गुरुवार, 31 अगस्त 2017

आतंकित करने वाली स्थिति

 

अवधेश कुमार

गुरमीत राम रहीम प्रकरण में ऐसे अनेक पहलू उभरे जिन पर गहन चर्चा आवश्यक है। पूरे देश के मानस को टटोला जाए तो इस प्रकरण को लेकर आपको आंतरिक उबाल दिखेगा। लोेगों को साफ लग रहा है कि जो कुछ नहीं होना चाहिए था, जिन सबको रोका जा सकता था वही सब हो गया। इसमें सरकार तो नंगी हुई ही, धर्म के नाम पर करोड़ों भक्तों को शांति, संयम, सामाजिक समरसता, अहिंसा और सच्चाई का रास्ता दिखाने का दावा करने वाले बाबा का ऐसा रुप सामने आया जिससे धार्मिक संप्रदायों के प्रति वितृष्णा पैदा होती है। इसलिए यह प्रकरण केवल एक व्यक्ति को सजा होने, या उसके समर्थकों के कुछ घंटों के उत्पात और फिर मजबूरी में की गई पुलिस कार्रवाई मेें मारे गए लोगों तक सीमित नहीं है। इसका आयाम काफी विस्तृत है। धर्म और राजनीति के संबंधों को लेकर इस देश में दो मत रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि धर्म और राजनीति के बीच कोइ्र संबंध नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत गांधी जी ने धर्म को राजनीति की आत्मा कहा और तर्क दिया कि धर्मविहीन राजनीति आत्माविहीन प्राणी के समान है। किंतु गांधी जी यहां सच्चे धर्म की बात करते थे। उनकी कल्पना ऐसी राजनीति की थी जो धर्म के सच्चे मार्ग का अनुसरण करने यानी जो उसका कर्तव्य है उससे कठिन से कठिन अवस्था में भी आबद्ध रहे। यह एक उपयुक्त और स्वीकार्य सद्विचार था।

किंतु जब धर्मसंस्था ही पतन की ओर हो तो क्या किया जाए। हम न भूलें कि डेरा सच्चा सौदा के करोड़ों समर्थक चुनाव आधारित लोकतांत्रिक प्रणाली में मतदाता भी हैं। गुरमीत राम रहीम उसके प्रमुख होने के कारण सत्ताओं से सीधा वास्ता रखते थे। सभी पार्टियों और सरकारों के साथ उनका रिश्ता रहा है। यह सत्ता तक पहुंच उनको आज तक बचाए रखने में सफल रहा। उनकी जगह कोई दूसरा होता तो न जाने कब जेल पहुंच चुका होता। बलात्कार और यौन शोषण की यदि प्राथमिकी दर्ज हो जाए तो व्यक्ति गिरफ्तार होकर जेल पहुंच जाता है। भले वह बाद में निर्दोष भी साबित हो लेकिन उसे जेल जाना ही पड़ता है। गुरमीत राम रहीम को न्यायालय द्वारा दोषी साबित किए जाने के बाद जेल भेजा गया। धर्मसत्ता की भूमिका समाज को सही दिशा देने की है। समाज जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग राजनीति भी है। धर्मसत्ता और राजसत्ता का संबंध ऐसा हो जहां धर्म राजसत्ता को सही दिशा दे तो ऐसा संबंध देश के लिए कल्याणकारी होता है। हम नहीं कहते कि डेरा सच्चा सौदा का समाज में योगदान नहीं है, या उसने सच्चे धार्मिक कृत्य नहीं किए हैं। किंतु इस प्रकरण में तो उसका भयावह चेहरा सामने आया है। वस्तुतः धर्मसत्ता ही राजसत्ता से अपने संबंधों के मद में आ जाए, उसका आचरण विकृत राजसत्ता की तरह हो जाए तो ऐसा संबंध हर दृष्टि से घातक होता है। यही इस प्रकरण का मूल है। यह तो साफ है कि डेरा सच्चा सौदा के करोड़ों समर्थक हरियाणा से लेकर पंजाब, राजस्थान, हिमाचल आदि में फैले हैं। पार्टियां मतदान के समय उनके यहां वोटों की भीख मांगने जातीं हैं और जब मतदान नहीं हो तो संबंध बनाए रखने की कोशिश करतीं हैं। जब मुख्यमंत्री और मंत्री वहां जाकर हाजिरी लगाएंगे, बाबा के चरण छूएंगे तो प्रशासन में नीचे के अधिकारियों की क्या बिसात की वो उनके खिलाफ कोई कदम उठाए।

तो धर्मसत्ता यानी डेरा सच्चा सौदा तथा राजनीति के इस संबंध ने इतना बड़ा खूनी प्रकरण पैदा कर दिया है। आप देखिए न कोई व्यक्ति आरोपी के रुप में न्यायालय में अपना फैसला सुनने जा रहा है लेकिन गाड़ियों का काफिला देखकर लगता है कि पुराने जमाने का कोई महाराज किसी जश्न या जलसे में जा रहे हों। यह कैसा धार्मिक व्यक्तित्व है! संपत्ति और सत्ता का ऐसा घृणित प्रदर्शन करने वाले को आप धार्मिक व्यक्ति कैसे मान सकते हैं? न्यायालय मंे पहंुचने तक उसके साथ सत्ता का व्यवहार किसी माननीय जैसा रहता है। आखिर हंगामा होने के बाद अतिरिक्त महाधिवक्ता को पद से हटाने को सरकार को विवश होना पड़ा, क्योंकि वो गुरमीत राम रहीम का बैग उठाते देखे गए। पता नहीं और किसने क्या किया होगा। वास्तव में इस प्रकरण में कोई भी देख सकता था कि पूरी हरियाणा सरकार गुरमीत राम रहीम और उनकी डेरा सच्चा सौदा के सामने आत्मसमर्पण किए रही। दोे-तीन दिनों तक तो लगा ही नहीं कि प्रदेश में कोई सरकार भी है। अगर न्यायालय ने फटकार नहीं लगाई होती तो शायद 24 अगस्त की रात्रि में जो दिखावटी कार्रवाई हुई वह भी नहीं होती। देश को धर्म और राजनीति का ऐसा संबंध नहीं चाहिए।

हरियाणा सरकार ने अपने दायित्व का इस मामले में बिल्कुल पालन नहीं किया। सवाल है कि लोग सरकार क्यों चुनते हैं। सरकार की प्राथमिक भूमिका कानून और व्यवस्था बनाए रखने की है। इसके लिए यदि सरकार न्यायालय पर निर्भर हो जाए तो फिर सरकार होने का मतलब क्या है। अगर न्यायालय को ही सारे निर्देश देने हैं तो फिर लोकतंत्र कहां है। हाल के वर्षों में देखा गया है कि सरकारे कठिन समयों में अपरिहार्य कठोर निर्णयों से भी बचने की कोशिश करतीं हैं और उनको न्यायालय के मत्थे छोड़ देती है। तीन तलाक का मसला न्यायालय का मसलना नहीं था। यह संसद का मसला था। किंतु सरकार ने हिम्मत नहीं दिखाई कि इसे संसद में लाकर अवैध घोषित किया जाए। यह स्थिति केन्द्र से लेकर राज्यों तक है। हरियाणा में उच्च न्यायालय के फटकार के बाद सरकार का ठेला गाड़ी की तरह आगे बढ़ना संसदीय लोकतंत्र की दृष्टि से भयावह संकेत हैं। भविष्य में यदि इससे भी कोई कठिन समय आए तो भी सरकार न्यायालय का मुंह ताकेगी? सरकार डेरा सच्चा सौदा को नाराज नहीं करना चाहती थी, क्योंकि उसको वोट कटने का भय था। मनोहर लाल खट्टर की जगह किसी दूसरी पार्टी का मुख्यमंत्री होता तो उसकी भी दशा शायद यही होती। सबको वोट चाहिए। हरियाणा की तीन दर्जन सीटों पर डेरा का प्रभाव है और उनमें से आधा ऐसे हैं जहां डेरा के वोट से ही भाजपा के विधायक जीते हैं। डेरा सच्चा कभी किसी पार्टी को वोट देता है तो कभी किसी को। यही कारण है कि जिन लड़कियों का वहां यौन शोषण हुआ उनके साथ समय पर न्याय नहीं हो सका। जब घटना हुई तो ओम प्रकाश चौटाला की सरकार थी। उसके बाद कांग्रेस की सरकार आई और अब भाजपा की सरकार है। किसी सरकार में जितनी त्वरित कार्रवाई होनी चाहिए नहीं हुई। पुलिस प्रशासन ने तो मानो गुरमीत राम रहीम के सामने हथियार डाल दिया था। यहां भी न्यायालय की भूमिका ही अग्रणी रही है। यह स्थिति निस्संदेह, उन सब लोगों के लिए आतंकित करने वाली है जो भारत में संसदीय लोकतंत्र के सुखद और स्वस्थ भविष्य की कल्पना करते हैं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

तीन तलाक पर फैसला ऐतिहासिक है

 

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय ने 395 पृष्ठों के अपने फैसले के अंत में केवल एक पंक्ति लिखा है- 32 के बहुमत से तलाक-ए-विद्दत यानी तीन तलाक की प्रथा को समाप्त किया जाता है। इस पंक्ति के बाद किसी प्रकार के किंतु-परंतु की गुंजाइश नहीं रह जाती है जैसा कुछ लोग फैसले की व्याख्या कर रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे. एस. खेहर सहित पांच न्यायाधीशों की पीठ में कई मुद्दों पर एक राय नहीं थी। किंतु अंतिम फैसला मान्य होता है। इसलिए अब भारतवर्ष में कोई मुस्लिम पति अपनी झनक में किसी तरीके से तीन बार तलाक कहकर अपनी पत्नी को अलग नहीं कर सकता। वास्तव में यह एक ऐतिहासिक फैसला है। मुस्लिम महिलाओं को अन्य मजहबों की महिलाओं के साथ समानता के आधार पर खड़ा करने वाले इस फैसले का प्रगतिशील तबके ने खुले दिल से स्वागत किया है। भारत के लिए यह राहत का विषय है कि हमारे यहां की राजनीति तो फैसला करने में इस बात का विचार करती है कि इसे बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक किस तरह से लेंगे, फलां जाति या समुदाय इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करेगी और इस कारण बहुत सारे फैसले जो होेने चाहिए नहीं होते। किंतु न्यायालय इससे पूरी तरह बची हुई है। उसके यहां केवल तथ्य, संविधान और न्याय का आधार चलता है। जो भी व्यवस्था, परंपरा, निर्णय, प्रथा...आदि संविधान की कसौटी पर खरे नहीं हैं, न्याय की कसौटी के विरुद्ध हैं उनको रद्द करने में न्यायालय कभी भी हिचकता नहीं। ऐसा नहीं होता तो जिस तरह से तीन तलाक की प्रथा को इस्लाम का मजहबी विषय मानते हुए एक बड़े तबके ने इसमें हस्तक्षेप करने का विरोध किया था उसमें ऐसा फैसला नहीं आ पाता।

बहरहाल, अब मुस्लिम महिलाओं के हाथों यह ताकत आ गई है कि कोई पुरुषवादी अहं में यदि किसी महिला को तीन तलाक कहकर उसे घर से बाहर करने की कोशिश करता है तो वह उसे न्यायालय के कठघरे में खड़ा कर सकता है। साफ है कि पुरुष का वहां कुछ नहीं चलेगा। फैसला पढ़ने से प्रथमदृष्ट्या ऐसा लगता है कि शीर्ष अदालत ने एक साथ तीन तलाक की प्रथा  को असंवैधानिक और अवैध करार दिया है। निश्चय ही इसके साथ कई सवाल उठते हैं। मसलन, इस फैसले को किस प्रकार से लागू किया जाएगा? क्या इस फैसले को लागू कराने के लिए किसी नई व्यवस्था की जरूरत है? जैसा हम जानते हैं मुख्य न्यायाधीश केहर एवं न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर ने संसद से इसके बारे में कानून बनाने को कहा था। किंतु तीन न्यायाधीशों न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति यू.यू. ललित ने एक साथ तीन तलाक को संविधान का ही उल्लंघन करार दे दिया। इस प्रकार इस व्यवस्था को स्थायी रुप से खत्म कर दिया गया। इसलिए सरकार कानून लाए या नहीं यदि कोई पति एक साथ तीन तलाक देता है तो इससे शादी खत्म नहीं मानी जाएगी। इसके अलावा पत्नी भी उसकी पुलिस में शिकायत करने और घरेलू हिंसा के तहत शिकायत दर्ज करने को स्वतंत्र होगी। वस्तुतः सरकार की ओर से कहा गया है कि इसके लिए जो घरलू हिंसा कानून है उसे ही पर्याप्त माना जाना चाहिए।

देखते हैं भविष्य में क्या होता है। किंतु इस फैसले को पूरा पढ़ने से यह साफ हो जाता है कि न्यायालय ने किसी भी पहलू को छोड़ा नहीं है। मसलन, कुरान क्या कहता है, इस्लाम के जो कई पंथ हैं उनका क्या विचार है, इस्लामी विद्वानों ने इस पर क्या लिखा है, तीन तलाक की प्रथा कब से आरंभ हुई एवं इसका आधार क्या था, इस्लामिक देशों में तलाक की व्यवस्थाएं किस तरह की हैं, किन-किन देशों में क्या-क्या कानून हैं, भारत में इसकी क्या दशा है, यह किस तरह संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है आदि। इसे खत्म करने के विरोधियों ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड तथा जमीयत ए उलेमा ए हिन्द ने जो तर्क दिया उसे भी फैसले में पूरा स्थान दिया गया है। जाहिर है, कोई भी विवेकशील व्यक्ति इस फैसले से असंतुष्ट नहीं हो सकता है। हां, कट्टरपंथियों की बात अलग है। या जो मजहब को ठीक से नहीं समझते हैं और जो कठमुल्लाओं की बातों में आ जाते हैं उनकी प्रतिक्रिया भिन्न है। किंतु इससे अब कोई अंतर नहीं आने वाला। 32 वर्ष पूर्व उच्चतम न्यायालय ने शाहबानो मामले में एक फैसला दिया था। उसने उसके पति को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। इसके खिलाफ देश भर में विरोध प्रदर्शन होने लगा था। इसे मजहब में दखल बताया गया तथा सरकार दबाव में आ गई। इसके बाद तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला कानून बनाकर न्यायालय के आदेश को पलट दिया था।

किंतु इस समय स्थिति अलग है। स्वयं प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस भाषण में कहा था कि अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत मुस्लिम महिलाओं का सरकार समर्थन करती है। इसलिए कुछ भी हो जाए इस फैसले के पलटे जाने की कोई संभावना नहीं है। केन्द्र सरकार की ओर से न्यायालय में जो तर्क दिया गया वही साबित करता है कि न्यायालय से वह इसी प्रकार का फैसले की उम्मीद कर रहा था। उसने जो तर्क दिए उसे देखिए। 1-तीन तलाक महिलाओं को संविधान में मिले बराबरी और गरिमा से जीवन जीने के हक का हनन है। 2-यह मजहब का अभिन्न हिस्सा नहीं है, इसलिए इसे मजहबी आजादी के मौलिक अधिकार में संरक्षण नहीं दिया जा सकता। 3-पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित 22 मुस्लिम देश इसे खत्म कर चुके हैं। 4- मजहबी आजादी का अधिकार बराबरी और सम्मान से जीवन जीने के अधिकार के अधीन है। 5-उच्चतम न्यायालय मौलिक अधिकारों का संरक्षक है। न्यायालय को विशाखा की तरह फैसला देकर इसे खत्म करना चाहिए। केंद्र ने साफ कहा था कि संविधान कहता है कि जो भी कानून मौलिक अधिकार के खिलाफ है, वह कानून असंवैधानिक है। यानी न्यायालय को इस मामले को संविधान के दायरे में देखना चाहिए। यह मूल अधिकार का उल्लंघन करता है। तीन तलाक महिलाओं के मान-सम्मान और समानता के अधिकार में दखल देता है। ऐसे में इसे असंवैधानिक घोषित किया जाए। सरकार ने यह भी कहा था कि पर्सनल लॉ मजहब का हिस्सा नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 25 के दायरे में शादी और तलाक नहीं हैं। साथ ही वह पूर्ण अधिकार भी नहीं है। शरीयत कानून 1937 में बनाया गया था। अगर कोई कानून लिंग समानता, महिलाओं के अधिकार और उसकी गरिमा को प्रभावित करता है तो वह कानून अमान्य होगा और ऐसे में तीन तलाक अवैध है। जाहिर है, केन्द्र सरकार ने भी मामले को गंभीरता से लिया था एवं तीन तलाक के खिलाफ काफी ठोस तर्क दिए थे। इसलिए उसके पीछे हटने का सवाल ही नहीं है। 

जो लोग इसे मजहब के खिलाफ मानते हैं उनके बारे में फैसले में कुछ बातें साफ लिखी गईं हैं। एक साथ तीन तलाक को असंवैधानिक करार देने वाले बहुमत के फैसले में शामिल न्यायमूर्ति आर.एफ नरीमन ने लिखा है कि इस्लाम में शादी एक कॉन्ट्रैक्ट की तरह है और इसे निश्चित परिस्थितियों में ही खत्म किया जा सकता है। उन्होंने लिखा है कि यह आश्चर्यजनक है कि एक साथ तीन तलाक की प्रक्रिया में किसी धार्मिक रस्म का आयोजन नहीं किया जाता और न ही इसमें तय समय सीमा और प्रक्रिया का पालन किया जाता है। उनके अनुसार पैगम्बर मोहम्मद ने तलाक को खुद की नजर में जायज चीजों में सबसे नापंसद किया जाने वाला कदम घोषित किया था। तलाक से पारिवारिक जीवन की बुनियाद शादी टूट जाती है। न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि निश्चित तौर पर पैगम्बर मोहम्मद के समय से पहले बुतपरस्त अरब में लोग पत्नी को सिर्फ रंग के आधार पर भी छोड़ने को आजाद थे। लेकिन, इस्लाम के प्रवर्तन के बाद पुरुषों के लिए तलाक लेना तभी संभव था, जब उसकी पत्नी उसकी बात न मानती हो या फिर चरित्रहीन हो, जिसके चलते शादी को जारी रख पाना संभव न हो। वास्तव में शीर्ष अदालत ने बहुमत से सुनाए गए फैसले में तीन तलाक को कुरान के मूल तत्व के खिलाफ बताते हुए इसे खारिज किया है। उसने साफ कहा है कि तीन तलाक समेत कोई भी ऐसी प्रथा अस्वीकार्य है, जो कुरान के खिलाफ है।

तो न्यायालय का फैसला मजहब के खिलाफ कतई नहीं है। वैसे भी किसी देश के लिए संविधान सर्वोपरि है। कोई व्यवस्था यदि संविधान के खिलाफ हो और अन्यायपूर्ण हो तो उसे बदला जाना चाहिए। किंतु मुस्लिम पर्सनल लौ बोर्ड तथा जमीयत का मत इसके विपरीत था। इसने कई तर्क दिए। जैसे यह पर्सनल लौ का हिस्सा है और इसलिए न्यायालय इसमें दखल नहीं दे सकता। पर्सनल लॉ में इसे मान्यता दी गई है। तलाक के बाद उस पत्नी के साथ रहना पाप है। सेक्यूलर न्यायालय इस पाप के लिए मजबूर नहीं कर सकती। इसका सबसे कड़ा तर्क यह था कि पर्सनल लॉ को मौलिक अधिकारों की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता। हालांकि उसने यह स्वीकार किया कि तीन तलाक अवांछित है, लेकिन साथ में इसे वैध भी माना। इनने कहा था कि यह 1400 साल से चल रही प्रथा है। यह आस्था का विषय है, संवैधानिक नैतिकता और बराबरी का सिद्धांत इस पर लागू नहीं होगा। जाहिर है, न्यायालय ने मजहब के तथ्यों तथा संविधान के आलोक में इन सारे तर्कों को खारिज कर दिया है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि न्यायाधीशों के बीच पूरी तरह मतैक्य नहीं था। किंतु जिन दो न्यायाधीशों का मत अलग था उन्होंने भी तीन तलाक को गलत माना। हां, इन्होंने इस मामले में संसद द्वारा कानून बनाने की राय रखी। दोनों न्यायाधीशों ने माना कि यह पाप है, इसलिए सरकार को इसमें दखल देना चाहिए और तलाक के लिए कानून बनना चाहिए। दोनों ने कहा कि तीन तलाक पर छह महीने का स्थगन लगाया जाना चाहिए, इस बीच में सरकार कानून बना ले और अगर छह महीने में कानून नहीं बनता है तो भी स्थगन जारी रहेगा। इसलिए यह तर्क ठीक नहीं है कि दो न्यायाधीश तीन तलाक को ठीक मानते थे।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

 

बुधवार, 23 अगस्त 2017

सरकारी अस्पतालों की चिकित्सा प्रणाली में सुधार की तरफ ध्यान दे सरकार

आर के शर्मा

नई दिल्ली। हमारे देश के सरकारी अस्पतालों की बदहाल चिकित्सा व्यवस्था से सभी भली भांति परिचित हैं।सरकारी अस्पताल चाहे किसी राज्य का हो या केन्द्र सरकार का, सभी अस्पतालों में उपचार कराना आम आदमी की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों व चिकित्साकर्मियों की पर्याप्त संख्या में तैनाती न होना, स्ट्रेचरस व बैड्स की कमी और आईसीयू में गंभीर हालत में मरीजों के लिए वेंटिलेटर नहीं मिल पाने जैसी कई समस्याएं ऐसी हैं जिनसे कि देश के अधिकांश सरकारी अस्पतालों में निम्न व मध्यम वर्ग के लोगों को रोजाना बड़ी तादाद में सामना करना पड़ रहा है लेकिन इसके बावजूद भी न तो केन्द्र और ना ही राज्य सरकारें इन समस्याओं के समाधान के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास करती हैं। परिणामस्वरूप, चिकित्सकों व मरीजों के साथ ही उनके तीमारदारों में आए दिन कहीं न कहीं विवाद हो जाता है। हालांकि केन्द्र व राज्य सरकारें चिकित्सा के क्षेत्र में खर्च के लिए हर वर्ष अच्छा खासा बजट अस्पतालों के लिए जारी करती हैं किंतु इसके बावजूद भी उपरोक्त समस्याओं के कारण चिकित्सकों व मरीजों को अपने-अपने स्तर पर परेशानियों से जूझना पड़ रहा है लेकिन इस बात की जानकारी शायद केन्द्र व राज्य सरकारों के स्वास्थय मंत्रियों को नहीं हैं। बहरहाल, केन्द्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि सरकारी अस्पतालों में व्याप्त इन सभी समस्याओं को गंभीरतापूर्वक एवं वास्तविक रूप में हल करने के लिए चिकित्सकों व चिकित्साकर्मियों की पर्याप्त संख्या में भर्ती करने के साथ ही स्ट्रेचर, बैड्स और वेंटिलेटर्स भी बढाने की दिशा में कार्य करें जिससे कि सरकारी अस्पतालों में उपचार के लिए जाने वाले मरीजों को बेहतर चिकित्सा सेवाएं मिल सकें।

-आर के शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रमुख समाजसेवी, नई दिल्ली।




शनिवार, 19 अगस्त 2017

ऐसी त्रासदी पर सरकार का रुख अफसोसजनक

अवधेश कुमार

 सामान्य स्थिति में यह कल्पना से परे है कि देश के किसी बड़े अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हो जाए और छटपटाकर मासूमों की मौत होने लगे। चूंकि ऐसा हुआ है इसलिए हमें इसे स्वीकारना पड़ रहा है।  मौत के आंकड़ों पर मत जाइए। इसकी संख्या 30 हो 36 हो या 54 या 68....हमारे देश के होनहारों की इन मौतों का जिम्मेवार कौन है इस पर विचार कीजिए। उत्तर प्रदेश सरकार चाहे जो तर्क दे, वह भले कहे कि ऑक्सीजन की कमी से मौतें नहीं हुईं यानी जो मौतें र्हुइं उनका कारण बीमारी था न कि ऑक्सीजन की कमी। लेकिन सारी सूचनाएं यही बता रही हैं कि अस्तपाल में ऑक्सीजन की भयानक कमी हो चुकी थी। यह बात अस्पताल प्रशासन को पता भी था लेकिन समय रहते कोई कदम नहीं उठाया गया। कुछ तदर्थ कदम ऑक्सीजन सिलेंडर लाने के उठाए गए लेकिन वे नाकाफी थे। परिणामतः संवेदनशील वार्डों में मरीज ऑक्सीजन के अभाव में छटपटाकर मरते रहे और उनको बचाने का कोई ंइंतजाम नहीं था। इस नाते देखा जाए तो 10 और 11 अगस्त को जो मौतें हुईं उनमें कुछ बीमारी के कारण स्वाभाविक मौतें भी होंगी, लेकिन ज्यादातर मौतों को मानवनिर्मित त्रासदी कहना होगा। बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल के प्रधानाचार्य को निलंबित कर दिया गया और उन्होेंने इस्तीफा भी दे दिया। किंतु क्या इतना ही पर्याप्त है? 9 अगस्त को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का उस अस्पताल का दौरा हुआ था। उन्होंने कई घंटे की बैठक लेकर अस्पताल की सारी स्थिति का जायजा लिया था। यह आश्चर्य का विषय होना चाहिए कि उनके संज्ञान में ऑक्सीजन की कमी का मामला नहीं आया।

वास्तव में गोरखपुर और आसपास के स्थानों में जुलाई महीने से दिसंबर के बीच जापानी इंसेफ्लाइटिस का मामला बढ़ जाता है। इसके अलावा डेेगू, चिकनगुनिया, कालाजार आदि के मरीज भी अस्तपाल में आते हैं। चूंकि योगी आदित्यनाथ सांसद रहते हुए इसके लिए लगातार काम करते रहे हैं, इसलिए यह माना जा सकता है कि वे सारी समस्याओं से अवगत होंगे। एक निष्कर्ष तो यही है कि प्रधानाचार्च तथा अस्पताल के अन्य विभाग प्रमुखों ने ऑक्सीजन की कमी का मामला इनको नहीं बताया। अस्पताल को ऑक्सीजन आपूर्ति करने वाला संस्थान पुष्पा सेल्स लिमिटेड ने साफ कर दिया था कि 68 लाख रुपया से ज्यादा उसका बकाया हो चुका है और अगर धन नहीं मिला तो उसके लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति संभव नहीं होगी। यह पत्र केवल अस्पताल को ही नहीं लिखा गया। इसे महानिदेशक स्वास्थ्य सेवाएं एवं स्वास्थ्य सचिव तक को भेजा गया। साफ है कि इस पत्र का संज्ञान जिस ढंग से लिया जाना चाहिए नहीं लिया गया। दूसरे, लिक्विड ऑक्सीजन प्लांट संभालने वाले विभाग ने 3 अगस्त को अस्पताल प्रशासन को पत्र लिखा कि ऑक्सीजन खत्म हो रही है। इसका मतलब हुआ कि अस्पताल प्रशासन को 3 अगस्त से ही ऑक्सीजन खत्म होने का पता था। सरकार कह रही है कि 5 अगस्त को अस्पताल को पैसे दिए गए। लेकिन 9 अगस्त तक भुगतान नहीं किया गया। क्यों? जाहिर है, इसके पीछे कहीं न कहीं भ्रष्टाचार है। स्वास्थ्य विभाग कई अन्य विभागों की तरह हमारे देश में भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुका है। एक-एक बिल के भुगतान के लिए घुस देने पड़ते हैं। जाहिर है, गैस आपूर्ति के लिए मिलने वाले बकाये में कइयों का हिस्सा रहा होगा। संभव है कंपनी ने वह हिस्सा नहीं दिया इसलिए उसका समय से भुगतान नहीं हुआ।

न तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी पत्रकार वार्ता में इस पहलू पर बात की, न स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने और न ही चिकित्सा शिक्षा मंत्री आशुतोष टंडन ने। स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह की पत्रकार वार्ता सबसे निराशाजनक रही। वो जितनी देर बोल रहे थे उससे क्षोभ पैदा हो रहा था। बच्चों की मौत वाली इतनी बड़ी त्रासदी पर अफसोस प्रकट करने,उनके परिवार वालों को सांत्वना देने तथा बेहतरी का आश्वासन की जगह वे आंकड़ा गिनाकर यह बताने लगे कि इस मौसम में हर साल प्रतिदिन औसत 18 से 19 मौतें होतीं ही हैं। इसलिए जो मौतें हुईं उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। जरा सोचिए, ऐसी त्रासदी के समय जब देश भर में बच्चों की असमय मौत से गुस्से का माहौल है यदि आप इस तरह का बयान देंगे तो उससे गुस्सा बढ़ेगा या घटेगा? यह तो आग में पेट्रॉल डालने का बयान था। एक ओर घटना पर जांच बिठा दिया गया और दूसरी ओर मंत्री महोदय स्वयं यह कहते रहे कि ऑक्सीजन की कमी से मौत की बातें गलत है। तो फिर जांच का क्या मतलब है? यह वही बयान है जो अस्पताल प्रशासन तथा स्वास्थ्य महकमा उनसे दिलवाना चाहता था। बिना जांच हुए केवल अस्तपाल प्रशासन के कहने पर आपने यह बयान दे दिया! सच सबके सामने है। मृतकों के माता-पिता रोते-रोते बता रहे हैं कि ऑक्सीजन खत्म हो गया था और उनको अम्बू बैग से ऑक्सीजन देने की कोशिश की जाती रही। लोग थक जाते थे। उसमें बच्चों की मौत होने लगी, लेकिन मंत्री महोदय यह मानने को तैयार ही नहीं।

इसका अर्थ यही हुआ कि सरकारें बदल जातीं हैं लेकिन सत्ता का चरित्र आसानी से नहीं बदलता। सत्ता का चरित्र वही रहता है। मंत्री स्वयं मृतकों के परिजनों के पास जाकर उनसे समझने, उनको सांत्वना देने की बजाय, अपने दौरे में स्थानीय प्रशासन तथा अस्पताल प्रशासन से बताकर जो सूचना उनसे मिली उसके आधार पर बयान देने की पतित परंपरा का पालन कर रहे थे। उसमें सच्चाई उनके सामने आ नहीं सकता था। आखिर लोग चुनाव द्वारा सत्ता क्यों बदलते हैं? सत्ता का चरित्र बदलने के लिए ही न। यानी सरकार केवल अधिकारियों की सूचना और उसके परामर्श पर काम न करे। वह जनता से सीधे जुड़े। भाजपा को उत्तर प्रदेश के लोगों ने अपार बहुमत दिया है। उससे उम्मीद है कि वह सत्ता के चरित्र में बदलाव लाएगा। किंतु इतनी बड़ी त्रासदी में उसका रवैया पूर्व सरकारों वाला ही रहा है। किसी मंत्री ने मृतक परिवारों के पास जाने की जहमत नहीं उठाई। यह क्या है? इसका परिणाम है कि उनके पास वास्तविक सूचना नहीं आई। ऑक्सीजन की कमी का आलम तो यह था कि एक डॉक्टर इंसेफेलाइटिस वार्ड के प्रभारी डॉ. कफील खान जिन्हें प्राइवेट प्रैक्टिस करने के कारण अस्पताल से हटा दिया यगा है, छटपटाते हुए जगह-जगह फोन करते रहे। स्थानीय अखबारों की सूचना है कि जब किसी बड़े अधिकारी ने उनका फोन नहीं उठाया या कोई आश्वासन नहीं दिया तो वे अपनी कार लेकर निकल पड़े।  प्राइवेट अस्पतालों में डॉक्टर दोस्तों से मदद मांगी। कार से 12 सिलेंडर लाए। फिर एक कर्मचारी की बाइक पर एसएसबी के डीआईजी के पास पहुंचे। उससे मिन्नतें कीं। वहां से 10 सिलेंडर मिले। सिलेंडर ढोने के लिए एसएसबी ने ट्रक भी भेजा। मोदी केमिकल्स नामक आपूर्तिकर्ता से बात की जिसका ठेका अस्पताल ने रद्द कर दिया था। वह नकद भुगतान पर ऑक्सीजन देने को तैयार हुआ। कहा जा रहा है कि डॉक्टर ने अपना डेबिट कार्ड देकर पैसे निकलवाए। इस प्रसंग की चर्चा यहां इसलिए आवश्यक है ताकि यह पता चल सके कि अस्पताल के अंदर की दशा क्या थी। बिल्कुल आपातस्थिति थी। ऐसी स्थिति में कोई यह दावा करे कि ऑक्सीजन के बिना किसी की मृत्यु नहीं हुई तो इसे कैसे स्वीकार कर लिया जाए।

हम यह नहीं कहते कि इसके पहले वहां मौतें नहीं हुईं हैं। मौत के जो आंकड़े मीडिया में आ रहे हैं वे ही बताने के लिए पर्याप्त हैं कि वर्षों से वहां के लोग इन्सेफ्लाइटिस से अपने बच्चों को मौत के मुंह में जाते देखते रहे हैं। पूर्व की सरकारों को भी जिस तरह युद्ध स्तर पर इस मामले को लेना चाहिए था नहीं लिया गया। इसका एक बड़ा कारण तो यही माना जाएगा कि पूर्वांचल का क्षेत्र वर्षों से उपेक्षित रहा है। अगर वैसी मौतें राजधानी दिल्ली और मुंबई आदि में होने लगे तो पूरी सरकार पैरों पर खड़ी नजर आएंगी। गोरखपुर, देवरिया, कुशीनगर मेें हर वर्ष सैंकड़ों की संख्या में हुई मौतों की गूंज उस रुप में लखनउ या दिल्ली नहीं पहुंचती। सरकार बदलने के बाद स्थिति में बदलाव की उम्मीद थी। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद गोरखपुर और आसपास के लोगों की उम्मीद ज्यादा बढ़ीं। ऐसा नहीं है उन्होंने कुछ नहीं किया, लेकिन जितना और जिस तरह किया जाना चाहिए था नहीं किया है। वैसे भी स्वास्थ्य महकमा हमारे देश में कई तरह की व्याधियों का शिकार है। स्वास्थ्य सेवा किसी सरकार की प्राथमिकता में होनी चाहिए। हमारे देश में यह प्राथमिकता कभी रही नहीं। जाहिर है, गोरखपुर की दिल दहलानेवाली त्रासदी अब भी प्रदेश एवं केन्द्र सरकार की आंखें खोलें तथा वहां की स्थानीय समस्या का तो निदान हो ही पूरी स्वास्थ्य सेवाओं का जीर्णोद्धार किया जाए।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

शनिवार, 12 अगस्त 2017

सुप्रीम कोर्ट ने एनएफएसए का पालन पूरे देश भर में करने का आदेश केंद्र सरकार को दिया, मनरेगा मामले में सुनवाई 5 दिसम्बर को

नई दिल्ली । स्वराज अभियान द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चल रही सूखा राहत याचिका में कई मुद्दे उठाये गये। जिसमें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, मनरेगा, किसानों को लोन, फ़सल नुक़सान मुआवज़ा आदि योजनों के क्रियान्वयन जैसे कई अहम मुद्दे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने 21 जुलाई 2017 को दिए गये हाल ही के आदेश में कई निर्देश जारी किये। जिसमें स्वतंत्र district grievance redress officers को नियुक्त करना, राज्य खाद्य आयोग, Vigilance committees और खाद्य सुरक्षा के तहत खाद्य वितरण सिस्टम के स्वतंत्र ऑडिट की व्यवस्था करनी थी। 

9 अगस्त 2017 की सुनवाई में कोर्ट ने इन सारे निर्देशों को सूखाग्रस्त राज्यों से आगे बढ़ाते हुए पूरे देश भर में लागू करने का आदेश दिया। इस सुनवाई में मुख्य फ़ोकस मनरेगा के क्रियान्वयन पर रहा। 

स्वराज अभियान ने निम्नलिखित बिंदुओं पर ऐफ़िडेविट फ़ाइल किया है: 

1. प्रोग्राम के लिए अपर्याप्त फ़ंड और केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा के लेबर बजट में एक तिहाई से भी ज़्यादा की कटौती।

2. मज़दूरी देने में देरी। 

3. मजदूरी देने में हुई देरी का मुआवज़ा को केंद्र सरकार के लेवल से हटाकर ग्रामीण विकाश मंत्रालय द्वारा मुआवज़ा देने से इंकार। राज्य सरकार की देरी की वजह से मुआवज़े का 6% भी भुगतान नहीं। 

4. सोशल ऑडिट यूनिट के स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए कोई स्वतंत्र फ़ंड नहीं, जो कि सीएजी द्वारा निर्धारित मानक कि मनरेगा के ख़र्च का 0.5% सोशल ऑडिट में ख़र्च होना चाहिये, का भी उल्लंघन है। 

कोर्ट इन मामलों में आगे की सुनवाई 5 दिसम्बर 2017 को करेगा। यह बयान स्वराज अभियान द्वारा नरेगा संघर्ष मोर्चा, राइट टू फ़ूड कैम्पेन और Peoples’ Action for Employment Guarantee के असोसीएशन में जारी किया गया है।

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

अब भाजपा के पास कर दिखाने का अवसर

अवधेश कुमार

वेंकैया नायडू के उपराष्ट्रपति पद संभालने के साथ ही देश के तीन सर्वोच्च संवैधानिक पदों राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री भाजपा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से आए नेताओं के हाथों आ गया है। अगर लोकसभा अध्यक्ष का पद जोड़ दे इसकी संख्या चार हो जाती है। यह कोई सामान्य स्थिति नहीं है। यह एक असाधारण स्थिति है। जब 1980 में भाजपा का गठन हुआ तो उस समय शायद ही किसी ने इस स्थिति की कल्पना की होगी। और तो छोड़िए कुछ वर्ष पूर्व तक यदि यह बात बोली जाती तो कोई आसानी से इसे स्वीकार नहीं करता। 2002 मंे भाजपा के पास मौका था जब अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार थी। किंतु उस समय भाजपा को बहुमत नहीं था एवं इतने राज्यों में सरकारें भी नहीं थीं। इसलिए वाजपेयी एवं आडवाणी ने डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे लाया। हालांकि उप राष्ट्रपति पद पर वे पुराने जनसंघी भैरोसिंह शेखावत को आसीन कराने में सफल रहे। किंतु 2007 में भाजपा उनको राष्ट्रपति बनाने में सफल नहीं हुई। परिस्थितियांें ने करवट बदला और आज भाजपा के तीन नेता बिना किसी जोड़तोड़ के आसानी से अपने बहुमत के आधार पर इन तीनों पदों पर आरुढ़ होने में सफल है। भाजपा की राजनीति की दृष्टि से कुछ विश्लेषकों ने इसे स्वर्णकाल कहा है। स्वर्णकाल हमेशा नहीं रहता। इसलिए इस काल का उपयोग कर लंबे समय की आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में ही बुद्धिमानी है।

वास्तव में तीनों सर्वोच्च पदों पर आसीन होने के बाद भाजपा की जिम्मेवारी और चुनौतियों दोनों बढ़ी हैं। हालांकि राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति पद पर निर्वाचित होने के बाद कोई किसी पार्टी का व्यक्ति नहीं होता, पर विचारधारा तो उसकी कायम रहती है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और प. नेहरु के बीच हिन्दू विधि संहिता पर मतभेद विचारधारा के कारण ही तो था। सच कहा जाए तो भाजपा की परीक्षा की असली घड़ी अब आई है। पहले जनसंघ और बाद मंे भाजपा ने देश के सामने अपना विचार लंबे समय तक रखा है। उसकी विचारधारा से प्रभावित होकर लाखों लोग उसकी पार्टी के साथ जुड़े तथा चुनाव में समर्थन भी दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो 1925 से अपनी विचारधारा का प्रचार और उसके आधार पर अपना विस्तार करता रहा है। आज संघ का काम भारत से बाहर करीब एक सौ देशों में फैला हुआ है। इन सबकी सरकार से अपेक्षाएं हैं। भाजपा पहले यह दलील देती थी कि उसे संसद में बहुमत नहीं है, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दूसरी विचारधरा के हैं, संसद के दोनों सदनों के सभापति उसकी सोच के नहीं हैं, अधिकांश राज्यों में उसकी सरकारें नहीं हैं। भाजपा की यह दलील अब कमजोर हुई है। लोकसभा में तो उसे बहुमत है ही, राज्य सभा में वह सबसे बड़ी पार्टी है तथा 2018 में उसे बहुमत मिलने वाला है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और सदनों के अध्यक्ष के बारे में बताने की आवश्यकता नहीं। देश की दो तिहाई से  ज्यादा आबादी वाले राज्यों में उसका अकेले या सहयोगियों के साथ शासन है। सहयोगियों में भी कई दल उसके अनुकूल हैं। हां, कुछ का विचार अलग है।

कुल मिलाकर यह समय है जब भाजपा यह साबित करे कि उसने जनसंघ के समय से जिस विचार का प्रचार किया है, जिनके प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की है, जिन परिवर्तनों के लिए उसने लोगों से अपने साथ जुड़ने की अपील की है, आजादी से लेकर आज तक जिन नीतियों की आलोचना कर उसके समानांतर नीतियों की बात की है उन सबको वह भूली नहीं है। उन सबको लागू करने के प्रति वह आज भी कटिबद्ध है। इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जिम्मेवारी ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि मातृसंगठन वही है और उसके सारे अनुषांगिक संगठन अंततः उसकी ओर ही देखते हैं। भाजपा और संघ का जब भी नाम लिया जाता है मुख्यतः तीन मुद्दों की चर्चा होती है- समान नागरिक संहिता, अनुच्छेद 370 का अंत तथा अयोध्या में विवादित स्थल पर श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण। 1989 और 1991 के चुनाव में भाजपा का नारा ही था, रामलला हम आएंगे मंदिर वही बनाएंगे। दो मुद्दों ने भाजपा को 1984 के दो सीटों से लेकर 1996 तक देश की सबसे बड़ी पार्टी बना दिया वह था राममंदिर और स्वदेशी। लेकिन भाजपा का बाद में नारा बदल गया। वह कहने लगी कि राममंदिर हमारे लिए चुनाव और राजनीति का मुद्दा नहीं आस्था का मुद्दा है। इससे उसके कार्यकर्ताओं और समर्थकों में निराशा फैली तथा भाजपा उफान से फिर ढलान पर आने लगी। बड़े विकल्प के अभाव में वह सीटें जीततीं रहीं लेकिन उसके प्रति कार्यकर्ताओं का वह उत्साह और समर्थन नहीं रहा जो 1989, 1991, 1996 एवं कुछ हद तक 1998 तक था। भाजपा के नेता यह समझ नहीं सके कि 2004 में वे चुनाव क्यों हारे। वे अपने-आपसे प्रश्न करते थे कि उन्होंने तो अच्छा काम किया फिर उनके साथ जनता क्यों खड़ी नहीं हुई?वे यह भी नहीं समझ सके कि 2009 में वोट फॉर नोट जैसा कांड होने के बावजूद वे लोगों को अपने लिए वोट देेने को प्रेरित क्यों नहीं कर सके।

इसका उत्तर वाजपेयी सरकार की नीतियों में निहित था। उसने आम सरकारों की कसौटियों पर तो अच्छा काम किया, लेकिन भाजपा एवं संघ परिवार की कसौटियों पर नहीं। उस काल में विश्व हिन्दू परिषद से लेकर, भारतीय मजूदर संघ, भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच ...सब सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरते थे। अनेक बड़े प्रचारकों ने संगठन छोड़कर अपना अलग रास्ता बनाया। इनकी संख्या कम नहीं थी। इतना व्यापक असंतोष उसके खिलाफ हो गया था। नरेन्द्र मोदी के आगमन ने इस पूरी स्थिति में आमूल बदलाव कर दिया। सबको एक उम्मीद की किरण दिखी तथा पूरा परिवार फिर से एकजुट हुआ और इसका असर जनता पर भी पड़ा। इस बार संगठन परिवार ने वाजपेयी के समय से ज्यादा धैर्य दिखाया है। किंतु अब सरकार की जिम्मेवारी है कि वह उनकी अपेक्षाओं को पूरा करे जो उसका मूल दायित्व है। जिन तीन मुद्दों की हमने चर्चा की वो भाजपा और संघ परिवार की समग्र विचाधारा के केवल तीन प्रतीक है। साकार तो उसे भी इन्हें करना है, पर वे ही पूर्ण विचारधारा नहीं हैं। जनसंघ और भाजपा का विचार देखें तो वे देश में आमूल बदलाव के लिए पैदा हुए थे। इसका यहां पूरा विवरण नहीं दिया जा सकता। कुछ बातें रखीं जा सकतीं हैं। उदाहरण के लिए वे देश की शिक्षा प्रणाली में ऐसा आमूल बदलाव चाहते थे ताकि इससे केवल नौकरी करने वाले नहीं रविन्द्रनाथ टैगोर तथा विवेकानंद जैसे व्यक्तित्व पैदा हो। फिर उसके अनुसार जीवन शैली और अर्थनीति। क्या यह सरकार वैसा कर सकेगी? वे देश को विदेशी सभ्यता के प्रभावों से पूरी तरह मुक्त करने का वायदा करते थे? क्या इसके लिए उनके पास कार्ययोजना है? राष्ट्र को सांस्कृतिक अधिष्ठान मानने की बात करते थे? राष्ट्र की परिभाषा और अवधारणा को लेकर ही हमारे देश में व्यापक मतभेद है उसे दुरुस्त करने का वायदा जनसंघ और भाजपा का रहा है। अर्थनीति में यह प्रकृति के साथ जुड़ी हुई प्रणाली की बात करती थी। इसमें समाज को पूंजीवादी भोग वर्चस्व व्यवस्था से बाहर निकालने तथा संयम और त्याग वाल भारतीय जीवन प्रणाली अपनाने के लिए काम करने की बात थी। दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानव दर्शन इन सबका दर्पण है।

देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार विचार में संशोधन और परिवर्तन होते हैं, पर इसके मूलतत्व वही रहते हैं। पूरी दुनिया बदली है। किंतु दुनिया उस अनुसार नहीं बदली है जैसी उसे बदलनी चाहिए। एक निर्धारित योजना की तरह दुनिया नहीं बदली है। साम्यवादी व्यवस्था के ध्वस्त होने के बाद बाजार पूंजीवादी व्यवस्था सर्वस्वीकृत अर्थव्यवस्था बना दी गई है। भाजपा को सोचना है कि वह उसी का अनुसरण करते हुए उसकी धारा में बहने की जो वर्तमान नीति है उसी पर कायम रहे या फिर उसमें बदलाव लाकर अपनी विचारधारा के अनुरुप काम करने की कोशिश करे। वस्तुतः अब भाजपा के पास अवसर है कि वह अपने पुराने वायदांें और विचारों को साकार करने की दिशा में काम करके अपनी प्रतिबद्वता दिखाए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

शनिवार, 5 अगस्त 2017

हुर्रियत के खिलाफ सबसे बड़ी कार्रवाई

 

अवधेश कुमार

हुर्रियत नेताओं पर जिस तरह का कानूनी शिकंजा अभी कसा गया है वैसा इनके खिलाफ कभी नहीं हुआ। हुर्रियत कॉन्फ्रंेस के महासचिव  शब्बीर शाह तो प्रवर्तन निदेशालय की गिरफ्त में आए ही हैं, सात अलगाववादी नेताओं को राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआईए ने गिरफ्तार किया है, कुछ नेताओं की आगे गिरफ्तारी हो सकती है। एनआईए ने सैयद अली शाह गिलानी के पुत्रों से भी पूछताछ करने की घोषणा कर दी है तथा 48 आदतन पत्थरबाजों की पहचान की है जिन्हें कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हाल के महीनों में कश्मीर में हिंसा और अशांति के समानांतर केन्द्र सरकार ने एनआईए एवं अन्य एजेंसियों को इनके पीछे की ताकतों की ठीक से पहचान कर उनके खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई की हरि झंडी दे दी थी। बिना सरकार की खुली छूट के इतनी बड़ी कार्रवाई संभव नहीं थी। जिस ढंग से कार्रवाई चल रही है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हुर्रियत नेताओं के अलगाववाद का हीरो बनने के दिन जाने वाले हैं और उनके बुरे दिन आ गए हैं। अभी तक वे हिरासत में लिए जाते या गिरफ्तार होते थे छूटते थे। यह उनके लिए एक सामान्य क्रम जैसा हो गया था। सभी मान चुके थे कि वो चाहे जितना देश विरोध हरकत करें, पाकिस्तान के एजेंडा को लागू करने का जूर्म करें उनका कोई सरकार कुछ बिगाड़ नहीं सकती। लग रहा है उनका यह  मुगालता अब खत्म होने वाला है।

शब्बीर शाह को हवाला के जिस मामले में गिरफ्तार किया है वह 2005 का है। अभी लगता है कि यह मामला हवाला तक ही सीमित रहेगा। ऐसा नहीं है। हवाला से धन क्यों लिया और किससे लिया इन्हीं दो प्रश्नों में आगे की कार्रवाई निहित है। आपने यदि कश्मीर में अशांति और तोड़फोड़ के लिए पाकिस्तान का धन हवाला के जरिए लिया तो फिर यह केवल हवाला का मामला नहीं रह जाता आतंकवाद का भी मामला हो जाता है। इसलिए यह संभव है इनका मामला आने वाले समय में एनआईए को भी मिले। तो थोड़ा इंतजार करिए। लेकिन जिन सात नेताओं की गिरफ्तारी एनआई ने की है उन पर आरोप ही अवैध तरीके से धन लेकर आतकवाद के वित्तपोषण करने का है। इनमें जिन नेताओं की गिरफ्तारी हुई उनके बारे में जानकारी न होने से पहली नजर में लगता है कि ये शायद अत्यंत साधारण एवं निचले स्तर के कार्यकर्ता होंगे। ऐसा नहीं है। बिट्टा कराटे, नईम खान, अल्ताफ अहमद शाह (अल्ताफ फंटूश), अयाज अकबर, टी. सैफुल्लाह, मेराज कलवल और शहीद-उल-इस्लाम सभी खूंखार नाम हैं। बिट्टा कराटे एक समय बड़ा आतंकवादी और यासिन मलिक का साथी था। आज भी यासिन मलिक के संगठन जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट में उसका दाहिना हाथ है। अल्ताफ हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के एक धड़े के प्रमुख सैयद अली शाह गिलानी का दामाद हैं। अयाज अकबर भी सैयद अली शाह गिलानी का करीबी है तथा तहरीक-ए-हुर्रियत का प्रवक्ता भी हैं। शहीद-उल-इस्लाम भी मीरवाइज उमर फारुख वाले हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के धड़े का प्रवक्ता है। इसलिए ये मत मान लीजिए कि एनआईए ने कुछ छोटे-मोटे कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई की है। एनआईए ने यूं ही इन्हें गिरफ्तार भी नहीं किया है। जब से आतंकवाद के वित्तपोषण या पत्थरबाजों को धन देने का मामला सामने आया, उसकी जांच आरंभ हुई एवं एनआईए का हाथ इन तक पहुंचा। मई महीने के अंत में एनआईए ने नईम खान, गाजी जावेद बाबा और बिट्टा कराटे को दिल्ली बुलाकार पूछताछ की थी। पता नहंी पूछताछ में उन्होंने क्या कहा। खबर यह आई कि उन्होंने पाकिस्तान से धन आने की बात मानी थी। मई में ही एनआईए ने तहरीक-ए-हुर्रियत के नेता बाबा और कराटे से श्रीनगर में लगातार 4 दिनों तक पूछताछ की थी। उनसे कश्मीर में हिंसा के लिए हवाला से धन आने संबंधी प्रश्न किए गए थे। एनआईए ने प्राथमिकी में जो आरोप इन पर लगए हैं उनमें कश्मीर में सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने, स्कूलों और अन्य सरकारी संस्थानों को जलाने, पत्थरबाजों से हमले करवाने सहित अन्य विध्वंसक गतिविधियों के लिए लश्कर ए तैयबा के प्रमख हाफिज सईद, अन्य आतंकवादी संगठनों एवं आइएसआइ से धन मिलने की बात है।

 एक न्यूज चैनल ने भी 16 मई को स्टिंग ऑपरेशन प्रसारित किया था। हुर्रियत नेता नईम खान को स्टिंग ऑपरेशन में लश्कर से पैसे लेने की बात कबूल करते दिखाया गया था। खान रिपोर्टर से यह कहते नजर आए थे कि पाकिस्तान से आने वाला पैसा सैकड़ों करोड़ से ज्यादा है, लेकिन हम और ज्यादा की उम्मीद करते हैं। हालांकि बाद में खान ने स्टिंग को फर्जी करार दिया था। ध्यान रखिए एनआइए ने 19 मई को ही मामला दर्ज किया था। उसके बाद 3 जून को देश में 24 जगहों कश्मीर में 14, दिल्ली में 8 और हरियाणा के सोनीपत में 2 जगहों पर छापे मारे गए थे। जिनके ठिकानों पर छापे मारे गए उनमें गिलानी के दामाद अल्ताफ फंटू्श, बिजनेसमैन जहूर वटाली, अवामी एक्शन कमेटी के नेता शाहिद-उल-इस्लाम, नईम खान, राजा कालवाल और दिल्ली में ग्रेटर कैलाश पार्ट-2 में रहने वाले ड्राई फ्रूट व्यापारी मानव अरोड़ा आदि शामिल हैं। इनके घरों, कार्यालयों के अलावा उनके वाणिज्यिक ठिकानों पर भी छापेमारी हुई। दिल्ली में 8 हवाला करोबारियों के खिलाफ भी कार्रवाई की गई थी। कश्मीर में छापेमारी के दौरान 2 करोड़ रुपए और अवैध संपत्तियों से जुड़े कागजात जब्त किए जाने की बात सामने आई थी। साथ ही लश्करे-तैयबा और हिजबुल मुजाहिदीन के लेटरहेड्स, लैपटॉप, पेन-ड्राइव्स भी मिले थे।

वस्तुतः पिछले वर्ष आठ जुलाई को आतंकवादी बुरहान वानी के मुठभेड़ में मरे जाने के बाद घाटी में पथराव और हिंसा के मामलों में काफी बढ़ोत्तरी हुई थी। इसकी विस्तृत जांच की गई और निष्कर्ष में जो तथ्य आए उसके आधार पर आगे की कार्रवाई हो रही है। एनआइए को अलगाववादी नेताओं और जांच में घेरे में रहे आदतन पत्थरबाज 4 दर्जन कश्मीरी युवाओं के बीच बातचीत के ठोस सबूत मिले हैं। टेलिफोन पर हुई बातचीत से पता चलता है कि कुल 48 आदतन पत्थरबाज स्थानीय  हुर्रियत नेताओं के संपर्क में थे और ये नेता भी इस दौरान बड़े अलगाववादी नेताओं के संपर्क में थे। जांच में आतंकवादी फंडिंग के मॉड्यूल का भी पता चला है। बड़े अलगाववादी नेता स्थानीय नेताओं को फंड देते थे। इसके बाद, ये नेता पत्थरबाजी और हिंसा को बढ़ावा देने के लिए युवाओं को पैसे देते थे। पत्थरबाजी वाली जगहों पर ऐक्टिव रहे फोन नंबरों की जांच करने पर पता चलता है कि इनका इस्तेमाल सुरक्षाबलों और आतंकवादियों के बीच मुठभेड़ में बाधा डालने के लिए किया गया। एनआइए ने अपनी जांच में पाया है कि सभी घटनाओं में कुछ सामान्य लोग ही शामिल थे। कुछ ऐसे लोग भी थे, जो अलग-अलग आठ जगह हुई घटनाओं के दौरान मौजूद थे। पुलवामा, अनंतनाग, बड़गाम, कुलगाम, त्राल, अवंतिपुरा, शोपियां और बारामूला जैसी जगहों पर मौजूद रहे युवाओं की जांच करने के बाद एनआइए ने 48 आदतन पत्थरबाजों की सूची तैयार की। इनके खिलाफ भी कार्रवाई आरंभ होगी। एनआईए के पास इन पत्थरबाजों के नाम, मोबाइल नंबर, वर्तमान पता, ट्रू कॉलर पहचान आदि की पूरी जानकारी है। छानबीन की जो जानकारी बाहर आई है उसके अनुसार बुरहान के अंत के बाद घाटी में संगठित तरीके से भीड़ के जरिए हिंसक वारदात को अंजाम दिया गया।

एनआइए की अब तक की गई जांच निष्कर्ष का अर्थ यह है कि 1990 के दशक के खूंखार आतंकवादी अब नई भूमिका में हैं। वस्तुतः1990 के दशक में हिज्बुल मुजाहिदीन और अन्य आतंकवादी संगठनों के साथ जुड़कर आतंकवाद फैलाने वाले बहुत से लोग अब कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों के लिए वित्त मुहैया कराने वाले नेटवर्क का हिस्सा बन गए हैं। हालांकि पहली बार यह सामने नहीं आया है। इसका प्रमाण 2011 में तब मिला जब एनआइए ने सैयद अली शाह गिलानी के कानूनी सलाहकार गुलाम मोहम्मद बट को गिरफ्तार किया था। याद करिए 2010 में कश्मीर में विरोध प्रदर्शनों और पत्थरबाजी का कितना भयानक दौर चला था। उस दौरान ही यह स्पष्ट हुआ था कि बट को 2009 से जनवरी 2011 के बीच पाकिस्तान से दो करोड़ रुपये से अधिक की रकम हवाला के जरिए मिली थी। उस दौरान जितनी कड़ाई से मामला बनना चाहिए था नहीं बना, फिर भी सुनवाई अभी चल रही है। इसका एक बड़ा उदाहरण मोहम्मद मकबूल पंडित है, जो दो दशक पहले पाकिस्तान भाग गया था और अब वहीं रहता है। कहा जा रहा है कि वह बट के जरिए गिलानी को रकम पहुंचाने वाले नेटवर्क को संभालता है। 2007 में श्रीनगर जा रही एक टाटा सूमो की ऊधमपुर में तलाशी लेने पर सीएनजी सिलेंडर में छिपाकर रखे गए 46 लाख रुपये बरामद हुए थे। पूछताछ में पता चला था कि वह रकम बट ने दी थी और उसे श्रीनगर में इसे खुद लेकर गिलानी को सौंपना था। बट के ठिकाने पर छापा मारा गया था, लेकिन पता नहीं क्यों तब यह मामला आगे नहीं बढ़ सका। 2011 में बट को श्रीनगर में बेमिना बायपास पर रकम लेते रंगे हाथ पकड़ा गया था। उसके साथ मोहम्मद सिदीक गिनाई नाम का व्यक्ति भी था, जो 1990 के दशक में पाकिस्तान भाग गया था। गिनाई ने बाद में बताया कि उसे पाकिस्तान में आइएसआइ ने प्रशिक्षण दिया था।  इनसे संबंधित एनआइए के आरोप पत्र में कहा गया है कि गिनाई और मकबूल ने मिलकर अलगाववादियों को रकम पहुंचाने का काम शुरू किया था।

यह 2007 और 2011 नहीं 2017 है। इस समय पूरे देश में हुर्रियत के खिलाफ वातावरण है और लोग कार्रवाई चाहते हैं। एनआइए जिस ढंग से आगे बढ़ रही है उससे लगता है कि पाकिस्तानी धन पर कश्मीर में हिंसा और अलगाववाद फैलाने वाले नेता बुरी तरह घिर चुके हैं। एनआइए का मतलब ही है आतंकवादी गतिविधियों के मामले में कार्रवाई। उसका गठन ही इसीलिए हुआ था। यह कोई सामान्य पुलिस कार्रवाई नही है जिससे इनके छूटने की संभावना बने। आतंकवादी संगठनों या आइएसआइ से धन लेकर हमारे देश में विघटकारी गतिविधियां चलाने वाले देशद्रोहियों की जगह जनता के बीच नहीं जेल है और वहीं सभी के जाने का आधार बन रहा है।

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