शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

सूखा संकट देशव्यापी, समाधान देश व विश्वस्तरीय

 

अवधेश कुमार

राष्ट्रीय मीडिया में सूखे की भयावहता और पानी के संकट की खबरें कुछ राज्यों के कुछ क्षेत्रों तक सीमित है। इससे ऐसी तस्वीर उभरती है मानो देश के शेष भागों में बेहतर या कुछ अच्छी स्थिति होगी। सच है कि भयानक सूखा और जल संकट की गिरफ्त पूरे देश में है। कम से कम 300 लोगों के मरने की खबरें अभी तक आ चुकी हैं और आपको आश्चर्य होगा इनमें मरने वालों में सबसे ज्यादा वहां के लोग नहीं हैं जहां के सूखे पर हम छातियां पीट रहे हैं। आंध्रप्रदेश और तेलांगना में सबसे ज्यादा मौत हुई है और उसके बाद स्थान उड़ीसा का है। मौत के सारे आंकड़े एक साथ नहीं आते। पिछले वर्ष गर्मी और सूखे के कारण 2035 लोगों की मौत का आंकड़ा हमारे सामने आया था। इसमें महाराष्ट्र और बुंदेलखंड का स्थान उपर नहीं था। गरमी से झुलसते जिन शहरों के तापमान 44 डिग्री से उपर गए उनमें देश के अनेक राज्यों के शहर शामिल है। पिछले सप्ताह शुक्रवार को ओडिशा के टिटलागढ़ में तापमान 47 डिग्री और तेलंगाना के रामागुंडम में 46 डिग्री तक पहुंच गया। यह इस मौसम का सबसे ज्यादा तापमान था।

देश में 91 बड़ी झीलंें और तालाब हैं जो पेयजल, बिजली और सिंचाई के प्रमुख स्रोत हैं। इनमें औसत से 23 प्रतिशत पानी की कमी आई है। 21 अप्रैल तक इन तालाबों में 34.082 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) पानी बचा था। ये जलाशय किसी एक दो राज्य में तो हैं नहीं। जिसे पूर्व मानसून बारिस कहते हैं वो अगर आकाश से धरती पर नहीं उतरा तो फिर इससे पूरा देश प्रभावित है तो देश से बाहर निकलें तो पूरा एशिया, अफ्रिका, दक्षिण अमेरिका और इससे लगे इलाके बुरी तरह प्रभावित हैं। मौसम विभाग का रिकॉर्ड बताता है कि 1901 के बाद पिछला साल भारत का तीसरा सबसे गर्म साल रहा था। 1880 में शुरू हुए रिकॉर्ड के मुताबिक, 2015 में औसत तापमान 0.90 डिग्री ज्यादा था।  2016 भी उसी श्रेणी का वर्ष साबित हो रहा है। वास्तव में सूखे की समस्या और उससे जुड़ा पानी का संकट पूरे देश में है। हां, कुछ राज्य इससे ज्यादा ग्रस्त हैं। हिमाचल, तेलंगाना, पंजाब, ओडिशा, राजस्थान, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में पिछले साल के मुकाबले भी इस साल जल स्तर में काफी कमी देखी जा रही है।

आपने बिहार में सूखा संकट के राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा नहीं सुनी होगी। पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल की भी नहीं। बिहार के किसान बताते हैं कि पिछले आठ साल से ठीक से बारिश हुई ही नहीं। बारिश या तो देर से आई या कम आई। प्रदेश के दो तिहाई क्षेत्रों में जल स्तर इतना नीचे चला गया है कि पुराने हैंडपंप एवं बोरिंग बेकार हो रहे हैं। जिलों-जिलों के आंकड़े आ रहे हैं कि किस जिले में कितना हैंडपंप सूखा है, कितने कुंए सूख गए और आंकड़ें भयावह हैं। नदियों वाले जिलांे में भी कई सौ की संख्या में हैंड पंप सूखने की खबरें हैं। गया के मानपुर प्रखंड से खबर है कि पानी की कमी के कारण कई गांवों में शादियां टालनी पड़ रही हैं। जमुई के बरहट प्रखंड के कई गांवों के लोग 10-12 किलोमीटर दूर जाकर पानी लाते हैं या फिर नदी की बालू को खोद कर पानी निकाल रहे हैं। लखीसराय जिले में ऊल नदी मरुभूमि बन चुकी है। चानन में बरसाती पानी रोकने के लिए बनाए गए फाटक नवीनगर से कुंदर तक 5-7 किलोमीटर में जो थोड़ा पानी बचा है, वहां लोग बालू खोद कर पानी निकाल रहे हैं। पश्चिम बंगाल के फरक्का में एक दिन पानी इतना कम हो गया कि वहां के पावर प्लांट को बंद करना पड़ा। यह घटना मार्च की है। इस समय क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना करिए। ये कुछ उदाहरण मात्र हैं। अगर सभी खबरों को एकत्रित किया जाए तो एक मोटी पुस्तक बन जाएगी।

अगर मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार अल नीनो और ग्लोबल वॉर्मिंग इसका मुख्य वजह है तो यह एक दो राज्यों के लिए तो नहीं हो सकता। इसी तरह यदि पिछले दो सालों से कम बारिश होने के कारण गर्मी ज्यादा पड़ रही है, सूखे की समस्या सामने है तो यह भी देशव्यापी ही है। वास्तव में केन्द्र सरकार ने भी सूखे को लगभग देशव्यापी मान लिया है। 19 अप्रैल को उच्चतम न्यायालय में पेश रिपोर्ट में सरकार ने माना कि कम से कम 10 राज्यों के 256 जिलों में करीब 33 करोड़ लोग सूखे की मार झेल रहे हैं। गुजरात सहित कुछ राज्यों के विस्तृत आंकड़ें केन्द्र के पास नहीं आ सके थे। केंद्र ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि सूखाग्रस्त राज्यों की स्थिति के मद्देनजर उसने मनरेगा के तहत निर्धारित 38,500 करोड़ रुपये में से करीब 19,545 करोड़ रुपये जारी कर दिए हैं। ये इन 10 राज्यों को जारी किए गए हैं। दरअसल, सूखे से निपटने का बना बनाया नियम हो गया है कि मनरेगा के तहत 100 दिनों के रोजगार की जगह 150 दिनों के रोजगार के अनुसार राशियां जल्दी जारी की जातीं हैं ताकि वहां गरीबों को काम मिले और जलाशयों या कुंओं आदि की सफाई, खुदाई हो सके। यहां यह विचार का विषय नहीं है।

इस संकट को देशव्यापी और एक हद तक वैश्विक मानकर और इसके तात्कालिक एवं दूरगामी समाधान पर विचार करना होगा। भारत में दुनिया की 16 प्रतिशत आबादी है जबकि उपयोग लायक पानी का केवल 4 प्रतिशत हमारे देश में है। इस बात के प्रति जितनी जागरुकता पैदा की जानी थी नहीं की गई और जल के प्रति हमारे यहां सामाजिक नागरिक दायित्व तो मानो कुछ है ही नहीं। जरा सोचिए, जिन क्षेत्रों में 200 सें. मी. से 1000 सें. मी. तक बारिश होती है वहां तो कभी सूखा या जल संकट नहीं होना चाहिए। वहां क्यों है? साफ है कि जल प्रबंधन के पारंपरिक तरीके जिनमें अपने उपयोग के साथ प्रकृति के संरक्षण के पहलू स्वयमेव निहित थे हमने नष्ट कर दिए। पीढ़ी दर पीढ़ी आने वाले वे ज्ञान तक लुप्त हो गए। आज पहले की तरह पक्का कुंआ खोदने वाले मजदूर आपको नहीं मिलेंगे। पुराने नष्ट और नए तरीके हमने जो विकसित किए वे अंधाधुंघ पानी के निष्काषण और असीमित खर्च का है। खेतों मंें सिंचाई ऐसी की आज भारत के जल खर्च का 80 प्रतिशत केवल सिंचाई में जाता है, जबकि हमारी आधी भूमि भी सिंचित नहीं है। पहाड़ी इलाकों में पानी जमा करने के अनेक तरीके थे, सीढ़ीदार खेतियां थीं। कहां गए वे? जिन गांवों ने उन तरीकों पर काम किया उनके पास आज भी संकट नहीं है। गांधी जी ने शहरों को विनाशक कहा था। वे मानते थे और यही संच है कि औद्योगीकरण और उसके साथ पैदा होते शहर गांवों और प्रकृति का खून चूसकर ही बढ़ते हैं। शहरों में प्रति व्यक्ति पानी की मांग जहां 135 लीटर वहीं गांवों में करीब 40 लीटर।

तो जो कारण हैं उन्हें दूर करने की आवश्यकता है। यह आसान नहीं है। देश के स्तर पर राज्यों और राज्यों में भी कुछ क्षेत्रों के अनुसार समन्वित राष्ट्रीय नीतियों के द्वारा रास्ता निकलेगा। साथ ही जो हमारी सीमा से बाहर निकलकार जातीं हैं उनका उनके अनुसार समाधान करना होगा। हमारे यहां नदियो और झीलों का जुड़ाव चीन, बंगलादेश, नेपाल और भूटान तक से हैं। अगर वे गड़बड़ियां करेंगे तो हम प्रभावित होंगे और होते हैं। तो यहां इस स्तर पर भी निदान करना होगा। इसी तरह ग्लोबल वार्मिंग का इलाज अकेले भारत नहीं कर सकता। हां, भारत की जो जिम्मेवारी है वह पूरी करेगा तभी वह दुनिया को करने की नसीहतें दे सकता है। लेकिन जल के प्रति नागरिक-सामाजिक दायित्व का भान और उसका निर्वहन सर्वोपरि है। प्रकृति के साथ व्यवहार का सरल सिद्वांत है कि उससे हम उतना ही लें जिससे वह सदा देने की स्थिति में रहे। यह हम सीखें, अपने बच्चों को सिखाएं और दुनिया को भी बताएं।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पाण्डव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208 

 

 

 

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

उत्तराखंड पर उच्चतम न्यायालय ही अंतिम फैसला दे सकता है

 

अवधेश कुमार

उच्चतम न्यायालय ने मामला स्वीकार कर लिया है। उसके द्वारा उत्तराखंड उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक के बाद प्रदेश फिर से राष्ट्रपति शासन के तहत है। इस मामले को उच्चतम न्यायालय में आना ही था। उच्च न्यायालय ने जैसी टिप्पणियां कीं तथा जिस तरह के प्रश्न खड़ा कर दिए उनके निपटारे के लिए उच्च्तम न्यायालय ही एकमात्र संस्था है। नैनीताल उच्च न्यायालय द्वारा उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन निरस्त करने के दो पहलू थे, संवैधानिक एवं राजनीतिक। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो तत्काल यह निर्णय नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए पहला ऐसा झटका था जिसका जवाब देने की स्थिति में भाजपा के प्रवक्ता नहीं थे। न्यायपालिका के मामले पर कोई पार्टी, भले वह फैसले से जितनी क्षुब्ध हो, खिलाफ टिप्पणी नहीं कर सकती। उनकी नजर में फैसला चाहे गलत ही क्यों न हो आपके पास तत्काल उसे स्वीकारने और उसके विरुद्ध अपील करने का ही विकल्प बचता है। अगर उच्चतम न्यायालय इस फैसले को कायम रखता है तो फिर कांग्रेस और सारी विरोधी पार्टियों के पास केन्द्र सरकार के विरुद्ध यह ऐसा अस्त्र होगा जिससे वे लगातार हमला करते रहेंगे। कांग्रेस के बयानों को देख लीजिए। उसके प्रवक्ता कह रहे थें कि भाजपा की उनकी सरकारों पर लालची नजर है और इस फैसले से साबित हो गया कि अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर वह सरकारों का गला घोंटना चाहती है। अन्य विरोधी दलों ने भी सरकार के खिलाफ तीखे तेवर अपनाए। लेकिन यदि उच्च्तम न्यायालय ने केन्द्र के निर्णय को सही करार दे दिया तो फिर यही स्थिति पलट जाएगी।

उच्च न्यायालय के फैसल से राजनीति में कांग्रेस बाजी मार ले गई दिखती थी। राष्ट्रपति शासन लगाने और विधानसभा निलंबित रखने के बाद हरीश रावत ने राज्य भर में सभाएं की और अपने पक्ष में सहानुभूति पाने की रणनीति अपनाई था। भाजपा इसमें भी पीछे रह गई थी। भाजपा के पास अपने कदम की रक्षा करने का विकल्प था। उसने रावत के खिलाफ इस तरह आक्रामक अभियान नहीं चलाया जैसा रावत भाजपा एवं मोदी सरकार के खिलाफ चला रहे थे। उच्च न्यायालय के फैसले न रावत की इस कोशिश को और ताकत दे दिया था। हालांकि इस बात से इन्कार करना कठिन है कि सदस्यों द्वारा विद्रोह करने के बावजूद रावत का पद पर बने रहना नैतिक नहीं था। कम से कम उस समय रावत को बहुमत नहीं प्राप्त था। इसी तरह स्टिंग में उन्हें भी सदस्यों के समर्थन के लिए मोलभाव करते देखा गया। यानी उनके पक्ष को नैतिक नहीं कहा जा सकता। जो स्थिति उत्तराखंड मंें पैदा हो गई थी उसमें हरीश रावत की सरकार बगैर लोभ लालच में बच नहीं सकती थी।

उच्च न्यायालय ने ऐसी कुछ सख्त टिप्पणियां कर दीं जो केन्द्र सरकार पर धब्बे की तरह है। मसलन, न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए जिन तथ्यों पर विचार किया गया उसका कोई आधार नहीं है....केन्द के पास ऐसा कुछ नहीं है जिससे साबित हो कि राज्य में आपातकाल जैसे हालात हैं...निलंबन या भंग किया जाना निर्वाचित सरकार को गिराया जाना ही है...यहां कुल मिलाकर जिसे दांव पर लगाया गया वह लोकतंत्र था...। जब न्यायालय में केंद्र की ओर से कहा गया कि यह गारंटी नहीं दी जा सकती कि इस राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाया जाएगा तो न्यायालय ने कहा कि आपके इस रवैये पर हमें अफसोस है। केन्द्र की ओर से यह कहने पर कि हम चाहते हैं कि इस मामले में कोई फैसला होने तक राष्ट्रपति शासन लागू रहे पीठ ने कहा कि अगर ऐसा नहीं होता है तो उन्हें इस बात की चिंता है कि भाजपा को यह मौका मिल जाएगा कि वह यह साबित कर सके कि उसके पास नई सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या में विधायकों का समर्थन है। न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर कल आप राष्ट्रपति शासन हटा लेते हैं और किसी को भी सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर देते हैं, तो यह इंसाफ का मजाक उड़ाना होगा। उच्च न्यायालय की सरकार के खिलाफ सबसे सख्त टिप्पणी इस प्रश्न के साथ आई कि क्या केंद्र सरकार कोई प्राइवेट पार्टी है?

हमारे देश में न्यायालय की टिप्पणियां एक लक्ष्मण रेखा की तरह बन जातीं हैं जिनको भविष्य में बार-बार उद्धृत किया जाता है। केन्द्र सरकार इन टिप्पणियां को स्वीकार कर चुपचाप नहीं रह सकती थी। इसलिए उच्चतम न्यायालय का मत अपरिहार्य है। फैसला देने के एक दिन पहले उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति पर जो टिप्पणी कर दी उसे कायम रखा जाएगा या नहीं इसे लेकर संविधान विशेषज्ञों ने भी असहजता प्रकट की।  आम सोच यह थी कि राष्ट्रपति राजा नहीं हैं.....उनसे भी गलतियां हो सकतीं है....जैसी टिप्पणियों से न्यायालय को भी बचना चाहिए था। दरअसल, किसी मामले में राष्ट्रपति पर ऐसी सख्त टिप्पणी पहली बार आई है। अभी तक उच्चतम न्यायालय ने भी कभी राष्ट्रपति पद या किसी राष्ट्रपति के विरुद्व नकारात्मक टिप्पणी नहीं की थी। वैसे भी हमारे संविधान में राष्ट्रपति केवल नाममात्र के ही कार्यकारी प्रधान हैं। वे मंत्रिमंडल के फैसले को मानने के लिए बाध्य हैं। हां, वे पुनर्विचार के लिए अवश्य इसे वापस कर सकते हैं, लेकिन अगर दोबारा वही वापस आ गया तो उन्हें हस्ताक्षर करना होगा। देखते हैं इस पर उच्चतम न्यायालय क्या रुख अपनाता है। कम से कम अभी तक के उच्चतम न्यायालय के रुख से ऐसा नहीं लगता कि राष्ट्रपति के विरुद्ध टिप्पणी को वह जारी रखेगा।

वास्तव में राजनीति से परे उच्च न्यायालय के फैसले में बहस के मुख्य पहलू संवैधानिक एवं संसदीय परंपराओं के संदर्भ में हैं। इनमें ऐसे पहलू हैं जिनका अंतिम फैसला उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है। उच्च न्यायालय ने 18 मार्च को विनियोग विधेयक को पारित मान लिया है। संविधान विशेषज्ञों ने कहा था कि अगर एक भी सदस्य मत विभाजन मांगता है तो फिर अध्यक्ष को ऐसा करना होगा। संसद की यह परंपरा रही है। सदस्य का अर्थ सदस्य है...वह सत्ता एवं विपक्ष किसी का भी हो सकता है। तो संसद की इस परंपरा का क्या होगा? इसका उत्तर तो उच्चतम न्यायालय ही देगा? दूसरे, विनियोग विधयेक यदि पारित हो गया है तो फिर सदन के अंदर दलबदल कैसे मान लिया जाए? सारी समस्या तो वहीं से पैदा हुई। कांग्रेस के नौ विधायकों का पाला बदलना उसी कारण माना गया। उनकी सदस्यता अध्यक्ष ने इसी आधार पर भंग की कि उनने अपने पार्टी के खिलाफ काम किया। कोई सदन के बाहर पार्टी के खिलाफ काम करे इसके लिए उसकी सदस्यता भंग नहीं हो सकती। तो यह बड़ा प्रश्न सामने है। तीसरे, अभी तक किसी उच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन को निरस्त करने का आदेश नहीं दिया था। केवल उच्चतम न्यायालय ही यह फैसला कर रहा था। क्या उच्च न्यायालय आगे ऐसा करेगा या यह विशेषाधिकार उच्चतम न्यायालय के पास रहेगा इसका निर्णय होना भी आवश्यक है। यह बहुत बड़ा प्रश्न है। यही नहीं अनुच्छेद 356 पर शायद एक और बड़े फैसले की आवश्यकता है ताकि 1994 के बोम्मई मामले के फैसले में छुटे पहलुओं पर न्यायिक मत सामने आ सके। आखिर उत्तराखंड जैसी स्थिति में कोई केन्द्र सरकार क्या कर सकती है इसका मार्गदर्शन भी उच्चतम न्यायालय को करना चाहिए। और सबसे बढ़कर जैस उपर कहा गया राष्ट्रपति पद पर टिप्पणी का मामला है।

तो हमें उच्चतम न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। इस समय बाबा साहब अम्बेदकर की यह टिप्पणी कई जगह उद्धृत की जा रही है कि अनुच्छेद 356 संविधान में तो है, पर इसका उपयोग होने की नौबत कभी नहीं आएगी। दुर्भाग्य से हमारी राजनीति ने संविधान की उस भावना का पालन नहीं किया। इस समय हम भाजपा को कितने भी कठघरे में खड़ा कर दें, पर सबसे ज्यादा इस अनुच्छेद का दुरुपयोग कांग्रेस के शासनकाल में हुआ। वैसे कोई भी सरकार ऐसी नहीं रही जिसने इसका उपयोग नहीं किया। अनेक बार उससे बचा जा सकता था। इसका कारण राजनीति में गिरावट रहा। तो 356 हमारी राजनीति में गिरावट का हथियार बन गई। अगर उत्तराखंड में ही कांग्रेस के अंदर विद्रोह नहीं हुआ होता...या उसके बाद रावत नैतिकता के आधार पर कम से कम त्यागपत्र की पेशकश कर देते...भले कांग्रेस आलाकमान इसे नहीं मानती तो तस्वीर दूसरी होती।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

क्या कहती है हंदवाड़ा गोलीकांड के बाद कश्मीर की अशांति

 

अवधेश कुमार

कश्मीर घाटी फिर अशांत एवं हिंसक हो रही है। श्रीनगर के अलावा कुपवाड़ा, गांदरबल, हंदवाड़ा, पुलवामा समेत कई जिलों में लोक आक्रामक एवं हिंसक प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन क्यों? पहली नजर में देखने से ऐसा लगता है कि यदि सेना की गोलीबाड़ी में चार नवजवान मारे गए हैं तो लोगों का गुस्सा बिल्कुल स्वाभाविक है। यकीनन उन चारों नवजवानों की जीवन लीला बेवजह समाप्त हुई। किंतु इसके लिए क्या सेना को दोषी ठहराया जा सकता है? कतई नहीं। कुछ लोगों ने साजिश करके जानबूझकर ऐसी विकट स्थिति पैदा की जिसमें सेना के पास गोली चलाने के अलावा आत्मरक्षा का कोई उपाय ही नहीं था। भारी संख्या में आक्रोशित लोग सेना पर हमला कर रहे थे, उन पर पत्थर फेंक रहे थे और स्थिति की कल्पना आप खुद कर सकते हैं। सेना को लोगों को तितर-बितर करने के लिए गोली चलानी पड़ी और दुर्भाग्य से चार नवजवान मारे गए। दो वहीं मारे गए और दो बाद में अस्पताल में। सवाल है कि लोगों ने सेना पर उतना उग्र हमला क्यों किया?

इसी प्रश्न के उत्तर से यह पता चल जाता है कि कश्मीर घाटी में ऐसी शक्तियां सक्रिय हैं जो वहां हिंसा, अशांति एवं अस्थिरता पैदा करने के लिए किसी घटना को गलत मोड़ दे देतीं हैं। अफवाह फैलाया गया कि सेना ने एक छात्रा के साथ छेड़छाड़ किया है। उस छात्रा ने साफ कर दिया है कि उसके साथ एक स्थानीय व्यक्ति ने छेड़छाड़ किया और उसे पीटा। यहां तक कि पुलिस के सामने भी उसने पीटा। तो फिर यह झूठ किसने फैलाया और किसने लोगों को सेना पर हमले के लिए उत्तेजित किया? मेहबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार दिल्ली आईं थी प्रधानमंत्री सहित कुछ मंत्रियों से मुलाकात करने। उन्होंने रक्षामंत्री मनोहर पर्रीकर से भी मुलाकात की। मुलाकात के बाद दिल्ली में उन्होंने एक ही बयान दिया कि जो घटना हुई है मैंने रक्षा मंत्री से उसकी जांच की मांग की है और मंत्री ने उन्हें निष्पक्ष जांच तथा दोषियों पर कार्रवाई का भरोसा दिलाया है। यही नहीं मेहबूबा ने वहां के सेना के कमांडर से भी बातचीत कर ली। उन्होंने मारे गए लोगों को उचित मुआवजे तथा दोबारा ऐसी घटना न हो इसकी व्यवस्था करने की भी बात की।

बहुत अच्छा मेहबूबा जी। आपने अपनी राजनीति कर ली। एक राजनीति आपने एनआईटी मामले में पूर्ण चुप्पी के साथ भी की। घाटी में आपकी यही राजनीति हो सकती है। आपकी पार्टी ने सेना की निंदा करके उसका विरोध करके चुनाव जीता है। सेना को खलनायक बनाया है। आपकी मांग सेना के लिए विशेष कानून अफस्फा हटाने की है। लेकिन वहां मुख्यमंत्री के नाते आपको ही जांच करानी चाहिए और जांच का विषय यह होना चाहिए कि भीड़ उग्र क्यों हुई? जब सेना ने लड़की के साथ छेड़छाड़ किया ही नही तो फिर इस तरह की अफवाह फैलाने वाले कौन थे और उनका इरादा क्या था? जांच इस बात की होनी चाहिए कि जब सेना पर हमला हुआ तो स्थानीय पुलिस क्या कर रही थी? पुलिस को तब तक पता चल चुका था कि सेना ने लड़की को नहीं छेड़ा है। सरकार ने बस एक सहायक उप निरीक्षक को निलंबित कर कर्तव्यों की इतिश्री समझ लिया है। यह बिल्कुल अस्वीकार्य है। पूरे घटनाक्रम को देखा जाए तो इसमें सेना की भूमिका की जांच की आवश्यकता ही नहीं है।

राज्य सरकार ने मोबाइल इंटरनेट सेवा पर तत्काल बंदिशें लगा दी हैं। इसका मकसद असामाजिक तत्वों द्वारा अफवाह फैलाने पर रोक लगाना है। लेकिन उनका क्या करें जो घाटी में बंद का आह्वान कर आग में पेट्रोल डाल रहे हैं। सैयद अली शाह गिलानी से लेकर यासिन मलिक, मीरवायज उमर फारुख... आदि सबको मानो अशांति पैदा करने के लिए मुंहमांगा अवसर मिल गया है। सवाल है कि ये लोग किसके खिलाफ बंद का आह्वान कर रहे हैं? सेना का, जिसके पास अपनी रक्षा के लिए एक ही रास्ता बचा था, गोली चलाना। यह काम पुलिस का था जिसने नहीं किया। पुलिस चाहती तो लाउडस्पीकार से घोषणा कर सकती थी कि सेना ने लड़की के साथ छेड़छाड़ नहीं किया है। इस घोषणा के साथ वह सुरक्षा की पर्याप्त व्यवस्था कर देती तो लोग संभवतः इतने हिंसक नहीं होते तथा सेना पर हमले की स्थिति पैदा नहीं होती। अलगाववादी नेताओं को तो प्रायश्चित करना चाहिए कि जो जहर इनने कश्मीर में बोया है उसमें कोई भी अफवाह सुरक्षा बलों पर हमले, पत्थरबाजी में बदलती है और कभी-कभी गोली चालन में उनके बीच के निर्दोषों की जाने जातीं हैं। घाटी को इस समय इनके ही अपराध की सजा मिली है। किंतु ये अभी भी सेना को ही खलनायक बना रहे हैं। इनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या सेना स्वयं अपने को समर्पित कर देती कि हमने भले नहीं कुछ किया लेकिन आपको गुस्सा है तो हमीं पर उतार दो?

गृहमंत्रालय मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती के पास है। कानून व्यवस्था बनाए रखना उनकी जिम्मेवारी है। इसमें कानून व्यवस्था की विफलता साफ दिखती है। तो वो किसे दोषी मानतीं हैं जिसके बारे में कह रहीं हैं कि ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न हो इसका उपाय होना चाहिए? लोग सेना पर हमला करेंगे तो सेना मूकदर्शक बनी नहीं रहेगी। अनावश्यक लोग सेना से न उलझें, कोई अफवाह न फैला सके और ऐसी नौबत पैदा न हो ...यह जिम्मेवारी कानून व्यवस्था की एजेंसियों का ही है। जांच तो मुख्यमंत्री मेहबूबा को उनके खिलाफ करानी चाहिए। पुलिस ने अपनी भूमिका अदा क्यों नहीं की इस प्रश्न का उत्तर तलाशा जाना चाहिए? अफवाह फैलाने वाला कौन था या कौन थे इसका पता लगाकर उन्हें कानून की गिरफ्त में लाना चाहिए। मेहबूबा ऐसा करेंगी नहीं। इससे उनका वोट बैंक कमजोर होगा। किंतु कम से कम केन्द्र सरकार को तो उनके सामने स्पष्ट बात करनी चाहिए थी। रक्षा मंत्री तो बता सकते थे कि अफवाह फैलाने से लेकर सेना पर हमला करने तक पुलिस वहां बिल्कुल मूकदर्शक की तरह रही और जिम्मेवारी उसके सिर पर जाती है आप उसकी जांच कराएं। केन्द्र सरकार को इस तरह साफ बात करने में क्या समस्या थी? क्या इससे उनकी मिलीजुली सरकार चली जाती? सरकार की जरुरत केवल भाजपा को नहीं पीडीपी को भी है यह भाजपा को समझना चाहिए। मेहबूबा से तो यह भी पूछा जाना चाहिए कि यही सक्रियता आपकी एनआईटी कांड के समय कहां थी। वहां भी आपकी पुलिस ने उन छात्रों पर कहर बरसाया जो पाकिस्तान जिन्दाबाद, हिन्दुस्तान मुर्दाबाद को विरोध कर रहे थे एवं भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे। ध्यान रखिए मेहबूबा का उस घटना पर सार्वजनिक बयान एक बार भी नहीं आया। उनके बारे में जो कहा गया वह केन्द्रीय गृहमंत्री एवं मानव संसाधन विकास मंत्री के हवाले से। हंदवाड़ा मामले पर तो उनको बयान देने में मिनट भी नहीं लगा। इसका अर्थ आप स्वयं लगाइए और निष्कर्ष निकालिए की कश्मीर किस दिशा में जा रहा है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

 

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

धर्मपुरा वार्ड 233 की निगम पार्षद तुलसी गांधी 'नेता जनता के द्वार' कार्यक्रम को संबोधित करती हुईं साथ में हैं पूर्वी दिल्ली के पूर्व सांसद संदीप दीक्षित


 

रामदेव के बयान पर मचे बावेला का दूसरा पहलू

 

अवधेश कुमार

स्वामी रामदेव काफी दिनों बाद मीडिया की सुर्खियां बने हैं। कई मीडिया खासकर अंग्रेजी समाचार चैनलों में यह खबर चली है कि रामदेव उनका सिर काटेंगे जो भारत माता की जय नहीं बोलेगा या भारत माता की जय का विरोध करेगा। क्या स्वामी रामदेव के पास इतनी अक्ल नहीं है कि ऐसे बयान का क्या असर हो सकता है? किसी भी मामले में हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता है। जो कोई भी हिंसा की बात करता है उसका विरोध होना चाहिए ताकि दूसरा कोई उससे प्रेरणा लेकर वैसा ही न करने लगे। किंतु स्वामी रामदेव ने यह नहीं कहा है कि वो सिर काट लेंगे। भारत माता की जय का विरोध करने वालों के बारे में उनका बयान यह है कि हम कानून का सम्मान करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कितनों का सिर काट देते। साफ है कि जानबूझकर बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है। बतंगड़ बनाने वालों की सोच क्या है वे क्या चाहते हैं यह शायद अब बताने की आवश्यकता भी नहीं। देश इन लोगों का अच्छी तरह पहचानने लगा है। वास्तव में स्वामी रामदेव के बयान का मतलब चह है कि गुस्सा तो हमारे मन में है, पर कानून का पालन करने के कारण हम शांत हैं। इसका दूसरा अर्थ यह हुआ कि हम अपना गुस्सा दूसरे ढंग से प्रकट करें जिसमें हिंसा न हो।

यह मानना भी गलत होगा कि केवल स्वामी रामदेव अकेले ऐसा कहने या सोचने वाले हैं। आप भारत माता की जय मामले पर आम लोगों को यह कहते हुए सुन सकते हैं कि इतना गुस्सा आता है कि मन करता है गोली मार देते.... कुछ यह कहेंगे कि ऐेसे लोगों के लिए तो कानून बनना चाहिए ताकि सजा मिले, उऩको सीधे फांसी पर चढ़ा दिया जाए या उनको देश निकाला दिया जाए। तो गुस्से का आम माहौल ऐसे लोगों के विरुद्ध है। वास्तव में समाज की सामूहिक भावना का यही सच है। स्वामी रामदेव ने भी अपने भाषण में इसी भाव को प्रकट कर दिया है। वे बड़े व्यक्तित्व हैं, इसलिए कुछ लोगों को उनके मुंह से वह भी सार्वजनिक स्तर पर सुनना थोड़ा अजीब लगता है, परंतु भारत माता जय के मामले पर यही सच है। देश का बहुमत भारत माता की जय के पक्ष में है और इसका किसी तरह से विरोध करने वाले...या किंतु परंतु लगाने वाले या फिर यह कहने वाले कि आप हमसे जबरन नहीं कहलवा सकते....के खिलाफ आम गुस्सा है। इसमें आम प्रतिक्रिया है कि ओह देश का कानून रोकता है नहीं तो ऐसे लोगों को तो बीच चौराहे पर खड़ा करके गोली मार देना चाहिए। क्या यह भावना लोग व्यक्त करते हैं या नहीं? अगर प्रकट करते हैं तो फिर रामदेव के बयान को अकेले किसी एक व्यक्ति का बयान क्यों मान लिया जाए?

वैसे भी यह अच्छी बात है कि देशभक्ति, भारतभक्ति, भारतनिष्ठा को लेकर इस तरह के खुलकर बयान आ रहे हैं। मीडिया में आलोचना करने से इस भावना को रोका नहीं जा सकता। उल्टे इसकी प्रतिक्रिया में लोगों का गुस्सा और बढ़ता है। लोग पूछते हैं कि रामदेव ने गलत क्या कहा? फिर आप रामदेव की आलोचना करिए और जो लोग भारत माता की जय को आरएसस और भाजपा का सांप्रदायिक एजेंडा घोषित करते हैं उनको यूं ही छोड़ दीजिए। उनकी आलोचना नहीं हो, उनका विरोध न हो तो समाज अपने तरीके से इसका रास्ता निकालेगा। सवाल है कि भारत माता की जय से आपत्ति क्यों प्रकट की जानी चाहिए? किसी को भारत माता की जय बोलने में समस्या क्यों होनी चाहिए? जो भारत माता की जय नहीं बोलते उनको किस श्रेणी का भारतीय मानना चाहिए? कैसे मान लें कि भारत के प्रति उनकी निष्ठा है? ये ऐसे प्रश्न हैं जो समाज को मथ रहे हैं और दुर्भाग्य यह है कि मीडिया इन प्रश्नों का गंभीरता पूर्वक और यथोचित उत्तर ढूढने और सामने रखने की जगह जो कोई इसके पक्ष में आक्रामक बयान दे देता है उसी को कठघरे में खड़ा करने लगता है। इसकी समाज में विरोधी प्रतिक्रियाएं होती हैं। इस कारण मीडिया की अपनी साख गिर ही है भले ये इसे स्वीकार न करें।

आप महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस का बयान देख लीजिए। अगर वो भारत माता की जय के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी कुर्बान करने की बात कर रहे हैं भले इसकी नौबत न आए या वे न करें लेकिन इसकी तो प्रशंसा होनी चाहिए। देवेन्द्र फडणवीस ने वही कहा है जो एक देशभक्त को ऐसे मामले पर कहना चाहिए। आखिर कोई भी पद भारत भक्ति, देशभक्ति के सामने तुच्छ लगे यह भावना अगर नेताओं में पैदा हो तो इससे बेहतर बात क्या हो सकती है। आखिर सबसे पहले हमारा देश भारत है। भारत है तभी हम हैं, तभी हमारी अस्मिता है, तभी हमारा कोई पद है। इसलिए भारत सर्वोपरि है। भारत भक्ति हमारी प्राथमिकता होनी ही चाहिए। इसी भारत माता की जय कहते हुए, वंदे मातरम कहते हुए हजारों देशभक्त दीवानों ने इसकी स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व बलि चढ़ा दिया। देशभक्ति की वो दीवानगी हर हाल में कायम रहनी चाहिए। भारत माता की जय और वंदे मातरम जैसे नारे हमारी अंतश्चेतना में कुछ क्षण के लिए वही दीवनगी पैदा करती है। हिन्दुस्तान की जय और जय हिन्द नारा भी समानार्थी है। किंतु कोई यह कहे कि हम हिन्दुस्तान की जय बोलेंगे, जय हिन्द बोलेंगे लेकिन भारत माता की जय नहीं बोलेंगे तो यह न तार्किक है और न स्वीकार करने योग्य। यह केवल कुत्सित राजनीति है। भारत माता की जय को आरएसएस और भाजपा का एजेंडा बताना कुछ लोगों की कोरी नासमझी है तो कुछ लोगों की कुटिल राजनीति। इस पर सबका समान अधिकार है।

विडम्बना देखिए कि जब दारुल उलुम देवबंद ने बाजाब्ता जलसा बुलाकर भारत माता की जय के खिलाफ फतवा जारी किया तो इसकी उतनी लानत मलानत नहीं हुई जितनी स्वाम रामदेव या देवेन्द्र फडणवीस के बयानों की हो रही है। क्यों? यही तो एकपक्षीयता है। अनेक मुस्लिम विद्वानों और मौलवियों ने पहले कहा कि भारत माता की जय बोलना कहीं से इस्लाम विरुद्ध नहीं है। फिर देवबंद के सामने ऐसी क्या आपात स्थिति पैदा हो गई कि उसने बाजाब्ता बैठक बुलाकर इसे इस्लाम के खिलाफ घोषित कर दिया? तब तो पीर अली से लेकर अश्फाक उल्लाह खान और मौलाना अबुल कलाम आजाद .....जैसों को इस्लाम विरोधी मान लेना होगा। आप भारत माता की मूर्ति या तस्वीर की बात क्यों करते हो? आवश्यक नहीं कि हर कोई भारत माता की जो तस्वीरें हमें मिलतीं है उनको स्वीकारें। अमूर्त और निर्गुण रुप में भी अपने वतन को माता माना जा सकता है और उसकी जय बोली जा सकती है। इसके लिए कुरान, हदीस या शरीया कहीं से बाधा नहीं है।  जाहिर है, यह भारत माता की जय के नाम पर गंदी और सांप्रदायिक राजनीति को खड़ा करने का दुष्प्रयास है। आखिर असदुद्दीन ओवैसी को किसने कहा था कि आप भारत माता की जय बोलो ही? संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने तो यही कहा था आज की पीढ़ी को भारत माता की जय बोलना सिखाने की आवश्यकता है क्योंकि वह ऐसा करता नहीं। उन्होंने तो ओवैसी का नाम भी नहीं लिया था। इसके बाद एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि हमे जबरदस्ती किसी से भारत माता की जय नहीं बोलवाना है। हम अपने व्यवहार से उनका दिल जीते ताकि वे स्वयं ऐसा बोलने लगे। लेकिन ओवैसी को अपनी सांप्रदायिक राजनीति करनी है इसलिए उन्होंने मोहन भागवत का नाम लेकर लातूर की सभा में चीखना आरंभ कर दिया कि मेरे गले पर छूड़ा रख दो तो भी मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा।

जितना विरोध स्वामी रामदेव और देवेन्द्र फडणवीस के बयान का हो रहा है उसका शतांश भी ओवैसी का नहीं हुआ। जितना बड़ा मुद्दा रामदेव और फडणवीस के बयानों को बनाया गया है उतना बड़ा ओवैसी का नहीं बना? क्यों? इसके खिलाफ समाज के बड़े वर्ग के ंअंदर गुस्सा पैदा होता है। यह तो भारत की सहिष्णु संस्कार है कि कुछ अनहोनी नहीं होती अन्यथा इन भंगिमाओं से आम आदमी के अंदर खीझ और क्रोध पैदा हो रहा है। इसे समझने की आवश्यकता है। आज रामदेव ने बोला है। हो सकता है कल आपको हजारों रामदेव ऐसा बोलने वाले दिख जाएं। वस्तुतः ऐसा न हो इसका उपाय करना आवश्यक है। इसका एक उपाय यह है कि जो लोग अपनी राजनीति या सांप्रदायिक सोच के लिए भारत माता की जय का विरोध कर रहे हैं, इसे अनर्गल तरीके से किसी मजहब के खिलाफ साबित कर रहे हैं या फिर इसे भाजपा एवं आरएसएस के सांप्रदायिक एजेंडा का अंग मानकर इसको महत्वहीन बनाने पर तुले हैं उनका पुरजोर विरोध हो, उनकी लानत मलानत की जाए। जावेद अख्तर भी मुसलमान हैं और वो कहते हैं मैं बार-बार भारत माता की जय कहूंगा क्योंकि ये हमारा कर्तव्य नहीं अधिकार है। ऐसे लाखों मुसलमानों को खड़ा किया जा सकता है। इसका अभियान क्यों न चलाया जाए। अभी प्रधानमंत्री की सउदी अरब यात्रा के दौरान मुसलमान पुरुष और महिलाआंे ने खुलकर भारत माता की जय के नारे लगाए। तो क्या देवबंदी उलेमा उनको इस्लाम से बाहर कर देंगे? ऐसा नहीं हो सकता। आखिर मुसलमानों का सबसे पवित्र स्थान मक्का और मदीना सउदी अरब में ही है। वहां से भारत माता की जय की आवाज निकलने का महत्व आसानी से समझा जा सकता है।  वास्तव में इस भाव को विस्तारित करने और ताकत देने की जरुरत है। अब यह कैसे हो इस पर जरुर विचार होना चाहिए। मीडिया भी संभलकर ऐसे मामले में अपनी भूमिका निभाए।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208  

 

शनिवार, 2 अप्रैल 2016

नवाज शरीफ ने यूं ही रद्द नहीं की अमेरिका यात्रा

 

अवधेश कुमार

तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अपनी अमेरिका यात्रा रद्द कर दिया। पाकिस्तान में जब भी कोई आतंकवादी हमला होता है लोगों की सामान्य प्रतिक्रिया यही होती है कि अरे वहां तो ऐसा होता रहता है। लेकिन लाहौर में हुए विस्फोट को आप इस श्रेणी का नहीं मान सकते। स्वयं पाकिस्तान ने इसे किस तरह लिया है इसका प्रमाण है, प्रधानमंत्री शरीफ द्वारा अपनी अमेरिका यात्रा को रद्द करना। ध्यान रखिए वाशिंगटन में परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने स्वयं शरीफ को आमंत्रित किया था। इसमें 72 लोगों के मरने की पुष्टि हो चुकी है तथा 200 से ज्यादा लोगों के घायल होने की। एक तो इतनी संख्या में लोगों का हताहत होना ही इसे बड़ा आतंकवादी विस्फोट साबित कर देता है।  16 दिसंबर 2014 को तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने पेशावर के सैनिक स्कूल पर हमला किया था। इसमें 126 बच्चों की मौत हो गई थी। इस हमले के बाद पाकिस्तान ने जिस तरह आतंकवादियों के खिलाफ अभियान चलाया है उसमें यह हमला साबित करता है कि उस देश के लिए आतंकवाद से निकलना लगभग नामुमकिन जैसा हो गया है। सैनिक स्कूल पर हमले के 13 महीने बाद 20 जनवरी 2016 को पेशावर के पास चरसद्दा की बाचा खान यूनिवर्सिटी में तहरीक-ए-तालिबान ने हमला किया। इस हमले में 21 छात्रोें-शिक्षकों की जान चली गई। वास्तव में बाचा खान विश्वविद्यालय में हमला करके भी आतंकवादियों ने यही संदेश दिया था कि हमारे खिलाफ आपके ऑपरेशन से हमारा अंत नहीं हो सकता। हम ताकतवर थे, हैं और रहेंगे। हालांकि यह सच है जर्ब ए अज्म नामक औपरेशन से वजीरीस्तान में तहरीक ए तालिबान को काफी क्षति पहुंची है। उसके लड़ाके भारी संख्या में मारे गए हैं एवं उसकी आधारभूत संरचनाएं भी नष्ट हुईं हैं, पर वह शक्तिहीन नहीं हुआ है।

 लाहौर का हमला इसलिए ज्यादा चिंता का विषय है कि सामान्यतः पंजाब को तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान के खूनी पंजे से मुक्त माना जाता रहा है। इस हमले की जिम्मेवारी तहरीक ए तालिबान के ही एक उप समूह जमातुल अहरार ने ही लिया है। तालिबान ने पाकिस्तान सरकार को चेतावनी देते हुए जिस तरह प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का मजाक उड़ाया है वह उनके लिए सीधी चुनौती है। पंजाब उनका गृह प्रदेश है तथा वहां उनके भाई मुख्यमंत्री हैं। जमातुल अहरार ने कहा है कि लाहौर में हमला कर उसने सरकार को पंजाब पहुंचने का संदेश दे दिया है। अहरार के प्रवक्ता ने ट्वीट कर कहा है कि नवाज शरीफ को जानना चाहिए कि लड़ाई उनके दरवाजे तक पहुंच चुकी है। अल्लाह की इच्छा है कि इस युद्ध में मुजाहिदीन की जीत हो। इस प्रकार की चुनौती अगर आतंकवादी संगठन ने दिया है तो फिर प्रधानमंत्री और पूरे सत्ता प्रतिष्ठान को इसे गंभीरता से लेना ही चाहिए। अगर नहीं लेंगे तो माना जाएगा उन्होंने आतंकवाद के सामने घुटने टेक दिए। उसने फेसबुक पर उर्दू में एक पोस्ट करते हुए आत्मघाती हमलावर की तस्वीर भी जारी की है। उसकी पहचान सलाहुद्दीन खोरसानी के तौर पर की गई है। वास्तव में जमातुल अहरार ने साफ तौर शरीफ को संदेश दिया कि हम आपके दरवाजे पर पहुंच गए हैं। इस तरह पूरी सरकार को चुनौती है कि हम पंजाब में खून खराबा करने आ गए हैं आप रोक सकें तो रोक लीजिए।

हालांकि यह हमला ईस्टर का त्योहार मनाने जुटे ईसाइयों पर हुआ। लाहौर शहर के बीचों-बीच गुलशन-ए-इकबाल पार्क के अंदर झूले के पास 20 वर्षीय खोरसानी ने खुद को उड़ा लिया था। इस धमाके में कम से कम 10 से 15 किलोग्राम विस्फोटक का इस्तेमाल हुआ है। मरने वालों में इन्हीं की तादाद अधिक है। गुलशन-ए-इकबाल लाहौर का सबसे बड़ा पार्क है। इसमें बोटिंग भी होती है। पार्क के पांच गेट हैं। आतंकी गेट नंबर 2 से घुसा। इस गेट के पास ज्यादातर झूले हैं, इसलिए महिलाएं और बच्चे काफी तादाद में मौजूद थे। ईस्टर का मौका होने के कारण पार्क में सामान्य से ज्यादा लोग जमा हुए थे। हमले के वक्त 3 से 5 हजार लोग मौजूद थे। इनमें से अधिकतर ईसाई समुदाय के लोग थे। पार्क के अंदर और आसपास कोई सुरक्षाकर्मी मौजूद नहीं था। हमले के बाद बचाव अधिकारी और पुलिसकर्मी घटनास्थल पर पहुंचे। देखा जाए तो इस हमले को पाकिस्तान में ईस्टर मनाने के विरुद्ध माना जा सकता है। दूसरे शब्दों में यह ईसाइयों पर हमला कहा जा सकता है। वहां के आतंकवादी संगठन अल्पसंख्यकों को कई प्रकार से उत्पीड़ित करते हैं। इनमें ईसाई, हिन्दू और सिख ही नहीं मुसलमानों मंे भी अहमदिया, शिया आदि शामिल हैं।

ये जिस तरह के जेहाद की कल्पना करते हैं उनमें इस्लाम का केवल एक ही स्वरुप सब पर लागू होता है। उसके अलावा कोई भी विचार, उपासना पद्धत्ति......ही नहीं, रहन-सहन, बोलचाल, खानपान तक इन्हें स्वीकार नहीं। इन सबको वो इस्लाम विरोधी मानते हैं। इसलिए ईसाइयों के पवित्र त्यौहार के अवसर पर उनका हमला हमें चौंकाता नहीं हैं। वे शत-प्रतिशत शरिया के अनुसार शासन चाहते हैं। नवाज शरीफ की चिंता इसलिए है, क्योंकि कुछ दूसरे संगठन तो यहां सक्रिय थे जिनमें से अधिकांश का निशाना पाकिस्तान नहीं था। पाकिस्तान में दो तरह के आतंकवादी गुट हैं। एक वो हैं जो भारत में हमले करते हैं और उनकी पूरी तैयारी भारत केन्द्रित हैं। इनमें लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और ऐसे दूसरे संगठन है। लेकिन तहरीके ए तालिबान पाकिस्तान और उसके बनाए गए दूसरे समूह पाकिस्तान में ही हमला करते हैं और वहां की पुलिस, सेना और अन्य सरकारी संस्थाओं को ज्यादा निशाना बनाते हैं।हालांकि राजनीतिक हत्याएं वहां हुईं हैं जिनकी जिम्मेवारी लश्कर ए झांगवी जैसे संगठन ने लिया। कुछ हमले भी हुए। खासकर 2 नवंबर 2014 को बाघा सीमा पर बहुत बड़ा आत्मघाती हमला हुआ जिसमें 50 से ज्यादा लोग मारे गए थे। यह उस समय तक का सबसे बड़ा हमला था। इसकी जिम्मेवारी जुनदुल्लाह और जमातुल अहरार नामक संगठन ने लिया था।  तो जमातुल अहरार पहले से वहां सक्रिय है। शायद उस समय यह साफ नहीं था कि वह तहरीक ए तालिबान से जुड़ा हुआ है। जो भी हो लगातार हमलों से शरीफ पंजाब को बनाए रखने में सफल रहे थे।

अगर तहरीक ए तालिबान पंजाब में प्रवेश कर गया है और यहां सीधे सुरक्षा बलों से लड़ने की जगह वह इस तरह आत्मघाती हमलावरांे से हमले करवाएगा तो फिर पाकिस्तान नष्ट हो जाएगा। केवल लोग ही हताहत नहीं होंगे, इससे पाकिस्तान की पूरी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी। जो कुछ आर्थिक गतिविधयां पाकिस्तान को बचाए हुए है उसका बड़ा अंश पंजाब में ही सीमित है। वजीरिस्तान क्षेत्र में कोई आर्थिक गतिविधि नहीं। बलूचिस्तान में विद्रोह चल रहा है। सिंध जल रहा है। तो कुल मिलाकर पंजाब ही वह क्षेत्र है जो पाकिस्तान की आर्थिक गतिविधियों का आधार है। अगर यहां तहरीके को आतंकवादी हमलों से रोका नहीं गया तो फिर पाकिस्तान को बचाना मुश्किल होगा। इसलिए तीन दिनों की शोक के साथ नवाज शरीफ ने अपनी अमेरिका यात्रा रद्द कर पाकिस्तान में ही रहना मुनासिब समझा ताकि वो स्वयं सुरक्षा कार्रवाई की मौनिटरिंग कर सकें।

निस्संदेह, यह कहना गलत नहीं है कि पाकिस्तान तो अपने बनाए जाल में फंस गया है। यह सच है कि उसने एक ओर कश्मीर में आग लगाने तथा दूसरी ओर अफगानिस्तान पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए मुजाहिद्दीन तैयार किए, उनको हर संभव मदद की, उन्हें हीरो बनाया .....आज वही ंउसके लिए भस्मासुर बन गए हैं। लेकिन अगर पाकिस्तान को आतंकवादियों ने पराजित कर दिया तो कल्पना करिए हमारे आपके लिए क्या स्थिति होगी। हमारे पड़ोस का एक देश जहां भारत विरोधी जेहाद के बीच ही नहीं पेड़ पौधे तक मौजूद हैं, अगर पूरी तरह आतंकवाद के शिकंजे में आ गया तो हमारे लिए भी सामान्य सिरदर्द नहीं होगा। पंजाब वैसे भी हमारी सीमा से सीधे लगता है। इसलिए पाकिस्तान में आतंकवाद की पराजय हमारे लिए, पूरे क्षेत्र और फिर पूरी दुनिया के लिए आवश्यक है। यह देखना है शरीफ वहां रुककर क्या रणनीति अपनाते हैं। अमेरिका भी पाकिस्तान की स्थिति को समझता है और आतंकवाद का शमन उसके हित में भी है। इसलिए नवाज शरीफ के वहां न जाने को अन्यथा नहीं ले सकता।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027028

 

 

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