गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015

केरला भवन विवाद का कोई औचित्य नहीं है

 

अवधेश कुमार

केरला भवन का मामला इतने बड़े विवाद का कारण बन जाएगा यह कल्पना किसी विवेकशील व्यक्ति ने नहीं की होगी। वास्तव में मामला ऐसा था ही नहीं जिस पर इतना बड़ा बावेला विरोधी पार्टियों की ओर से खड़ा किया जाना चाहिए। मामला इतना ही था कि एक व्यक्ति या संगठन को यह सूचना मिलती है कि केरला भवन के कैंटिन में बीफ बेचा जा रहा है, उसने पुलिस को सूचना दी और पुलिस वहां पहुंची। पुलिस ने केरला भवन के न किसी कर्मचारी को पकड़ा, न कैंटिन को बंद कराया। वह वापस आ गई। राजनीतिक और कानूनी तौर पर बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए थी। लेकिन यह भारत है और भारत की राजनीति की जो दशा है उसमेें जो मुद्दा नहीं होना चाहिए वही मुद्दा बनता है और जिसे मुद्दा बनना चाहिए वह हाशिए में पड़ा रहता है। केरल के सांसदों ने मार्च निकाल दिया। केरल के मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति को इसके खिलाफ पत्र लिख दिया। ऐसा माहौल बनाया गया मानो दिल्ली पुलिस का वहां जाना किसी दूसरे देश की सीमा में सेना के घुस जाने जैसा है। इसमें संघीय ढांचा का उल्लंघन हो गया, कोई क्या खाएगा नहीं खाएगा इसकी आजादी पर कुठाराघात हो गया और सबसे बढ़कर देश में फासीवाद आ गया....!!! वाहं रे भारत!

मजे की बात देखिए कि हिन्दू सेना के जिस नेता विष्णु गुप्ता के माध्यम से पुलिस को सूचना मिली उसे ही पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उससे घंटों पूछताछ हुई और उस पर मुकदमा चलेगा। यही नहीं स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसका संज्ञान लिया, दिल्ली पुलिस से इस बावत लिखित जानकारी मांगी। बावजूद इसके हमारे देश के मांस खाने को मानवाधिकार का मामला बनाने वालों को लगता है कि यह सब केन्द्र सरकार का किया धरा है। ये कह रहे हैं कि दिल्ली पुलिस गृहमंत्रालय के अधीन आता है तो बिना उसके आदेश के वह केरला भवन जा कैसे सकती है। कितना विचित्र तर्क है। किसी राज्य की पुलिस हर बार कहीं जाने या छापा मारने के लिए वहां के राजनीतिक नेतृत्व से आदेश लेती है क्या? क्या केरल की पुलिस किसी की शिकायत आने पर पहले वहां के गृहमंत्री से पूछती है और फिर आगे बढ़ती है या कानून के तहत कार्रवाई करती है? दिल्ली पुलिस के पास यदि फोन आएगा तो उसे जाना ही होगा। किसी प्रदेश का भवन हो वह दिल्ली प्रशासन के अंदर आता है और वहां पुलिस को जाने का पूरा अधिकार है। इसमें कोई कानूनी या प्रोटोकॉल की बाधा है ही नहीं। केरल हाउस या किसी प्रदेश का भवन किसी देश का दूतावास नहीं है कि किसी अपराध के बारे में सूचना मिलने पर पुलिस वहां नहीं जा सकती, क्योंकि वियना संधि के तहत वहं कानूनी कार्रवाई से आजाद है। मान लीजिए अपराध न हुआ, लेकिन पुलिस को सूचना मिली तो पहली ही नजर में बिना वहां गए पुलिस यह कैसे जान जाएगी कि अपराध हुआ या नहीं?

इसलिए यह तर्क बिल्कुल गलत और खतरनाक भी है कि पुलिस केरल भवन के अंदर क्यों गई। कल राजधानी दिल्ली स्थित किसी प्रदेश के भवन के अंदर कोई जघन्य अपराध हो जाए तो उसकी छानबीन दिल्ली पुलिस करेगी या फिर उस राज्य की पुलिस आएगी? यह शत प्रतिशत दिल्ली पुलिस के क्षेत्राधिकार का मामला है। इसे बिल्कुल गलत मोड़ दिया गया है। यह खतरनाक इसलिए है कि कल अगर किसी भवन में हत्या हो रही होगी या कोई और बड़ा अपराध हो रहा होगा तो फोन आने पर भी दिल्ली पुलिस वहां प्रवेश करने से पहले 100 बार सोचेगी। अगर दिल्ली पुलिस नहीं जाएगी, समय पर नहीं पहुंचेगी तो यही तथाकथित मानवाधिकार के लिए छाती पीटने वाले उसके खिलाफ खड़े हो जाएंगे। मान लीजिए दिल्ली पुलिस केरल भवन में बीफ की सूचना की अनदेखी कर देती, नहीं जाती तथा वहां कुछ अवांछित घटित हो जाता तो?

अब यहां यह प्रश्न उठता है कि आखिर दिल्ली पुलिस ने विष्णु गुप्ता को क्यों गिरफ्तार किया? क्या वह अपराधी है? क्या उसने केरल भवन में कानून हाथ में लिया? वहां कोई तोड़फोड़ की? किसी के साथ मारपीट की? क्या केरल भवन के किसी कर्मचारी ने उसके या उसके संगठन के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई? जब ऐसा हुआ ही नही ंतो फिर इस गिरफ्तारी का औचित्य और कानूनी आधार क्या है? जिस तरह से दिल्ली पुलिस के वहां जाने का विरोध अनौचित्यपूर्ण और बेवजह का बावेला है, जिस तरह उसके लिए नरेन्द्र मोदी सरकार पर आरोप लगाना हास्यास्पद है उसी तरह यह गिरफ्तारी भी समझ से परे है। दिल्ली पुलिस कह रही है कि उसने गोमांस का गलत प्रचार किया, पुलिस को गुमराह किया इसलिए गिरफ्तार किया गया है। हिन्दू सेना सही है गलत है, वह क्या करती है, उसके नेताओं-कार्यकर्ताओं की समाज में कैसी भूमिका है इस पर बहस हो सकती है लेकिन जब तक किसी के खिलाफ शिकायत नहीं हो तो केवल इस आधार पर कि उसने पुलिस बुला लिया उसे गिरफ्तार करना भी मानवाधिकार का उल्लंघन है। कई बार पुलिस को किसी अपराध की या अपराध होने की आशंका की सूचना मिलती है, पुलिस जाती है और वहां कुछ नहीं होता तो क्या वह अपनी खीझ मिटाने के लिए किसी को गिरफ्तार कर लेगी? आखिर क्यों केरला भवन की कैंटिन में बीफ मलयालम में लिखा था जबकि शेष सामग्रियां अंग्रेजी में? बीफ का अर्थ गाय और उसके वंशज का मांस भी होता है और भैंस के मांस के लिए भी यही शब्द उपयोग किया जाता है। अगर कोई बीफ का अर्थ गाय या बैल का मांस समझ गया तो क्या उसे आप सजा दे देंगे? वहां कोष्टक में भैंस का मांस तो लिखा नहीं था। अब लिखा गया है।

पुलिस का यह रवैया इसलिए खतरनाक है क्योंकि इसके बाद यदि गाय या बैल के मारे जाने की सूचना होगी वह भी डर से कोई पुलिस तक पहुंचाने से हिचकेगा। दिल्ली में किसी प्रकार के गोवंश की हत्या प्रतिबंधित है। वैसे नीति-निर्देशक सिद्धांत के अनुसार राज्यों को और नागरिक दायित्व प्रावधान के अनुसार नागरिकों को दूधारु पशुओं को हत्या से बचाने के लिए काम करने को कहा गया है। मादा भैंस दुधारु पशु में आती है। फिर भी यहां भैंस की हत्या और उसके मांस खाने पर प्रतिबंध नहीं है, इसलिए कानूनी तौर पर उसे रोका नहीं जा सकता है। लेकिन सामाजिक तौर पर अहिंसक और नैतिक मान्यताओं से उसे हतोत्साहित करना हम सब का दायित्व है। खाने के निजी अधिकार की आवाज में यह महत्वपूर्ण पहलू ओझल हो रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल कहते हैं कि कोई अपने घर में क्या खाएगा यह भी प्रधानमंत्री मोदी तय करेंगे। इस पंक्ति का हम आप क्या अर्थ लगाएं? राजनीतिक तौर पर आप मोदी सरकार का विरोध करिए, समर्थन करिए यह आपका अधिकार है, लेकिन अनर्गल बातें एक मुख्यमंत्री बोले यह किस अधिकार के तहत आता है?

आवश्यकता पड़ने पर घर में भी छानबीन होती है और आगे भी होगी। अगर गोहत्या कहीं प्रतिबंधित है और कोई घर में कहीं से लाकर गोमांस खा रहा है तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी। इस आधार पर कार्रवाई से वह छूट नहीं पा सकता कि अपने घर में क्या खा रहे हैं यह हमारा अधिकार है। कोई अपने घर में बलात्कार करे तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी की नहीं? क्या उसका यह तर्क मान्य होगा कि मैं अपने घर में कुछ करुं यह मेरा अधिकार है? नहीं न। कानून कहीं भी टूटे वह घर के अंदर हो या बाहर उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होगी। इसलिए इस प्रकार का तर्क गैर वाजिब एवं भविष्य के लिए खतरनाक संकेत वाला है। कुल मिलाकर देखा जाए तो केरल भवन की एक सामान्य घटना को इतना बड़ा बना दिया गया मानो कुछ ऐसा बड़ा घटित हो गया जो कभी न हुआ न आगे होगा। यह हमारे राजनीति के पतन का नमूना है। दुर्भाग्यवश पुलिस भी इसके दबाव में आकर जहां कार्रवाई की आवश्यकता नहीं थी वहां कार्रवाई कर रही है। यह उचित नहीं है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

उच्चतम न्यायालय के फैसले पर प्रश्न

 

अवधेश कुमार

उच्च्तम न्यायालय द्वारा संविधान के 99 वें संशोधन करके बनाए गए न्यायिक नियुक्ति आयोग या एनजेएसी कानून को रद्द करने के बाद सरकार और अनेक विधिवेत्ताओं की ओर से आई प्रतिक्रियाओं का निष्कर्ष यही है कि इससे संसद के कानून बनाने के सार्वभौमिक दायित्व पर आघात पहुंचा है। सामान्यतः न्यायपालिका के फैसले के विपरीत प्रतिक्रिया देने का चरित्र हमारी राजनीति की नहीं है। दूसरे, ज्यादातर विरोधी दलों ने भी सरकार की आलोचना करने में कोताही बरती है। अगर कोई दूसरा मामला होता और सरकार का कोई कानून इस प्रकार असंवैधानिक करार दिया गया होता तो विपक्षी पाटियों का तेवर कैसा होता इसकी कल्पना करिए। इससे पता चलता है कि उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से ज्यादातर राजनीतिक दल एवं विधिवेत्ताओं का बड़ा वर्ग असंतुष्ट एवं नाखुश है। चूंकि उच्च्तम न्यायालय के पांच न्यायाधीश की पीठ यानी संविधान पीठ ने यह फैसला दिया है, इसलिए आगे पुनर्विचार याचिका में इसमें संशोधन की संभावना न के बराबर है। हालांकि पांच में से एक न्यायाधीश ने संसद के कानून को संविधानसम्मत भी माना है। बहरहाल, इस  फैसले के बाद न्यायाधीशों की न्यायाधीशों द्वारा नियुक्ति वाली दो दशक पुरानी कोलेजियम प्रणाली बरकरार हो गई है। यह सामान्य स्थिति नहीं है।

संसदीय लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। संविधान संशोधन करने या कानून बनाने, खत्म करने का अधिकार उसका है। उच्चतम न्यायालय उसकी समीक्षा कर सकता है। संसद द्वारा पारित कानून को रद्द करने का निर्णय संसद बनाम न्यायापालिका के टकराव की ओर जाता है। ध्यान रखिए इस 99 वें संशोधन को संसद के दोनों सदनों के साथ 20 राज्यों ने पारित किया था और इसे सभी राजनैतिक दलों का समर्थन था। इससे इसके पीछे की राजनीतिक औश्र संवैधानिक ताकत का अहसास हो जाता है। हालांकि कुल 1030 पन्नों के फैसले को पढ़ने और समझने में समय लगेगा। लेकिन इसकी कुछ बातें सामने आ गईं हैं। मसलन, 1. एनजेएसी न्यायपालिका की स्वायत्ता में ही नहीं शक्तियों के विभाजन में भी दखल देती है। 2. न्यायिक आजादी  संविधान का बुनियादी ढांचा है, जिसमें सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती, इसलिए इसे रद्द किया जाता है। 3. एनजेएसी से न सिर्फ मुख्य न्यायाधीश की सर्वाेच्चता कम हो रही थी बल्कि राष्ट्रपति की भूमिका भी कमतर हो रही थी। 4. न्यायाधीशों  के मामले में राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह पर काम नहीं करते बल्कि स्वतंत्र रूप से निर्णय लेते हैं। हालांकि पीठ ने माना कि कोलेजियम प्रणाली में कुछ खामियां है ओर इसमें सुधार के लिए वह याचिकाकर्ताओं और सरकार से मदद चाहती है। इस पर सुनवाई के लिए पीठ ने 3 नवंबर की तारीख तय की है। पीठ ने न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी 1993 और 1998 के फैसले को समीक्षा के लिए बड़ी पीठ के पास भेजने की केंद्र सरकार की अपील भी खारिज कर दी। इन फैसलों के आधार पर ही कोलेजियम शुरू किया गया था। कोलेजियम में उच्च्तम न्यायालय के पांच वरिष्ठ न्यायाधीश होते हैं जो नियुक्ति, प्रोन्नति तथा स्थानांतरण के लिए उम्मीदवारों की सिफारिश करते हैं। इन सिफारिशों को सरकार मानने के लिए बाध्य होती है और नियुक्ति का आदेश जारी करती है।

आगे बढ़ने से पहले जरा पीठ के न्यायाधीशों की टिप्पणियों पर एक नजर दौड़ा लें। न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहर-मैं स्वतंत्र रूप से इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि अनुच्छेद 124ए (1) की धारा सी असंवैधानिक है क्योंकि कानून और न्याय के प्रभारी कैबिनेट मंत्री को एनजेएसी को पदेन सदस्य शामिल किया गया है। मेरी राय में धारा सी न्यायिक स्वायत्तता ही नहीं शक्तियों के विभाजन में भी दखल देती है। न्यायमूर्ति मदन लोकुर-99वें संविधान संशोधन तथा एनजेएसी ने सेकेंड और थर्ड जजेज केसों में दी गई सुविचारित प्रक्रिया को पलट दिया है तथा मुख्य न्यायाधीश की संवैधानिक शक्ति को छीन लिया है और उसे शोषण के एनजेएसी की प्लेट में रख दिया है। संसद के लोकप्रिय कानून असंवैधानिक हो सकते हैं और संवैधानिक कानून अलोकप्रिय हो सकते हैं। न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ- इसमें कोई शक नहीं है पूरी गलती कोलेजियम की नहीं है। अयोग्य नियुक्तियों को रोकने में सरकार की सक्रिय चुप्पी ही मुख्य समस्या है। दूसरे और तीसरे जज केसों ने ऐसी नियुक्तियों को रोकने के लिए सरकार के हाथ में प्रभावी औजार दिया था लेकिन सरकार ने इस औजार को कभी प्रभावी तरीके से इस्तेमाल नहीं किया। कोलेजियम में सुधार की जरूरत है और इसे खुलापन तथा पारदिर्शता भी चाहिए। यह प्रणाली लाइलाज नहीं हुई है इसका इलाज संभव है। जस्टिस एके गोयल- कानून मंत्री और दो गैर न्यायाधीश सदस्यों को मुख्य न्यायाधीश के समकक्ष रख दिया गया है। स्पष्ट रूप से उनकी मुख्य न्यायाधीश के साथ तुलना नहीं की जा सकती। कानून मंत्री और दो अन्य सदस्यों के हाथ में सुप्रीम कोर्ट जज, जो कोलेजियम का सदस्य है, के खिलाफ वीटो शक्ति न्यायिक आजादी में दखल बन सकती है।

इनके तर्कों में कितना तीखापन एवं संसद के प्रति कितना गुस्सा है इसका अंदाजा इन वाक्यों से लगा लीजिए। हालांकि इनके परे पीठ मंे एक न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे चेल्मेश्वर भी थे, जिन्होंने लिखा है,‘मेरी राय में संविधान संशोधन में कोई खामी नहीं है लेकिन बहुमत की राय के कारण मुझे एनजेएसी की संवैधानिकता का परीक्षण करने का कोई उद्देश्य नजर नहीं आता। लेकिन चूंकि चार न्यायाधीशांें की राय एक है इसलिए फैसला बहुमत से हो गया है। सच यह है कि कोेलेजियम प्रणाली की कई खामिया उजागर होने के बाद यह व्यवस्था की गई थी। इस आयोग में छह सदस्य होते, जिसके अध्यक्ष देश के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई)ही होते। इसके अलावा उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, कानून मंत्री और समाज की दो प्रमुख जानी-मानी हस्तियां होती। हस्तियों के चयन में भी प्रधानमंत्री और लोकसभा में दूसरे सबसे बड़े नेता के साथ मुख्य न्यायाधीश की भूमिका थी।  इनके संयोजन का दायित्व न्याय सचिव को करना था। इससे जरा कोलेजियम प्रणाली की तुलना करिए। इसमें मुख्य न्यायाधीश सहित उच्चतम न्यायालय के पांच वरिष्ठ न्यायाधीश होते हैं जो नियुक्ति, स्थानांतरण और प्रोन्नति पर फैसला लेकर सरकार को भेजते हैं। पूरी प्रक्रिया में सरकार की कोई भूमिका नहीं होती। कोलेजियम 1993 और 1998 के सेकेंड और थर्ड जजेज फैसलों के आधार पर बनाए गया था।

दुनिया की ओर भी नजर दौड़ा लें तो अमेरिका में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है एवं सीनेट इसकी अनुमति देती है। जापान में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्त कैबिनेट द्वारा मनोनित होने के बाद राजा करते हैं। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति कैबिनेट करती है। ब्रिटेन में न्यायापालिका के उच्च पदों यानी जजेस ऑफ द हाउस ऑफ लौर्ड्स की सभी नियुक्तियां  संबंधित मंत्री की सलाह पर कार्यकारी राजा करते हैं। प्रधानमंत्री इनमें से लॉ लौर्डस, द लॉर्ड्स जस्टिस ऑफ अपील, द लॉर्ड्स चीफ जस्टिस, द मास्टर ऑफ द रोल्स एंड द प्रेसिडेंट ऑफ द फैमिली डिविजन  को प्रधानमंत्री मनोनीत करते हैं। ऑस्ट्रेलिया में उच्च न्यायालय और अन्य न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्तियां गवर्नर जनरल इन काउंसिल द्वारा की जाती है। कहने का तात्पर्य यह कि दुनिया के ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यकारिणी की भूमिका है तो फिर भारत में इस पर ऐतराज क्यों?

साफ है कि जितनी पारदर्शिता और नियुक्ति में सदस्यों का संतुलन न्यायिक नियुक्ति आयोग में था उतना कोलेजियम में नहीं है। सच यह है कि संविधान में भी नियुक्ति के लिए कोलेजियम का कहीं जिक्र नहीं है। उच्चतम न्यायालय को कानून बनाने का अधिकार नहीं, लेकिन कोलेजियम में उसने ऐसा कर दिया और यह 22 वर्ष से चल रहा है। संसद अपनी संप्रभुता के लिए खड़ी होती है तो यहां टकराव सुनिश्चित है, नहीं खड़ी होती है तो इससे उसके संविधान संशोधन एवं कानून बनाने की शक्ति पर प्रश्न खड़ा होता है। अगर उच्चतम न्यायालय पूरे कानून को ही असंवैधानिक कह रहा है तो इसका मतलब है कि संसद ने असंवैधानिक काम किया है। संसद इसे कैसे स्वीकार कर सकती है। इसलिए संसद इस पर चुप नहीं रहेगी। लेकिन रास्ता आसान नहीं है।

इसका सबसे बड़ा खामियाजा उच्चतम न्यायालय में रिक्तियों पर पड़ेगा। 2 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित पड़े हैं। करीब 398 न्यायाधीशों के पद खाली हैं। अगर टकराव कायम रहा तो नियुक्तियां नहीं होंगी। संसद के पास एक विकल्प फिर से विधेयक लाकर कानून बनाने का है, लेकिन इसकी लंबी प्रक्रिया है। केन्द्र से राज्य विधायिकाओं में इसे पारित कराना होगा। वैसे 1950 के दशक में न्यायपालिका का नेहरु सरकार से टकराव हुआ था। जमींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार आदि के कानून को उच्चतम न्यायालय ने रद्द कर दिया था। उसके बाद नेहरु जीे ने कहा था कि न्यायपालिका ने न्याय का अपहरण कर लिया है। दोबारा इन कानूनों को पारित करके इसे 9 वीं अनुसूचि में डाल दिया गया। इसमें डालने के बाद यह पूरी तरह रक्षित हो जाता है। वर्तमान सरकार भी चाहती तो इसे 9 वीं अनूसूचि में डाल सकती थी। इसके बाद सबसे बड़ा प्रश्न है कि न्यायिक सुधार का क्या होगा? यह उस सुधार का ही एक अंग था। मूल प्रश्न देश के सामने यह था कि न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता लाने का। कोलेजियम में पारदर्शिता की गुंजाइश नहीं है। अगर न्यायालय स्वयं इसमें सुधार की जरुरत मानता है तो फिर यह सही नहीं है। इसमें दोष है। कहा जा सकता है कि कोलेजिमय के तहत एक अपारदर्शी प्रणाली में नियुक्तियां होती रहेंगी जहां सभी हितधारकों की आवाज नहीं होगी। कॉलेजियम प्रणाली में बदलाव होगा या नहीं यह भी न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है। यह समझ से परे है कि दो जानकार लोगों को आयोग में शामिल किए जाने पर उच्चतम न्यायालय का आपत्ति क्यों है? आखिर उनके चयन में भी तो मुख्य न्यायाधीश की भूमिका थी। पीठ ने कहा कि नियुक्ति में आम लोगों को शामिल करने से काम नहीं बनेगा। हालांकि आयोग का विरोध कुछ विधिवेत्ताओं ने भी किया था। इनमें सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ही शामिल है किंतु इनकी संख्या कम थी।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

इस अतिवाद से देश में क्षोभ पैदा हो रहा है

 

अवधेश कुमार

देश में फिर एक बार ऐसी स्थिति बनाई जा रही है मानो सांप्रदायिकता में समाज उबल रहा है और कुछ सेक्यूलर देवदूत उसको बचाने के लिए अपनी बलि चढ़ाने तक को तैयार हैं। क्या वाकई ऐसी स्थिति है? जिस तरह कुछ स्वनामधन्य महानुभावों ने अपना पुरस्कार लौटाना आरंभ किया है उससे तो ऐसा ही लगता है। अलग-अलग हुई जघन्य अपराधों की घटनाओं को एक साथ जोड़कर ऐसी स्थिति बनाई जा रही है मानो इस देश में जो सेक्यूलर हैं उनकी खैर नहीं, जो अल्पसंख्यक हैं उनकी खैर नहीं..... एक विचारधारा के लोग जो चाहेंगे वही होगा...और वे हाथों में फरसा लेकर निकल पड़े हैं कि जो हमारे विरोध में होगा उसको काट देंगे। इन बनाए गए माहौल से परे जरा अपने आसपास नजर दौड़ाइए और देखिए कि क्या वाकई ऐसा ही है? जोे उत्तर आएगा वही सच्ची स्थिति का द्योतक होगा। सच यही है कि ऐसा कोई वातावरण देश में नहीं है।

दादरी बिसहारा मामले की एक जघन्य घटना हमारे सामने है और सारी प्रतिक्रियाएं उस पर आ रहीं हैं। जरा एक और घटना को याद करिए। पिछले  10 सितंबर को बरेली के फरीदपुर थाने के दारोगा मनोज मिश्र को पशु तस्करों ने गोली मार दी। उस दारोगा का दोष इतना था कि वह तस्करी के लिए यानी काटने के लिए ले जा रहे पशुओं से भरे ट्रक को पकड़ने के लिए घात लगाए हुए था। जब ट्रक पकड़ में आ गए तो उनने गोली मारी और मनोज मिश्र की मृत्यु हो गई। क्या उसकी जान की कीमत नहीं थी? आज जो लोग छाती पीट रहे हैं इनमें से किसी की आवाज उस घटना पर सुनाई दी? बिसहारा में तो इखलाक के परिवार को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने पास बुलाया, उनसे बात की, 45 लाख रुपया का मुआवजा दिया तथा घटना की जांच चल रही है। हालांकि पुलिस दबाव के कारण कुछ ऐसे लोगों को गिरफ्तार कर रही है जो शायद दोषी नहीं हैं जिनके विरुद्ध वहां प्रदर्शन भी हो रहा है। लेकिन दारोगा की मृत्यु पर तो मुख्यमंत्री का भी बयान नहीं आया। इन दो घटनाओं पर ऐसे दो प्रकार के व्यवहार को हम क्या कहेंगे? बिसहाड़ा की घटना घोर निदंनीय है, उसके असली दोषियों को पकड़कर कानून में जो सख्त सजा हो वो मिलनी चाहिए, लेकिन उसी गांव में और मुसलमान रहते हैं उनके साथ तो कुछ नहीं हुआ। अगर किसी संगठन की दंगा की साजिश होती तो नजारा दूसरा होता। स्वयं उत्तर प्रदेश सरकार ने गृहमंत्रालय को जो रिपोर्ट भेजी है उसमें कहा है कि अभी तक इस घटना का कारण पता नहीं चला है और जांच चल रही है। जिस सरकार की पुलिस जांच कर रही है उसको घटना का कारण ही पता नहीं और देश में घटना के दोषियों की पहचान करके कुछ झंडाबरदार लोगों ने अपने स्तर पर फैसला भी कर लिया।

आजम खान जैसे नेता, जिनके पास मुस्लिम सांप्रदायिकता के अलावा कोई अस्त्र ही नहीं वो संयुक्त राष्ट्र संघ जाने का ऐलान करते हैं। उसके विरुद्ध इस देश में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती कि आखिर एक अपराध के मामले पर आप देश विरोधी हरकत क्यों कर रहे हैं? कल्पना करिए दारोगा मनोज मिश्र की हत्या पर किसी हिन्दू नेता ने ऐसा किया होता तो आज क्या स्थिति होती? वह जेल में होता। आजम खान उस सरकार में मंत्री हैं जिस पर ऐसी कार्रवाई रोकने का दायित्व है। कानून व्यवस्था की जिम्मेवारी उ. प. सरकार की है। अगर उ. प्र. सरकार की जांच मंे किसी संगठन की साजिश नजर आती है वह सामने लाए और फिर कार्रवाई करे। किसी ने उसका हाथ रोका नहीं है। कर्नाटक में कलबुर्गी की हत्या राज्य सरकार की विफलता है। उसकी जांच भी चल रही है। महाराष्ट्र में दो बहुचर्चित हत्याएं कांग्रेस के शासनकाल मेें हुईं और वहां की पुुलिस इसका पता तक नहीं लगा सकी कि आखिर कैसे हत्या हुई और कौन दोषी थे। उनमें से एक पनसारे की हत्या के लिए वर्तमान महाराष्ट्र सरकार के तहत सनातन संस्था के एक व्यक्ति की गिरफ्तारी हुई है। अगर पक्षपात का मामला होता तो उसे आराम से रफा दफा किया जा सकता था। कांग्रेस सरकार के रहते किसी ने सरकारी पुरस्कार नहीं लौटाया।

अब कह रहे हैं कि सनातन संस्था पर प्रतिबंध लगा दो। सनातन संस्था पर पिछले 7-8 सालों से महाराष्ट्र सरकार की खुफिया विभाग और पुलिस की नजर रही है। अगर उनको उसकी गतिविधियां संदिग्ध लगीं तो प्रतिबंधित क्यों नहीं किया? तब तो कांग्रेस-राकांपा की सरकार थी। आज सेक्यूलरवादी तोप के गोले दागने वालों में से कितने लोगों ने ऐसा ही रवैया पहले अख्तियार किया था? संगठन कोई भी हो उसका अगर एक व्यक्ति अपराध में पकड़ में आता है तो उससे पूरे संगठन को दोषी नहीं माना जा सकता। गुजरात दंगे में भाजपा, विहिप के नेताओं के पकड़े जाने की चर्चा होती है लेकिन उसमें कांग्रेस के लोग भी पकड़े गए हैं और उनको सजा हुई है। तो क्या कांग्रेस पार्टी को ही दंगाई मान लिया जाए? ऐसा नहीं हो सकता। आखिर दादरी बिसहारा, महाराष्ट्र, कर्नाटक की घटना पर क्या होना चाहिए? उत्तर एकदम सरल है। राज्य सरकारें निष्पक्षता से जांच करे और जो दोषी हो चाहे वह व्यक्ति हो या समूह उस पर कानूनी कार्रवाई करे। यह राज्य सरकारों का मामला है। केन्द्र की भूमिका तब आएगी जब राज्य सरकारें अपना काम नहीं करेंगी। अगर केन्द्र हस्क्षेप करे तो तथाकथित संघवाद पर हमला हो जाएगा। अगर विरोध करना है तो कर्नाटक सरकार का किया जाना चाहिए, उत्तर प्रदेश सरकार का किया जाना चाहिए जहां ऐसी घटनाएं हुईं हैं।

भारत की अजीब स्थिति है। यहां मुद्दों पर तो संघर्ष करने या विरोध जताने के समय ऐसे लोग पता नहीं कहां रहते हैं, लेकिन जो मुद्दा नहीं होना चाहिए उसे मुद्दा बनाकर और सेक्यूलर कहलाने के लिए ये इस तरह प्रतीकात्मक विरोध करते हैं या बयान देते हैं जिनमें इनका अपना कुुछ जाता नहीं। उल्टे इससे वातावरण विषाक्त होता है, समाज में तनाव बढ़ता है। अब इनकी राग है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र या हिन्दू राज्य बनाने की साजिश चल रही है। कहां चल रही है? इस देश के करोड़ों लोगों को ऐसा नहीं लगता लेकिन कुछ सूक्ष्मदर्शी तत्व हैं जिनको यह नजर आ जाता है। सच यह है कि केन्द्र सरकार की ओर से किसी स्तर पर ऐसा कदम नहीं उठाया गया है जिससे वाकई देश को हिन्दू राज में बदलने का संदेह भी पैदा हो। कुछ लोगों की समस्या है। भाजपा या संघ परिवार के विचारों से मतभेद में समस्या नहीं है। एक जागरुक समाज मंे विचारधारा के आधार पर सहमति-असहमति, समर्थन-विरोध होता है और होना चाहिए। इससे संतुलन भी बना रहता है तथा अतिवाद की ओर जाने का खतरा कम होता है। किंतु यह व्यवहार तो स्वयं में अतिवाद है। हिन्दू राज स्थापित करने का आरोप लगाकर देश को बदनाम करना है। इस देश में आधी से ज्यादा राज्य सरकारें दूसरी पार्टियों की हैं। हमारे यहां संविधान की मूल अवधारणा में परिवर्तन संभव ही नहीं। कुछ होगा तो न्यायपालिका है। क्या ये सब ऐसा कुछ होगा तो मूकदर्शक बने रहेंगे? भारत देश हिन्दू मुसलमानों के साथ सभी छोटे पंथों-संप्रदायों का है और रहेगा। किंतु यह नहीं हो सकता कि एक संप्रदाय को कुछ हो गया तो वह बड़ा मुद्दा बन जाए और दूसरे संप्रदाय के साथ हो तो उसे सामान्य मान लिया जाए।

सच यह है कि ऐसे रवैये से आम आदमी के अंदर क्षोभ पैदा होता है और वो विद्रोह में प्रतिक्रियाएं व्यक्त करता है। ऐसे लोगों के अतिवादी रवैये के विरुद्व ही पहले गुजरात की जनता नरेन्द्र मोदी को निर्वाचित करती रही और फिर इनके तमाम प्रचारों के बावजूद देश के बहुमत ने उन्हें प्रधानमंत्री बना दिया। दिक्कत यह है कि कुछ लोग अभी भी यह दिल से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि वाकई नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हो गए। उनका कोई इलाज नहीं है। लेकिन वो जो कुछ कर रहे हैं उससे संाप्रदायिक शांति की जगह तनाव बढ़ेगा, दोनों के बीच दूरिया घटने की बजाय बढ़ेगी, खाई पटने की जगह चौड़ी होगी। इसलिए समाज के असली खलनायक ये ही हैं। पुरस्कर लौटाने वालों में कुछ ऐसे लोग है,ं जो उन पुरस्कारों के हकदार थे लेकिन ऐसे भी हैं जिनको केवल सरकार की कृपा से पुरस्कार का प्रसाद मिल गया। वे लौटा भी दे ंतो उससे क्या फर्क पड़ता है। उनको समस्या है तो वो देश भी छोड़कर चले जाएं कोई समस्या नहीं आने वाली। इस देश से मुसलमानों को कोई बाहर नहीं कर सकता, उनको दोयम दर्जे का नागरिक कोई नहीं बना सकता इसकी पूरी गारंटी है और देश उस दिशा में न पहले जा रहा था न आज जा रहा है। यह सब कुछ लोगों की मानसिक समस्या है जो एक विचार और संगठन से घृणा की फासीवादी प्रवृत्ति से निकलती है। हां, जहां अतिवाद पैदा हो रहा है उस पर अंकुश की आवश्यकता है और राज्य सरकारें उस दिशा में सख्ती बनाए रखे। बस, इससे ज्यादा कुछ करने की आवश्यता भी नहीं है।

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

आजम खान का संयुक्त राष्ट्रसंघ में जाने का ऐलान देश विरोधी कदम

 

अवधेश कुमार

वैसे तो दादरी बिसहाड़ा की दिल दलहाने वाली घटना पर जैसी घिनौनी राजनीति हो रही है उससे देश भर में विवेकशील लोगों के अंदर क्षोभ पैदा हो रहा है। किंतु, उत्तर प्रदेश सरकार के वरिष्ठ मंत्री आजम खान ने तो सारी सीमाओं को ही तोड़ दिया है। देश के किसी भी व्यक्ति ने कल्पना नहीं की होगी कि दादरी बिसहाड़ा की घटना को इस तरह का खतरनाक सांप्रदायिक मोड़ दिया जा सकता है। आजम खान ने उसे लगभग वैसी ही तस्वीर के रुप में पेश करने की कोशिश की है जो आजादी के पहले मुस्लिम लीग करती थी। यानी यहां हिन्दुआंे का बहुमत मुसलमानों पर जुल्म ढाता है और आगे भी ढाएगा।  एक उन्मादित भीड़ द्वारा की गई जघन्य हत्या, जिसकी सभी ने निंदा की है, उसे आजम खान ने संयुक्त राष्ट्रसंघ मेें ले जाने का ऐलान किया है। उनने प्रेस को बाजाब्ता वह पत्र जारी किया जो उनके अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून को सौपा जाएगा। एक अपराध को उसी राज्य सरकार का मंत्री संयुक्त राष्ट्र संघ मंे ले जाने का ऐलान करे वह भी यह कहते हुए कि वो महासचिव बान की मून से बात करेंगे कि यहां केन्द्र सरकार के तहत मुसलमानों की किस तरह सरेआम हत्या की जा रही है तो इसे किस तरह लिया जाए! ठीक इसके कुछ दिनों पहले 10 सितंबर को बरेली के फरीदपुर थाने के दारोगा की पशु तस्करों ने इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि वह उनके ट्रक को घेरकर थाना ले जाना चाहता था। उसका नाम मनोज मिश्रा था। उसकी हत्या पर आजम खान तो छोड़िए किसी एक नेता की आंसू न निकली, न यह मुद्दा बना। मारने वाले मुसलमान थे, जिनमें से कुछ गिरफ्तार भी किए गए हैं। वह देशव्यापी तो छोड़िए स्थानीय मुद्दा भी नहीं बन सका। किसी हिन्दू ने नहीं कहा कि मुसलमान हिन्दुओं पर जुल्म ढा रहे हैं? 

यह उदाहरण इसलिए देना जरुरी है कि आजम खान और असदुद्दीन ओवैसी जैसे सांपं्रदायिक तत्वों ने ऐसा माहौल बनाया है मानो इस देश के हिन्दू मुसलमानों को सरेआम मार डालते हैं और उनका कुछ नहीं होता। यह सच नहीं है। एक महीने के अंदर इसी उत्तर प्रदेश की ये दो घटनाएं इसकी गवाह हैं। एक व्यक्ति की गोमांस खाने के आरोप में भीड़ ने पीट-पीट कर मार दिया एवं उसके बेटे को अधमरा कर दिया उसका किसी नेता या पार्टी ने समर्थन नहीं। कोई सिरफिरा, उन्मादी ही इस तरह मारने को उचित ठहरा सकता है। अगर उसके घर में गोमांस था भी तो उसे पुलिस के हवाले करना चाहिए था तथा पुलिस पर उचित कार्रवाई के लिए दबाव बनना चाहिए था। मृतक इखलाक के घर से मांस निकला जो फोरेंसिक जांच के लिए भेजा गया है। किसी भी सूरत में समूह को कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इसके जो भी अपराधी हैं उनको सजा मिलनी चाहिए। आजम खान स्वयं उस सरकार के भाग हैं जिनके जिम्मे कानून व्यवस्था बनाए रखना है। उनने स्वयं उस परिवार को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलवाया तथा 45 लाख का मुआवजा दिलवाया है। एक ओर उनकी पुलिस जांच कर रही है, दूसरी ओर परिवार को इतनी बड़ी रकम का मुआवजा मिला तो फिर किसी न्यायसंगत राज्य में इससे ज्यादा क्या हो सकता है?

 वास्तव में आजम ख्अपनी फितरत के अनुसार ही मामले को सांप्रदायिकता के चरम पर ले जाने की भूमिका निभा रहे है। उन्होंने जो कुछ किया है उसमें एक साथ मुसलमानों के अंदर भय पैदा कर उनका नेता बनने, उनके अंदर हिन्दुओं के विरुद्ध उत्तेजना पैदा करने के साथ देश विरोधी गतिविधि के तत्व भी निहित है। यह बोलकर कि हम मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाएंगे और राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री गोलमेज सम्मेलन बुलाएं ताकि यह पता चले कि देश को कहां ले जाना चाहते हैं वास्तव में मुसलमानों में संदेश देना चाहते हैं कि वे उनके मामले को देश के शीर्ष नेतृत्व से लेकर दुनिया के शीर्ष संस्था तक ले जाने का माद्दा भी रखते हैं। आजम खान की फितरत ऐसी है कि उनको बॉर्न कम्युनल यानी पैदाइशी सांप्रदायिक कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है। जो कुछ वो बोलते हैं, कई बार करते हैं ओर आज कर रहे हैं वह कोई भी गैर सांप्रदायिक व्यक्ति नहीं कर सकता। देश की एकता अखंडता एवं सांपं्रदायिक सद्भाव में विश्वास करने वाला व्यक्ति तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। वह आग में पानी डालेगा। यह आग में केवल पेट्रौल डालना नहीं है, जहां आग नहीं हो वहां भी आग लगाना है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अपने छात्र जीवन से वे यही कर रहे हैं।

आश्चर्य की बात है कि आजम खान की ऐसी सांप्रदायिक एवं देश विरोधी हरकत पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव स्वयं, उनकी सरकार या समाजवादी पार्टी या तो मौन धारण किए हुए हैै या फिर उनके कथन को उचित ठहराने की कोशिश कर रही है। यह खतरनाक रवैया है। मुस्लिम वोट के लिए इस ढंग से किसी को सीमा का उल्लंघन करने देना देश के लिए ही नहीं स्वयं समाजवादी पार्टी के लिए भी आत्मघाती हो सकता है। देश के एक अपराध को, जिसे सबने जघन्य अपराध माना है, संयुक्त राष्ट्र मंें ले जाने की घोषणा और प्रेस को पत्र जारी करना हर दृष्टि से भारत विरोधी कदम है। भ्ंसंविधान के तहत शपथ लिया हुआ मंत्री ऐसा करता है तो यह संविधान का उल्लंघन नही ंतो और क्या है? क्या उसे अपने देश के संविधान, उसके तहत कायम न्यायपालिका और कार्यपालिका पर बिल्कुल विश्वास नहीं है। ऐसा है तो उसे सरकार से अलग हो जाना चाहिए। वैसे संयुक्त राष्ट्र में किसी देश के ऐसे अंदरुनी मामले में हस्तक्षेप का कोई प्रावधान भी नहीं है। ंिकंतु भारत के राजनीतिक इतिहास में यह पहली घटना है जब कोई नेता  एक हत्या के मामले को संयुक्त राष्ट्र में जाने का ऐलान कर रहा हो। उसकी भाषा ऐसी हो मानो वर्तमान केन्द्र सरकार ऐसा राज कायम कर रही है जिसमें मुसलमानों का या तो कत्लेआम होगा या उन्हें देश छोड़ना होगा या फिर उन्हें मजहब बदलना होगा। यह दुनिया में देश की छवि को उससे कहीं ज्यादा कलंकित करना है जितना उस घटना से हुआ है।

प्रश्न है कि ऐसी हरकत का राजनीति, कानून और संविधान के तहत क्या उत्तर हो सकता है। अगर आजम खान की जगह दूसरा होता तो अब तक उस पर देशद्रोह, सांप्रदायिकता भड़काने, देश की एकता अखंडता पर चोट पहुंचाने के प्रयास, भारत की छवि को नुकसान पहुंचाने का मुकदमा दर्ज हो चुका होता और ंसंभव है वह जेल के अंदर होता। यही व्यवहार आजम खान के साथ क्यों नहीं होना चाहिए? अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो आजम जैसे दूसरे सांप्रदायिक तत्वों का मनोबल बढ़ेगा और वे इससे भी खतरनाक हरकत कर सकते हैं। आजम खान देश के नए नक्शे की बावत पूछ रहे हैं। इसका अर्थ क्या है? क्या वे मुसलमानों के लिए अगल भौगोलिक क्षेत्र की ओर इशारा कर रहे हैं ऐसे बिल्कुल मुस्लिम लीग की भाषा में बात करने वाले व्यक्ति की हरकत की अनदेखी कैसे की जा सकती है? कानूनी एजेंसियां यहां अपना काम क्यों नहीं कर रहीं हैं? मुख्यमंत्री के नाते अखिलेश यादव को भी इस पर कठोर रुख अपनाना चाहिए था।

ऐसा लगता है दादरी में असदुद्दीन ओवैसी के जाने के बाद आजम खान को उ. प्र. के सबसे बड़ा मुस्लिम नेता होने की जो अपने मन में बनाई हुई छवि है उस पर खतरा दिखने लगा। इसलिए उनने सोचा कि आवैसी से ज्यादा और इतना आगे बढ़ जाओ कि देश का कोई मुस्लिम नेता उस सीमा तक जाने की सोेचे ही नहीं। इससे वे सबसे बड़े मुसलमान नेता के तौर पर माने जाएंगे और फिर उनकी बादशाहत पर कोई खतरा नहीं होगा। एक ओर ओवैसी बंधु हैं जो सांप्रदायिकता की आग फैला रहे हैं दूसरी ओर आजम खान हैं जो उसकी प्रतिक्रिया में देश के एक अपराध के मामले को बाहर ले जाने की बांग भर रहे हैं। आखिर इनको जवाब तो देना पड़ेगा। वर्तमान वोट की लालच से घिरी वर्तमान राजनीति जवाब नहीं दे सकती। अगर सरकार और कानूनी एजेंसिया भी जवाब नहीं देतीं तो क्या हो सकता है? वह जवाब यह नहीं हो सकता कि दूसरे लोग उनकी भाषा मे प्रत्युत्त्र दें। उनका मान्य कानूनी सीमाओं में जगह-जगह विरोध तो होना चाहिए। जनता के दबाव से ही सरकारें कार्रवाई करतीं हैं। मांग एक ही हो कि आजम खान को मंत्रिमंडल से बरखास्त किया जाए और उन पर मुकदमा दर्ज हो।

 जरा सोचिए किसी हिन्दू नेता ने इस तरह का बयान दिया होता तो इस समय उसकी क्या दशा होती? उसका जीना हराम हो गया होता और मीडिया के लिए बहस का सबसे बड़ा विषय कई दिनों तक। साक्षी महाराज से लेकर साध्वी प्राची या अन्य ऐसे कुछ हिन्दू नेता कम से कम ऐसा खतरनाक कदम तो नहीं उठाते, पर उनका जो बयान अस्वीकार्य होता है उस पर पूरा देश और मीडिया उनके विरुद्व खड़ा हो जाता है। आजम खान के विरुद्ध ऐसा क्यों नहीं हो रहा है यह प्रश्न अवश्य विचारणीय है।

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