शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

लालू की सजा को राजनीकि रंग देना दुर्भाग्यपूर्ण

 

अवधेश कुमार

लालू प्रसाद यादव को कुख्यात चारा घोटाले मामले में दोषी माना जाना कोई सामान्य फैसला नहीं है। हमारे देश में प्रभावी राजनेताओं पर मुकदमे अगर होते भी थे तो उनको सजा नहीं मिलती थी। अभी कुछ ही दिनों पहले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को सजा हुई है। हालांकि पहले के एक मामले में 3 अक्टूबर 2013 को लालू यादव को छः वर्ष की सजा सुनाई जा चुकी है। चाइबासा कोषागार से फर्जी तरीके से 37.70 करोड़ निष्काषन के मामले में सजा हुई थी। वर्तमान मामला देवघर कोषागार से 1992 से 1994 के बीच फर्जी आवंटन पत्र और चालान पर 89 लाख 27 हजार निकाले जाने से संबंधित है। उनको दोषी ठहराए जाने के साथ ही जिस तरह उनकी पार्टी की ओर से बयान आ रहे हैं वे चिंतित करने वाले हैं। सारे बयान न्यायालय को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं। राजद नेताओं के बयानों से ऐसा लगता है जैसे न्यायालय ने जानबूझकर लालू यादव के साथ अन्याय किया है। कुछ नेता तो यह भी कह रहे हैं कि भाजपा ने उनके राजनीतिक जीवन को बरबाद करने के लिए सजा दिलवाई है। कोई कह रहा है कि वे पिछड़ी जाति से हैं इसलिए उन्हें सजा मिली है। तोे न्यायालय की निष्पक्षता एवं स्वतंत्रता को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। इस तरह के बयान देने वालों में ऐसे नेता भी शामिल हैं जो केन्द्र में मंत्री तक रह चुके हैं।

निस्संदेह, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। राजद के नेताओं और लालू यादव के समर्थकों को आघात लगना स्वाभाविक है। राजद के जन्म से लेकर आज तक उसका पूरा अस्तित्व लालू यादव पर निर्भर रहा है। जाहिर है, यदि लालू यादव को उपरी न्यायालयों से भी राहत नहीं मिली तो फिर राजद के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाएगा। पिछली सजा के बाद उच्च न्यायालय से उनको जमानत मिल गई एवं वे चुनाव लड़ने से वंचित होकर भी सक्रिय रहे हैं। हालांकि उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में अपने दोनों बेटों को विधायक के रुप में निर्वाचित कराया तथा उन्हें मंत्री भी बनवा दिया। इनमें तेजस्वी यादव का नेतृत्व लगभग पार्टी स्वीकार भी कर चुकी है। किंतु यह तब की स्थिति है जब लालू यादव सामने हैं। यदि उनको वाकई जेल काटनी पड़ती है तब भी यही स्थिति रहेगी ऐसा मानना कठिन है। तो लालू यादव की सजा के साथ राजद के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है। इस समय तो पार्टी में टूट नहीं होगी, किंतु अगले चुनाव तक यदि लालू यादव बाहर नहीं रहे तो बहुत सारे नेता बाहर का रास्ता देख सकते हैं। यह खतरा राजद पर आसन्न है।

किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि हम अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता में न्यायालय को ही निशाना बनाएं। यह किसी के हित मेें नहीं है। आखिर लालू यादव भी अंततः सीबीआई के विशेष न्यायालय के फैसले के खिलाफ फिर से अपील करने कहां जाएंगे? उच्च न्यायालय में ही न। कल यदि वही न्यायालय उनको राहत दे दे तो वे क्या कहंेगे? हमारे देश में न्यायलयों की निष्पक्षता एवं स्वतंत्रता अभी तक प्रश्नों से बाहर है। न्यायालय तथ्यों एवं सबूतों के आधार पर फैसले देती है। यदि उसमें कहीं कोई त्रुटि है तो सुधार के लिए उपर के न्यायालयों का दरवाजा खुला हुआ है। उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय ने कई बार अपने ही फैसले की समीक्षा कर दूसरे फैसले दिए हैं। न्यायालय को जातिवाद की दुर्गंध में खींचने वाले नेता यह न भूलें कि अभी-अभी 2 जी मामले में ऐसे ही एक न्यायालय ने दलित ए राजा को बरी किया है। इस मामले में भी जिन छः लोगों को बरी किया गया उनमंे भी पिछड़ी जाति के लोग शामिल है। इसलिए बेहतर हो राजद नेता न्यायालय को आरोपित करना बंद करें। कानून की लड़ाई कानून के अनुसार लड़े और वहीं तक सीमित रहें। जब 2013 में लालू यादव को पहली सजा हुई थी तब भी ऐसा ही वातावरण बनाया गया था। उम्मीद थी कि इससे लालू को जनता की सहानुभूति प्राप्त होगी जिसका राजनीतिक लाभ पार्टी को मिलेगा। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी बुरी तरह पराजित हो गई।

जाहिर है, राजद के नेताओं को उससे सबक लेना चाहिए। ये न भूलें कि अभी लालू यादव पर चार मामले और है। उन पर कुछ छः मामले हैं जिनमें पांच झारखंड तथा एक बिहार में हैं। इनमें दो का फैसला आ गया। हो सकता है आगे के मामले में भी उनको सजा हो जाए या हो सकता है सजा नहीं भी हो। जिस मामले में सजा हुई है उसमें लालू यादव पर आरोप है कि मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग कर जांच की फाइल को 5 जुलाई 1994 से 1 फरबरी 1996 तक रोके रखा। न्यायालय ने साफ कहा है कि लालू को भ्रष्टाचार का पता था लेकिन उन्होंने इसे रोका नहीं। क्यों नहीं रोका? जाहिर है, कुछ अपना स्वार्थ भी इसके पीछे रहा होगा। वैसे भी इस मामले में आरंभ में 38 आरोपी थे जिनमें 11 मर चुके हैं, 3 सीबीआई के गवाह बन गए एवं 2 ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। इन दोनों को 11 वर्ष पूर्व ही सजा हो चुकी है। यानी वाकई गबन किया गया यह पहले से प्रमाणित है। बिहार का चारा और पशुपालन घोटाला ऐसा जघन्य कांड था जिसके दोषियों को जितनी सजा दी जाए कम है। पशुओं और गरीबों का हक मारकर खजाने से धन लूटा गया। ज्यादातर मामले 1990 से 1994 तक के हैं। करीब 950 करोड़ रुपया का यह पूरा घोटाला बना। इसका लंबा इतिहास है जिसकी विस्तृत चर्चा यहां संभव नहीं। सोचिए न पशुपालक कौन लोग होते हैं? साधारण आदमी। लालू यादव सामाजिक न्याय के पुरोधा कहलाते थे और उनके शासनकाल मंे साधारण लोगों के हक का धन इस तरह लूटा गया। इस मामले में कुल 54 मुकदमे दर्ज हुए जिनमें से 47 का फैसला सुनाया जा चुका है। इसमें 1404 लोग दोषी करार दिए जा चुके हैं जिनमें पशुपालन विभाग के अधिकारी, वरिष्ठ नौकरशाह, आपूर्तिकर्ता, नेता सब शामिल हैं।

कहने का तात्पर्य यह कि चारा घोटाला हुआ इसे अब नए सिरे से प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं। इतने लोगों को सजा मिलना ही यह बताता है कि किस ढंग से अंधेर नगरी और चौपट राजा की तरह लूट मची थी। लालू यादव और जगन्नाथ मिश्र जैसे नेताओं का मामला इसलिए लंबा खींचा, क्योंकि इनके पास मुकदमा लड़ने के हर साधन मौजूद हैं, अन्यथा इनका फैसला भी पहले हो चुका होता। इस मामले में किसी तरह की राजनीतिक साजिश की बात तथ्यों से मेल नहीं खाती। जब जनवरी 1996 में प्राथमिकी दर्ज हुई तो केन्द्र मंें कांग्रेस की सरकार थी एवं प्रदेश में स्वयं लालू यादव मुख्यमंत्री थे। जब मार्च 1996 में सीबीआई ने प्राथमिकी दर्ज की तब भी केन्द्र मंें कांग्रेस की सरकार थी। जब अक्टूबर 1997 में सीबीआई ने अंतरिम आरोप पत्र दायर किया उस समय केन्द्र में संयुक्त मोर्चा की सरकार थी जिसके प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल लालू यादव की उस समय की पार्टी जनता दल से ही आते थे। उनकी गिरफ्तारी हुई तब भी केन्द्र एवं प्रदेश में उनकी ही सरकार थी। ध्यान रखिए राजद की पैदाइश की चारा घोटाले के गर्भ से हुआ। जब लालू गिरफ्तार हुए तो मांग की गई कि वो पद छोड़ें। उन्होंने ऐसा करने की जगह पार्टी तोड़कर राजद बना लिया एवं अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया। फिर जब इसके कई वर्ष बाद मई 2005 में आरोप गठन हुआ तो केन्द्र की सरकार में लालू यादव स्वयं मंत्री थे। तो इसमें राजनीतिक साजिश कहां से आ गई? इसलिए ऐसे आरोपों का कोई अर्थ नहीं है।

वास्तव में न्यायालय ने यह साबित कर दिया कि लालू यादव भ्रष्टाचार में संलिप्त थे। यह भारतीय राजनीति के लिए सामान्य त्रासदी नहीं है। एक व्यक्ति जोे जयप्रकाश आंदोलन से उभरा हो, जिसका मुख्य नारा ही भ्रष्टाचार, अधिकनायकवाद एवं वंशवाद से राजनीति की मुक्ति हो, वह स्वयं भ्रष्टाचार के कीचड़ मंें धंस जाए तो इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है। जो व्यक्ति सामाजिक न्याय का मसीहा कहलता हो वह उन्हीं के हक का धन लूटने में संलिप्त हो जाए जिसके कल्याण का दायित्व उसने अपने सिर लिया है इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है। जब तक लालू यादव को उपर का न्यायालय बरी नहीं करता तब तक उनको भ्रष्टाचारी माना ही जाएगा। हालांकि कल वे मुक्त हो जाएं तभी यह नहीं माना जाएगा कि पशुपालन घोटाला हुआ ही नहीं था। घोटाला तो साबित हो चुका है और यह लालू यादव के कार्यकाल मेें ही हुआ।

अवधेश कुमार, ई.ः30,गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

बहुत कुछ कहते हैं गुजरात परिणाम के आंकड़े

 

अवधेश कुमार

भाजपा छठी बार गुजरात में सत्तासीन हुई है और यह सामान्य बात नहीं है। वह जीत का जश्न मना रही है। लेकिन कांग्रेस भी नाखुश नहीं है। वह कह रही है कि हमने संतोषजनक प्रदर्शन किया है और यह नैतिक विजय है। चुनाव परिणाम में नैतिक विजय पहली बार सुना जा रहा है। परिणाम में हार या जीत होती है। नैतिक या अनैतिक जीत हार नहीं होती। किंतु यह कांग्रेस का विश्लेषण है और इसे उसके सममर्थक स्वीकार कर रहे हैं। क्या जिन मतदाताओं ने भाजपा को मत दिया क्या वे अनैतिक थे और उसकी विजय अनैतिक हो गई? कांग्रेस दोनों प्रदेश हारी है यह एक तथ्य है और इसे अस्वीकार करना मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा होगा। हालांकि इससे जुड़े आंकड़ों के जो तथ्य हैं उन्हें तो स्वीकार करना ही होगा। ये आंकड़े भी बहुत कुछ कहते हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को 2012 के मुकाबले 16 सीटों का नुकसान हुआ, उसे 99 सीटें मिलीं। इसके विपरीत कांग्रेस की सीटें 61 से बढ़कर 77 हो गईं तथा उसके सहयोगियों ने तीन सीटें पाईं। कांग्रेस इससे प्रसन्न है कि उसने भाजपा को 99 तक सीमित रहने के लिए मजबूर कर दिया और उसकी सीटें और मत प्रतिशत दोनों बढ़ी। इसको किस तरह से लिया जाए यह हमारी आपकी दृष्टि पर निर्भर करता है।  इस चुनाव परिणाम को समझने के लिए चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों का थोड़ा गहराई से विश्लेषण करने होंगे।

आंकड़ें केवल शुष्क अंकगणित नहीं होते, यह बहुत कुछ कहते हैं। उदाहरण के लिए भाजपा को 49.1 प्रतिशत मत मिला जो पिछली बार की तुलना में 1.25 प्रतिशत अधिक है। इसके समानांतर कांग्रेस को 41.4 प्रतिशत मत मिला जो पिछली बार से 2 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा है। कांग्रेस इससे भी संतुष्ट है कि लंबे समय से भाजपा और उसके मतों में 9 प्रतिशत से ज्यादा का अंतर रहता था जबकि इस बार 7.7 प्रतिशत तक अंतर को सिमटा दिया। कांग्रेस अपने अनुसार इसका विश्लेषण करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन यह विचार करने वाली बात है कि आखिर 1.25 प्रतिशत अधिक मत पाकर भी भाजपा की सीटें क्यों घट गईं एवं 2 प्रतिशत अधिक मत पाकर कांग्रेस की सीटें क्यों बढ़ गईं? आखिर उनका वोट प्रतिशत बढ़ा तो कुछ सीटें भी बढ़नी चांहिए थी ऐसा नहीं हुआ। ऐसे ही अनेक तथ्य हैं जिनका विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। जिस राज्य में मुख्यतः 2 पार्टियों के बीच चुनावी मुकबला हो, वहां 2-3 प्रतिशत मतों के अंतर से परिणाम प्रभावित हो जाते हैं। किंतु गुजरात में ऐसा नहीं हुआ है। आप यदि सभी सीटों में जीत हार का अंतर देखें तो इसका कारण समझ में आ जाएगा। दरअसल, भाजपा के विजयी उम्मीदवारों में से 35 की जीत का अंतर 40 हजार से मतों से ज्यादा रहा है। भाजपा के दो उम्मीदवार तो एक लाख से भी ज्यादा वोटों के अंतर से जीते हैं। कांग्रेस का सिर्फ एक उम्मीदवार ही 40 हजार से ज्यादा वोटों के अंतर से जीत हासिल कर सका। हां, उसके सहयोगी छोटूभाई बसावा जरुर 48 हजार 948 मतों से जीते हैं। 99 विधानसभाओं में भाजपा की जीत का औरसत अंतर 29,968 वोट है। 2012 में भाजपा की जीत का अंतर 26,236 वोट था। इसके समानांतर कांग्रेस की जीत का अंतर औसत 13,331 वोट है। यह 2012 में औसत 13,577 वोट के लगभग समान है। इस तरह भाजपा के उम्मीदवारों के पड़े मत के कारण उसके मत प्रतिशत तो बढ़ गए लेकिन उसकी सीटें घट गईं।

 इस आंकड़े का दूसरा अर्थ भी स्पष्ट है। वह यह कि कांग्रेस जितना प्रसन्न हो रही है उसे वोट उसके अनुसार नहीं मिले हैं। ऐसा होता तो उसके भी अनेक उम्मीदवार भारी मतों से जीतते। ऐसा नहीं हुआ है। इसका मतलब है कि कांग्रेस ने भाजपा के मतों में संेंध लगाने की कोशिश अवश्य की है, पर उसको जबरदस्त टक्कर मिली है। यानी भाजपा का अभी भी गुजरात में पर्याप्त जनाधार है। अगर भाजपा के 35 भारी मतों से विजयी उम्मीदवारांे से तुलना की जाए तो कांग्रेस को कहीं भी एकपक्षीय जीत नहीं मिली है। यह कांग्रेस के उत्साही समर्थकों को समझना चाहिए। सच तो यह भी है कि कांग्रेस को सभी क्षेत्रों में सफलता नहीं मिली है। पाटिदार अमानत आंदोलन समिति से प्रभावित करीब 73 स्थान माने जाते हैं। इनमें 2012 के चुनाव में भाजपा ने 59 सीटें जीतीं थी। इस बार वह सिर्फ 45 सीटें जीत पाई है। कांग्रेस यहां से केवल 12 सीटें जीत पाई थी। इस बार उसे 28 सीटांें पर विजय मिली है। जाहिर है, जो 16 सीटें बढ़ीं वे यहीं से हैं। केवल सौराष्ट्र और कच्छ की बातें करंें तो यहां 54 सीटे हैं इनमें से भाजपा ने पिछली बार 35 सीटें जीती थीं। इस बार वह केवल 23 सीटें जीत पाई है। इसके विपरीत कांग्रेस को 30 सीटें मिली है जबकि पिछली बार उसे केवल 16 सीटें मिलीं थीं। इसका अर्थ बहुत साफ है। यह कांग्रेस का वोट नहीं है। यह हार्दिक पटेल के कारण और पटेलों के आरक्षण की मांग के पक्ष का वोट है। यहां भी कांग्रेस के जीत का अंतर ऐसा नहीं है जिससे यह कहा जाए कि सारे पटेल भाजपा के खिलाफ थे। वास्तव में कांग्रेस कोई मुगालता न पाले। पटेलांे में दो वर्ग थे। जो उम्रदराज हैं वो भाजपा के साथ थे, लेकिन आरक्षण की मांग के कारण युवाओं का बड़ा वर्ग हार्दिक के कारण कांग्रेस के पक्ष में गया। ऐसा हमेशा नहीं हो सकता है।

इस चुनाव का एक आंकड़ा यह कहता है कि भाजपा को शहरी इलाकों में अच्छे मत मिले। चार शहरों का उदाहरण लिजिए। राजकोट की कुल आठ सीटों में से भाजपा को 6 तथा कांग्रेस को 2 मिला। इस तरह अहमदाबाद के 21 में से भाजपा को 15 एवं कांग्रेस को 6, सूरत के 16 में से भाजपा को 15 तथा कांग्रेस को 1 तथा वडोदरा के 10 में से भाजपा को 8 एवं कांग्रेस को 2 सीटें मिलीं। इसक क्या अर्थ है। कुल शहरी 58 सीटों के अनुसार देखें जहां शहरी आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है तो भाजपा ने 48 जीत हासिल की है। 2012 में भाजपा ने 52 शहरी सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने केवल छह शहरी सीटों पर कब्जा किया था। 124 ग्रामीण सीटों में भाजपा ने 51 (पिछली बार 63) और कांग्रेस ने 70 सीटें जीती हैं। 2012 में कांग्रेस ने 55 सीटें जीती थीं। इसके कई अर्थ हैं। यह माना जा रहा था कि जीएसटी एवं नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर शहरी इलाकों में दिखेगा और व्यापारी वर्ग भाजपा के खिलाफ जाएगा। कांग्रेस की सरकार बनाने की उम्मीद इस पर भी टिकी थी। कपड़े पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगाने के विरोध में सूरत में कपड़ा कारोबारियों ने हड़ताल की थी। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उनकी मांगें जीएसटी परिषद में रखने का आश्वासन दिया। इसके बाद हड़ताल समाप्त कर दी गई। सरकार को जीएसटी दर में कटौती करनी पड़ी। जो भी हो, शहरी क्षेत्रों में भाजपा की बढ़त बनी रहने का मतलब है कि व्यापारी वर्ग में यदि नाराजगी थी भी तो वह उस सीमा तक नहीं थी कि वे भाजपा और नरेन्द्र मोदी के खिलाफ प्रतिशोध की भावना से मतदान करें। यह अत्यंत ही महत्वपूर्ण निष्कर्ष है। जिस जीएसटी और नोटबंदी को आरंभ से अंत तक कांग्रेस ने बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया उसका भाजपा के प्रतिकूल असर हुआ ही नहीं। ग्रामीण इलाकों में भाजपा का कमजोर होने के भी कई अर्थ है। हार्दिक का पटेलों की नई पीढ़ी पर असर इसका एक कारण हो सकता है। किंतु इसे इस रुप में भी लेना चाहिए कि किसानों में तथा कृषक मजदूरों के अंदर सरकार की नीतियों से असंतोष है। यानी उन तक कल्याणकारी कार्यक्रमों को जिस सीमा तक पहुंचना चाहिए, किसानों को जितनी राहत और सुविधाएं मिलनी चाहिए उनमें कमी रह गई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित पूरी केन्द्र सरकार को इस बारे में विचार करना पड़ेगा कि जिन कारणों से ऐसा हुआ उसे कैसे दूर किया जाए। आने वाले राज्यों के चुनावों के लिए यह एक सबक होना चाहिए।

ऐसे कई आंकड़े हैं जिनके अर्थ महत्वपूर्ण हैं। एक आंकड़ा नोटा का है। नोटा में 5 लाख 51 हजार 615 यानी कुल मतों का 1.8 प्रतिशत मत पड़ना निश्चय ही दोनों पार्टियों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। आखिर इतने लोगों ने नोटा का विकल्प क्यों चुना? वे सरकार एवं विपक्ष दोनों से क्यों इतने निराश थे। इस पर भी विचार होना चाहिए। वैसे यह मत यूं ही बिना किसी परिणाम के नहीं गया है। एक रोचक और खतरनाक तथ्य यह है कि 22 विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवारों की जीत हार का निर्णय नोटा ने कर दिया। इन क्षेत्रों में जितने मतों से जीत हार हुई उससे ज्यादा मत नोटा को पड़े। यह किसी स्वस्थ लोकतंत्र का प्रमाण नहीं हो सकता है। हमें यह सोचना पड़ेगा कि नोटा अब जीत हार में भूमिका क्यों निभाने लगा है। यह प्रवृत्ति कैसे रुके चुनाव प्रणाली एवं राजनीतिक प्रणाली में लोगों की पूर्ण आस्था कैसे स्थापित हो यह विचारणीय प्रश्न है। गुजरात में आम आदमी पार्टी ने कुल 29 सीटों पर ही प्रत्याशियों को उतारा था, जहां पार्टी को केवल 29 हजार 517 वोट हासिल हुए। वहीं इन 29 सीटों पर 75 हजार 880 लोगों ने नोटा का लिकल्प चुना।

इसी तरह मतदान प्रतिशत का पिछली बार के 72.02 प्रतिशत से गिरकर 67.75 प्रतिशत होने का भी कुछ अर्थ है। यह बताता है कि एक बड़े वर्ग में मतदान को लेकर कोई उत्साह ही नहीं था। संभव है इसमें ज्यादातर मतदाता भाजपा के हों जो उनसे नाराज तो थे लेकिन उनके खिलाफ नहीं जाना चाहते थे, इसलिए वो मतदान करने नहीं गए। भाजपा अगर इससे सबक नहीं लेती तो दूसरे राज्यों में भी उसके लिए समस्याएं आएंगी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाष- 01122483408, 9811027208

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

नए दौर के निर्माण की राजनीति

अवधेश कुमार

यह देश के लिए निश्चय ही ऐसा अवसर है जिसकी कल्पना कुछ समय पूर्व तक शायद ही किसी ने की होगी। वास्तव में भारतीय राजनीति में जिस ढंग से हिन्दुत्व बनाम हिन्दुत्व का नया स्वर गूंज रहा है वह एक नई प्रवृत्ति है। जब राहुल गांधी को सच्चा हिन्दू ही नहीं एक धर्मपरायण हिन्दू साबित करने के लिए कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने उनकी जनेउ पहने और पिता की अस्थियां चुनते तसवीर देश के सामने रखी तो ज्यादातर लोगों ने उसे आश्चर्य से देखा। कारण, कांग्रेस की राजनीति में इसके बिल्कुल विपरीत छवि थी। ऐसा नहीं कि कांग्रेस में कोई धर्मपरायण नेता नहीं था। ऐसा भी नहीं कांग्रेस के नेता हिन्दू कर्मकांडों में शामिल नहीं होते थे। ऐसे नेता भारत की हर पार्टी में है। किंतु कांग्रेस की छवि एक ऐसी सेक्यूलर पार्टी की थी जो अपनी सोच में अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों को प्राथमिकता देती है। यह छवि अपने-आप नहीं बनी थी। वोट की राजनीति में कांग्रेस ने जानबूझकर ऐसी छवि बनाई थी। हालांकि हमारे संविधान निर्माताओं ने सेक्यूलर को सर्वधर्म समभाव के रुप में माना था। उनका यह भी मानना था कि भारत चूंकि स्वभाव से ही सभी धर्मों को सम्मान देने वाला तथा सभी धर्मों में एक ही तत्व का दर्शन करने वाला देश रहा है इसलिए संविधान में अलग से सेक्यूलर शब्द डालने की आवश्यकता नहीं है। आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में यह शब्द जोड़ा गया तो उसके पीछे कांग्रेस की एक निश्चित राजनीतिक सोच थी। देश भर में लंबे समय तक कांग्रेस को मुसलमानों का एकमुश्त वोट मिलता भी रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का एक वक्तव्य आज भी लोग उद्धृत करते हैं जिसमें उन्होंने कहा कि देश के संसाधन पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। उन्होंने कांग्रेस की सोच को ही अभिव्यक्त किया था। प्रश्न है कि आखिर ऐसा क्या हो गया है कि कांग्रेस को अपने शीर्ष नेता की एक धर्मपरायण हिन्दू की छवि बनाने की जरुरत पड़ रही है? आखिर इस बदलाव के मायने क्या हैं?

केवल रणदीप सुरजेवाला ने कांग्रेस की औपचारिक प्रेस वार्ता में ही ऐसा नहीं कहा, इन दिनों कांग्रेस के कई नेता अपने को भाजपा से ज्यादा हिन्दू धर्म का निष्ठावान साबित करने पर तुले हैं। कपिल सिब्बल ने तो यहां कि कह दिया कि भाजपा तो हिन्दुत्व की बात करती है, असली हिन्दू तो हम लोग ही हैं। स्वयं राहुल गांधी ने कहा कि वे शिवभक्त परिवार से आते हैं। बैनरों में पं. राहुल गांधी लिखा जाने लगा है। यह लेख लिखे जाने तक वे गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान 22 मंदिरों की यात्रा भी कर चुके हैं जिसमें सोमनाथ मंदिर भी शामिल है। यहीं के मंदिर के उस रजिस्टर में उनका नाम दर्ज हो गया जो गैर हिन्दुओं के लिए है। भाजपा ने तुरत इसे बड़ा मुद्दा बना दिया और उसके जवाब में कांग्रेस ने उनको जनेउधारी हिन्दू का प्रमाण देने की कोशिश की। हालांकि राहुल स्थायी रुप से जनेउ नहीं पहनते यह सच है, क्योंकि उनका कभी जनेउ संस्कार हुआ ही नहीं। हिन्दुआंें का बड़ा वर्ग जनेउ नहीं पहनता, इसलिए जो जनेउ पहने वही केवल हिन्दू है इससे सहमत होना भी कठिन है। लेकिन कांग्रेस ऐसा बताने और दिखाने तक आई है तो यह भारतीय राजनीति में बहुत बड़ा बदलाव है। यह बदलाव यूं ही नहीं हुआ है। 2014 लोकसभा चुनाव में अपनी सबसे बुरी पराजय के बाद कांग्रेस ने ए. के. एंटनी की अध्यक्षता में पराजय के कारणों पर जांच के लिए एक समिति गठित की थी। हालांकि उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हुई है लेकिन स्वयं कांग्रेस के अंदर से यह बात सामने आई है कि उसमें कांग्रेस के मुस्लिमपरस्त छवि होने को हार का एक प्रमुख कारण माना गया है। इसके अनुसार हिन्दुओं में यह संदेश गया कि कांग्रेस मुस्लिमों का पक्ष लेती है इसलिए उनका मत जहां भी भाजपा शक्तिशाली थी उसके पक्ष में चला गया।

इससे साफ है कि कांग्रेस अब अपनी छवि बदलना चाहती है। यह सच है कि हिन्दू अनेक जगहों में कांग्रेस से अलग होकर भाजपा की ओर गए और भाजपा ने उसके जनाधार को कमजोर करके ही अपनी जमीन खड़ी की। किंतु एक समय कांग्रेस का सुनिश्चत वोट माने जाने वाले मुसलमान भी उससे अलग हो गए हैं। यह प्रक्रिया पिछले अनेक वर्षों से जारी है। अलग-अलग राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने मुसलमान मतों मंे कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया। बिहार और उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का सफाया इसका साफ उदाहरण है। तो कांग्रेस को यह लग गया है सेक्यूलर की उसकी सोच जो व्यवहार में मुस्लिमपरस्त राजनीति हो गई थी उसमें माया मिली न राम वाली स्थिति उसकी हो गई है। अनके राज्यों में बहुमत हिन्दुओं का मत तो उसके हाथ से खिसका ही मुसलमान भी खिसक गए। दूसरी ओर भाजपा हिन्दुओं का मत नए सिरे से अपने पक्ष में सुदृढ़ कर रही है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम ने कांग्रेस को अपना चोगा उतार फेंकने की मानसिकता तैयार की जो गुजरात चुनाव में प्रचंड रुप में दिख रहा है। गुजरात को भाजपा एवं संघ परिवार की हिन्दुत्व की प्रयोगशाला के तौर पर देखा जाता रहा है। तो उस प्रयोगशाला में कांग्रेस ने भी अपना प्रयोग आरंभ कर दिया है। ध्यान रखिए, राहुल गांधी इसके लिखे जाने तक एक भी मस्जिद में नहीं गए हैं। यह कांग्रेस के चरित्र को देखते हुए असाधारण स्थिति है। हम आप यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि राहुल गांधी एकतरफा केवल मंदिर में जाएंगे तथा उनके लोग उनको सच्चा हिन्दू साबित करने के लिए जितने संभव तर्क और प्रमाण होंगे उसे पेश करेंगे।

इस तरह भारतीय राजनीति एक ऐसे दौर में पहुंच रही है जहां हिन्दू बनाम हिन्दू की प्रतिस्पर्धा और सघन होगी। गुजरात में कांग्रेस जीते या हारे यह स्थिति कायम रहने वाली है और 2019 के आम चुनाव में इसका पूरा जोर दिखेगा। किंतु जो लोग इसे नकारात्मक मान रहे हैं उनसे सहमत होना कठिन है। हमारे देश में अजीब स्थिति रही है। कोई पिछड़ों की राजनीति करे तो कोई समस्या नहीं, लेकिन कोई पूरे हिन्दू समाज की बात करे या राजनीति करे तो वह सांप्रदायिक हो गया। वह मुस्लिम विरोधी हो गया। इस स्थिति का अंत हो रहा है और यह भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए अच्छे परिणाम लेकर आएगा। हम न भूलें कि भाजपा में एक समय हिन्दुत्व को लेकर जो मुखरता थी वहां गायब हो चुकी थी। अब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के साथ उसका पुनरागमन हुआ है। कांग्रेस द्वारा हिन्दू शब्द पर खुलकर आने के बाद भाजपा फिर से मुखर हो रही है। आज की हालत यह है कि अरुण जेटली जैसे नेता जिनकी पहचान हिन्दुत्ववादी नेता की कभी नहीं रही उनको भी बयान देना पड़ रहा है कि भाजपा की पहचान हिन्दूवादी पार्टी की है तो फिर उसके सामने किसी क्लोन को यानी कांग्रेस को लोग क्यों चुने। यानि उन्हें यदि हिन्दूवादी पार्टी को वोट देना है तो भाजपा को ही दें। लोकतंत्र में राजनीति न मुस्लिमपरस्त होनी चाहिए न हिन्दूपरस्त। लेकिन सेक्यूलरवाद के नाम पर मुस्लिमपरस्त राजनीति के कारण हिन्दुओं में विद्रोह की भावना पैदा हुई जिसका लाभ भाजपा को मिला।

इससे दूसरी पार्टियों को अब समझ में आने लगा है कि अगर चुनाव की राजनीति में टिके रहना है तो फिर ऐसे सेक्यूलरवाद से अलग होकर यह साबित करना होगा कि हम हिन्दू विरोधी नहीं है। यह भारतीय राजनीति में युगांतकारी परिवर्तन है जिसकी अभी शुरुआत हुई है। इसके पूर्ण परिणाम आने में समय लगेगा। लेकिन एक युग का अंत हो रहा है। जब समुद्रमंथन हुआ था तो उसमें अमृत के साथ विष भी निकला था। उसी तरह भारतीय राजनीति हिन्दुत्व के सदंर्भ मेें समुद्रमंथन के दौर में प्रवेश कर रही है। कुछ समय के लिए इसके थोड़े नकारात्मक परिणाम भी दिख सकते हैं लेकिन इससे संतुलन कायम हो जाएगा। हिन्दुत्व की राजनीति करने का मतलब मुस्लिम विरोधी या किसी संप्रदाय का विरोधी होना नहीं हो सकता। यह गलत तब होगा जब इसके पीछे मुस्लिम विरोधी की सांप्रदायिक सोच हो। हिन्दुत्व की राजनीति का अर्थ सभी मजहबों को समान महत्व देना है। यह नहीं हो सकता कि मुसलमानों या किसी विशेष मजहब के लिए विशेष व्यवस्था या प्रावधान किए जाएं। यह देश की एकता अखंडता के लिए भी उचित नहीं है। यह मानना होगा कि पार्टियांे की इस नीति से देश मंे सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ा है। भारत की राजनीति और इस पर आधारित लोकतंत्र के भविष्य के लिए इस स्थिति में बदलाव आवश्यक है। दो प्रमुख पार्टियों में यदि स्वयं को बड़ा हिन्दू समर्थक होने की जो होड़ पैदा हो रही है वह अभी और प्रचंड होगी लेकिन आने वाले सालों में यह संतुलित हो जाएगी तथा देश की राजनीति वास्तविक सेक्यूलरवाद के रास्ते पर आएगी। इसमें न किसी मजहब को विशेष महत्व मिलेगा और न किसी को नजरअंदाज किया जाएगा। इस नाते हिन्दुत्व की प्रतियोगिता से एक नए और बेहतर इतिहास की नींव पड़ रही है। यह मुसलमानों के लिए भी अच्छा है,क्योंकि इससे पार्टियों को उनको वोट बैंक मानकर व्यवहार करने का अंत हो सकता है। उनके अंदर से अच्छे नेतृत्व के पनपने का अवसर पैदा होगा।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208 

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में भारत की कूटनीतिक विजय

 

अवधेश कुमार

भारत के न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी का इंटरनैशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस यानी अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में न्यायाधीश के तौर पर दोबारा चुना जाना कोई सामान्य घटना नहीं है। भारत के लोगों की नजर इस चुनाव पर इसलिए भाी टिकी थी कि उन्हें लगता था कि अगर हमारे देश का कोई न्यायाधीश होगा तो कुलभूषण जाधव के मामले में सहायता मिल सकती है। इस नाते हर भारतीय दलबीर भंडारी को उनकी जगह पर दोबारा देखना चाहता था। जिस तरह से ब्रिटेन अपने उम्मीदवार क्रिस्टोफर ग्रीनवुड के पक्ष मेें हर संभव कूटनीतिक दांव चल रहा था और सुरक्षा परिषद के शेष चार स्थायी सदस्य उसके साथ थे उसमें यह असंभव लग रहा था। इस नाते देखा जाए तो यह भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत है। यह भारत की सघन कूटनीतिक सक्रियता का ही परिणाम था कि ब्रिटेन को आखिरी क्षणों में अपने उम्मीदवार को चुनाव से हटाने को विवश होना पड़ा। हालांकि ब्रिटेन ने बयान में कहा है कि भारत उसका मित्र देश है, इसलिए उसके उम्मीदवार के दोबारा न्यायाधीश बनने पर उसे खुशी है, पर उसने अंत-अंत तक अपने उम्मीदवार को विजीत कराने के लिए सारे दांव आजमाए। जब उसे यह अहसास हो गया कि भारत के पक्ष को कमजोर करना उसके वश में नहीं तो उसके पास पीछे हटने के लिए कोई चारा नहीं था। ऐसा नहीं होता तो संयुक्त राष्ट्र में इस मुद्दे पर अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो जाती। महासभा बनाम सुरक्षा परिषद का यह टकराव भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता था। इसलिए सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों ने भी संभव है ब्रिटेन को अंत में यह सुझाव दिया होगा कि वह अपने उम्मीदवार को हटा ले ताकि टकराव की स्थिति समाप्त हो जाए।

ध्यान रखिए, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने 1946 में कार्य करना आरंभ किया था। तब से आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ जब अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में उसका कोई न्यायाधीश न रहा हो। इस तरह 1946 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है, जब अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में ब्रिटेन की सीट नहीं होगी। यही नहीं यह भी पहली बार है जब सुरक्षा परिषद के किसी एक स्थायी सदस्य का कोई न्यायाधीश वहां नहीं होगा। इससे इस घटना का महत्व समझा जा सकता है। भारत ने अपने उम्मीदवार के पक्ष में जोरदार प्रचार आरंभ किया था। इसी का परिणाम था कि पहले 11 दौर के चुनाव में भंडारी को महासभा के करीब दो तिहाई सदस्यों का समर्थन मिला था, लेकिन सुरक्षा परिषद में वह ग्रीनवुड के मुकाबले 4 मतों से पीछे थे। अंतिम परिणाम में संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में हुए चुनाव में भंडारी को महासभा में 193 में से 183 वोट मिले जबकि सुरक्षा परिषद के सभी 15 सदस्यों का मत मिला। ऐसा यूं ही नहीं हुआ। संयुक्त राष्ट्र मेें ब्रिटेन के स्थायी प्रतिनिधि प्रतिनिधि मैथ्यू रिक्रोफ्ट ने 12वें चरण के मतदान से पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद् दोनों सदनों के अध्यक्षों को संबोधित करते हुए एक समान पत्र लिखा। दोनों के अध्यक्षों के सामने पढ़े गए पत्र में रिक्रोफ्ट ने कहा कि उनके प्रत्याशी न्यायाधीश क्रिस्टोफर ग्रीनवुड ने अपना नाम वापस लेने का फैसला किया है। आखिर जो व्यक्ति अंत-अंत तक उम्मीदवारी में डटा था उसने अचानक यह फैसला क्यों किया? इसलिए कि महासभा मेें वह भारत के समर्थन को कम करने मे कामयाब नहीं हुआ और भारत किसी तरह दलबीर भंडारी का नाम वापस लेने को तैयार नहीं था। सच यह है कि ग्रीनवुड भी भंडारी के साथ 9 साल के कार्यकाल के लिए दोबारा चुने जाने की उम्मीद कर रहें थे। रिक्रोफ्ट की ओर से लिखी गयी चिट्ठी में कहा गया था कि ब्रिटेन इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि अगले दौरों के चुनाव के साथ सुरक्षा परिषद् और संयुक्त राष्ट्र महासभा का कीमती समय बर्बाद करना सही नहीं है। यानी उसे आभास हो गया था कि भारत की कूटनीति के सामने वह कमजोर पड़ गया है। ब्रिटेन ने कहा है कि उसका निराश होना स्वभाविक है, लेकिन यह छह प्रत्याशियों के बीच का कड़ा मुकाबला था।

इससे ब्रिटेन की मानसिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। जाहिर है, चुनाव के दौरान दोनों देशों के बीच तनाव भी पैदा हुए। ब्रिटेन को इसका अनुमान था। इसलिए उसने अपने बयान में दलवीर भंडारी की जीत पर बधाई दिया तथा कहा कहा कि वह संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक मंचों पर भारत के साथ अपना करीबी सहयोग जारी रखेगा। उन्होंने कहा कि ब्रिटेन भारत के जज भंडारी सहित सभी सफल प्रत्याशियों को बधाई देता है। निश्चय ही यह भारत के लिए खुशी का क्षण है तभी तो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ट्विटर पर खुशी जताते हुए लिखा, वंदे मातरम- भारत ने अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में चुनाव जीत लिया। जय हिंद। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ट्वीट कर कहा कि न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी का दोबारा चुना जाना हमारे लिए गर्व का क्षण है। उन्होंने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और उनकी पूरी टीम को भी इस जीत के लिए बधाई दी। वास्तव में यदि विदेश मंत्रालय पूरी तन्मयता से इस कार्य में लगा नहीं होता तो भारत को सफलता मिलनी मुश्किल थी।

 नीदरलैंड के हेग स्थित संयुक्त राष्ट्र की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में 15 न्यायाधीश होते हैं। हर तीन साल बाद आईसीजे में 5 न्यायाधीशों  का 9 वर्ष के कार्यकाल के लिए चुनाव होता है। आरंभ के चार चक्रों के मतदान के बाद फ्रांस के रूनी अब्राहम, सोमालिया के अब्दुलकावी अहमद युसूफ, ब्राजील के एंटोनियो अगुस्टो कैंकाडो, लेबनान के नवाफ सलाम का आसानी से चुनाव हो गया। इन चारों को संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद में आसानी से बहुमत मिल गया था। इसके बाद आखिरी बची सीट पर भारत और ब्रिटेन के बीच कड़ा मुकाबला था। जैसा उपर बताया गया 15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद में ग्रीनवुड को सुरक्षा परिषद में बहुमत मिलता दिख रहा था, जबकि 193 देशों की आम महासभा में भंडारी को समर्थन था।

यह चुनाव कितना बड़ा मुद्दा बन गया था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी मीडिया में भारत को महासभा में मिल रहे समर्थन को न केवल ब्रिटेन बल्कि सुरक्षा परिषद में शामिल विश्व की महाशक्तियों के लिए खतरे की घंटी तक कह दिया गया। कहा गया कि इससे कोई ऐसी परिपाटी विकसित न हो जाए जो भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो। वास्तव में भारत जिस तरह से ब्रिटेन को आम सभा में पीछे धकेलने में कामयाब हो रहा था वह अनेक पर्यवेक्षकों के लिए अप्रत्याशित था। एक समय ब्रिटेन ने संयुक्त सम्मेलन व्यवस्था का सहारा लेने पर भी विचार किया। इसमें महासभा एवं सुरक्षा परिषद की बैठक एक साथ बुलाई जाती है तथा सदस्यों से खुलकर समर्थन और विरोध करने को कहा जाता है। इसमें समस्या हो सकती थी। संभव था कई देश जो भारत को चुपचाप समर्थन कर रहे थे वे खुलकर ऐसा न कर पाते। माना जा रहा था कि चारों स्थायी सदस्यों से मशविरा करने के बाद ही ब्रिटेन ने संयुक्त अधिवेशन के विकल्प पर विचार किया था। रूस, अमेरिका, चीन व फांस को भी यह चिंता थी कि आज ब्रिटेन जहां फंस रहा है कल वहां वह खुद भी हो सकते हैं। इसलिए वे ब्रिटेन के साथ खड़े थे।

सच यही है कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में भारत के मजबूत आधार को देख ब्रिटेन परेशान था। उसे साफ हो गया था कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारत के दबदबे को तोड़ पाना उसके बूते की बात नहीं है। भारत ने अपने उम्मीदवार दलवीर भंडारी के सम्मान में जो भोज दिया उसमें दुनिया के 160 देशों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी ने उसे चौंका दिया। इसके बाद उसने औपचारिक चुनाव प्रक्रिया रोकने तक की कोशिश की। इसके लिए उसने सुरक्षा परिषद के सदस्यों से अनौपचारिक बातचीत शुरू की। ब्रिटेन ने प्रस्ताव दिया कि सुरक्षा परिषद में मतदान के बाद चुनाव प्रक्रिया रोक दी जाए। इसके बाद संयुक्त अधिवेशन आरंभ हो। इसके तहत महासभा व सुरक्षा परिषद से तीन-तीन सदस्य नामित हों। फिर छह देशों के ये प्रतिनिधि ही न्यायाधीश की अंतिम सीट के लिए निर्णायक फैसला सुनाएं। किंतु इसके खिलाफ विद्रोह होने की संभावना थी। इसलिए सुरक्षा परिषद के कुछ सदस्य देशों ने भी ब्रिटेन के इस प्रस्ताव का साथ नहीं दिया। ब्रिटेन को चुनाव प्रक्रिया रुकवाने के लिए सुरक्षा परिषद में नौ सदस्यों का समर्थन चाहिए था। इतना समर्थन उसे पहले से मिल रहा था। लेकिन ऐसा लगता है कि इस प्रस्ताव पर उसे समर्थन नहीं मिला। इसके बाद उसके पास विकल्प क्या था?  भारत की कूटनीति इसके समानांतर जारी  थी। भारत भी सुरक्षा परिषद के सभी स्थायी एवं अस्थायी सदस्यों के संपर्क में था। इस तरह देखें तो यह हर दृष्टि से भारत की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी कूटनीतिक जीत दिखाई देगी। पहली बार सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों में टूट हुई एवं उन्हें मन के विपरीत मतदान करना पड़ा।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

सुरक्षा परिषद में अटका जस्टिस दलवीर भंडारी का चुनाव

च्नइसपेी क्ंजमरूज्नम, 14 छवअ 2017 03रू01 च्ड (प्ैज्) द्य न्चकंजमक क्ंजमरूज्नम, 14 छवअ 2017 03रू01 च्ड (प्ैज्)

सुरक्षा परिषद में अटका जस्टिस दलवीर भंडारी का चुनावसुरक्षा परिषद में अटका जस्टिस दलवीर भंडारी का चुनावसुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज भंडारी संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारी समर्थन पाने में सफल रहे लेकिन उन्हें सुरक्षा परिषद में बहुमत नहीं मिल पाया।

वाशिंगटन, प्रेट्र। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आइसीजे) में बतौर जज दूसरे कार्यकाल के लिए भारत के जस्टिस दलवीर भंडारी की दावेदारी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अटक गई। पांच दौर के चुनाव में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज भंडारी संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारी समर्थन पाने में सफल रहे लेकिन उन्हें सुरक्षा परिषद में बहुमत नहीं मिल पाया। सुरक्षा परिषद में ब्रिटेन के क्रिस्टोफर ग्रीनवुड को बढ़त मिली। आइसीजे जज चुने जाने के लिए दोनों जगहों पर बहुमत हासिल करना अनिवार्य है।

 

हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की पांच सीटों के लिए पिछले गुरुवार को छह में से चार उम्मीदवारों को चुन लिया गया। एक सीट के लिए महासभा और सुरक्षा परिषद में सोमवार को दोबारा मतदान हुआ। 15 सदस्यीय सुरक्षा परिषद के पांचों दौर के चुनाव में क्रिस्टोफर को नौ और भंडारी को पांच वोट मिले। जबकि 193 सदस्यीय महासभा में भंडारी को सभी दौर के चुनाव में स्पष्ट बहुमत हासिल हुआ।

 

 

यहां भंडारी को 121 और क्रिस्टोफर को महज 68 मत मिले। इस स्थिति को देखते हुए महासभा और सुरक्षा परिषद ने चुनाव स्थगित करने का फैसला किया। इस बारे में अब बाद में निर्णय लिया जाएगा। अभी किसी तारीख की घोषणा नहीं की गई है। इससे पहले गुरुवार को हुए चुनाव में भी जस्टिस भंडारी को महासभा में बहुमत मिल गया था लेकिन सुरक्षा परिषद में वह क्रिस्टोफर से पिछड़ गए थे। भंडारी 2012 में पहली बार आइसीजे के जज चुने गए थे। उनका कार्यकाल अगले साल फरवरी में समाप्त होने वाला है।

 

थरूर ने ब्रिटेन की आलोचना की

 

कांग्रेस नेता और पूर्व राजनयिक शशि थरूर ने आइसीजे चुनाव को लेकर ब्रिटेन की आलोचना की है। उन्होंने ट्वीट किया कि ब्रिटेन संयुक्त राष्ट्र महासभा के बहुमत की इच्छा को बाधित करने का प्रयास कर रहा है।

 

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