शनिवार, 31 जनवरी 2015

किरण बनाम अरविन्द में फिर टूटती राजनीति की मर्यादायें

अवधेश कुमार
दिल्ली चुनाव की गर्मी में किरण बेदी बनाम केजरीवाल वाकयुद्ध ने राजनीति की जुगुप्सा को फिर से उभारा है। अरविन्द एवं किरण दोनों एनजीओ चलाने के कारण कई मामलांें पर लंबे समय से साथ रहे हैं। अन्ना अनशन अभियान के मुख्य प्रबंधकार भले केजरीवाल थे, पर किरण भी उसकी एक प्रमुख स्तंभ थीं। इनके बीच मतभेद हुए यह भी हमारे सामने साफ था। किंतु अन्ना हजारे भी अरविन्द केजरीवाल से अलग हुए और उनके खिलाफ खुलकर बोले। अरविन्द के अनेक पुराने साथी अन्ना के साथ रहे। उनमें किरण बेदी भी थीं। जब लोकसभा में पिछले वर्ष लोकपाल कानून पारित हुआ तो अन्ना के साथ किरण बेदी ने भी उसका स्वागत किया। किरण अन्ना के गांव में उनके अनशन के साथ थीं। अन्य कई लोग भी वहां थे। तो उनका मतभेद स्पष्ट था। बावजूद इसके उनके बीच एक दूसरे के प्रति सार्वजनिक शब्द प्रयोग में शिष्टता बनी हुई थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में किरण बेदी के भाजपा मेें शामिल होने तथा मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनते ही वो शिष्टता तो उड़न छू हुई ही, इस प्रकार के आरोपों-प्रत्यारोंपों का दौर चल पड़ा है जिसमें ऐसा लगता है दोनों पक्ष कोई सीमा मानने को तैयार नहीं है।
 यही हमारी राजनीति का दुर्भाग्य है। आम आदमी पार्टी राजानीति में एक मानक स्थापित करने के दावे से आई थी। पर चुनाव की राजनीति ने उसके सारे दावों की कलई खोल दी है। अरविन्द सहित पूरी पार्टी किरण पर यह आरोप लगाते हुए टूट पड़ी है कि वो तो पहले से ही भाजपा के प्रति नरम रुख रखतीं थीं। वो अन्ना अभियान के समय से ही भाजपा पर हमला करने से बचतीं थीं। इसके पहले कुमार विश्वास और आशीष खेतान जैसे आप के नेता किरण को अन्ना अभियान में भाजपा का मोल यानी भेदिया करार दे चुके हैं। हालांकि अरविन्द की ही पूर्व साथी शाजिया इल्मी ने, जो कि आप में भी उनके साथ थीं, यह कह दिया है कि किरण नहीं अरविन्द ही भाजपा के प्रति नरम रुख रखते थे। ध्यान रखिए शाजिया विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव दोनों आप की टिकट पर लड़ीं। चुनाव के काफी समय बाद उन्होंने पार्टी में एक चौकड़ी के हाबी होने का आरोप लगाकर सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया था। अब वो कह रहीं हैं कि अन्ना अभियान में तो कजरीवाल ही केवल कांग्रेस पर हमला करते थे। पार्टी बनाने के बाद उनने भाजपा को निशाना बनाया।
जो स्थिति बन रही है उसमंे पता नहीं और क्या-क्या सामने आ जाएगा। अरविन्द के जो पुराने साथी भाजपा में आ गए हैं उनके पास ऐसे कई तथ्य हैं जो अरविन्द एवं उनके साथियों को नागवार गुजरता है। वे अब केजरीवाल को ही साजिश के तौर पर पेश कर रहे हैं। ये भी उनको अवसरवादी कह रहे हैं। तो आप की नजर में किरण अवसरवादी, वो सब अवसरवादी जो भाजपा में चले गए, और भाजपा की नजर में अरविन्द और उनके साथी अवसरवादी। अगर हम आप जनता के तौर पर इसे देखें तो हमें दो अवसरवादी चेहरों में से किसी एक को चुनना है। एक तीसरा विकल्प कांग्रेस के अजय माकन हैं, पर लगता ही नहीं कि वो कहीं दौर में हैं। हम किसे अवसरवादी मानें। किरण बेदी कह रहीं है कि अगर मैं भाजपा के प्रति पक्षपाती थी तो मुझे मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाने की पेशकश क्यों की? यह सवाल भी वाजिब है। आखिर जब इनको लगता था कि किरण आंदोलन में भाजपा की भेदिया थीं, जासूस थीं, उसकी समर्थक थीं तो फिर उस समय उनके खिलाफ आरोप लगाकर बाहर करने की मांग क्यों नहीं की? यह बात अन्ना हजारे के संज्ञान में था कि नहीं? अगर उनके संज्ञान ंमें था तो वो अरविन्द एवं उनके आज के साथियों को छोड़ गए, पर किरण बेदी उनके साथ बनी रहीं।
केजरीवाल कह रहे हैं कि  किरन बेदी के साथ मेरे मतभेद की शुरुआत नितिन गडकरी के कारण हुई। वह तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष के खिलाफ बोलने के लिए तैयार नहीं थीं। अरविन्द के कथन को मान लें तो किरण के साथ उनकी टेलफोन पर बातचीत भी बंद हो चुकीं थीं। उनका कहना है कि दो साल पहले कोयला ब्लॉक आवंटन के खिलाफ आंदोलन के बाद बेदी ने मेरा फोन उठाना बंद कर दिया था। वह मेरे मेसेज का जवाब भी नहीं देती थीं। उन्होंने कहा था कि हमें नितिन गडकरी के घर का घेराव नहीं करना चाहिए था। लेकिन हमने ऐसा किया और इसके बाद वह खुलकर हमारे खिलाफ हो गईं। इतने भर से फोन पर बातचीत बंद हो जाए यह स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है। आखिर अरविन्द एवं मनीष का फोन तो अन्ना हजारे ने भी उठाना बंद कर दिया था।
बहरहाल, इसका अर्थ निकालना लोगों पर छोड़ देना चाहिए। किरण बेदी इस देश में आंदोलनकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या हैं जिनके लिए कभी आदर्श नहीं रहीं। एक नौकरशाह से एनजीओ चलाने, बड़े संस्थानों में लैक्चरर देने और झुग्गी झोपड़ी में विद्यालय चलाने के अलावा कुछ एलिट वर्ग के बीच उनका जलवा रहा है। यह तो कोई साधारण समझ वाला भी देख सकता था कि अन्ना अभियान कोई एक राजनीति विचारधारा वालों का अभियान नहीं था। उसमें अलग-अलग विचारधाराओं और संगठनों की भागीदारी थी। भाजपा और संघ परिवार उसमें सर्वप्रमुख थी। रामलीला मैदान के अनशन के पीछे का पूरा प्रबंधन संघ परिवार के हाथों ही दिख रहा था। यह बात अरविन्द जानते थे। उनके साथी भी जानते थे। उनके सामने सब कुछ था। आखिर बारिस से भींगे हुए रामलीला मैदान को किनकी ताकत से 24 घंटे के अंदर मंच से लेकर आयोजन लायक बना दिया गया? भाजपा ने जितना संभव था उस अभियान को ताकत दी। सच कहा जाए तो भाजपा को उम्मीद थी कि यह आंदोलन कांग्रेस सरकार के खिलाफ है और इसमें साथ देने से उसकी ताकत बढ़ेगी, ये सब उसका साथ देंगे। हुआ इसके विपरीत। अरविन्द ने जब पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया तब भाजपा उनके खिलाफ खुलकर आई। पार्टी बनाने से अनेक लोग असहमत थे और वो उनके साथ नहीं आए। उसमें किरण बेदी भी थीं।
जब इस तरह आरोप-प्रत्यारोप लगाये जायेंगे तो ऐसी-ऐसी बातें सामने आएंगी जो इनकी राजनीति से वितृष्णा पैदा करेंगी। इसमें यह भी उम्मीद थी कि एक आरोप यह लगायेंगे आपने अपने एनजीओ में कितना फंड विदेशों से लाया, कितने गलत खर्च किए, कहां का पैसा कहां लगाया तो दूसरा इसके प्रत्युत्तर में उनको आईना दिखायेंगे। लेकिन अपने एनजीओ, उसके फंड और कार्यों पर कोई प्रश्न नहीं उठा रहा है। इस मामले पर दोनों पक्ष एक दूसरे की असलियत जानते हैं, इसलिए उस पर खामोश हैं। पर जो हो रहा है वही कम नहीं है। अब देखिए,  एक खुलासा यह हुआ है कि  5 अप्रैल 2011 से जंतर मंतर पर अन्ना अनशन अभियान की शुरुआत हुई और 4 अप्रैल को अरविन्द सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक में शामिल थीं। उसके बाद अन्ना अभियान के बीच भी वो उन बैठकों में तीन बार गए थे। आपको कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार चोर लगती थी, कांग्रेस भ्रष्टाचार की जननी लगती थी तो फिर उन बैठकों का बहिष्कार क्यों नहीं किया? वैसे भी सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली सलाहकार परिषद इन एनजीओवालों से ही भरा हुआ था जिसने ऐसी-ऐसी योजनायें बनवाईं जिनसे देश का भी अहित हुआ और कांग्रेस का क्या हुआ यह बताने की आवश्यकता नहीं।
लेकिन इस तरह कई भेद खुलेंगे। अन्ना अभियान के लोगों का संघ नेताओं से बातचीत, भाजपा नेताओं से बातचीत, उनके पीछे के प्रबंधन मंे संघ कार्यकर्ताओं का लगना.......आदि सच पहले से उपलब्ध हैं। ऐसी बातें हैं जिनसे दोनांे पक्षों के लिए समस्यायें पैदा हो जाएंगी। आप नेताओं को समझना चाहिए कि आज भी उनकी पार्टी में ऐसे नेता हैं जो भाजपा और संघ की पृष्ठभूमि से हैं। पिछली बार जिसे विधानसभा का अध्यक्ष बनाया गया वो कौन थे और आज कहां हैं। नितीन गडकरी के घर पर प्रदर्शन का विरोध करने से कोई भाजपा समर्थक नहीं हो जाता है। स्वयं अरविन्द ने गडकरी पर जो आरोप लगाए उनका क्या हुआ? वे तो स्वयं गडकरी के घर गए थे अपने साथियों के साथ और मामले पर समझौता कर लिया। सच यह है कि दोनों पक्षों के अनेक ऐसे अधखुले पहलू हैं जिनसे सबके चेहरे नंगे हो सकते हैं। इसलिए सलाह यही होगी कि जिनके घर स्वयं शीशे को हों वो दूसरों पर पत्थर नहीं मारा करते।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


गुरुवार, 22 जनवरी 2015

भारत पर श्रीलंका चुनाव में राजपक्षे को हराने के लिए काम करने का आरोप

अवधेश कुमार

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दक्षिण एशिया को आपसी विश्वास और साझेदारी के व्यावहारिक क्षेत्र में बदलने की पहल कर रहे हैं, पर कुछ शक्तियां पहले के अनुसार ही अपने राजनीतिक हितों के लिए इस पर आघात पहुंचाने की कोशिश कर रहीं हैं। इस बार ऐसी कोशिशों की गंध हमारे पड़ोसी श्रीलंका से आई है। वहां यह अफवाह फैलाई जा रही है कि पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे की हार के लिए भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ ने कोशिश की थी। यानी यदि रॉ हराने में नहीं लगता तो राजपक्षे तीसरी बार सत्ता में आ जाते। 8 जनवरी को श्रीलंका में हुए मतदान में तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे चुनाव हार गए थे और उनके ही पूर्व सहयोगी तथा विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार मैत्रीपाल श्रीसेना ने विजय पाई। हालांकि यह आरोप राजपक्षे या उनके भाइयों ने नहीं लगाया है, लेकिन वहां यह बात तेजी से फैल रही है और मीडिया इसे उठा रहा है। वहां के अखबार इसे उठा रहे हैं। एक अखबार लिख रहा है कि रॉ का वह अधिकारी विपक्षी नेताओं से संपर्क में था। सामचार पत्रों में रॉ के प्रमुख तक के रानिल विक्रमसिंघे एवं पूर्व राष्ट्रपति चन्द्रिका कुमारतुंगे से संपर्क में होने की बात लिख दी है।

इस मामले में आगे बढ़ें उसके पहले यह जान लेना आवश्यक है कि श्रीलंका में भारतीय उच्चायोग के साथ पक्ष एवं विपक्ष के नेता लगातार संपर्क में रहे हैं, आते जाते हैं। तमिलों की संख्या वहां काफी है, उनका भारत के तमिलनाडु में सीधा रिश्ता है। श्रीलंका के विकास में भारत का धन लगता है। इस समय तो राजपक्षे द्वारा लिट्टे को नेस्तनाबूद करने के बाद तमिल क्षेत्रों में हुए विनाश में भारत पुनर्वास अभियान में मुख्य भूमिका निभा रहा है। तमिल नेता वहां आते हैं और अपनी शिकायते करते हैं। यानी वहां उच्चायोग की सक्रियता एक आम स्थिति है। भारत की नीति किसी भी पड़ोसी देश की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप करने की नहीं है, पर नेपाल, भूटान, श्रीलंका जैसे देशों में स्थिति अपने आप थोड़ी भिन्न होती है। यह एक स्वाभाविक स्थिति है। स्वयं राजपक्षे के काल में भी यही स्थिति थी। उनके मंत्री, अधिकारी भारतीय उच्चायोग से लगातार संपर्क में रहते थे। तमिल समस्या को लेकर हमारे नेता व अधिकारी उनसे बातचीत करते रहते थे। इससे भारत के लिए अलग करना संभव न था, न है। यह होगा। इसका असर अगर वहां के चुनाव पर पड़ता है तो इसे किसी प्रकार की साजिश नहीं कहा जा सकता। सिंहलियों से किसी प्रकार का मतभेद रखे बिना तमिल हितों के लिए खड़ा होना भारत का दायित्व है। इसका यह अर्थ नहीं कि भारत के अधिकारी वहां किसी को जीताने और हराने के खेल में पड़ जाएं।

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अकबरुद्दीन ने इस आरोप का खंडन कर दिया है। स्वयं महेन्द्रा राजपक्षे ने कहा है कि उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं। अगर जानकारी होगी तभी वे कुछ बोलेंगे। वहां अफवाह इतना गहरा है कि हाल में श्रीलंका के कोलंबों स्थित दूतावास में तैनात एक अधिकारी के तबादले के बारे में कहा जा रहा है कि वह दरअसल, रॉ का अधिकारी था तथा चुनाव में उसकी भूमिका का खुलासा होने के बाद उसे निर्वासित कर दिया गया है।  हालांकि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कह दिया है कि तबादले होते रहते हैं। चूंकि उस अधिकारी का तीन वर्ष का कार्यकाल पूरा हो गया था, इसलिए उनका तबादला किया गया है। हमारे लिए यही कथन सच है। जो यह आरोप लगा रहे हैं उनने अपना जो स्रोत बताया है उसका कोई अर्थ नहीं है। अगर रॉ की भूमिका थी तो यह बात राजपक्षे की पार्टी कह सकती थी।
यह बात ठीक है कि लिट्टे के खिलाफ नृशंस सैन्य कार्रवाई के कारण भारत में राजपक्षे के खिलाफ वातावरण था। खासकर तमिलों के बीच। वे भारत के साथ अच्छे संबंधों की बात करते रहे और भारत के सुझावों की अनदेखी भी। वे बार-बार कहते थे कि वी. प्रभाकरन को पकड़कर भारत को सौंप देंगे। ध्यान रखिए प्रभाकरन पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या का मुख्य अभियुक्त था। हालांकि उनके सेनाओं ने निर्दयता से प्रभाकरन एवं उसके पुत्र आदि की हत्या कर दी। बाद में उन्हांेने भारत का विश्वास जीतने की कोशिश की, पर कुल मिलाकर यह साफ था कि भारत को दक्षिण एशिया का स्वाभाविक नेता कहते हुए भी वे विकल्प के लिए चीन के करीब जाते रहे। 2010 में चीन श्रीलंका का सबसे बड़ा वित्तीय साझेदार हो गया। इस समय वह हर साल 61 अरब रुपये से ज्यादा की सैन्य सामग्रियां श्रीलंका को आपूर्ति करता है। श्रीलंका की वायु सैनिक क्षमता के उत्थान में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। वह श्रीलंका मेरीटाइम परियोजना में काम करने लगा है जिससे चीनी कंपनियां आसानी से श्रीलंका पहुंच सकेंगी। यह सब राजपक्षे के शासनकाल में ही हुआ। यह हमारे लिए चिंता का कारण है। श्रीलंका के अंदर भारत विरोधियों का इसे समर्थन था। उनके हारने के बाद ऐसा लग रहा है कि भारत की भूमिका वहां अब पहले के अनुसार ज्यादा होगी।   
हालांकि स्वयं श्रीलंका के एक बड़े वर्ग में भी चीन से ज्यादा निकटता को अच्छा नहीं माना। उनकी इस नीति का खुलेआम विरोध भी हुआ। जब पिछले वर्ष राजपक्षे ने दो चीनी पनडुब्बियों को अपने तट पर रुकने दिया तो केवल भारत ही नहीं दुनिया की महत्वपूर्ण शक्तियों के भी कान खड़े हुए। अमेरिका े भी इससे सशंकित हुआ और भारत के लिए तो यह आघात जैसा था। चीन हिन्द महासागर में अपनी सैन्य ताकत बढ़ाना चाहता है, इसलिए वह लगतार सक्रिय है। भारत के लिए चिंता का कारण वहां केवल चीनी पनडुब्बियों का रुकना नहीं था। राजपक्षे ने इस घटना के बारे में भारत को पहले से सूचित तक करने की औपचारिकता पूरी नहीं की, जबकि श्रीलंका की भारत के साथ इस संबंध में स्पष्ट संधि है। तो भारत उनको कैसे अनुकूल मान लेता। परंतु इन सबके आधार पर यह आरोप लगाना कि भारत ने अपनी विदेश खुफिया एजेंसी के माध्यम से राजपक्षे को हराने की साजिश की नासमझी से अधिक कुछ नहीं है। राजपक्षे मोदी के साथ बेहतर संबंध की कोशिश कर रहे थे और मोदी ने भी उनको अनुकूल प्रत्युत्तर दिया था।
इस प्रकार के दुष्प्रचार के कुछ स्पष्ट संकेत हैं। यह संभावना बलवती हो रही है कि नए राष्ट्रपति श्रीसेना का भारत के प्रति विशेष लगाव हो सकता है। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने अपने पहले विदेश दौरे के लिए भारत का ही चयन किया है। यह एक महत्वपूर्ण संकेत है और इससे लगता है कि भारत श्रीलंका संबंधों पर एक साथ कई प्रकार की जो काई जम गई थी, वो सब धीरे-धीरे हटेगी। हालांकि जो भारत विरोधी इस प्रकार की खबरें उड़ा सकते हैं, वे आगे भी कुछ दुष्प्रचार करेंगे। यह इसका एक महत्वपूर्ण संकेत है। इस अफवाह का अर्थ ही है कि भारत को बदनाम करो ताकि जनता का एक वर्ग उसके खिलाफ हो। हो सकता है इसके पीछे चीनी लौबी का भी हाथ हो। आखिर भारत ने भी तो श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, भूटान में चीन की पैठ के बाद उसके क्षेत्रों में अपने संबंध प्रगाढ़ करने आरंभ किए। दक्षिण चीन सागर में तेल गैस खोज का ठेका लेकर चीन को भारत ने संकेत भी दिया। किंतु भारत के लिए यह विचराणीय है कि इन चारों देशों में ऐसे तत्व हैं जो भारत की भूमिका को हमेशा संदेहों के घेरे में लाते हैं, इसके विरुद्ध वातावरण बनाने की कोशिश में लगे रहते हैं, पर वे चीन के विरुद्ध ऐसा नहीं करते। वर्तमान आरोप प्रसंग का निष्कर्ष यही है कि श्रीलंका में इसी प्रकार भारत विरोधी वातावरण बनाने की कोशिश तेज होगी। वे ये भी नहीं चाहेंगे कि भारत तमिलों के मामले में वहां किसी प्रकार का हस्तक्षेप करे।  
इसका सामना हम कैसे करेंगे इसकी रणनीति विदेश मंत्रालय को अभी से बनानी होगी। कारण, भारत श्रीलंका के आंतरिक मामले से अपने को अलग नहीं रख सकता। अगर तमिलों की समस्या नहीं सुलझीं, उनको अपने क्षेत्रों में जितनी वाजिब स्वायत्तता चाहिए नहीं मिली, उनका उचित पुनर्वसन नहीं हुआ, उनको सिंहलियों के समान सभी अधिकार व्यवहार में नहीं मिले तो वहां अशांति कायम होगी और इससे भारत प्रभावित होगा। यह मानने में कोई समस्या नहीं है कि भारत के खिलाफ प्रचार करने वालों में तमिलों से विद्वेष रखने वाले सिंहली समुदाय के कुंठित समूह शामिल होंगे।
अवधेश कुमार, ई: 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर: 01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

साक्षी महाराज के वक्तव्य के दूसरे पहलू भी देखे

अवधेश कुमार

जब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने साक्षी महाराज को नोटिस थमा दिया तो उन्हें दोषी मान लेने में दूसरों को क्या समस्या हो सकती है। नोटिस थमाने का अर्थ ही है कि आप उन्हें दोषी मानते हैं। बेचारे साक्षी महाराज पता नहीं चार बच्चे पैदा करने की सलाह वाले भाषण पर पश्चाताप कर रहे होंगे या अंदर से गुस्से में होंगे। निस्संदेह, कुछ लोगों को यह कदम अच्छा लग सकता है तो कुछ कह सकते हैं कि भाजपा केवल दिखावे के लिए ऐसा कर रही है। पता नहीं भाजपा अध्यक्ष ने यह कदम दिल से उठाया है या फिर मीडिया एवं विपक्ष के हल्लबोल दबाव के कारण। पार्टी का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सांसदों और नेताओं से संभल कर बोलने, अपनी वाणी पर संयम रखने की अपील की है और अगर कोईइसका अनुसरण नहीं करेंगे तो पार्टी उनके खिलाफ कदम उठाएगी।

चलिए, यहां तक मान लेते हैं कि मोदी एवं अमित शाह नेताओं को वाणी संयम बरतने के निर्देश के प्रति सख्ती का संदेश देना चाहते है। किंतु जरा इसे दूसरे नजरिये से समझने की भी कोंिशश करिए। इसके कई पहलू हैं। कई बार मीडिया में कोई बयान जितना सनसनीखेज दिखाई या सुनाई देता और वह हमारे आपके मस्तिष्क पर तत्काल जैसा असर डालता है केवल वही सच नहीं होता। यहां विषय साक्षी महाराज नहीं है। जिस तरह उन्होंने नाथूराम गोडसे का महिमामंडन किया उसे कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता। पर क्या लोकतंत्र में एक व्यक्ति को इतना भी कहने का अधिकार नहीं है कि उसकी चाहत है प्रत्येक दंपत्ति चार बच्चे पैदा करें? यह कौन सा अपराध हो गया? यह इसका पहला पहलू है। आखिर इसंमें ऐसा क्या है जिससे भाजपा की छवि खराब हो जाएगी? इसे वाणी संयम के विपरीत वक्तव्य किस आधार पर कहा जा सकता है? कोई भी व्यक्ति साक्षी महाराज या साध्वी प्राची के कहने से तो चार बच्चे पैदा करने नहीं लगेगा।

तत्काल साक्षी महाराज को कुछ समय के लिए अलग कर दीजिए और  फिर इसके एक और महत्वपूर्ण पहलू पर ध्यान दीजिए। एक समय था जब जनसंख्या नियंत्रण पूरी दुनिया की प्राथमिकता थी। पर धीरे-धीरे समाजशास्त्रियों एवं अर्थशास्त्रियों के वर्ग ने ही इसे नकारना आरंभ कर दिया। माल्थस की आबादी विस्फोट के सिद्धांत नकार दिए गए हैं। जनसंख्या नियंत्रण की बाध्यकारी नीति दुनिया में गलत साबित हो रही है। इसी कारण विकसित माने जाने वाले देश बुढ़ों के देश हो गए, उन्हें आर्थिक विकास के काम भारत चीन जैसे देशों के युवाओं से करवाना पड़ रहा है। अब कई देशों में दंपत्तियों को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। आज भारत और चीन जैसे देशों को भविष्य की महाशक्ति कहा जा रहा है तो उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि हमारे पास युवा आबादी विश्व में सबसे ज्यादा है। युवा आबादी का अर्थ उत्साह से काम करने वाला समुदाय। कहा जा रहा है कि आने वाले समय में चीन की युवा आबादी हमसे कम हो जाएगी और 2035 के बाद भारत सर्वोपरि होगा। यदि परिवार नियंत्रण की बाध्यकारी नीति हमारे पूर्वजों ने स्वीकार की होती तो यह स्थिति होती? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार कहते हैं कि हम 125 करोड़ के देश हैं, यह हमारी सबसे बड़ी ताकत है, इतनी आबादी वाले देश को दुनिया में सिर उठाकर जीना चाहिए, आंख में आंख मिलाकर बातें करनी चाहिए। अगर आबादी इतनी नहीं होती तो वे क्या बोलते? यह प्रश्न भाजपा नेतृत्व से पूछा जाना चाहिए।

जिस बढ़ती आबादी को एक समय भार माना जाता था वह संसाधन है जिसे अब विश्व स्वीकार कर रहा है। समस्या हमारी है कि हमने प्रकृति का अनावश्यक दोहन करके उसे बरबाद किया है, जीवन शैली ऐसी अपना ली है जिसमें प्राथमिकतायें बदल र्गइं हैं, इसलिए भय लगता है कि पता नहीं एक दो से ज्यादा बच्चे होंगे तो उनका लालन पालन कैसे करेंगे। इससे पश्चिम देशों के लिए सामाजिक सांस्कृतिक समस्यायं बढ़ीं। उनके यहां परिवार प्रथा का, समाज की सामूहिकता का लगभग अंत हो गया। यह ऐसा संकट है जिससे उबरने के लिए सारे विकसित देश छटपटा रहे हैं। यही स्थिति हमारे यहां भी हो रही है। आज एक बच्चे को भी क्रेच में डालना पड़ रहा है, क्योंकि माता-पिता के पास उसे देने के लिए समय ही नहीं है। तो यह वर्तमान जीवन प्रणाली का दोष है। हमारा देश भी उन्हीं सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन का शिकार हो रहा है जिसने पश्चिम को गिरफ्त में काफी पहले ले लिया। इससे बचने का रास्ता एक ही है कि परिवार नियंत्रण की बाध्यकारी सोच से बाहर आएं।

आप कहीं भी देख लीजिए,  एक बच्चा या एक बेटा बेटी पैदा करने वाले परिवार कई प्रकार के संकट का सामना करते हैं। बेटी शादी के बाद ससुराल चली गई, बेटा परिवार लेकर बाहर चला गया, मां बाप अकेले जीवन काटने को विवश। अगर बेटा संवेदनशील है तो उन्हें साथ रखा पर इससे उनका अपना समाज छूट गया। परिवार और समाज दोनों का विघटन सामान्य सांस्कृतिक-सामाजिक संकट नहीं है। मेरे सामने ऐसे लोग आते हैं जो बताते हैं कि ऐसा करके मैने गलती की, क्योंकि मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं रह गया है। किसी का बेटा विदेश चला गया और वे अकेले। शहरों में अपराधी तत्व ऐसे परिवारों को निशाना बनाते हैं। बुजूर्गों की हत्यायें हो रहीं हैं। गांवों में ऐसे लोग स्वार्थी तत्वों के निशाने पर होते हैं। उन्हें किसी का सहयोग चाहिए होता है और सहयोग के नाम पर उनका दोहन आम बात है। यदि कोई अकेले भाई है और उसे कुछ हो गया तो उसका परिवार निराश्रित। यदि उसकी पत्नी मर गई तो अकेले उसका जीवन अवसादग्रस्त। अगर दो तीन भाई बहन हैं तो पत्नी चल बसी तो भी बच्चों को बहुत समस्या नहीं। स्वयं उनको भी अनेक मायनों मेें अकेलापन नहीं। अगर वह स्वयं गुजर गया, या उसे कुछ हो गया और परिवार संयुक्त है तो भी उसके बच्चों के लिए ज्यादा समस्या नहीं। वह परिवार का सदस्य है और उसी अनुसार उसका पालन पोषण होता है।
ऐसे और भी पहलू हैं जिनके आधार पर यह साबित होता है कि एक या दो बच्चों की परिवार सीमित रखने की सोच ज्यादातर मायनों में घातक हैं। हम यह नहंीं कहना चाहते कि आप बच्चा पैदा करने की होड़ में पड़ जाइए। लेकिन नियंत्रण की अतिवादी सोच आत्मघाती है। साक्षी महाराज, साध्वी प्राची या संघ परिवार के दूसरे नेताओं के ऐसे वक्तव्यों में सांप्रदायिकता का एक दृष्टिकोण हो सकता है। वे मानते हैं कि मुसलमानों की आबादी बढ़ रही है और हमारी घट रही है तो एक दिन हम अल्पसंख्यक हो जाएंगे। हालांकि यह सच है कि 1991 से 2011 तक हिन्दुओं की आबादी लगभग 20 प्रतिशत बढ़ी है जबकि मुसलमानों की आबादी 36 प्रतिशत। यह एक सच है। लेकिन इसके आधार पर आबादी बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा भी घातक साबित होगी। दुनिया जिस तरह जाने-अनजाने सांस्कृतिक या धर्मयुद्ध की ओर बढ़ा रही है और हम उसे सारी जुग्गत लगाकर रोकने में सफल नहीं हो रहे हैं उसमें अनेक विचारकों का मानना है कि आबादी की भूमिका महत्वपूर्ण होने वाली है।  
बहरहाल, ये सारे पहलू हैं और यह मानने का भी कोई कारण नहीं है कि साक्षी महाराज या साध्वी प्राची ने स्वयं ऐसा बोलते समय इतनी गहराई तक सोचा होगा। पर उस वक्तव्य को गलत नहीं कहा जा सकता। साक्षी ने यही कहा कि एक बच्चा हम संतों को दे दो ताकि वह धर्म की, समाज की, देश की सेवा करे, एक बच्चा सीमा की रक्षा में लगे और दो तुम्हारे पास रहे। सेना में जाना अपने वश में नहीं, लेकिन विचार प्रकट करने में क्या समस्या है? यह भी न भूलिए कि यदि आपका एक बच्चा है तो कतई आप उसे समाजसेवी, संस्ंकृतिकर्मी, संन्यासी नहीं बनने देना चाहेंगे। तो देश चलेगा कैसे? गृहस्थ या परिवार जीवन के साथ समाजसेवी, संन्यासी ....सभी समाज के संतुलन और नैतिक मार्गदर्शन के लिए चाहिएं।

भाजपा की दृष्टि से विचार करिए तो वह यह समझ नहीं पा रही कि जो लोग विरोध कर रहे हैं वे केवल विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं, उनके पीछे भी कोई गंभीरता नहीं है। भाजपा ने चाहे जिस मानसिकता से नोटिस जारी किया है, संकेत उसके खिलाफ जाएगा। उसके भारी समर्थकों में साधु संत आदि शामिल है और जिनकी भूमिका उनकी विजय में रही है। वे जिस विश्वास से उसकी ओर लौटे हैं वे उससे फिर से विमुख होना आरंभ करेंगे। यानी यह राजनीतिक दृष्टि से भी उसके लिए आत्मक्षति का कारण बन सकता है।

अवधेश कुमार, ई: 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर. : 01122483408, 09811027208

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

क्या कहते हैं आतंकवाद के ये डरावने चित्र

अवधेश कुमार

यह भारत देश है जहां सुरक्षा और रक्षा संबंधी सैन्य कार्रवाई पर भी विवाद हो सकता है। पर हम राजनीतिक विवादों से परे जो कुछ तथ्य हैं उन तक अपने को सीमित रखें तो वास्तविक खतरे का अहसास हो जाएगा और यही सच भी है। जो कुुछ विजुअल के माध्यम से, रक्षा मंत्रालय के प्रेस वक्तव्य से, कोस्ट गार्ड के प्रवक्ता के बयानों से तथा स्वयं रक्षा  मंत्री के वक्तव्य से हमारे सामने आया है हमें उसे ही सच मानना होगा। समुद्र के अंदर विस्फोट और अग्नि से धू-धू कर जलता हुआ नाव शांति का स्रोत तो हो नहीं सकता था। कोस्ट गार्ड एवं नौसेना के द्वारा घिर जाने पर पूरे नाव को विस्फोट से उड़ा देने का पहला निष्कर्ष यही निकलता है कि यह किसी न किसी साजिश से भरा यान था। हम यह न भूलें कि 26 नवंबर, 2008 को पोरबंदर (गुजरात) में रजिस्टर्ड मछली पकड़ने वाली बोट कुबेर में बैठ कर ही 10 आतंकवादी मुंबई आए थे और उन्होंने जो कहर बरपाया था वह पूरी दुनिया का दिल दहलाने वाला था। जाहिर है, जब भी किसी मछली पकड़ने वाले नाव में हथियार और गोला बारुद का ऐसा हस्र होगा जैसा अभी हुआ है तो हमारे सामने मुंबई हमले का डरावना दृश्य जीवंत होगा ही।

इस आधार पर विचार करें तो पोरबंदर नाव दहन की घटना का पहला निष्कर्ष हमारे लिए राहत देने वाला है। हमारे पास जो जानकारी है उसके अनुसार एनटीआरओ को ठोस इनपुट्स मिले थे कि पाकिस्तान स्थित कराची के केटी बंदर की एक मछली पकड़ने वाली नाव अरब सागर में संदिग्ध कार्य को अंजाम देने की तैयारी में है। इसके बाद पुलिस, सीमा सुरक्षा बल, कोस्ट गार्ड एवं नौसेना का सक्रिय होना ही था। यह ऑपरेशन कितना बड़ा था इसका अनुमान इससे लगाइए कि इंडियन कोस्ट गार्ड नौसेना के कई शिप और एयरक्राफ्ट इसमें शामिल हुए थे। यानी जल में उसे पहचानने, फिर रोकने, घेरने तथा आकाश से उस पर नजर रखने एवं भागने से रोकने की पूरी मोर्चाबंदी। हजारों नावों के बीच से ऐसे संदिग्ध नाव को ढूंढ निकालना आसाना नहीं होता। यह दुर्भाग्य है कि इतने बड़े सैन्य औपरेशन को जिसमें वायुयान को रात भर आकाश में उड़ान भरनी पड़ी, विवाद का विषय बना दिया गया है।

बहरहाल, हम इस खतरे को पूरी तरह समझें इसके लिए हाल की कुछ और घटनाओं पर भी नजर डालना आवश्यक है। इस समय हमारे पास यह सूचना है कि आतंकवादी 1999 की कंधार विमान अपहरण जैसी घटना को अंजाम देने की सजिशें रच रहे हैं। इसके पूर्व नये वर्ष में जैसे ही हमने आंखें खोलीं पता चला कि दो आतंकवादियों को नोएडा में गिरफ्तार किया गया है। ये ऐसे गिरफ्तार नहीं किए गए। एक साथ उत्तर प्रदेश एटीएस, पश्चिम बंगाल एटीएस,  खुफिया ब्यूरो (आईबी)  और रॉ, जिसकी भूमिका अलग है, के साझा ऑपरेशन में इन्हें गिरफ्तार किया गया। हमें याद होगा कि आईबी ने देश के प्रमुख शहरों में आतंकवादी हमले की चेतावनी पहले ही दे दी है। इन शहरों में दिल्ली भी शामिल है। कहा जा रहा है कि ये आतंकवादी देश की राजधानी दिल्ली में बड़ी आतंकवादी घटना को अंजाम देने वाले थे। जो जानकारी है इनमें से एक रकतुल्ला बांग्लादेश के फरीदकोट का रहने वाला है और दिसंबर के पहले हफ्ते में भारत में दाखिल हुआ था। पता नहीं इसमें कितना सच है पर उनके पास से जो लैपटॉप बरामद हुआ है उससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सक्रिय स्लीपर सेल व रैकी किए गए कुछ स्थानों की जानकारी मिली है। साफ है कि इसके आधार पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं एनसीआर में ऐसे स्लीपर सेलों को पकड़ने का अभियान चल रहा है। 

जरा सोचिए, यह घटना 19 दिसंबर 2015 की ही है, पर एजेंसियों ने इसे सार्वजनिक नहीं किया। आईबी और रॉ की पूछताछ के बाद इन दोनों को पश्चिम बंगाल की आतंकवाद विरोधी ईकाई ट्रांजिट रिमांड पर ले गई। उसके बाद अन्य राज्यों की पुलिस भी उनसे पूछताछ करेगी। अगर गृह मंत्रालय एवं खुफिया ब्यूरो से आ रही अपुष्ट सूचनाओं पर यकीन करें तो कई आतंकवादी बांग्लादेश और नेपाल के रास्ते भारत में दाखिल हुए हैं जिनकी दिल्ली-एनसीआर के आसापस होने की संभावना है।

ठीक इन घटनाओं के बीच ही महाराष्ट्र आतंक विरोधी दस्ता (एटीएस) ने मुंबई के न्यायालय में एक ट्रांसक्रिप्ट दाखिल की है। इसमें गिरफ्तार किए गए सॉफ्टवेयर इंजीनियर अनीस अंसारी की उमर एलहाजी नाम के एक व्यक्ति से हुई ऑनलाइन चैट का विवरण है जिसमें मुंबई के अमेरिकन स्कूल पर हमले की बात कही गई है। इसके अनुसार स्कूल पर हमले की योजना पाकिस्तान के पेशावर के आर्मी स्कूल पर हुए हमले से काफी मिलती-जुलती है। अभी बेंगलुरु में हुए दो विस्फोटों की धमक हमारे सामने मौजूद हैं, जिनका कोई सुराग पुलिस को नहीं मिल पा रहा है। कहा जा रहा है कि इसके पीछे मध्यप्रदेश की खंडवा जेल से भागे उन पांच पूर्व सिमी सदस्यों का हाथ है जो उत्तर प्रदेश के बिजनौर में सामने आए थे। बहुत ही कम तीव्रता वाले ऐसे विस्फोट करना सिमी के भगोड़े आतंकियों की पहचान रही है। मई में चेन्नई में रेल धमाका तथा जुलाई में पुणे विस्फोट का चरित्र ऐसा ही था। पिछले वर्ष सितंबर में ये पांचों बिजनौर में इसी तरह का विस्फोटक बना रहे थे, लेकिन बनाते समय ही धमाका हो गया जिसमें उनका एक साथी घायल हो गया। अगर वह घायल नहीं होता और ये उसे इलाज कराने न ले जा रहे होते तो शायद उनका पता भी नहीं चलता। पर विडम्बना देखिए, बीच शहर से वे भागने में कामयाब हो गए और उत्तर प्रदेश पुलिस हाथ मलती रही। उसके बाद ही उनके दक्षिण भारत में होने और कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में हमला करने की संभावित खतरे की सूचना खुफिया ब्यूरो ने इस राज्यों को भेजा था। हम जम्मू कश्मीर से लगने वाली अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर हो रही गोलीबारी तथा प्रदेश के भीतर चुनाव के दौरान हुए बड़ी आतंकवादी घटनाओं को कैसे भुला सकते हैं।

ऐसी और भी कई घटनायें हैं जिनका हम यहां जिक्र कर सकते हैं। इन सबको एक साथ मिलाकर देखिए और फिर तस्वीर बनाइए। ऐसा लगेगा कि समुद्र से लेकर आकाश और धरती तक, पश्चिम से लेकर मध्य, उत्तर एवं दक्षिण तक देश में आतंकवाद का खतरा आसन्न मंडरा रहा है। जहां सुरक्षा बलों की सतर्कता गई कि हम शिकार हुए। ऐसी स्थिति में खड़े देश को आतंकवाद के विरुद्ध जैसी मानसिकता और जिस तरह की सशक्त तैयारी होनी चाहिए उसका अभाव हमारे यहां है। अगर हम गहराई से समीक्षा करें तो केवल तटीय सुरक्षा व्यवस्था ही 26/11 के बाद लिए गए निर्णयों के अनुरुप या कायम मानक से नीचे नहीं है, सामूहिक नागरिक सोच भी अनुकूल नहीं मानी जा सकती। हम सैन्य बल की भूमिका को कठघरे में खड़ा करते हैं, पुलिस की एक अवांछित भूमिका पर हंगामा करके उसका जीना हराम करते हैं और उससे उम्मीद करते हैं कि वह आतंकवादी घटनाओं को हर हाल में रोके। इस सोच और व्यवहार में थोड़े संशोधन की आवश्यकता है। कहने का अर्थ यह नहीं कि हम सुरक्षा एजेंसियों को स्वच्छंद आचरण की छूट दे दें, बल्कि....वे ठीक प्रकार से अपनी भूमिका निभा सकें इसके लिए यह आवश्यक है।
अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


 

 

शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

बेंगलूरु धमाके को बड़े खतरों का संकेतक मानिए

अवधेश कुमार

यह तर्क पहली नजर में किसी के गले उतर सकता है कि आखिर बेंगलूरु विस्फोट मौत, हिंसा या विनाश का कोई बड़ा तांडव मचाने में तो सफल नहीं हुआ। आरंभ में दो घायल हुए जिनमें एक महिला की मृत्यु हो गई और उसका एक रिश्तेदार घायल नवजवान खतरे से बाहर है। निस्संदेह, यह राहत की बात है कि दोनों धमाके कम शक्ति वाले थे और केवल दो लोग ही इसकी चपेट में आए। पर इस तरह का निष्कर्ष भी क्रूरता भरा है और आतंकवादी हमलों के प्रति हमारी अगंभीरता को दर्शाता है। मृतक महिला भवानी की उम्र 37 वर्ष के आसपास बताई जा रही है जो अपने भतीजे कार्तिक (21) के साथ वहां आई थी। उतनी कम उम्र में हमारे देश के एक नागरिक को, जिसका कोई अपराध नहीं था, आतंवादियों का निशाना बन जाना पड़ा तो इसे हम गंभीर नहीं मानें? संभव था, यदि वहां और लोग होते तो निशाने पर वे भी आते। इसे आतंकवादी घटना मानने में तो कोई समस्या नहीं है। बेंगलूरु के चर्च स्ट्रीट स्थित कोकोनट ग्रोव रेस्टोरेंट के पास भीड़भाड़ रहती है तो बम धमाके करने के पीछे सोच क्या हो सकती है। खासकर क्र्रिसमस के मौके पर। धमाके का समय रात साढ़े आठ बजे भी महत्वपूर्ण है।

हमारे लिए इस घटना का महत्व केवल हताहत होने वालों की संख्या तक सीमित नहीं हो सकता। आखिर आतंकवादी इसके द्वारा संदेश क्या देना चाहते हैं? कह सकते हैं कि आतंकवादियों का एक आम उद्देश्य आतंक व भय का माहौल पैदा करना होता है और उन्होंने यह किया। यह भी तर्क दिया जा सकता है कि पुलिस की चौकसी का ही परिणाम था कि वे बड़ा विस्फोट करने में सफल नहीं हुए। हालांकि बेंगलूरु के साथ यह संयोग रहा है कि वहां 2005 से लेकर जितने आतंकवादी हमले हुए वे बहुत बड़े कभी नहीं थे। 28 दिसम्बर 2005 को स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस पर हमला करने से लेकर 25 जुलाई 2008 को नौ श्रृंखलाबद्ध विस्फोट, फिर 17 अप्रैल 2010 के बेंगूलर चिन्नास्वामी स्टेडियम विस्फोट, फिर 17 अप्रैल 2013 को ऐन चुनाव के पूर्व भाजपा कार्यालय के बाहर एक बड़ा धमाका .....इनमें यदि मरने वालों की संख्या को मिला दें तो ये सारे अत्यंत छोटे आतंकवादी कारनामे लगेंगे। चेन्नस्वामी स्टेडियम में तोे मुंबई इंडियंस और बंगलुरु चौलेंजर्स के बीच मुकाबला के बीच दो बम विस्फोट किए गए, जिसमें पांच सुरक्षाकर्मियों समेत 15 लोग सामान्य रुप से घायल हुए थे। एक बम स्टेडियम के बाहर मिला था जिसे बम निरोधक दस्ते ने निष्क्रिय कर दिया था। यही स्थिति नौ श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों में भी थी जिसमें क्षति हुई ही नहीं। तो क्या इन सबको हम यूं ही नजरअंदाज कर लें?

कतई नहीं। इनसे इतना तो साफ है कि बेंगलूरु हमेशा से आतंकवादियों के निशाने पर रहा है। पीछे की चर्चा बाद में। हाल ही में आईएसआईएस के पक्ष में जेहाद समर्थक ट्विटर अकाउंट @shamiwitness वेबसाइट चलाने वाल मेंहदी मसरुर विश्वास वहीं से पकड़ा गया था। मेहदी 2003 से लेवेंटाइन क्षेत्र में दिलचस्पी रखता है, जिसे पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र भी कहा जाता है। इसमें साइप्रस, इस्राइल, जॉर्डन, लेबनान, फलस्तीन, सीरिया और दक्षिणी तुर्की का हिस्सा आता है। दिन के समय वह दफ्तर में काम करता था और रात के समय इंटरनेट पर सक्रिय रहता था।  वह आईएसआईएस के अरबी के ट्वीट्स को अंग्रेजी में अनुवाद कर उन्हे रीट्वीट करता था। वह घटनाक्रमों पर पैनी नजर रखते हुए बेहद आक्रामक ट्वीट भी करता था। इस ट्विटर को विदेशी जिहादी फॉलो करते थे। यानी वह आईएसआईएस में भर्ती होने वाले नए सदस्यों के लिए भड़काने और सूचना का स्रोत बन गया था। क्या माना जाए कि ऐसा करने वाला वह अकेला इंसान होगा? दूसरी बात कि उसकी गिरफ्तारी के खिलाफ आतंकवादियों ने सरकार को धमकी भी थी। तो कहीं उसका विरोध करने के लिए तो विस्फोट नहीं किया गया? इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। यह भी खबर थी कि अल कायदा से जुड़ा एक आतंकवादी बेंगलूरु पहुंचा है और पुलिस उसे पकड़ने में लगी थी। अभी हाल ही में केन्द्र की ओर से खुफिया ब्यूरो ने कई शहरों के लिए आतंकवादी हमलों की चेतावनी जारी की थी जिनमें बेंगलूरु भी शामिल है। यानी रेड अलर्ट पहले से था। इसलिए यह विस्फोट बिल्कुल अनपेक्षित नहीं था। यही इसका महत्वपूर्ण पक्ष है कि सामने खतरा रहते हुए आतंकवादी विस्फोट करने में सफल रहे। बहरहाल, आने वाले समय में इसका पूरा खुलासा होगा, पर कनार्टक पुलिस एवं सरकार को कई प्रश्नों का उत्तर देना होगा।

ध्यान रखिए, 28 दिसंबर को ही नौ वर्ष पहले इंडियन इन्स्टीच्यूट आफ साईंस पर हमला हुआ था जिसमें दिल्ली के एक प्रोफेसर मारे गए थे। यह हमला भी 28 दिसंबर को हुआ है। पता नहीं इन दोनों के बीच कोई रिश्ता है या नहीं, पर इससे साफ है कि आतंकवादियों के मॉड्यूल या स्लीपर सेल्स वहां मौजूद हैं।  खुफिया एजेंसियों एवं पुलिस प्रशासन को वर्तमान खतरों व चेतावनियों के साथ हर उस तिथि का ध्यान रखना ही चाहिए जिस दिन पहले विस्फोट हो चुका है। कर्नाटक एवं बेंगलूरु जेहादी आतंकवादियों का प्रमुख केन्द्र लंबे समय से रहा है। सिमी से लेकर, हरकत उल जेहाद अल इस्लामी और  इंडियन मुजाहीद्दीन के अनेक आतंकवादी वहां पकड़े गए, या फिर पुलिस की हिट सूची में रहे। जिस इंडियन मुजाहिद्दीन ने 2013 तक आतंकवादी हमलों की झड़ी लगा दी उसके केन्द्र के रुप मंे भी कर्नाटक चिन्हित हो चुका है। जिन भटकल बंधुओं की हर घटना में चर्चा होती रही है वे यहीं के थे। कर्नाटक का बंेगलूर एवं गुलबर्ग इनका मुख्य केन्द्र माना जाता रहा है। अगर खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट को स्वीकार करें तो इंडियन मुजाहिद्दीन के दो बड़े गढ़ महाराष्ट्र एवं कर्नाटक ही रहे हैं।  यह एक मोटा मोटी तस्वीर है जिससे हम उन क्षेत्रांे में आतंकवादियों की गतिविधियों की झलक देख सकते हैं।

फोरेंसिक विशेषज्ञ बता रहे हैं कि धमाके में कम तीव्रता के आईईडी का प्रयोग किया गया है एवं इसे उड़ाने के लिए टाइमर लगा था। पर उसमें व्यक्ति की जान लेने की क्षमता तो थी। खैर, यह कोई एक व्यक्ति भी कर सकता है और समूह भी। आज आतंकवादी होने के लिए किसी समूह के साथ होना आवश्यक नहीं रह गया है। मेंहदी जैसे किसी समूह का सदस्य नहीं है, वैसे आतंकवाद से प्रभावित और मजहब के लिए मौत को गले लगाकर जन्नत पाने के उन्माद से ग्रसित लोगों की संख्या बढ़ रही है जो अकेले भी किसी घटना को अंजाम दे सकते हैं। आखिर आईएसआईएस के साथ लड़ने के लिए हमारे यहां से युवा और प्रौढ़ इराक सीरिया गए हैं और कुछ जाते हुए पकड़े गए हैं। इसलिए इस घटना में निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि कोई समूह था या किसी व्यक्ति ने ऐसा किया। अल कायदा प्रमुख अल जवाहिरी द्वारा भारत को केन्द्र में रखकर दक्षिण एशिया के लिए ईकाई के गठन तथा आईएसआईएस के इस्लामी साम्राज्य में भारत के एक भाग को शामिल करने के बाद खतरा वैसे भी बढ़ा हुआ है।

इसलिए बेंगलूरु की घटना भले छोटी लगे पर इसके संकेत और संदेश गहरे हैं। यह हमारे उपर मंडराते आतंकवादी खतरे की पूर्व चेतावनी है। राज्यों एवं केन्द्र दोनों के लिए इसमें संकेत निहित है। इस घटना में चाहे मध्यप्रदेश की जेल से भागे हुए सिमी सदस्यों का हाथ हो या किसी का जैसा पुलिस आशंका व्यक्त कर रही है, आईएसआईएस एवं अल कायदा दोनों के नए तेवर और उनकी योजनाओं, भारतीयों का उनके समूह में होना ......आदि  हमारे लिए आतंकवाद से निपटने के लिए हर क्षण चौकसी के साथ उसके मुकाबले की पूरी तैयारी अमेरिका और यूरोपीय देशों के सदृश करने का ही विकल्प देती है। यह अच्छा संदेश है कि बेंगलूरु मंे हमले के तुरत बाद केंद्रीय कानून मंत्री सदानंद गौड़ा घटना स्थल पर पहुंचें, मौके का मुआयना किया और पत्रकारों से बातचीत कर स्थिति स्पष्ट किया। उनने पहले ट्विट करके भी लोगों से संयम बरतने की अपील की। केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तत्क्षण अपना वक्त्व्य दिया, मुख्यमंत्री से बात की एवं आवश्यकता पड़ने पर हर तरह की सहायता का प्र्रस्ताव दिया। यहां तक केन्द्र की सक्रियता प्रशंसनीय है, पर यह घटना के बाद की प्रतिक्रिया है और उसमें भी यह छोटी घटना है। घटना के पूर्व राज्यों के साथ सुरक्षा व्यवस्था पर पूर्ण तालमेल तथा किसी बड़ी घटना से निपटने को लेकर सशक्त तैयारी का पूर्व परीक्षण अब अपरिहार्य हो गया है।

अवधेश कुमार, ई.ः 30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः 110092, दूर.ः 01122483408, 09811027208


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