शनिवार, 29 जुलाई 2017

बिहार में सत्ता बदल को कैसे देखें

 

अवधेश कुमार

नीतीश कुमार द्वारा बिहार विधानसभा में बहुमत प्राप्त करने के साथ बिहार की राजनीति पूरी 360 डिग्री तक मुड़ चुकी है। हालांकि नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री थे और हैं भी। किंतु इस थे और हैं में बहुत बड़ा अंतर आ गया है। पहले वे महागठबंधन के भाग थे और अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के। यह कहा जा सकता है कि इसके पूर्व भी वे 16 जून 2013 तक राजग के भाग थे यानी भाजपा के साथ थे। चार वर्ष बाद फिर से वे वहीं लौट गए हैं। तो नीतीश कुमार की बिहार की सत्ता की राजनीति फिर से वहीं आ गई हैं जहां से आरंभ हुई थी। वास्तव में नीतीश कुमार के आलोचक यह न भूलें कि उन्होंने करीब 17 वर्षों तक बिहार में भाजपा के साथ मिलकर राजनीति की और वह राजनीति लालू प्रसाद यादव के खिलाफ थी। भाजपा में नरेन्द्र मोदी का विरोध करते हुए वे अलग हुए तथा 2014 का लोकसभा चुनाव बुरी तरह हारे। लालू प्रसाद यादव की पार्टी भी हारी और और कांग्रेस भी। इसमंें अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने की विवशता के तहत नीतीश कुमार ने लालू यादव का हाथ थामा और लालू को भी लगा कि इसके अलावा भाजपा से मुकाबला करने का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। इस तरह नीतीश का लालू यादव के साथ आना एक ऐसी राजनीतिक विवशता की पैदाइश थी जो नीतीश कुमार ने स्वयं पैदा की थी।

 कहा जा सकता है कि नीतीश ने जो राजनीतिक विवशता स्वयं पैदा की थी उसे जब खत्म कर दिया तो बिहार में चार वर्ष पूर्व की स्थिति कायम हो गई। लेकिन प्रश्न है कि आखिर उस राजनीतिक विवशता को खत्म करने यानी भाजपा के साथ आने का कारण क्या था? नीतीश कुमार जब राजद एवं कांग्रेस के साथ गठबंधन का नेतृत्व कर रहे थे उनके पास 243 सदस्यों की विधानसभा में 178 विधायकों का साथ था जबकि अब उनके पास केवल 131 विधायकों का समर्थन है। तो संख्याबल के हिंसाब से वो कमजोर हुए हैं। यह बात अलग है कि विधानसभा में बहुमत से यह आंकड़ा ज्यादा है। जो लोग यह आरोप लगाते हैं कि नीतीश ने सिर्फ सत्ता के लिए पाला बदला है वे इस बात का ध्यान नहीं रखते कि सत्ता की बागडोर तो उनके हाथों में थी ही। राजद या कांग्रेस उनसे नेतृत्व छीनने नहीं जा रही थी। किसी ने उनकी कार्यशैली पर कोई प्रश्न नहीं उठाया था। वास्तव में नीतीश कुमार पर यह तोहमत तो लगाया जा सकता है कि उन्होंने जिस भाजपा एवं नरेन्द्र मोदी की तीखी आलोचना की थी, भाजपा के साथ कभी नहीं आने का ऐलान किया था अचानक अपने सारे वक्तव्यों को दरकिनार कर वे भाजपा के साथ आ गए हैं। साफ है कि इससे संबंधित सवाल लंबे समय तक उनका पीछा नहीं छोड़ेंगे। ऐसे सवालों का संतोषजनक जवाब देने में उन्हें हमेशा कठिनाई होगी। यह भी कहा जा सकता है कि संभवतः भाजपा के साथ जाने से उनकी सरकार कायम रहने की संभावना न होती तो वे ऐसा करने से पहले सौ बार विचार करते किंतु केवल सत्ता की लालच मेें पाला बदलने के आरोपों को स्वीकार करना कठिन है। तो फिर?

एक कारण बिल्कुल सामने है। जब तक प्रवर्तन निदेशालय एवं आयकर विभाग का हाथ लालू परिवार के दूसरे सदस्यांे तक पहुंचा था तब तक नीतीश के लिए ज्यादा समस्या नहीं थी। किंतु जब सीबीआई का हाथ तेजस्वी यादव तक पहुंच गया तो नीतीश के सामने धर्म संकट पैदा हो गया। एक ऐसा व्यक्ति, जिसके खिलाफ गलत तरीके से संपत्ति बनाने के मामले में सीबीआई ने प्राथमिकी दर्ज की, जिसके खिलाफ बड़े छापे की कार्रवाई हुई उसे अपने मंत्रिमंडल में वे कैसे बनाए रखते जबकि इसके पूर्व सरकार में आरोप लगने पर उन्होंने अपने मंत्रियों का त्यागपत्र ले लिया था। जाहिर है, उन्होंने भले खुलकर तेजस्वी से इस्तीफा नहीं मांगा लेकिन यदि उनके तथा लालू प्रसाद यादव के वक्तव्य को देखा जाए तो यह साफ हो जाता है कि दोनों के बीच इस विषय पर लगातार बातचीत हो रही थी। उनके बीच क्या बातचीत हुई यह पूरी तरह सार्वजनिक नहीं हुआ है। हां, जद यू के प्रवक्ताओं ने यह बयान अवश्य दिया कि तेजस्वी यादव पर जो आरोप लगे हैं उसके बारे में वे विन्दूवार जनता के सामने अपना स्पष्टीकरण दें। इसके समानांतर लालू परिवार और राजद के प्रवक्ता केवल यह कहते रहे कि सारी कार्रवाई राजनीतिक बदले की भावना से की जा रही है। यानी भाजपा सरकार सीबीआई का उनके खिलाफ दुरुपयोग कर रही है। सीबीआई के प्रवक्ता ने साफ कहा था कि जब उनके पास मामला आया तो पहले उसकी प्राथमिक छानबीन की गई। उनमें प्रथमदृष्ट्या गड़बड़ी दिखने के बाद प्राथमिकी दर्ज की गई।

नीतीश कुमार ने स्वयं को ईमानदारी एवं नैतिकता के जितने उंचे पायदान पर अपने को खड़ा किया है उसमें उनके लिए ऐसे व्यक्ति को अपना उपमुख्यमंत्री बनाए रखना आसान नहीं था। जैसा नीतीश कुमार ने कहा कि उन्होंने राहुल गांधी तथा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष से भी बातचीत की, पर कोई रास्ता नहीं निकला। राजद ने अपने विधायकों की बैठक के बाद बिल्कुल स्पष्ट कर दिया कि तेजस्वी यादव विधानमंडल के नेता बने रहेंगे। यह नीतीश के स्वयं द्वारा बनाए गए मापदंडों के विपरीत स्थिति थी। ठीक है कि नीतीश कुमार ने तेजस्वी से इस्तीफा नहीं मांगा था, पर संकेत साफ था। जिन संपत्तियों को लेकर तेजस्वी यादव को घेरे में लाया गया था उसके बारे में विन्दूवार सफाई देना उनके लिए कठिन था। अगर यह इतना ही आसान होता तो सीबीआई के छापे के बाद लालू यादव ने जो पत्रकार वार्ता रांची में की उसी में वे सब कुछ साफ कर चुके होते। नीतीश कुमार के सामने स्पष्ट हो गया था कि लालू परिवार किसी सूरत में उनकी बात मानने वाला नहीं है। उनके सामने एक रास्ता तेजस्वी यादव को बरखास्त करने का था। इससे एक दूसरा राजनीतिक संकट पैदा हो जाता। इसलिए उन्होेंने अपना पद त्याग कर दिया। नीतीश कुमार ने इस्तीफा देने के बाद तथा विधानसभा में विश्वासमत हासिल करते समय जो कुछ कहा उससे यह भी साफ है कि गठबंधन के अंदर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था। उन्होंने कहा कि उनको निर्णय करने तक से रोका गया, उन्हें काम करने में बाधा डाली गई। सच यही है कि बिहार में सत्ता के दो केन्द्र हो गए थे। किसी पद पर न रहते हुए भी लालू यादव सत्ता के दूसरे केन्द्र थे। वो सीधे सरकारी अधिकारियों को फोन करते थे या अपने आवास पर बुलाकर आदेश देते थे। कुख्यात बाहुबली शहाबुद्दीन के साथ फोनवार्ता का जो स्टिंग सामने आया उसे ही याद करिए। शहाबुद्दीन सीवान के पुलिस अधीक्षक के बारे में शिकायत कर रहा है और लालू यादव अपने सहयोगी को कह रहे हैं कि एसपी को फोन लगाओ तो। यह एक घटना केवल उदाहरण मात्र है। नीतीश कुमार ने निश्चय ही यह तुलना की होगी कि भाजपा के साथ जब वे सरकार चला रहे थे तो वे अकेले नेता थे, सत्ता का एक केन्द्र था और उनके निर्णय के रास्ते कोई समस्या कभी नहीं आई। ऐसे में उनने दूसरे विकल्प को चुनने का रास्ता अपनाया और भाजपा से संपर्क किया। 

यह माना जा सकता है कि अगर भाजपा से उनको समर्थन की हरि झंडी नहीं मिलती तो शायद वो अभी कुछ दिनों और मामले को खींचते। किंतु यह भाजपा का बदला हुआ नेतृत्व है। नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी तत्काल फैसले करती है। संपर्क और संवाद पहले से कायम था। केवल साथ आने की घोषणा बाकी थी। जैसी परिस्थितियां बन रहीं थीं उसमें यदि त्वरित फैसला नहीं किया जाता तो फिर विधायकों के तोड़फोड़ की संभावना बन जाती। इसलिए भाजपा ने पहले तो तीन सदस्यीय समिति बनाई कि विधायकों से विचार-विमर्श कर फैसला करेगा। फिर उसने देखा कि इसमें समय लगेगा और स्थिति पलट सकती है। इसलिए आनन-फानन में सरकार में साथ आने का ऐलान कर दिया गया। इसके बाद राज्यपाल के सामने भी कठिनाई नहीं थी, क्योंकि दोनों को मिलाकर बहुमत का आंकड़ा पार कर जाता था। आज आप नीतीश कुमार के लिए जो विशेषण दे दीजिए। यह प्रश्न तो उठेगा कि भाजपा को उनके साथ जाना चाहिए था या नहीं, किंतु गठबंधन तोड़ने के लिए उनको दोषी ठहराना एकपक्षीय निष्कर्ष होगा। आखिर गठबंधन बचाने की जिम्मेवारी राजद एवं कांग्रेस दोनों की थी। यदि तेजस्वी यादव को मंत्रिमंडल से हटा ही दिया जाता तो क्या पहाड़ टूट पड़ता। उससे नीतीश कुमार के लिए तत्काल बाहर निकलना कठिन हो जाता। ऐसा नहीं किया गया। इसके विपरीत लालू यादव का बयान है कि जद यू के प्रवक्त या नेता कोई ऑथोरिटी हैं कि हम उनके सामने स्पष्टीकरण देते। हमें जो स्पष्टीकरण देना है वह सीबीआई को देंगे। तो इसमें आप केवल नीतीश को कैसे दोषी ठहरा सकते हैं?

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208 

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

राहुल गांधी का चीनी राजदूत से मिलना

 

अवधेश कुमार

कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी की चीन के राजदूत से मुलाकात निश्चय ही गहरे विवाद का विषय है। विवाद हुआ भी लेकिन श्रीअमरनाथ यात्रियों पर आतंकवादी हमले के कारण यह उतना तूल नहीं पकड़ सका जितना पकड़ सकता था। वास्तव में राहुल गांधी के इस कदम पर देश के ज्यादातर विवेकशील लोग हतप्रभ हैं। ऐसे समय जब दोनों देशों के बीच तनातनी ही नहीं है, चीन की ओर से 1962 की याद दिलाने से लेकर ज्यादा लाशें भारत की बिछेंगी जैसी बातें तक कही जा रही हैं, पूरे देश में चीन के खिलाफ गुस्सा है.... उसमें भारत का कोई विपक्षी नेता जाकर चीन के राजदूत से मिले तो देश हतप्रभ होगा ही। कांग्रेस देश की सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली पार्टी है। उसे ऐसे मामलों की संवेदनशीलता का अहसास होना चाहिए। राहुल गांधी के मिलने का मतलब कांग्रेस की सोच पर संदेह होना है। हालांकि कांग्रेस के कुछ नेताओं का इसके गहरे नकारात्मक संबंधों का अहसास था तभी तो उन्होंने आरंभ में इस मुलाकात से ही इन्कार किया लेकिन सच सामने आने के बाद ऐसे इन्कार का कोई अर्थ नहीं रह गया था।

आखिर राहुल गांधी चीनी राजदूत लुओ झाओहुई से मिलकर क्या जानना चाहते थे? कांग्रेस ने इस घटना पर पैदा होने वाले बवाल को कम करने के लिए कहा कि यह राजनयिकों से होने वाली सामान्य मुलाकात का हिस्सा था। कांग्रेस के अनुसार राहुल गांधी ने भारत में भूटान के राजदूत और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन से भी मुलाकात की थी। पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा कि सार्वजनिक जीवन में कांग्रेस उपाध्यक्ष के नाते राहुल राजनयिकों से लेकर तमाम लोगों से मिलते-जुलते हैं। निस्संदेह मिलते-जुलते रहते हैं और आम मुलाकातों में कोई समस्य भी नहीं है। किसी ने शिवशंकर मेनन से मुलाकात पर प्रश्न नहीं उठाया है। वे वर्तमान सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मिलते तब भी प्रश्न नहीं उठता।  किंतु वर्तमान समय में चीन के राजदूत से मुलाकात को किसी दृष्टि से सामान्य घटना नहीं माना जा सकता। वर्तमान भारत चीन तनाव को 1962 के बाद का सबसे बड़ा तनाव माना जा रहा है। चीन भारत को रणनीतिक रुप से कमजोर करने के लिए चुंबी घाटी में स्थित भूटान के डोकलाम इलाके में जबरन सड़क बनाने पर अड़ा है। यह भूटान के जमीन को हड़पना है। भारत द्वारा इसका विरोध किया जाना स्वाभाविक है। भारत के जवानों ने उसको सड़क बनाने से रोक दिया तभी से वह आग बबूला है और अपने समाचार माध्यमों से जितनी धमकी दे सकता है दे चुका है। ऐसे में आप वहां के राजदूत से मिलकर क्या जानना चाहते थे? क्या चीन का राजदूत अपने देश की नीति से अलग कोई बात कहेगा? वैसे भी भारत में रहते हुए चीन के राजदूतों ने भारत विरोधी बयान देने से कभी परहेज नहीं किया है। अरुणाचल को उसके ज्यादातर राजदूत अपना क्षेत्र बता चुके हैं।

राहुल गांधी का जवाब देखिए। वे कहते हैं कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर जानकारी लेना मेरा काम है। अगर सरकार चीनी राजदूत से मेरी मुलाकात को लेकर इतनी ही चिंतित है, तो उसे इस बात का जवाब भी देना चाहिए कि सीमा पर विवाद के रहते तीन मंत्री क्यों चीन की यात्रा पर गए? इस जवाब को क्या कहेंगे? सरकार की एक भूमिका होती है। तनाव के बावजूद यदि कोई कार्यक्रम पहले से तय है तो जब तक आरपार की स्थिति नहीं बनती आम यात्राओं और कार्यक्रमों को रोकने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। भारत ने अपनी ओर से चीन को सड़क बनाने से रोक दिया और उसके बाद वह यह दिखाना चाहता है कि हम चीन से सामान्य संबंध बनाए रखे हुए हैं। इसलिए मंत्रियों की यात्राओं या फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हैम्बर्ग में चीनी राष्ट्रपति शि जिनपिंग से अनौपचारिक मुलाकात को अन्यथा नहीं लिया जा सकता। इसका यह अर्थ नहीं कि कोई विपक्षी नेता चीनी राजदूत से मिले यह जानने के लिए कि मसला क्या है। देश में सवाल उठा रहा है कि क्या राहुल को इन मामलों पर अपनी सरकार पर विश्वास नहीं है? क्या उन्हें लगता है कि सरकार के किसी मंत्री, अधिकारी से ज्यादा विश्वस्त चीन का राजदूत हो सकता है? राहुल गांधी और कांग्रेस को इसका जवाब देना होगा। उनको यह बताना चाहिए कि आखिर मुलाकात का निर्णय किन परिस्थितियों में और किनके सुझावों पर किया गया? वे इससे क्या लक्ष्य पाना चाहते थे? अंततः चीनी राजदूत से बातचीत में उन्हें क्या मिला?

कांग्रेस नेता की मुलाकात शायद मीडिया में आती भी नही। लेकिन चीनी दूतावास ने अपनी साइट पर राहुल से आठ जुलाई को अपने राजदूत के मिलने की जानकारी दी। उसके बाद तूफान खड़ा होना ही था। लोगों को यह समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर राहुल ने ऐसा क्यों किया। जिस माकपा को चीन का समर्थक माना जाता है उसने भी इस समय ऐसा करने से परहेज किया है। तो फिर राहुल ही क्यों? जब यह सवाल उठने लगा तो कांग्रेस मीडिया विभाग के प्रमुख रणदीप सुरजेवाला ने इस खबर को ही गलत करार दे दिया। यह राहुल के बचाव में बोला गया झूठ था। लेकिन प्रश्न था कि चीनी दूतावास गलत जानकारी अपनी साइट पर क्यों देगा? हालांकि सुरजेवाला के बयान के बाद चीनी दूतावास ने भी अपनी वेबसाइट से इस सूचना को हटा लिया। तब तक यह खबर आग की तरह फैल गई थी। इसलिए बाद में पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी ने मुलाकात की पुष्टि कर दी। जाहिर है, कांग्रेस के कुछ नेताओं को भी अहसास है कि राहुल गांधी का यह कदम सही नहीं था। इसलिए उन्होंने इसे आरंभ में नकारने की ही कोश्शि की। हालांकि जब उन्होंने मुलाकात की तो सरकार की खुफिया विभाग के पास तो इसकी जानकारी आई ही होगी। कांग्रेस अगर इन्कार करती तो सरकार इस खबर को जारी कर सकती थी। इसलिए कांग्रेस के सामने इन्कार का कोई विकल्प बचा ही नहीं था। 

जो खबरें हैं उनके अनुसार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इसे कदम को गलत करार देकर राहुल से नाखुशी तक जाहिर की है। हालांकि यह सब पर्दे के अंदर ही होगा। कांग्रेस अब जो भी कहे या करे, लेकिन यह सवाल सबके मन में पैदा हो रहा है कि आखिर राहुल गांधी को सलाह कौन लोग दे रहे हैं? ऐसे समय जब पूरे देश में चीन को लेकर उबाल है, एक राजनीतिक पार्टी को किस तरह की भूमिका निभानी चाहिए अगर यह अहसास भी उनके सलाहकारों को नहीं है तो फिर वे कांग्रेस को कहां ले जाएंगे इसके बारे में केवल कल्पना ही की जा सकती है। राहुल गांधी के चीन के राजदूत से मिलने का एक संदेश यह जा रहा है कि उनको उसकी बातों पर ज्यादा विश्वास है। हालांकि ऐसा होगा नहीं। कारण, कांग्रेस के नेता भी वर्तमान सच पर नजर तो रखे ही हुए हैं। किंतु आम संदेश तो यही गया है और यह कांग्रेस के हित में नहीं है। चूंकि राहुल गांधी सोनिया गांधी के बाद पार्टी के दूसरे सबसे बड़े नेता है और भविष्य के अध्यक्ष भी, इसलिए कांग्रेस यह भी नहीं कह सकती कि यह उनका निजी फैसला था जिससे पार्टी का कोई लेनादेना नहीं। ऐसे ही इस गलती को सार्वजनिक तौर पर भी नहीं स्वीकार कर सकती। राहुल गांधी की जगह कोई अन्य नेता होता तो कांग्रेस को इससे अपने को अलग करने में एक मिनट भी समय नहीं लगता। जैसे मणिशंकर अय्यर की कश्मीर यात्रा एवं हुर्रियत नेताओं से मुलाकात या पाकिस्तान यात्रा के दौरान अच्छे संबंधों के लिए मोदी को हटाना पड़ेगा जैसे बयान को कांग्रेस ने उनकी निजी राय बता दिया। राहुल गांधी के मामले में कांग्रेस की छटपटाहट है कि करें तो क्या करें।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

शनिवार, 15 जुलाई 2017

अमरनाथ यात्रियों पर हमले का मतलब

 

अवधेश कुमार

तो पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन लश्कर ए तैयबा ने अनंतनाग में अमरनाथ यात्रियों पर किए गए हमले की जिम्मेदारी ले ली है। इसका मास्टमाइंड पाकिस्तान स्थित लश्कर का कमांडर इस्माइल है। तो एक और आतंकवादी हमारी वांछित सूची में शामिल हो गया। लेकिर लश्कर न भी लेता तो इससे क्या फर्क पड़ता। आखिर यह तो साफ है कि आतंकवादियों ने ही यह कायराना हमला किया। वो कोई भी हो सकता है। सुरक्षा एजेंसियां मान रहीं हैं कि लश्कर और हिज्बुल ने मिलकर यह हमला किया। हालांकि जिस ढंग के हमले की सूचना मिल रही है उसमें सहसा यह विश्वास नहीं होता कि 60 यात्रियों वाले बस में केवल 5 महिलाओं समेत 7 यात्रियों की मौत हुई और शेष घायल हुए और बच गए। बस में सवार एक यात्री योगेश का जो बयान मीडिया में आ रहा है उसके अनुसार श्रीनगर से बस शाम को 5 बजे निकली थी। दो घंटे के सफर के बाद अनंतनाग से 2 किलोमीटर पहले बस खराब हो गई थी। इसके बाद जैसे ही बस चलने को तैयार हुई तो बस की खिड़कियों पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसने लगीं। लेकिन ड्राइवर सलीम ने बस नहीं रोकी। आतंकवादी सैनिक कैंप पहुंचने तक बस में गोलियां दागते रहे। योगेश के अनुसार यह एक चमत्कार ही है कि 60 लोगों में से बाकी लोग जिंदा बच गए। जाहिर है, सभी यात्री केवल अपनी नियति से बचे। सवाल है कि यह नौबत आई क्यों?

आखिर अमरनाथ यात्रा हर वर्ष पूरी सुरक्षा व्यवस्था में कराई जाती है। यात्रियों के अमरनाथ जी के दर्शन करने जाने से लेकर वहां से वापसी तक पूरी सुरक्षा मुहैया कराई जाती है। इस बार सुरक्षा  एजेंसियों ने अमरनाथ यात्रा के आतंकवादियों के निशाने पर होने की बात कही थी और अलर्ट भी जारी किया था। आतंकवादी बुरहान वानी की बरसी (8 जुलाई) से पहले कश्मीरी रेंज के पुलिस महानिरीक्षक मुनीर खान ने सेना और सीआरपीएफ को चिट्ठी लिखी थी कि आतंकवादी सौ से डेढ़ सौ यात्रियों को मारने की साजिश रच रहे हैं। जाहिर है, इसके बाद सुरक्षा व्यवस्था और तगड़ी हुई होगी। वैसे भी बुरहान वानी की बरसी के आसपास आतंकवाद बड़ी वारदातें करने की कोशिश करेंगे यह बिल्कु स्पष्ट था। हमारे पास जो सूचना है उनके अनुसार यात्रा पहलगाम और बालटाल- इन दो रूटों से 29 जून को बेहद कड़े सुरक्षा प्रबंधों के बीच शुरू की गई थी। 45 दिनों तक चलने वाली यात्रा में श्रद्धालुओं की सुरक्षा के लिए पूरे मार्ग पर सैटलाइट ट्रैकिंग सिस्टम, ड्रोन्स, मोबाइल बंकर वाहन और रोड ओपनिंग पार्टीज (आरओपी) की तैनाती की गई थी। सुरक्षा प्रबंधों को पुख्ता बनाने के लिए केंद्र ने राज्य सरकार को 40 हजार अर्धसैनिक बल और प्रदान किए थे। इसके अलावा जम्मू कश्मीर पुलिस है, सेना है। यात्रियों से सवार गाड़ियों के आगे पीछे बीच में सुरखा बल एकदम सतर्क अवस्था मंे साथ चलते हैं। इतनी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद यदि आतंकवादी सफल हो गए तो इसे हमारी विफलता के रुप में स्वीकार करना ही होगा। आखिर इस वर्ष करीब 2.30 लाख श्रद्धालुओं ने यात्रा के लिए पंजीकरण करवाया हुआ है।

न तो यह कहने से काम चलेगा कि अमरनाथ यात्रियों पर पहले भी हमले हुए हैं और न यह कहने से कि गुजरात की वह बस सुरक्षा कॉन्वॉय का हिस्सा नहीं थी। ध्यान रखिए वर्ष 2000 के बाद से यह इस तीर्थयात्रा पर दूसरा सबसे घातक हमला है। 2000 में यात्रियों को पहलगाम में निशाना बनाया गया था। उसस हमले में 17 यात्रियों समेत 27 लोगों की मौत हुई थी तथा 36 घायल हो गए थे। 2002 में दो हमलों में 10 यात्री मारे गए थे तथा 25 घायल हुए थे। हमारे पास 1993 से लेकर 2015 तक अमरनाथ यात्रा पर हमले की 10 घटनाओं की सूचियां हैं। किंतु इसके आधार पर हम इस हमले को कमतर नहीं आंक सकते। एक भी हमला होना हमारी पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। एक बार जब आतंकवादियांे की ओर से घोषित कर दिया गया कि वे केवल कश्मीर की आजादी के लिए नहीं यहां इस्लामिक राज कायम करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो साफ है कि वो पहले से कहीं ज्यादा तीव्रता से इस यात्रा पर हमले की तैयारी कर रहे होंगे। वे किसी सूरत में देश में सांप्रदायिक तनाव पैदा करना चाहते हैं। इसलिए सुरक्षा व्यवस्था को और ज्यादा चुस्त और सतर्क होना चाहिए था।

हम यह नहीं कहते कि सुरक्षा एजेंसियां वहां सतर्क और चुस्त नहीं है किंतु अगर ऐसा घातक हमला हो गया तो इसका कारण क्या माना जाएगा? बस बालटाल से मीर बाजार जा रही थी। कहा जा रहा है कि उसका अमरनाथ श्राइन बोर्ड में निबंधन नहीं था। हो सकता है यह सही हो। लेकिन कई बार लोग यात्रा के लिए अपनी सवारी करते हैं और उनको पता नहीं होता कि निबंधन भी करवाना है। वैसी बसों को रोककर उनको निबंधन करवाना तथा उसे सुरक्षा बंदोबस्त के साथ चलने की बात समझाना वहां की सुरक्षा एजेंसियों और प्रशासन का ही दायित्व है। पुलिस का आरंभिक बयान है कि बस उस यात्रा काफिले का हिस्सा नहीं थी जिसे पुख्ता सुरक्षा प्रदान की जा रही है। सामान्यतः अमरनाथ यात्रा में आने-जाने वाली गाड़ियों को सुरक्षा की वजह से रात में चलने नहीं दिया जाता। सभी बसों को शाम 7 बजे बेस कैम्प पर पहुंचना होता है। लेकिन यह साफ है कि बस खराब होने की वजह से देर हुई। वह बस सुरक्षा घेेरे से पूरी तरह अलग नहीं थी। अगर बस खराब हुई तो वहां लगे सुरक्षा के जवानों को इस पर ध्यान देना चाहिए था। जाहिर है चूक तो हुई है। और यह चूक महंगी पड़ी। आतंकवादियों ने अमरनाथ यात्रा को निशाना बनाने की चुनौती दी और उन्होंने उसे पूरा कर दिया। इससे आतंकवादियों का मनोबल बढ़ता है।

हमले की भी जो खबर आई है उसको भी देखिए। आतंकवादियों ने पहले बोटेंगू में पुलिस के बुलेटप्रूफ बंकर पर हमला किया जिस पर जवाबी कावाई की गई। इस हमले में कोई हताहत नहीं हुआ। पुलिस ने कहा कि इसके बाद आतंकवादियों ने खानाबल के पास पुलिस टुकड़ी पर गोलियां चलाईं। जब पुलिस ने जवाबी कावाई की तो आतंकवादी भागे। उन्होंने यत्रियों को लेकर जा रही बस पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं। इसका मतलब यह हुआ कि बस बिल्कुल अरक्षित नहीं थी। पुलिस बल से आतंकवादियों का मुठभेड़ हो चुका था। हालांकि हम यहां इसमें ज्यादा विस्तार से नहीं जाएंगे। केन्द्र सरकार ने इसे गंभीरता से लिया है। हमले की सूचना के साथ ही साउथ ब्लॉक में एक उच्चस्तरीय बैठक हुई। प्रधानमंत्री सीधे उच्चाधिकारियों से लेकर जम्मू कश्मीर के राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री से संपर्क में रहे। सुरक्षा और दुरुस्त किया गया है। दूसरे राज्यों में भी इसकी कोई सांप्रदायिक प्रतिध्वनी न हो इसके लिए भी प्रबंध किए गए हैं। गुजरात की बस थी तो वहां प्रतिक्रिया हो सकती है। इसका ध्यान रखते हुए सुरक्षा के सारे पूर्वोपाय किए गए हैं। हम उम्मीद करते हैं कि भारत का कोई व्यक्ति इस हमले पर सांप्रदायिक तनाव पैदा करके आतंकवादियों के लक्ष्य को पूरा नहीं होने देगा।

वास्वत मंें ऐसे हमले के समय ही हमारी परिपक्वता का परीक्षण होता है। आतंकवादियों के सामने यदि झुकना नहीं है तो उनके हमले से गुस्से में आकर आपस में संघर्ष भी नहीं करना है। सरकार ने यात्रा कायम रखने का जो निर्णय किया है वह बिल्कुल उचित है। यात्रियों ने भी जो निर्भयता प्रदर्शित की है और हर हाल में अमरनाथ जी के दर्शन करने की इच्छा जाहिर की है वह आतंकवादियों को मंहतोड़ जवाब है। यानी कोई आपके आतंक से डरने वाला नहीं है। अगर यात्रियों ने इतना जज्बा दिखाया है तो फिर सरकार की जिम्मेवारी कहीं ज्यादा बढ़ जाती है। जो चूक हो गई सो हो गई। अब आगे आतंकवादियों को किसी सूरत में मौका न मिले, हमले के पहले उनका काम तमाम किया जाए पूरे रास्ते को सैनिटाइज कर दिया जाए.....यह सब जिम्मेवारी सुरक्षा बलों की है। उम्मीद करनी चाहिए आगे आतंकवादी अपने हर प्रयास मंें परास्त होंगे।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

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