे में कोई फैसला नहीं किया गया। क्या यह वाकई मुस्लिम विरोधी कदम है? ऐसा होता तो उच्चतम न्यायालय इसके लिए आदेश नहीं देता। जो कुछ हुआ है उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुरुप। उच्चतम न्यायालय में इससे जुड़े सारे पहलुओं पर बहस हुई थी। न्यायालय यूं ही कोई फैसला नहीं देता। किसी मजहब विशेष के लोगों को उनकी धार्मिक यात्रा के लिए इतने व्यापक पैमाने पर सब्सिडी देना एक असाधारण स्थिति थी। ऐसा किसी सेक्यूलर देश में शायद ही कही हो। इसमें विपन्न और संपन्न के बीच कोई अंतर भी नहीं रखा गया था। विपन्न और अक्षम लोगों की धार्मिक भावना को पूरा करने के लिए सरकार छोटे स्तर पर कुछ सहयोग करती है तो उसमंें कोई हर्ज नहीं है। हालांकि सरकार इसके लिए भी निजी दानदाताओं को प्रोत्साहित करे तो यह ज्यादा बेहतर रास्ता होगा। नकवी ने कहा भी है कि गरीबों के लिए अलग से कुछ व्यवस्थाएं की जाएंगी। तो देखते हैं क्या होता है। किंतु इतने व्यापक पैमाने पर सब्सिडी को खत्म करना ही उचित था। करीब 700 करोड़ रुपया सरकार का इस पर खर्च होता था। हाजियों की संख्या बढ़ने एवं हवाई किराए में बढ़ोत्तरी के साथ इसमें और वृद्धि ही होनी थी। इस नाते यह एक उचित निर्णय है।

अब सवाल है कि सरकार इससे जो धन बचाएगी उसे कहां खर्च करना चाहिए? उच्चतम न्यायालय ने ही अपने फैसले में सुझाव दिया था कि इसे मुसलमानों की शिक्षा पर खर्च करना चाहिए।  अक्टूबर 2017 में हज नीति का जो मसौदा सामने आया था उसमें गया था कि सब्सिडी से बचने वाला पैसा मुस्लिमों की शिक्षा, सशक्तिकरण, कल्याण पर खर्च होगा। हज सब्सिडी खत्म करने की घोषणा करते समय मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा भी कि हमारी नीति अल्पसंख्यकों को सम्मान के साथ सशक्त करना है, ना कि तुष्टीकरण। अगर वाकई यही सोच है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। हज सब्सिडी फंड का इस्तेमाल अल्पसंख्यकों की बच्चियों और महिलाओं की क्षिक्षा के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। अगर सरकार ऐसा करती है जिसकी पूरी संभावना है तो यह एक बेहतर शुरुआत होगी।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

 

 

 

 

शनिवार, 13 जनवरी 2018

मन्नान बशीर के आतंकवादी बनने पर आश्चर्य कैसा

 

अवधेश कुमार

इस खबर से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि एक प्रतिभावान कश्मीरी छात्र मन्नान बशीर वानी आतंकवादी संगठन हिज्बुल मुजाहीद्दीन में शामिल हो गया है। हालांकि यह चिंता करने वाला प्रसंग अवश्य है। वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पीएचडी का छात्र रहा है। बचपन से यहां तक वह मेधावी छात्र होने के कारण ही पहुंचा है। पीएचडी करने के पहले उसने एमफिल किया और उसमें भी उसके अच्छे अंक आए थे। उसका पूरा छात्र जीवन उज्जवल भविष्य की ओर ले जाने वाला है। उसके बारे में जानकारी यह भी है कि 2016 में भोपाल के आइसेक्ट विश्वविद्यालय में जल, पर्यावरण, उर्जा एवं समाज अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में उसे सर्वश्रेष्ठ शोध पत्र का सम्मान मिल चुका है। ऐसा युवक यदि अपनी पढ़ाई के अंतिम पायदान में आतंकवादी बन जाए और खुशी-खुशी ए.के. 47 लिए अपनी तस्वीर वायरल कराए तो निश्चय ही एक-एक भारतीय को दुख पहुंचेगा। वही हुआ है। उसका परिवार भी देख लीजिए। उसके पिता जम्मू कश्मीर राज्य स्कूल शिक्षा विभाग में लेक्चरर हैं।  उसका एक भाई कनिष्ठ अभियंता है। यानी एक शिक्षित संभ्रांत परिवार से निकला हुआ नवजवान आज हाथों में हथियार थामे अपने ही लोगों का कत्ल करने और हिंसा फैलाने के लिए मैदान में कूद गया है।

अब वह मन्नान बशीर वानी न होकर हमजा भाई है। जब तक आतंकवादी के रुप में वह जीवित रहेगा हमजा भाई के नाम से ही जाना जाएगा। हालांकिकोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति आतंकवादी बनता है तो इसमें आश्चर्य करने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। दुनिया में जितने बड़े आतंकवादी हुए हैं सब एक से एक अच्छी डिग्री वाले। ओसामा बिना लादेन से अयमान अल जवाहिरी तक की डिग्री देख लीजिए। 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हमला करने की साजिश में जितने शामिल थे सब अलग-अलग क्षेत्रों के बेहतर डिग्रीधारी। भारत में आईएसआईएस के कई प्रच्छन्न एजेंट पकड़े गए सब उतने ही पढ़े-लिखे और प्रोफेशनल। अपने साथ ये कम पढ़े-लिखों की भी भर्ती आतंकवादी कार्रवाई के लिए करते हैं, लेकिन ज्यादातर नेतृत्व या कमान उच्च डिग्रीधारियों के हाथों ही रहा है। मुंबई हमले में जिंदा पकड़ा गया अजमल कसाब अवश्य गंवार था, लेकिन उसको प्रेरित करने वाले, प्रशिक्षण देने वालों की सूची देख लीजिए आपको पता चल जाएगा कि उनमंे ज्यादातर अच्छे पढ़े लिखे थे। यहां तक की फौज में मेजर से सेवानिवृत्त व्यक्ति भी थे। इसलिए इस विषय पर ज्यादा बहस की आवश्यकता नहीं कि इतना पढ़ा-लिखा होने के बावजूद मन्नान आतंकवादी क्यों बना? मूल प्रश्न यह हो सकता है कि आखिर जम्मू कश्मीर में ऐसे नवजवान आतंकवादी क्यों बन रहे हैं?

मन्नान या उसके जैसे युवाओं को आतंकवादी बनने के बाद अपने जीवन का हस्र पता है। एक समय था जब आतंकवादियों की उम्र कुछ वर्ष की होती थी। अब तो आतंकवादी बनने के बाद कुछ महीने से ज्यादा उनकी उम्र नहीं होती। कई तो कुछ सप्ताह के अंदर ही मार डाले गए। जबसे कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ ऑल आउट के नाम से बहुपक्षीय सैन्य अभियान चला है आतंकवादियों की उम्र घट गई है। मन्नान बशीर इसका अपवाद हो जाएगा कम से कम इस समय ऐसा कहना कठिन है। दूसरे, इस समय सुरक्षा बल जहां आतंकवादियों के सफाये के लिए अभियान चला रहे हैं वहीं वे उनके माता-पिता और रिश्तेदारों से अपील करवाकर उनको मुख्य धारा में वापसी के लिए भी काम कर रहे हैं। इसका असर भी हुआ है। पिछले कुछ महीनों में ऐसी अपीलों का असर हुआ है और करीब एक दर्जन आतंकवादी आतंकवाद का रास्ता छोड़कर समाज में वापस आए हैं। जम्मू कश्मीर पुलिस एवं प्रशासन की घोषणा है कि जो वापस आएंगे उनको मुख्यधारा में बने रहने मेें हरसंभव मदद की जाएगी। ऐसा हो भी रहा है। इसके साथ नए युवक आतंकवादी न बनें इसके लिए भी कई प्रकार के अभियान चल रहे हैं। इनसे काफी युवक जो आतंकवादियों के संपर्क में आ गए थे एवं आतंकवादी बनने के एकदम कगार थे उनको रोका जा सका है। ऐसी सफलताओं और ऐसे वातावरण के बीच किसी ऐसे व्यक्ति का आतंकवादी बनना निश्चय ही बार-बार यह सोचने के लिए जरुर मजबूर करता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है?

यह तो साफ है कि आतंकवादी समूह कई तरीकों से युवाओं को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। कौन कहां किस वेष में आतंकवादी बना रहा है यह पता करना मुश्किल है। मन्नान बशीर के बारे मेें अब जानकारी मिली है, लेकिन उसकी छानबीन में सामने आया है कि उसके ही कमरे में रहने वाले यानी रुम पार्टनर मुजम्मिल पिछले वर्ष जुलाई से ही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस नहीं आया है। ध्यान रखिए, वह भी पीएचडी का ही छात्र है और दोनों एक ही प्रोफेसर के अधीन शोध कर रहे थे। संयोग देखिए, दोनों कुपवाड़ा जिले के ही रहने वाले हैं। तो कहां गया वह? अगर वह पुलिस को नहीं मिलता तो यह मान लेना चाहिए कि आतंकवादी समूह मेें उसका प्रत्यक्ष प्रवेश पहले हो गया था और मन्नान बशीर उसके बाद गया है। छानबीन से ही पता चलेगा कि ये दोनों किसके संपर्क में थे। यह भी समाने आया था कि आतंकवादी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद मन्नान बशीर ने अभियान चलाया था। बुरहान वानी को शहीद बताते हुए पोस्टर आदि लगाए थे। उस समय भी पुलिस उसके नजदीक पहुंच रही थी, लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने उसे क्लीन चीट दे दी। कहा गया कि वह एक मेधावी छात्र है तथा आतंकवादी या अलगाववादी गतिविधियों से उसका कोई रिश्ता नहीं। यह कहना मुश्किल है कि उस समय आतंकवादी समूहों से किसी प्रकार का उसका रिश्ता बना था या नहीं। किंतु यह कहा जा सकता है कि अगर उस पर कड़ी नजर रखी जाती तो वह पकड़ में आ जाता।

इसे जम्मू कश्मीर का दुर्भाग्य कहिए कि जब भी वहां शांति और स्थिरता की स्थिति बनने की संभावना पैदा होती है उसके समानांतर ऐसी घटनाएं घटने लगतीं हैं कि पूरा माहौल उलट हो जाता है। पाकिस्तान ने पिछले चार सालों में पूरी कोशिश की है कि जम्मू कश्मीर में 1990 के दशक की स्थिति कायम की जाए। इसके लिए अपने यहां से आतंकवादियों को तो भेजो ही, घाटी के अंदर से आतंकवादी पैदा करो। इसमें उसे सफलता भी मिल रही है। 2017 में सुरक्षा बलोें का मानना है कि 120 के आसपास आतंकवादी घाटी से बने हैं। उसके पूर्व 2016 में भी करीब 90 आतंकवादी वहां से बने थे। इसके पूर्व कश्मीर से आतंकवादी बनने की घटनाएं कम हो रहीं थीं। किंतु वहां योजनाबद्ध तरीके से कश्मीर के अलगाववाद का अति इस्लामीकरण किया जा चुका है। अब आतंकवादी वहां केवल कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए संघर्ष नहीं करते। उनकी घोषणा है कि इसे इस्लामिक राज में बदलना है। यानी वहां के संघर्ष को इस्लाम का संघर्ष बना दिया गया है। आखिर जाकिर मूसा के जितने वक्तव्य हमारे सामने आए हैं उनमें यही कहा गया है कि कश्मीर को इस्लामी राज के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं। उसने तो यहां तक कहा है कि कश्मीर की आजादी की मांग करने वाले अलगाववादी यदि इसका विरोध करते हैं तो उनका भी काम तमाम किया जाएगा। इस्लाम के जुड़ जाने से आतंकवाद को नई धार मिली है। अलगाववाद का सामान्य नारे का असर कमजोर पड़ने लगा था। आतंकवादी समूहों ने इसमें बदलाव करके इस्लाम की लड़ाई का नारा दिया और इसमें इतना आकर्षण है कि युवा खींच रहे हैं। पिछले ही दिनों हमने देखा कि एक मुठभेड़ में मारे गए तीन आतंकवादियों में से एक जम्मू कश्मीर पुलिस अधिकारी का 17 वर्षीय बेटा था जो तीन महीने पहले ही आतंकवादी बना था। जाहिर है, मन्नान बशीर जैसे के आतंकवादी बनने के पीछे मजहब मुख्य कारक होगा। मजहब के लिए मरने का विचार इतना भाव-विभोर कर देता है कि फिर उसके सामने आदमी को कुछ सूझता ही नहीं। अगर जीते तो इस्लाम की जीत और अगर मारे गए तो इस्लाम के लिए जिसमें जन्नत मिलनी है। तो अब विचार करने की आवश्यकता यह है कि आखिर इस मजहबी आकर्षण को वहां कैसे खत्म किया जाए। जब तक इस्लामीकरण का खतरनाक विचार कायम रहेगा ऐसे आतंकवादी बनते रहेंगे।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः01122483408, 9811027208

शनिवार, 6 जनवरी 2018

अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को आर्थिक सहायता रोकने का मतलब

 

अवधेश कुमार

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा पाकिस्तान को दी जाने वाली 25.5 करोड़ डॉलर यानी करीब 16 अरब 26 करोड़ रुपए की मदद रोकना निश्चय ही एक बड़ी घटना है। यह कोई साधारण राशि नहीं है। पाकिस्तान जिस आर्थिक दुर्दशा का शिकार है उसमें इतनी राशि का महत्व अपने-आप समझा जा सकता है। यह केवल इसी साल नहीं रोका गया है। ट्रपं ने साफ किया है कि अगर पाकिस्तान ने अपनी सीमा के अंदर आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की तो आगे से उसे कोई राशि नहीं मिलेगी। पाकिस्तान इसके जवाब में कुछ भी कहे सच यही है कि पाकिस्तान के लिए इसकी भरपाई संभव नहीं है। किंतु इसका महत्व केवल राशि रोकने तक ही नहीं है। यह अमेरिका द्वारा इस बात की स्वीकृति है कि पाकिस्तान अपनी सीमा में आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करता यानी उन्हें पालता है। भारत तो यह आरोप पाकिस्तान पर लगाता ही रहा है। अमेरिका द्वारा इसकी स्वीकृति के बाद पाकिस्तान के लिए कठिनाइयां बढ़ने वाली है। इस संबंध में ट्रंप ने वर्ष 2018 के पहले दिन अपने ट्विट में जो तेवर दिखाए वह आने वाले समय में अमेरिकी नीति का संकेत है। इसमें ट्रंप ने पाकिस्तान पर हमला बोलते हुए कहा कि अमेरिका ने मूर्खतापूर्ण तरीके से पाकिस्तान को गत 15 वर्षों में 33 अरब डालर यानी 2 लाख 14 हजार करोड़ रुपए से अधिक की सहायता दी और उन्होंने हमारे नेताओं को मूर्ख सोचते हुए हमें  झूठ और धोखे के अलावा कुछ भी नहीं दिया। वे आतंकियों को सुरक्षित पनाहगाह देते रहे और हम अफगानिस्तान में खाक छानते रहे। अब और नहीं।

यह कोई साधारण वक्तव्य नहीं है। अमेरिका का राष्ट्रपति यदि यह कहता है कि पाकिस्तान उनकी और दुनिया की आंखों में धुल झोंककर आतंकवादियों को सुरक्षित जगह मुहैया कराता रहा तो फिर पाकिस्तान इसे गलत कैसे करार दे सकता है। यही बात भारत कहता रहा है और उसे अमेरिका आपसी बातचीत में स्वीकारता भी था, लेकिन 2001 के बाद से किसी राष्ट्रपति ने इतना खुलकर और इतनी दृढ़ता से पाकिस्तान पर हमला नहीं किया था। तो हम कह सकते हैं कि यह भारत की कूटनीतिक सफलता भी है। आखिर हम भी अपनी कूटनीति में पाकिस्तान के संदर्भ में यही अभियान चला रहे थे कि उसे किसी तरह आतंकवादियों का पनाहगार देश दुनिया की बड़ी शक्तियां मान ले।

हालांकि ट्रंप ने भी अचानक ऐसा कदम नहीं उठाया है। उन्होंने और उनके दूसरे मंत्रियों ने बार-बार इसके बारे में संकेत दिया।  वास्तव में ट्रंप प्रशासन लगातार पाकिस्तान को आतंकवादियों और उनके संगठनों के खिलाफ कार्रवाई के लिए कहता रहा, लेकिन पाकिस्तान इसे उसी तरह टालता रहा जिस तरह वह जॉर्ज बुश एवं बराक ओबामा के शासनकाल में टालता रहा था। वह आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई का प्रदर्शन अवश्य करता रहा लेकिन उन संगठनों को नष्ट करने के लिए कोई बड़ा कदम उसने उठाया हो इसके प्रमाण नहीं। जिन आतंकवादी समूहों ने उसके अंदर हमले करके जीना हराम किया है उनके खिलाफ तो वह कार्रवाई करता है, लेकिन जो सीमा पार हमले करते हैं उनके प्रति उसने कार्रवाई नहीं की यह सच है। ट्रपं प्रशासन ने न जाने एक साल के अंदर कितनी बार कहा कि अगर पाकिस्तान ने कार्रवाई नहीं की, तो वह अपने तरीके से उनसे निपटेगा। यह एक चेतावनी थी। इसका अर्थ था कि जिस तरह अमेरिका अफगानिस्तान में हमले कर  रहा है वैसे ही वह पाकिस्तान में भी करेगा। यदि उसे स्वयं कार्रवाई करनी है तो फिर पाकिस्तान को राशि देने का कोई तुक नहीं है। इस बात को पाकिस्तान को समझना चाहिए था, लेकिन उसे लगता रहा कि अमेरिका पहले की तरह ही बोलता रहेगा और सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा।

वैसे ट्रंप प्रशासन ने यह तो जहां यह साफ कर दिया है कि अब अमेरिका की कोई योजना नहीं है कि वह पाक में सैन्य सहायता के नाम पर करोड़ों डॉलर की रकम निवेश करे। किंतु यह भी कहा गया है कि अमेरिका, पाकिस्तान से उम्मीद करता है कि वह अपनी सरजमीं पर मौजूद आतंकवादियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करेगा। अमेरिकी प्रशासन ने यह भी साफ किया है कि दक्षिण एशिया रणनीति के लिए पाकिस्तान का समर्थन अमेरिका को मिलना चाहिए। इन दोनों पंक्तियों के अर्थ अत्यंत गंभीर हैं। ऐसा नहीं है कि धन बंद कर देने से आपको आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई न करने की खुली छूट मिल गई है। कार्रवाई आपको करनी होगी। साथ ही आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई में पाकिस्तान की भूमि से लेकर जो समर्थन अमेरिका को मिलता रहा है वह भी जारी रहना चाहिए। यह सीधे-सीधे अमेरिका की पाकिस्तान को चेतावनी है कि अगर आपने इसमें आनकानी की तो फिर उसके परिणाम गंभीर होंगे। पाकिस्तान की प्रतिक्रिया अभी जैसे को तैसे वाला है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री ख्वाजा आसिफ ने कहा है कि अमेरिका अफगानिस्तान की लड़ाई के लिए पाकिस्तान के संसाधनों का इस्तेमाल करता है और उसी की कीमत चुकाता है। उन्होंने कहा कि ट्रंप के नो मोर का कोई महत्व नहीं है और पाकिस्तान इस तानाशाही को नहीं सहेगा। ख्वाजा आसिफ ने कहा, हमने अमेरिका को पहले ही कह दिया है कि अब हम उसके लिए और नहीं करेंगे। अरबों डॉलर देने के संदर्भ में उन्होंने कहा कि यदि हमने यह लिया है तो इसमें पाकिस्तान द्वारा दी गई सेवाओं के बदले भुगतान भी शामिल है। ट्रंप अफगानिस्तान में हार से दुखी हैं और इसलिए वह पाकिस्तान पर दोष मढ़ रहे हैं। हमारी जमीन, रोड, रेल और दूसरी सेवाओं का इस्तेमाल किया गया और इसके बदले हमें भुगतान किया गया। इसका अंकेक्षण भी हुआ है। आसिफ ने यह भी कह दिया है कि अमेरिका फंड को रोके या नहीं, लेकिन पाकिस्तान को इसकी जरूरत नहीं है। हमारा हित उनसे अलग है और हम उनके सहयोगी नहीं बनेंगे। ध्यान रखिए, एक दिन पहले ख्वाजा आसिफ ने ट्रंप के ट्वीट के जवाब में कहा था कि हम राष्ट्रपति ट्रंप के ट्वीट पर जल्दी ही जवाब देंगे। इंशाल्लाह... चलो दुनिया को सच पता चल जाएगा। तथ्य और कल्पनाओं का अंतर लोगों को जानना चाहिए।

तो यह जवाब है पाकिस्तान का। प्रश्न उठता है कि आखिर पाकिस्तान इस ढंग से जवाब क्यों दे रहा है? उसने यह नहीं कहा है कि हम आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। इसके विपरीत वे कह रहे हैं कि हम ही नो मोर कह देते हैं। माना जाता है कि पाकिस्तान की आवाज के पीछे चीन हो सकता है। चीन जिस ढंग से पाकिस्तान में निवेश कर रहा है उससे शायद उसका हौंसला बढ़ा हुआ है। किंतु क्या चीन पाकिस्तान और वह भी आतंकवाद के मामले पर अमेरिका से सीधा टकराव लेने का जोखिम उठाएगा? सच यह है कि चीन पाकिस्तान में चीन पाक आर्थिक गलियारे के नाम पर निवेश अवश्य कर रहा है लेकिन उसने भी हाल में पाकिस्तान के सामने कई शर्तें रख दी हैं। दूसरे, वह उस तरह से सहायता राशि देने वाला देश नहीं है जैसा अमेरिका है। 11 सितंबर 2001 को आतंकवादी हमले के बाद जब अमेरिका ने अफगानिस्तान के खिलाफ कार्रवाई आरंभ की तो उसके निशाने पर पाकिस्तान भी था। उस समय जनरल परवेज मुशर्रफ राष्ट्रपति थे। उन्होंने अमेरिका की सभी शर्तें स्वीकार कर उसके एवज में भारी राशि लेना आरंभ किया। इससे पाकिस्तान बच भी गया तथा उससे लगातार राशि मिलती रही। 2009 में अमेरिका-पाकिस्तान के बीच केरी-लुगर-बर्मन एक्ट करार हुआ। इसके तहत 2010 से 2014 तक पाकिस्तान को अमेरिकी मदद तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ाकर 7.5 अरब डॉलर कर दी गई। स्वयं अमेरिका का मानना है कि ज्यादातर मदद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ सैन्य ताकत बढ़ाने और सरकारी खर्चे निकालने में किया गया। 2014 में इसका उदाहरण सामने आया था जब पाकिस्तान ने अमेरिका से मिले 50 करोड़ रुपए सरकारी बिलों के भुगतान और विदेशी मेहमानों को तोहफे देने में खर्च कर दिए। आरोप यह भी है और सच लगता भी है कि अमेरिका से मिले पैसे का इस्तेमाल पाकिस्तान कश्मीर में आतंक को बढ़ावा देने में भी करता है।  ख्वाजा जो कह रहे हैं उसमें इतना सच है कि उनके संसाधनों और जमीन का इस्तेमाल अमेरिका इस लड़ाई में करता है। किंतु वे भूल रहे हैं कि उस समझौते में आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई की बात भी शामिल थी। यह काम आपने नहीं किया है। तो इसका परिणाम आपको भुगतना पड़ेगा। अभी तो अमेरिका ने एक कदम उठाया है। देखते हैं आगे वह क्या करता है। उम्मीद करनी चाहिए कि अमेरिका का तेवर ऐसा ही बना रहेगा तथा पाकिस्तान से सीमा पार हमला करने वाले आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई होगी।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाषः9811027208, 01122483408

 

 

 

 

 

 

 

 

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