शनिवार, 28 जनवरी 2017

विधानसभा प्रस्ताव को एक अवसर के रुप में लिया जाए

 

अवधेश कुमार

पहली नजर में जम्मू-कश्मीर विधानसभा द्वारा कश्मीरी पंडितों और वहां से पलायन करने वाले दूसरे समुदायों की वापसी का प्रस्ताव पारित करना स्वागत योग्य है। इसका परिणाम क्या होगा अभी कहना कठिन है। किंतु कम से कम कश्मीर विधानसभा के सदस्यों को उनकी याद आई और सबने एक स्वर से उनकी वापसी के पक्ष मंे प्रस्ताव तो पारित कर दिया। यह कहा जा सकता है कि प्रदेश में पीडीपी भाजपा की सरकार आने के बाद पहला कोई औपचारिक कदम उठा है। हालांकि इसका श्रेय भी पूर्व ममुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने लिया। उन्होंने ही सदन में सबसे पहले यह विचार प्रकट किया कि कश्मीरी पंडितों और दूसरे बाहर गए लोगों की वापसी के लिए एक प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए। सरकारी पक्ष के लोग जो पहले से कश्मीरी पंडितों की वापसी की बात करते रहे हैं उनके द्वारा इसका समर्थन किया ही जाना था। इतना तो कहा ही जा सकता है कि  कश्मीरी पंडितों के पलायन के 27 वर्ष बाद जम्मू कश्मीर विधानसभा के सदस्यों ने एक औपचारिक प्रस्ताव पारित कर फिर से मामले को सामले ला दिया है। अब यह सरकार पर निर्भर है कि इस सर्वसम्मति के वातावरण को बनाए रखते हुए इसके कागजों तक सीमित न रखे और वाकई उन सबकी वापसी के लिए रास्ता बनाए। क्या इसकी संभावना दिखती है?

19 जनवरी को प्रस्ताव पारित होने का अपना महत्व है। यह 19 जनवरी 1990 का ही दिन था जब 60 हजार से ज्यादा कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया था। सच कहा जाए तो उसी दिन से कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की शुरुआत हुई थी। जम्मू-कश्मीर पुलिस की 2008 में जो रिपोर्ट आई थी उसके अनुसार आतंकवाद से मजबूर होकर 24 हजार से ज्यादा कश्मीरी पंडितों के परिवार ने कश्मीर छोड़ दिया था। इस रिपोर्ट में 1989 से 2004 के बीच घाटी में 209 कश्मीरी पंडितों के मारे जाने की बात है। हालांकि कश्मीरी पंडितों के संगठन मानते हैं कि मरने वाले पंडितों की संख्या इससे कई गुणा ज्यादा थी। कुछ तो कहते हैं कि कई हजार कश्मीरी पंडित मारे गए। हम यहां मृतकों की संख्या में नहीं जाना चाहेंगे। आज यह पूरे देश को पता है कि किन परिस्थितियों में कश्मीरी पंडितों, सिख्खों तथा भले ही कम संख्या में कुछ उदारवादी मुसलमानों को भी घाटी का परित्याग करना पड़ा था। ऐसा भय और आतंक का माहौल बनाया गया कि उनके पास कोई चारा ही नहीं बचा था। कम्पोजिट संस्कृति वाले राज्य में जहां सदियों से हिन्दू मुसलमान भाई-भाई की तरह रह रहे थे वहां पहली बार मस्जिदों तक से उनको घाटी छोड़ने की धमकियां दी जा रहीं थीं और सरकार नाम की कोई चीज दिखती ही नहीं थी। यानी कश्मीरी पंडित पूरी तरह कट्टरपंथियों-उग्रवादियों के रहमोकरम पर थे जो उनको वहां एक मिनट देखना नहीं चाहते थे और वे जल्दी भागें इसके लिए जितना और जिस तरह का भय पैदा कर सकते थे किया। कश्मीरी पंडितों के साथ ऐसा व्यवहार वास्तव में भारतीय राज व्यवस्था की पराजय थी। केवल कश्मीर नहीं ऐसा लगा जैसे पूरा देश पाकिस्तान के इशारों में काम कर रहे उन कुछ कट्टरपंथी उग्रवादियों के आगे लाचार हो गया है। यह हमारे राज्य के सेक्यूलर चरित्र पर ऐसा बदनुमा दाग है जिसके जिम्मेवार हम सब हैं। यह तभी धुलेगा जब वाकई कश्मीरी पंडितों के साथ वहां से बाहर आए कुछ सिख्खों और मुसलमानों की ससम्मान और सुरक्षित वापसी हो तथा उनके रहने के लिए वहां सुरक्षित वातावरण बने।

किंतु जैसा हम जानते हैं केवल प्रस्ताव पारित करने से कुछ नहीं होगा। प्रस्ताव से एक संदेश तो निकलता है कि जम्मू कश्मीर के नीति निर्माता अब शायद कुछ पहल करने को तैयार हैं। वस्तुतः मूल बात यही है कि यह प्रस्ताव कागजों तक सीमित रहेगा या इसके आगे की पहल होगी। 27 वर्ष बाद वहां से पलायन करने वालों की तीसरी पीढ़ियां हमारे सामने है। वे ऐसे ही तो वापसी को तैयार नहीं हो सकते। प्रस्ताव के साथ ऐसा माहौल निर्मित करना होगा जिसने उनके अंदर की भय व आशंका दूर हो, वे वापसी के बाद रहेंगे कहां इसकी व्यवस्था करनी होगी। क्या इसके लिए जम्मू कश्मीर सरकार तैयार है? और क्या प्रस्ताव पारित करने में सहभागी विपक्ष इसका समर्थन करेगा? प्रस्ताव में इतना ही कहा गया है कि लोगों की घाटी में वापसी हो, इसके लिए हम बेहतर माहौल तैयार करेंगे। इसका क्रियान्वयनों से विस्तार करना होगा। आखिर जम्मू कश्मीर में कितने नेता हैं जो कि पलायन कर चुके लोगों के बीच आकर उन्हें वापसी के लिए तैयार करने के लिए काम करेंगे? यह पहली आवश्यकता है। दूसरे, हमने देखा कि जैसे ही केन्द्र सरकार ने कश्मीरी पंडितों के लिए अलग बस्ती बनाने की बात की पूरी घाटी में मानो आग लग गया। पूरा हुर्रियत सड़कों पर उतरकर इसका विरोध करने लगा। वे यह तो कहते थे कि कश्मीरी पंडित आएं उनका स्वागत है लेकिन हम किसी अलग बस्ती को स्वीकार नहीं करेंगे। यासिन मलिक और सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेताओं ने ऐसा करने पर कश्मीर में आग लगने तक की धमकी दे दी। वे कहते हैं कि कश्मीर पंडित जहां थे वहीं आकर बसें।

सुनने में यह अच्छा लगता है कि एक मिलीजुली संस्कृति वाले राज्य की परंपरा को बनाए रखने के लिए ऐसा ही होना चाहिए। किंतु, क्या आज की स्थिति में यह व्यावहारिक है? और क्या यह संभव है? एक सच से देश को वाकिफ होना चाहिए कि जहां कश्मीरी पंडित रहते थे उनमें से ज्यादातर की जगह उनकी रही ही नहीं। जब स्थिति खराब होने लगी तो उनने औने-पौने दामों में अपनी जमीनें और मकान बेच दिए। क्या उस समय उनका मकान और जमीन खरीदने वाले आज वापस करने को तैयार होंगे? तो यह व्यावहारिक है ही नहीं। यह संभव ही नहीं। यह ऐसा विचार है जो न कभी अमल में आएगा और न पंडित तथा अन्य लोग वापस आएंगे। इस मामले का यही कटु सच है कि पंडितों को पुराने स्थानो ंपर फिर से बसाने के लिए जगह है ही नहीं। उनके लिए नई जगह की व्यवस्था करनी ही होगी। हुर्रियत नेताओं को यह सच अच्छी तरह पता है। इस आलोक में तो यह हुर्रियत नेताओं की धूर्तता लगती है ताकि किसी तरह कश्मीरी पंडित और दूसरे वापस न आ सकें। आखिर पाकिस्तान की रणनीति तो यही थी कि पहले वहां से हिन्दू और सिख्ख निकल जाएं ताकि केवल मुसलमानों का क्षेत्र हो जाने से उस पर अपना दावा कहीं ज्यादा मजबूत हो। हालांकि पाकिस्तान की यह नासमझी थी लेकिन सोच यही थी। बहरहाल, ध्यान रखिए कि जब यह विवाद चल रहा था तो केन्द्रीय गृहमंत्री ने कम्पोजिट कॉलोनी की बात कही। उन्होंने कहा कि अगर उस कॉलोनी में कुछ मुसलमान रह जाएंगे तो उसमें हर्ज क्या है। बावजूद इसके वहां आसमान सिर पर उठा लिया गया। उग्र और हिंसक प्रदर्शन तक होने लगे।

तो एक ओर ऐसा माहौल है और दूसरी ओर विधानसभा का पारित प्रस्ताव। किंतु रास्ता तो इसके बीच से निकालना ही होगा। प्रघानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं अपने चुनाव प्रचार में कश्मीरी पंडितों की वापसी का वायदा किया था। उसी वायदे में अलग कॉलोनी यानी बस्ती बसाने की बात थी। बाद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह का बयान आया था कि जमीन तो राज्य सरकार को देना है और सरकार इसके लिए तैयार है। उस समय मुफ्ती मोहम्मद सईद जिन्दा थे। आज मेहबूबा मुफ्ती हैं। अगर वो वाकई प्रस्ताव के प्रति गंभीर हैं तो उन्हें न केवल कश्मीरी पंडितों से लगातार बातचीत के लिए कुछ लोगों को नामित करना चाहिए, उनकी मंशा समझनी चाहिए, उनकी वापसी के लिए तैयारी आरंभ करनी चाहिए, केन्द्र जमीन मांग रहा है तो जमीन देनी चाहिए और बस्ती का निर्माण आरंभ होना चाहिए। चूंकि जम्मू कश्मीर विधानसभा ने प्रस्ताव पारित कर दिया है, इसलिए मोदी सरकार को इसे एक अवसर मानकर इसका लाभ उठाना चाहिए। अगर वह कश्मीरी पंडितों एवं अन्यों की वापसी के प्रति संकल्पबद्ध है तो उसे तुरत कश्मीरी पंडितों सहित जम्मू कश्मीर के सभी पक्षों के नेताओं से इस विषय पर गंभीरता से विचार-विमर्श आरंभ करना चाहिए। वास्तव में यह एक बेहतरीन अवसर के रुप में हमारे सामने आया है जिसका हर संभव सदुपयोग करने की कोशिश किया जाना चाहिए। केन्द्र सरकार यदि बातचीत  आरंभ कर दे तो उतने से माहौल बदलने लगेगा और रास्ता भी इसी में से निकलेगा।  

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408

शनिवार, 21 जनवरी 2017

जायरा वसीम का माफीनामा

अवधेश कुमार

फिल्म दंगल में गीता फोगाट की भूमिका निभाने वाली जम्मू कश्मीर की जायरा वसीम के फेसबुक पेज पर माफीनामा पोस्ट देखकर या उसके बारे में सुनकर देश के वे सारे लोग हतप्रभ रह गए जो किसी के उसका प्रोफेशन चुनने की या किसी प्रकार की मान्य आजादी के समर्थक हैं। हालांकि उस माफीनामे पर देश भर में मचे तूफान के बाद कुछ ही घंटे अंदर इसे हटा भी दिया। किंतु यह नौबत आई ही क्यों कि उसे माफी मांगने वाला पोस्ट लिखना पड़ा? पोस्ट हटाने का कारण देते हुए उसने लिखा है कि उस पर किसी प्रकार का दबाव नहीं है। यह बात आईने की तरह साफ है कि माफीनामा का पोस्ट लिखने और उसे हटाने दोनों में अलग-अलग प्रकार का दबाव उसके पीछे काम कर रहा था। एक दिन पहले जो लड़की टीवी चैनलों को साक्षात्कार देते फूले नहीं समा रही थी। वह कह रही थी कि जब लोग प्रशंसा करते हैं कि मैंने अच्छा काम किया, लोग साथ में तस्वीरें खींचवाते हैं तो गर्व महसूस होता है वही लड़की अपने पोस्ट में यह लिख रही है कि मैं जो कुछ कर रही हूं उससे मुझे गर्व महसूस नहीं होता। वह लिखती है कि उसे रोल मॉडल बनाकर जो पेश किया जा रहा है वह गलत है वह युवाओं को रोल मॉडल नहीं हो सकती। जो वास्तविक हीरों हैं उनके बारे में युवाओं को बताया जाए वो ही रोल मॉडल हो सकते हैं। उसने लिखा कि यह एक खुली माफी है। ....मैं उन सभी से माफी मांगना चाहती हूं जिन्हें मैंने अनजाने में दुखी किया। मैं उन्हें बताना चाहती हूं कि मैं इसके पीछे उनके जज्बात समझती हूं। खासतौर से पिछले 6 महीनों में जो हुआ, उसके बाद।

कोई भी समझ सकता है कि यह सामान्य वक्तव्य नहीं है। इसके पीछे गहरा मनोवैज्ञानिक दबाव और उससे पैदा अवसाद नजर आता है। आखिर उस 16 साल की लड़की ने ऐसा क्या कर दिया कि उसे इस तरह का माफीनामा लिखने को मजबूर होना पड़ा? कुछ लोगों का मानना है कि उसने जैसे ही मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती से मुलाकात की उसकी ट्रौलिंग आरंभ हो गई। लोग उसके खिलाफ तरह-तरह के कमेंट करने लगे। इसमंे उसे लगा कि उसके पास माफीनामा लिखने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। यह सच है। किंतु इससे बड़ा सच यह है कि जम्मू कश्मीर के कट्टरपंथी तत्व पहले से ही फिल्म में उसकी भूमिका के खिलाफ थे। जब दंगल चल निकली और जायरा की प्रशंसा होने लगी, उसकी तस्वीरें और साक्षात्कार अखबारों में छपने लगे, टीवी पर वह दिखने लगी तो कट्टरपंथियों का पारा चढ़ने लगा। उन लोगों ने बाजाब्ता सोशल मीडिया एवं बाहर उसके खिलाफ अभियान चलाया है। वो सिनेमा को और उसमें निभाई गई भूमिका को मजहब के विरुद्ध बता रहे हैं। पूरा माहौल उसके खिलाफ बना दिया गया। इसी बीच उसकी मुख्यमंत्री से मुलाकात होती है और मुख्यमंत्री अपने एक भाषण में कई युवाओं के साथ उसका नाम लेकर कहतीं हैं कि हमारे प्रदेश की युवक-युवतियां कई क्षेत्रों में अच्छा काम कर रही हैं उसके बाद मानो तूफान आ गया। यह वर्ग इस बात को सहन नहीं कर सका कि फिल्म में काम करने वाली एक लड़की को इतना महत्व मिले और उसे रोल मॉडल बताया जाए। फिर ऐसी स्थिति पैदा की गई कि कल तक खुशियों से उछल रहीं और अपने काम पर गर्व महसूस कर रही 16 साल की इस लड़की को माफी मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा।

भारत जैसे देश में यह कौन वर्ग है जो इस तरह का वातावरण तैयार कर रहा है कि कोई युवक-युवती चाहकर अपने मनमाफिक काम का चयन न कर सके? आखिर उसने कौन सी गलती की जिसे उसे स्वीकार करना पड़ा है?जरा सोचिए न किस मानसिकता में उसने लिख होगा कि लोगों को याद होगा कि मैं सिर्फ 16 साल की हूं। मुझे लगता है कि आप मुझे वैसे ही समझेंगे। मैंने जो किया उसके लिए माफी मांगती हूं, मगर ये मैंने जानबूझकर नहीं किया। शायद लोग मुझे माफ कर सकेंगे।..... मुझे कश्मीरी यूथ के रोल मॉडल की तरह प्रोजेक्ट किया जा रहा है। मैं साफ कर देना चाहती हूं कि मेरे नक्शे कदम पर चलने या मुझे रोल मॉडल मानने की जरूरत नहीं है। कल्पना करिए कितना दबाव होगा उस पर। उसने मेहनत से अपना स्क्रीन टेस्ट दिया, फिर चयन के बाद पूरी मेहनत से फिल्म में पहलवान गीता फोगट की भूमिका निभाई। अपने बेहतरीन अभिनय से उसने साबित किया कि उसके अंदर अभिनय की प्रचुर प्रतिभा भरी हुई है। एक स्वस्थ समाज का तकाजा तो यह था कि जगह-जगह उसकी वाहवाही होती और उसे प्रोत्साहन दिया जाता ताकि कश्मीर जैसे प्रदेश में युवाओं को नई दिशा में सोचने और अपनी प्रतिभा के अनुसार आगे बढ़ने के लिए परिश्रम और प्रयास करे की प्रेरणा मिले। हो इसके उल्टा रहा है।

आप टीवी पर होने वाली बहस को सुन लीजिए। कश्मीर से टीवी पर बैठै शख्स फिल्मों को बेहयाई और न जाने क्या-क्या कह रहे हैं। यहां तक कि कुश्ती को भी औरतों के खिलाफ साबित किया जा रहा है। पूरा माहौल उसके खिलाफ बना दिया गया है ताकि वह तो आगे से फिल्म में काम करने की जुर्रत नहीं ही करे, कोई दूसरा भी ऐसा करने का साहस न कर सके। विचित्र तर्क है। इनको शायद नहीं मालूम कि दुनिया के मुस्लिम देशों में बाजाब्ता फिल्में बनतीं हैं और उसमें पुरुष के साथ महिलाएं भी काम करतीं हैं। उनके लिए यह मजहब विरोधी नहीं है तो जम्मू कश्मीर के कुछ कठमुल्लों के लिए यह कैसे हो गया? पूरी दुनिया के मुस्लिम देशों की लड़किया कुश्तियों सहित अन्य खेलों में भाग लेतीं हैं और उनका वस्त्र वही होता है जो अन्यों का। उनको तो कोई आपत्ति नहीं। फिर जम्मू कश्मीर में इस पर आपत्ति क्यों? जो आपत्ति करने वाले हैं आपत्ति तो उनके व्यवहार पर होनी चाहिए। कुछ महीने पहले कश्मीर के प्रगाश गर्ल बैंड के साथ ऐसा ही हुआ था। उन्हें भी गाने से रोका गया था। गीतकार जावेद अख्तर ने सही लिखा है कि जो छतों पर खड़े होकर आजादी के नारे लगाते हैं वो दूसरों को आजादी नहीं देते। शर्म आती है कि जायरा को अपनी कामयाबी पर भी माफी मांगनी पड़ रही है।

यह अच्छी बात है कि ऐसे काफी लोग जायरा वसीम के साथ खड़े हो गए हैं। उसे कहा जा रहा है कि उसने कुछ गलत नहीं किया है कि उसे माफी मांगनी पड़े। उन कट्टरपंथियों की लानत-मलानत हो रही है। किंतु वे मानने को तैयार नहीं है। जाहिर है, उनका और जोरदार तरीकों से विरोध करना होगा ताकि इसमें जायरा जैसी लड़कियां और उनका परिवार पराजित महसूस न करे। कश्मीर में कट्टरपंथियों के विचारों के विपरीत एक नई हवा भी दिख रही है। बोर्ड परीक्षाओं में भारी संख्या में छात्र-छात्राएं शामिल होतीं हैं। कोई प्रशासनिक सेवा में जा रहा है तो कोई सीआरपीएफ के कमांडेट में वरीयता प्राप्त करता है, कोई क्रिकेट में आगे आ रहा है और कोई फिल्म में। इस बदलती हुई हवा को ताकत दिए जाने की जरुरत है। ज्यादा से ज्यादा युवक-युवतियां वहां से अपने मनोनुकूल पेशे और नौकरियों में जाएं तो उससे देश और समाज के प्रति उनकी सोच बदलेगी और उससे भारतीय और दुनियावी समाज के साथ उनका एकीकरण होगा। कट्टरपंथी और कठमुल्ले तो मानने वाले नहीं। वो अपना काम करें और हम अपना काम करे। पूरा देश उनके खिलाफ और जायरा के समर्थन में सक्रिय रुप से खड़ा हो। जायरा और उसके परिवार को यह विश्वास हो जाए कि देश उनके साथ है और कट्टरपंथी बोलने के अलावा उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। यह हम सबका दायित्व भी है। ऐसा वातावरण बनाकर ही हम जायरा जैसी लड़कियों की काम करने की आजादी सुनिश्चित कर सकते हैं। जिस तरह अभी 16 साल की वो लड़की और उसका परिवार दबाव में आ गया है उससे बाहर निकाला जाना जरुरी है, अन्यथा दूसरा ऐसा करने का जल्दी साहस नहीं करेगा। यह केवल उनकी नहीं हम सबकी, पूरे देश की पराजय होगी।

अवधेश कुमार, ई: 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूरभाष: 01122483408, 9811027208

 

शुक्रवार, 13 जनवरी 2017

भाजपा कार्यकारिणी ने अभी से 2019 तक का चुनावी एजेंडा दिया

 

अवधेश कुमार

देश की राजधानी में आयोजित भाजपा की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने उस रुप में सुर्खियां नहीं पाई जैसी आम तौर पर पाती रहीं हैं। हालांकि परिणतियों की दृष्टि से देखा जाए तो इसका महत्व कई मायनों में है। आगामी पांच विधानसभा चुनावों के पहले तथा नोटों की वापसी के बाद संपन्न इस पहली कार्यकारिणी की ओर देश भर का ध्यान होना चाहिए। इसने न केवल विधानसभा चुनावों के लिए अपने मुद्दे स्पष्ट किए, बल्कि अभी से 2019 लोकसभा चुनाव के संदर्भ में रणनीतियों पर भी गहन विचार-विमर्श कर कार्यक्रम तय किए। नोट वापसी के विरुद्ध विपक्ष के संघर्ष में सीधा मुकाबला का संदेश दिया तो जनता को हुए कष्टों को देशभक्ति की पंरपरागत मरहम से सहलाया भी। वास्तव में स्वयं भाजपा के अलावा विपक्ष एवं देश दोनों के लिए भाजपा की इस कार्यकारिणी पर मंथन आवश्यक है। आखिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, अध्यक्ष अमित शाह सहित प्रमुख नेताओं के भाषणों के जो अंश सामने आए, जो प्रस्ताव पारित हुए उन्हीं के आधार पर तो हम सत्तारुढ़ दल की रीति-नीति को समझ सकेंगे।

इसमें दो राय नहीं कि इस कार्यकारिणी में बहुत कुछ वही हुआ जो अपेक्षित था। मसलन, उन्हें सर्जिकल स्ट्राइक को जोरशोर से उठाना ही था, नोटवापसी के कदम को सही ठहराना ही था, इसके लिए सरकार की पीठ थपथपानी ही थी, इसके विरोध के लिए विपक्ष की आलोचना करनी ही थी, भ्रष्टाचार के विरुद्व संघर्ष के प्रधानमंत्री के लगातार आह्वान पर सहमति की मुहर लगानी ही थी .....और सबसे बढ़कर चुनाव के पूर्व यह बताना ही था कि इन सब कारणों से जनता के बीच भाजपा के पक्ष में अनुकूल माहौल है। भाजपा के नेता और सरकार के मंत्री अपने बयानों में भी ये सारी बातें करते रहे हैं। बावजूद इसके कार्यकारिणी की ध्वनि से साफ हो गया कि पार्टी नोट वापसी सहित जुड़े मुद्दों पर विपक्ष के साथ दो-दो हाथ करने को तैयार हो गई है। नोटवापसी को मोदी और अमित शाह दोनों ने अपने भाषण में विस्तार से शामिल किया तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसके आर्थिक व वित्तीय लाभ की बात की। जितने विस्तार से इस पर प्रस्ताव पारित किया गया है उससे साफ लगता है कि अगर विपक्ष इसको मुद्दा बना रहा है तो भाजपा स्वयं इसे बड़े मुद्दे के तौर पर पेश करेगी। उसका स्वर विपक्ष के खिलाफ होगा। प्रस्ताव में एक जगह कहा गया है कि इस अभियान में एक ओर देश का जनमानस जहाँ उत्साह एवं सकारात्मक उर्जा के साथ, देश को लम्बे कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए थोड़ी तकलीफ सहकर भी पुननिर्माण के संकल्प के लिए खड़ा रहा था वही कई विपक्षी दलों के नकारात्मक प्रचार के द्वारा माहौल को खराब करने की कोशिश की गई, जिसको जनता ने पूरी तरह से नकार दिया। .... विपक्ष ने जनता का ध्यान मुद्दों से भटकाने की पूरी कोशिश की, असफल साबित हुई। इसमें आगे कहा गया है कि पार्टी का यह मानना है कि विमुद्रीकरण और डिजिटल अर्थव्यवथा पर उसकी नीतियों एवं उनके कुशल क्रियान्वयन से हम विकसित भारत के लक्ष्यों को पूरा करेंगे। डिजिटल अर्थव्यवस्था, पारदर्शी शासन एवं कुशल नेतृत्व तथा जनता से संवाद के सेतु के रूप में पार्टी कार्यकर्ताओं को पार्टी के विचारों को समाज के सभी वर्गों तक ले जाना चाहिए। हालांकि भाजपा कार्यकर्ता कहां तक इन विचारों को समाज तक ले जाएंगे, किस तरह उन्हें समझाएंगे यह कहना कठिन है, लेकिन पार्टी ने प्रस्ताव पारित किया है तो यह नीचे से उपर तक की ईकाई के लिए एक कार्यक्रम हो गया। इसका मूल स्वर एक ही है- विपक्ष के हमले का जनता के बीच जाकर जवाब।

यह अपने आपमें महत्वपूर्ण है और विपक्ष को सोचना होगा कि भाजपा के इस महाप्रचार अभियान का सामने कैसे करें। वैसे कार्यकारिणी का संदेश यही तक सीमित नहीं था। ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर भाजपा ने अधिकृत मत व्यक्त कर दिया है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय कार्यकारिणी के समापन संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा कि देश मे पारदर्शिता की संस्कृति बढ़ रही है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और चुनाव आयोग की ओर से भी बातें उठी हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि वह खुद भी सहमत है कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे मे पारदर्शिता होनी चाहिए। अगर सभी दलों की सहमति बने तो भाजपा अगुवाई करने के लिए तैयार है। सभी दल मिलकर इस पर सहमति बनाएं। ये बयान राजनीतिक दलों के चंदे में पारदर्शिता लाने के संदर्भ में है। हालांकि प्रधानमंत्री ने पहले भी चुनाव आयोग द्वारा 2000 रुपया से ज्यादा के चंदे का हिंसाब रखने के प्रस्ताव पर मुरादाबाद की सभा में सहमति दर्शायी थी। किंतु कार्यकारिणी मंे इसे रखने का मतलब यह पार्टी और सरकार का अधिकृत मत हो गया। यानी सरकार इस दिशा में पहल करेगी तथा पार्टी उसके अनुसार काम करेगी। हालांकि यह आसान नहीं है। कारण, पारदर्शिता की बात सभी करते हैं, कालाधन के अंत का सभी समर्थन देते हैं, पर जब निर्णय की बात आती है तो राजनीतिक दल व्यावहारिकता का तर्क देकर स्वयं को बचा लेेते हैं। भाजपा भी इसमें शामिल रही है। इसलिए इस पर तत्काल सहमति की संभावना नहीं दिखाई देती, किंतु भाजपा एवं सरकार यह तर्क देगी कि हम तो चाहते हैं, लेकिन शेष दल ही इसके लिए तैयार नहीं।

जाहिर है, भाजपा विरोधी दलों को उसकी इस रणनीति की काट तलाशनी होगी। कारण,यह इस समय से लेकर 2019 तक के सारे चुनाव में भाजपा की ध्वनि होगी। तो आपको जवाब तो देना होगा। तीसरे, मोदी ने जिस तरह गरीब और गरीबी पर संवेदना जगाने वाला भाषण दिया वह भी विपक्षी दलों के लिए चुनौती है। विपक्षी दलों का आरोप है कि मोदी सरकार केवल बड़े लोगों का हित साधती है और नोटवापसी भी वैसा ही कदम था। प्रधानमंत्री ने कहा कि गरीब हमारे लिए चुनाव जीतने का जरिया नहीं हैं, वोट बैंक नहीं है। गरीब हमारे लिए सेवा का अवसर हैं। मैं गरीबी में जन्मा हूं और मैंने गरीबी को जिया है। गरीब की सेवा प्रभु की सेवा का काम है और यही संकल्प लेकर हमारी सरकार काम कर रही है। हमारी सरकार गरीब और वंचितों के जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने पर काम कर रही है और आगे भी करेगी। आज से साढे चार दशक पूर्व इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। मोदी ने ऐसा कोई नारा तो नहीं दिया, लेकिन रणनीति के तौर पर उसी प्रकार की बातें कहीं। यही नहीं उन्होंने यह कार्यक्रम दिया कि भाजपा के कार्यकर्ता उनके बीच जाकर बताएं कि सरकार ने गरीबों के लिए क्या काम किया है। इसके लिए योजनाएं पहले से बनी हुई है कि सरकारी कार्यक्रमों को लेकर कार्यकर्ताओं की टोली किस तरह जाएगी और क्या कहेगी। लेकिन यहां भी भाजपा के प्रचार का सामना तो विपक्ष को करना होगा।

इस कार्यकारिणी का एक महत्वपूर्ण संदेश रहा अभी से विधानसभा चुनावों के साथ अगले लोकसभा चुनाव के लिए काम करना। पार्टी ने तय किया कि जिन सीटों पर भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनाव में जीत हासिल नहीं की थी, वहां अभी से कार्यकर्ताओं की टीम काम करेगी। विधानसभा चुनाव के लिए तो कार्यकर्ताओं की टीम तैयार की ही गई है। दरअसल दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती वर्ष में यह फैसला किया गया कि कार्यकर्ता पार्टी के लिए समय दान करें। योजना के अनुसार अपना समय दान देने वाले एक लाख 60 हजार कार्यकर्ताओं को न्यूनतम 15 दिन से एक साल तक का समय देना होगा। ये कार्यकर्ता संबंधित मतदान केन्द्र के क्षेत्र में 15 दिन तक नियमित तौर पर काम करेंगे और मोदी सरकार की योजनाओं को जनता के बीच रखेंगे। इसके अलावा 6 महीने का समय दान देने वाले कार्यकर्ताओं को उन क्षेत्रों में भेजा जाएगा, जहां भाजपा का आधार ज्यादा कमजोर है। यानी ऐसे राज्य, जहां भाजपा को मजबूत नहीं माना जाता। ऐसे राज्यों में जाकर ये 2 हजार कार्यकर्ता 6 महीने तक रहेंगे और वहां की परिस्थितियों को देखते हुए पार्टी के लिए कार्य करेंगे। एक वर्ष तक का समय देने वाले कार्यकर्ता उन निर्वाचन क्षेत्रों में तैनात होंगे, जहां पिछले लोकसभा चुनाव के समय भाजपा या उनके सहयोगी दल लड़ाई में थे पर पराजित हो गए। इन कार्यकर्ताओं से कहा जाएगा कि वह एक साल तक उन लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में रहकर काम करें। 

हम यह नहीं कहते कि भाजपा ने जो तय किया है वह सब धरती पर उसी रुप में क्रियान्वित भी हो जाएगा, पर जरा सोचिए, किस पार्टी ने अभी से 2019 के लिए इतनी व्यापक कार्ययोजनाएं बनाई है। तो जिस कार्यकारिणी ने इतनी व्यापक योजना को सामने रखा है उसका महत्व कितना ज्यादा है यह शायद अब बताने की आवश्यकता नहीं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

 

शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

गुरु गोबिन्द सिंह के योगदान को देश भूल नहीं सकता

 

अवधेश कुमार

देश गुरु गोबिन्द सिंह की 350 वीं जयंती वर्ष मना रहा है। किसी महापुरुष की जयंति या पुण्यतिथि मनाकर हम केवल उसे श्रद्धांजलि नहीं देते, बल्कि उनके जीवन, समाज को उनकी देन, उनकी शि़क्षाओं-रचनाओं से प्रेरणा लेते हैं। गुरु गोबिन्द सिंह का मूल्यांकन करने में भले कुछ इतिहासकारों ने अन्याय किया है, यहां तक कि उनके पथ का अनुसरण करने का दावा करने वाले भी अनेक लोग उनकी गलत व्याख्या करते हैं, पर इस देश और संस्कृति को उनके महत्वपूर्ण योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। यदि भुलाया जाएगा तो हमसे बड़ा कृतघ्न कोई नहीं होगा। कोई व्यक्ति अपने चारों बेटों के बलिदान के बावजूद अपने सिद्वांत पर अड़े हुए समाज को सही दिशा और नेतृत्व देता रहे यह सामान्य बात है क्या? उनको केवल एक लड़ाका और सैनिक मानने वाले भूल जाते हैं कि उन्होंने अनेक रचनाएं कीं, कई भाषाएं पढ़ीं और सिख्खों को ज्ञान अर्जित करने के लिए वाराणसी जैसे शिक्षण केन्द्रों पर भेजा। वे  हिन्दी, पंजाबी, फारसी, अरबी और संस्कृत भाषा अच्छी तरह जानते थे।

आप उनकी रचानाओं को देखेंगे तो आपको एक साथ एक आध्यात्म में गहरे डूबा, धर्म में गहरी आस्था रखने वाला भक्त, कवि, समाज सुधारक, देश और संस्कृति के प्रति समर्पित सैनिक, कानून विद....यानी बहुविध व्यक्तित्व का दर्शन होगा। सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध उन्होंने ही किया और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) भी पूरा किया। यह बात ठीक है कि उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों में देश, धर्म, संस्कृति तथा स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला, पर युद्ध को वो कभी पहला विकल्प नहीं मानते थे। ज़फ़रनामा में उन्होंने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। गुरु तेग़बहादुर की शहादत के बाद 9 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठने वाले बालक को क्या ज्ञान रहा होगा। लेकिन उनकी चेतना का जैसे-जैसे उत्तरोत्तर विकास हुआ उन्होंने गहन अध्ययन द्वारा अपना ज्ञान बढ़ाया। उसके पीछे सोच यही रही होगी कि गुरु पद की गरिमा के अनुरुप स्वयं को विकसित करना चाहिए। उसके लिए जो भी आवश्यक था, ज्ञान साधना, भक्ति साधना, युद्ध साधना... सब उन्होंने किया। वे शस्त्र और शास्त्र दोनों के बीच संतुलन के समर्थक थे। उन्होंने युद्ध की सारी कलाएं सीखीं, अस्त्र चलाना सीखा और अन्य सिक्खों को भी सिखाया लेकिन सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध करने के साथ उन्होंने करुणा और मानवता का पाठ भी पढ़ाया।

आज के जातिभेद को देखिए और कल्पना करिए कि 350 वर्ष पूर्व क्या स्थिति रही होगी। जिन्हें पंज पियारे कहते हैं वे देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे। एक ही कटोरे से उनको अमृत पिलाकर गुरु गोबिन्द सिंह ने जाति तोड़ने और समाज में एकता कायम करने का ऐसा कार्य किया जो एक क्रांतिकारी ही कर सकता था। उसके खिलाफ प्रतिक्रिया भी हुई जिसकी कल्पना उन्हें रही होगी, किन्तु जाति और संप्रदाय का भेद मिटाकर सबको संगठित करने का उनका संकल्प अटूट था। उनका स्पष्ट मत व्यक्त करते हुए कहा कि मानस की जात सभै एक है। उस समय भारतीय समाज एक साथ कई कमजोरियों का शिकार था जिसमें जातिवाद की कट्टरता, संप्रदायों के बीच कटुता, अलग-अलग संप्रदायों का नैतिक और वैचारिक पतन तथा धर्म-अध्यात्म की गलत व्याख्या। इससे समाज भ्रमित और विभाजित था। इस भ्रम को दूर करना तथा समाज की एकता स्थापित करना समय की मांग थी। धर्म के पोंगापंथियों को चुनौती देते हुए उन्होंने आचरण में इसे उतारा तथा अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों तक सही विचार पहुंचाने तथा उनके अंदर बदलाव की विचार बीज बोने की बहुत हद तक सफल कोशिश की।

यह उनकी शिक्षाओं का परिणाम था कि उनकी सैन्य टुकड़ियाँ में आदर्शों के प्रति पूर्ण समर्पण तथा धार्मिक व राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयारी दिखती थी। गुरु गोबिन्द सिंह ने 1699 ई. में ख़ालसा पंथ की स्थापना की थी। ख़ालसा यानी ख़ालिस (शुद्ध), विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। यानी जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। ख़ालसा का अर्थ समझाते हुए कहा गया है कि ख़ालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर ज़ुल्म और ज़ालिम से लोहा भी लेता है। गोबिन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया - वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह। गुरु जी द्वारा ख़ालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। साथ ही निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है वही सच्चा ख़ालसा है। गुरु गोबिन्द सिंह इस मयाने में दुनिया में अनूठे गुरु थे जिन्होंने पंच पियारा बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा दिया तथा स्वयं उनके शिष्य बन गए।

उन्होंने यह शिक्षा दिया कि मृत्यु सुनिश्चित है और जिस दिन आना है उसे कोई रोक नहीं सकता तो क्यों न न्याय के लिए, धर्म के लिए संघर्ष करते हुए अपनी आयु पूरी की जाए। उन्होंने अपने पिता का बलिदान देखा, पुत्रों का बलिदान भुगता लेकिन पथ से डिगे नहीं। इतिहास में यदि आप सर्वस्व न्यौछावर कर देने की समानता तलाशेंगे तो कुछ गिने-चुने महापुरुष ही गुरु गोविन्द सिंह के समकक्ष आपको दिखाई देंगे। वे अध्यात्म की उंचाई तक पहुंचे हुए व्यक्ति थे जिसने जीवन और मरण का सच जान लिया था। उन्होने अपने धर्म और संस्कृति की महानता को भी गहराई से समझा था, इसलिए औरंगजेब की मजहबी कट्टरता के प्रहार से बचाने को वे कृतसंकल्प थे। सच कहा जाए तो उन्होंने धार्मिक या विस्तार करें तो आध्यात्मिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष का रास्ता चुना था, अन्यथा तो वे संत थे। यह मानना गलत होगा कि गुरु गोबिन्द सिंह जी का किसी से व्यक्तिगत बैर था। उतनी आध्यात्मिक उंचाई पर पहुंचे व्यक्ति का किसी से बैर हो ही नहीं सकता था। वे सभी प्राणियों को परमात्मा का ही रूप मानते थे। उनको सांप्रदायिक मानने वालों को उनकी यह पंक्ति याद रखनी चाहिए- हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो। यानी हिन्दू हो या तुर्क या कोई सब मानवमात्र हैं। 

तो ऐसे व्यक्ति को बैरभाव छू तक कैसे सकता था। जिस औरंगजेब से उनकी पारिवारिक शत्रुता मानी जानी चाहिए उसे उन्होंने जो पत्र लिखा है उसमें उनका निर्वैर भाव प्रकट होता है। औरंगज़ेब को फ़ारसी में लिखे अपने पत्र ज़फ़रनामा में लिखते हैं- औरंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दुःखी नहीं करना चाहिए। तूने क़ुरान की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूँगा, लड़ाई नहीं करूँगा, यह क़सम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर। यह बात अलग है कि औरंगजेब पर इसका प्रभाव नहीं पड़ा। बहादूरशाह प्रथम से उनकी मित्रता यूं ही नहीं हो गई। जून 1707 में आगरा के पास जांजू के पास लड़ाई में बहादुरशाह की जीत हुई तो उसके पीछे कारण यह था कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने सैनिकों द्वारा जांजू की लड़ाई में बहादुरशाह का साथ दिया। बहादुरशाह ने गुरु गोबिन्द सिंह को आगरा बुलाया। एक बड़ी क़ीमती सिरोपायो (सम्मान के वस्त्र) एक धुकधुकी (गर्दन का गहना) जिसकी क़ीमत 60 हज़ार रुपये थी भेंट की। उससे मुग़लों के साथ एक लंबे संघर्ष के अंत की संभावना पैदा हो गई थी। लेकिन परिस्थितियों को कुछ और मंजूर था। कुछ घटनाओं के कारण ऐसा न हो सका।

गुरू गोबिन्द सिंह इतने दूरदर्शी थे कि भविष्य में गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने अपनी मृत्यु को निकट देखकर साफ कर दिया कि उनके बाद कोई व्यक्ति गुरु नहीं होगा और गुरु ग्रन्थ साहिब को अन्तिम गुरु का दर्जा दे दिया। हालांकि सभी गुरुओं ने कुछ पद, भजन और सुक्तियां गढ़े हैं, पर गुरु गोबिन्द सिंह की विद्वता उन्हें सबसे आगे ले गई। इन्होंने कई  ग्रंथों की रचना की ये हैं - सुनीतिप्रकाश, सर्वलोहप्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धि सागर, चण्डी चरित्र, दशमग्रन्थ,कृष्णावतार,गोबिन्द गीत, प्रेम प्रबोध,जाप साहब,अकाल उस्तुता,चौबीस अवतार,नाममाला तथा विभिन्न गुरुओं, भक्तों एवं सन्तों की वाणियों का गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलन। चण्डी चरित्र इतनी ओजस्वी भाषा में लिखी गई है कि आज भी पढ़ने पर वीरता का भाव पैदा कर देती है। चंडी दीवार उनकी पंजाबी भाषा की एकमात्र रचना है। शेष हिन्दी भाषा में हैं।

अवधेश कुमार, ईः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 9811027208

 

 

रविवार, 1 जनवरी 2017

श्रीमद् भगवात कथा के समापन पर भंडारे का आयोजन

संवाददाता

नई दिल्ली। हर कोई नववर्ष के मौके पर कुछ नया करना चाहते हैं तो कोई नववर्ष की शुरूआत भगवान के नाम से शुरू करते हैं। ऐसा ही कुछ गांधीनगर विधानसभा के महावीर स्वामी पार्क में श्रीमद् भगवात कथा का आयोजन 24 दिसंबर, 2016 से 31 दिसंबर, 2016 तक किया गया। 

कथा के समापन पर भंडारे का आयोजन किया गया। इस अवसर पर हिंदू व मुस्लिम ने मिलकर भक्तों का गेट पर स्वागत किया और प्रसाद वितरण किया। इस मौके पर पंडित राकेश कुमार अवस्थी, सुभाष खरौलिया, लियकत खान, मोहम्मद आनीस, विनोद जैन आदि मौजूद रहे।

 





 
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