मंगलवार, 27 मई 2014

नव निर्वाचित सांसद श्री मनोज तिवारी जी का स्वागत


संवाददाता

नई दिल्ली। आज दिनांक 27-5-14 दिन मंगलवार को उत्तर पूर्वी दिल्ली के. भारतीय जनता पार्टी से नव निर्वाचित सांसद श्री मनोज तिवारी की विजय यात्रा निकली। जिसका स्वागत भारत तिब्बत सहयोग मंच यमुना विहार विभाग के कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया। विभाग अध्यक्ष श्री रामानन्द शर्मा ने फूल मालाओं से मनोज तिवारी जी का स्वागत किया। कार्यकर्ताओं ने उत्साहित होकर उनके स्वागत में पटाखे भी चलाए।

अनिल गुप्ता जी एवं राजकुमार  गजवानी और ध्रुव ठाकुर ने फूलै से श्री तिवारी जी का स्वागट किया। तिवारी जी की यात्रा में उनके साथ उत्तर पूर्वी जिला के अध्यक्ष अजय महावर तथा घोण्डा विधान सभा के विधायक श्री साहब सिंह चौधन मौजूद रहे। सांसद श्री तिवारी जी ने विभाग के सभी कार्यकर्ताओं का धन्यवाद किया एवं उनके द्वारा चुनाव के दौरान किए गए कार्यों की सराहना की और क्षेत्र में सभी से आपस में मेल जोल रखने की कामना की।




शुक्रवार, 23 मई 2014

केजरीवाल के इस रवैये के लिए शब्द तलाशना मुश्किल

अवधेश कुमार

अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी की सुर्खियांे में आने की कला की दाद देनी होगी। जरा ध्यान दीजिए, मामला न्यायालय का है। केजरीवाल ने कई नेताओं के साथ भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष नितीन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। गडकरी ने अपने खिलाफ जांच का निष्कर्ष आने के बाद न्यायालय में उनके खिलाफ मानहानि का मामला दायर किया, साक्ष्य दिए...और अब बारी केजरीवाल के जवाब देने की है। पहले केजरीवाल न्यायालय में उपस्थित नहीं हुए, इसलिए न्यायालय ने उनसे कहा कि आप 10 हजार रुपए का निजी मुचलका भर दीजिए, और इतने की गारंटी दीजिए, क्योंकि यह कानूनी प्रक्रिया है। यह न्यायालय की एक सामान्य प्रक्रिया है, जिसे कोई भी पूरा करता, मुचलका भर कर बाहर रहता और न्यायालय की तिथियों पर उपस्थित होकर अपना पक्ष रखता। इसमें न कहीं गडकरी हैं न भाजपा, लेकिन केजरीवाल और उनके साथियों ने इसे ऐसा बना दिया है मानो गडकरी पर आरोप लगाने के कारण उन्हें तिहाड़ जेल जाना पड़ा है। यह सफेद झूठ है लेकिन दृश्य देखिए वे सड़कों पर उतरे हैं, हंगामा कर रहे हैं....। सच कहा जाए तो यह विरोध केवल न्यायालय के विरुद्ध हो सकता है, जिसने कहा कि अगर आप मुचलका भरने की कानूनी प्रक्रिया पूरी न करेंगे तो आपको जेल जाना होगा। 

मेेरे संज्ञान में भारतीय राजनीति में यह पहला अवसर है जब किसी नेता ने मानहानि के मामले में मुचलका न भरकर उसे इस तरह मुद्दा बनाया हो। वास्तव में अरविन्द केजरीवाल ने न्यायालय में जो कुछ किया..... उनके समर्थक जिस तरह की दलीलंे दे रहे हैं उनको किन शब्दों में व्यक्त किया जाए यह सारे तटस्थ विश्लेषकों के लिए सबसे बड़े उधेड़बुन का विषय हो गया है। अगर इसे एक राजनीतिक महत्वाकांक्षी व्यक्ति का राजनीतिक स्टंट कहें तो भी इसकी व्याख्या नहीं होती। जो लोग यह कह रहे हैं कि अभिनय में माहिर केजरीवाल और उनके साथियों ने दिल्ली में फिर से जनता का ध्यान खींचने के लिए ऐसा किया है तो यह भी इसकी पूरी व्याख्या नहीं करता। इसी तरह यह कहने से भी कि विधायकों के विद्रोह और असंतोष को रोकने के लिए इस अवसर का उनने गलत इस्तेमाल किया है सम्पूर्ण निहितार्थ साफ नहीं होता। अगर यह कहा जाए कि इवेंट मैनेजमेंट की अपनी कला का फिर से दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने इस्तेमाल आरंभ कर दिया है तो यह भी उनकी पूरी कारगुजारी को साफ नहीं करता। इन सबको मिला दिया जाए तो भी उनकी गतिविधियों का पूरा विश्लेषण नहीं होता। 

लेकिन ये सारी बातें इन पर लागू होतीं हैं। सच कहा जाए यह किसी भी राजनीतिक पार्टी और उसके नेता की ऐसी हरकत है जिसमें एक साथ आम राजनीतिक मर्यादा, न्यायालय की गरिमा.....का हनन तो होता ही है, पहली बार कोई पार्टी परोक्ष तौर पर यह आरोप लगा रही है कि सत्ता बदलने के कारण न्यायालय ने केजरीवाल के साथ ऐसा व्यवहार किया है। यानी मामला भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितीन गडकरी का है और नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने जा रही इसलिए न्यायालय ने ऐसा किया है। मनीष सिसोदिया ने कहा कि अच्छे दिन आ गए हैं। ंसंजय सिंह ने भी यही आरोप लगाया। मामला न्यायालय और केजरीवाल के बीच का है और सएमएस किए जा रहे थे कार्यकर्ताआंे को तिहाड़ जेल पहुंचने के लिए। वे पहुंचे और विरोध प्रदर्शन भी कर रहे हैं। थोड़े शब्दों में कहा जाए तो एक अत्यंत ही घटिया, आपत्तिजनक और राजनीतिक हित साधने के लिए शर्मनाक धारावाहिक आरंभ हो गया है। हालांकि इस धारावाहिक की पटकथा अब दिल्ली और देश के लोगों के गले उतरेगी इसमें संदेह है। 

जरा न्यायालय की कार्रवाई और तीन पृष्ठ के आदेश की टिप्पणियों को देखिए। मजिस्ट्रेट ने साफ कहा कि बेल बांड जमा कराना एक कानूनी प्रकिया है और ऐसा नहीं कर आप अलग व्यवहार चाह रहे हैं। आपसे उम्मीद की जाती है कि आप एक आम आदमी की तरह व्यवहार करें। अंत मंे अदालत ने फैसला सुनाया कि जमानत नहीं लेने या निजी मुचलका नहीं भरने की स्थिति में केजरीवाल को जेल भेजा जाए। उनके वकीलों प्रशांत भूषण और राहुल मेहरा ने न्यायालय से कहा कि आम आदमी पार्टी  के सिद्धांत के अनुसार केजरीवाल जमानत के लिए मुचलका नहीं भरेंगे। यह बड़ी विचित्र दलील है......हमारी पार्टी का सिद्धांत है कि हम मुचलका नहीं भरेंगे, इसलिए न्यायालय इसके अनुसार कार्रवाई करे, कानून के अनुसार नहीं। मुचलका भरने से इनकार पर न्यायालय ने केजरीवाल से पूछा कि क्या वह ऐसा चाहते हैं कि उनके साथ कुछ विशेष तरह का व्यवहार किया जाए? दरअसल सुनवाई के दौरान केजरीवाल ने मेट्रोपॉलिटन मैजिस्ट्रेट गोमती मनोचा से कहा कि वह यह हलफनामा देने को तैयार हैं कि वह न्यायालय के समक्ष पेश होंगे, लेकिन मुचलका नहीं भरेंगे। इस पर मैजिस्ट्रेट ने कहा,  वह (केजरीवाल) जमानत के लिए बॉन्ड क्यों नहीं भरेंगे? एक प्रक्रिया है और हमें इस मामले में दूसरी प्रक्रिया क्यों अपनानी चाहिए? न्यायालय ने केजरीवाल के लिए अंग्रेजी में जो शब्द प्रयोग किए हैं वे हैं सनक, जबरन अपनी बात पर अड़ना और उसी तरह न्यालयालय पर काम करने का दबाव डालना। न्यायालय ने कहा कि ‘किसी की सनक और झनक में न्यायालय की प्रकिया को हवा में नहीं उड़ा दिया जा सकता। अगर कोई वादी इरादतन कानून की स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन करने पर उतारु है तो न्यायालय उसके सामने मूकदर्शक बना नहीं रह सकता।’ मनीष सिसौदिया कह रहे हैं कि केजरीवाल के खिलाफ चल रहे मानहानि के दूसरे मामलो में बांड भरने को कहा नहीं गया, लेकिन नई सरकार के आते ही ऐसा कहा गया और उन्हें जेल भेज दिया गया। विचित्र तर्क है। अगर किसी एक न्यायालय ने नहीं कहा और दूसरे ने कहा तो इसमें राजनीतक साजिश कहां से आ गई। 

यह साफ तौर पर न्यायालय के खिलाफ विरोध करना है। गडकरी को हम किसी प्रकार का प्रमाण पत्र नहीं दे रहे, लेकिन जांच रिपोर्ट में उनके खिलाफ कुछ भी नहीं निकला।  जिस अंजलि दमानिया के कथन पर अरविन्द केजरीवाल ने नितीन गडकरी पर आरोप लगाया नागपुर की जनता ने उनकी जमानत जब्त करा दी। आपने अपने आरोप से एक व्यक्ति का राजनीतिक जीवन एक प्रकार से खत्म कर देने की कोशिश की। अगर आरोप नहीं लगता तो गडकरी आज भाजपा अध्यक्ष होते। तो भी उस व्यक्ति ने मान्य कानूनी रास्ता पकड़ा। बात सीधी है या तो आप आप साबित करिए या फिर मानहानि की सजा भुगतिए। लेकिन अभी तो केजरीवाल को तिथियों पर उपस्थित होना था जो नहीं हुए तो न्यायालय में मुचलका भरने में समस्या क्या थी?

वस्तुतः आम आदमी पार्टी का काम करने का अभी तक यही तरीका रहा है। यह उसे दिल्ली में अपनी पुनर्वापसी का अवसर दिखा और उसने इसका इस्तेमाल आरंभ कर दिया। अरविन्द एवं आम आदमी पार्टी के सामने अपनी साख की समस्या है। राज्यपाल की चिट्ठी लीक हो गई जिसमें अपने पुराने स्टैण्ड के विपरीत उनने विधानसभा भंग करने में थोड़ा समय लेने का निवेदन किया गया था। इसमें लिखा गया था कि हम जनता से पूछना चाहते हैं कि क्या सरकार पुनः बनानी चाहिए। यानी सरकार बनाने की भी इच्छा थी। हालांकि चिट्ठी लीक होते ही केजरीवाल ने घोषणा किया वे चुनाव में जाना चाहते हैं और जनता से माफी मांगी। विधायकों का बड़ा वर्ग नाराज है। कुछ भाजपा से सौदेबाजी कर रहे हैं। पहले समर्थन देने वाले अब साफ कर चुके हैं कि दोबारा वे ऐसा नहीं करेंगे। तो यही एक मौका था जब पूरे मामले से ध्यान हटाकर फिर से स्वयं को महाक्रांतिकारी और व्यवस्था को नकारने वाले हीरो क रुप में अपने को दिखाएं। आम आदमी पार्टी की चार यूएसपी रही है- इवेट मैनेजमेंट, कमजोर लक्ष्य पर हल्लाबोल, अभिनय और आत्ममप्रचार। इस तरह अपने यूएसपी के अनुसार ही वे काम कर रहे हैं। लेकिन क्या इस प्रकार की अभिनय, आत्मप्रचार और निरर्थक हल्लाबोल की शैली को जनता उबाउ नहीं मानेगी? 

यह तर्क दिया जा रहा है कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली की जनता ने नकारा नहीं है। उसे पिछले विधानसभा चुनाव से 4 प्रतिशत मत अधिक मिले हैं। यकीनन मिले हैं, और कांग्रेस का स्थानापन्न उसने किया है। लेकिन लोकसभा चुनाव परिणाम का दूसरा पहलू यह है कि भाजपा का  करीब 14 प्रतिशत प्रतिशत बढ़ा है। विधानसभा चुनाव मेें आम आदमी पार्टी ने 28 सीटंें जीतीं, इस बार केवल 8 सीटों पर बढ़त मिली है। इसके समानांतर भाजपा की बढ़त 61 सीटों पर है। इन दोनों को मिलाकर जब विवेचन करेंगे तब जनमत साफ दिखाई देगा। मान लीजिए, आपको जनमत मिले भी तो क्या ऐसे आचरण का किसी दृष्टिकोण से समर्थन किया जा सकता है? कतई नहीं। राजनीति का यह तरीका देश में ऐसे कई प्रकार के सामाजिक राजनीतिक असंतुलन और अशांति उत्पन्न करेगा जो कि वर्तमान चुनौतियों और संकटों से निपटने में बाधा खड़ी करेगां। इसलिए ऐसी हरकतों का पुरजोर विरोध होना चाहिए। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर काॅम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


शनिवार, 17 मई 2014

कांग्रेस की पराजय यूं ही नहीं हुई

अवधेष कुमार

कांग्रेस का दो अंको में सिमटना इस चुनाव परिणाम का ऐसा पहलू है जो भारतीय राजनीति में आमूल बदलाव का सूचक बन रहा है। ऐसी दुर्गति की कल्पना कांग्रेस के कटटर दुष्मनों ने भी नहीं की होगी। यह ऐसा आघात है जिससे कांग्रेस को बाहर निकलने में न जाने कितना समय लगेगा। उसकी सीटों के साथ मतों में भी भारी कमी आई है। कई राज्यों से तो लोकसभा में उसके प्रतिनिधि तक नहीं पहुंच पाए। हालांकि चुनाव अभियान के साथ कुछ बातें बिल्कुल आईने की तरह साफ झलक रही थी। जैसे-जैसे चुनाव अभियान आगे बढ़ा, एक एक चरण खत्म होता गया, यह स्पश्ट होने लगा कि कांग्रेस एवं संप्रग अपनी बुरी पराजय की खाई में गिरने जा रही है। यह अकारण नहीं था कि कांग्रेस के कई नेताओं ने चुनाव लड़ने से ही स्वयं को अलग कर लिया। यह असाधारण स्थिति थी। जब पार्टी का ऐसा मनोविज्ञान हो तो फिर उसके विजय की कल्पना कौन कर सकता था। यह भी न भूलिए कि महाराश्ट्र का चुनाव संपन्न होेने के साथ ही मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने सेक्यूलरवाद के नाम पर किसी फ्रंट को समर्थन देने का विचार प्रकट कर दिया तो सलमान खुर्षीद ने भी। आज महाराश्ट्र के परिणाम ने साबित कर दिया कि चव्हाण को कांग्रेस राकांपा के सूपड़ा साफ हो जाने का अनुमान लग गया था। 

तो कुल मिलाकर कांग्रेस के अंदर पराजय की सामूहिक मानसिकता कायम थी। राहुल गांधी ने यह कहकर कि हम स्वयं सरकार बनाएंगे, केवल नेता के नाते पार्टी का आत्मबल बनाए रखने की रणनीति अपनाई, अन्यथा अगर 10 जनपथ और उनके पास सही सूचना देने वालों की टीम है तो उन्हें भी जमीनी वास्तविकता का अहसास हो गया होगा। निस्संदेह, यह प्रष्न सबके मन में उठेगा कि आखिर कांग्रेस और संप्रग की ऐसी पराजय क्यों हुई। जिस कांग्रेस के वोट में 1998 से लेकर 2009 तक 2 करोड़ 39 लाख 9 हजार 888 की वृद्धि हुई वह आखिर अचानक ऐसी दषा को क्यों प्राप्त हुई? सामान्य विष्लेशण यह है कि महंगाई रोकने में नाकामी, भ्रश्टाचार के रिकाॅर्ड खुलासे और उसके बारे में मंत्रियों और नेताओं के ऐसे रवैये जिसे लेकर संदेह घटने की बजाय पुख्ता ज्यादा हुए....., सरकार के अंदर एकरुपता के अभाव से निकलते अराजकता के संदेष.....बिगड़ती आर्थिक स्थिति, पाकिस्तान से निपटने में स्पश्ट नीति का अभाव...... आदि ने जनता के मन में उसके प्रति केवल गहरी निराषा ही नहीं, असीम विरोध का भाव पैदा किया और उसका वही विरोध प्रचंड रुप से इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मषीनों में प्रकट हुआ है। 

निस्संदेह, ये कारण थे और कांग्रेस जनता की सोच को अपने अनुकूल परिवर्तित करने में सफल नहीं रही। आखिर जिस प्रधानमंत्री का मीडिया सलाहकार रहा व्यक्ति ऐन चुनाव के बीच अपनी पुस्तक लेकर आता है, उसमें आरोप लगाता है कि डाॅ. मनमोहन सिंह सोनिया गांधी के सामने लाचार थे और महत्वपूर्ण निर्णय बगैर उनकी हरि झंडी के कर नहीं पाते थे....मतदाताओं के मन पर उस सरकार एवं पार्टी की छवि कैसी बनेगी? भले संजय बारु की पुस्तक में तथ्यात्मक दोश हों, या कुछ अतिवादी दावे भी हों, लेकिन आम नागरिक इतनी गहराई में कहां जाता है, उसने तो जो सुना, अखबारों में पढ़ा और फिर नेताओं की जो टिप्पणियां सुनीं उन सबके आधार पर ही अपना मत बनाता है। कांग्रेस के रणनीतिकारों का दिवालियापन देखिए कि इसका जवाब प्रधानमंत्री को देना चाहिए था, क्योंकि चुनाव का समय था, लेकिन जवाब दे रही है पार्टी, वह भी लेखक के इरादे पर प्रष्न उठाकर, फिर सामने आ रहे हैं वर्तमान मीडिया सलाहकार कुछ दूसरे तथ्यों के साथ। इससे भी यही संदेष निकला कि वाकई प्रधानमंत्री को पंगु बनाकर रखा गया। 

ध्यान रखिए, भाजपा की ओर से नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस पर सबसे बड़ा हमला यही किया कि नेहरु इंदिरा परिवार स्वयं कोई जिम्मेवारी न लेकर अपने आदेषपाल के रुप में किसी केा सरकार का नेतृृत्व थमाती है। अगल-अलग तरीकों से, अलग-अलग षब्दों से मोदी इस बात को प्रकट करते रहे। वे और भाजपा जनता के बड़े वर्ग को यह समझाने में सफल रहे कि यह परिवार जिसे प्रधानमंत्री या मंत्री बनाता है उसे वाकई अपने नौकर की तरह मानता है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ यही व्यवहार हुआ है। आज अगर देष की दुर्दषा है तो इसी कारण, क्योंकि उस परिवार ने सरकार केा अपने अनुसार काम तक नहीं करने दिया। इसका कारगर जवाब देने में कांग्रेस विफल रही। प्रधानमंत्री के विदेष में होेने के दौरान राहुल गांधी का अध्यादेष को रद्दी की टोकड़ी में फेंकने का बयान इसका प्रमुख उदाहरण बन गया। कांग्रेस जितना बचाव करती उतना ही वह फंसती जाती। 

चुनाव में आम तौर पर किसी की हार और किसी की जीत होती है। संसदीय लोकतंत्र में आज कोई पार्टी हारती है तो कल वह जीतती है। लेकिन उसके कारण अगर गहरे हों और परिणाम भी तो उसका विष्लेशण गहराई से करने की आवष्यकता होती है। यह समान्य हार नहीं है, देष की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी का चुनावी पतन हो चुका है। सच यह है कि कांग्रेस की पूरी रणनीति ही गलत थी और उसमें तारतम्यता नहीं थी। कुछ बातें तो एकदम स्पश्ट थीं। मसलन, आंध्रप्रदेष में उसे पिछले आम चुनाव में सबसे ज्यादा 33 स्थान मिले थे। तेलांगना विभाजन के बाद पूरा माहौल बदल गया, उसके मुख्यमंत्री तक ने नई पार्टी बना ली। तमिलनाडु में गठबंधन के कारण 8 सीटें मिलीं थी। गठबंधन न होने की स्थिति में उसकी पुनरावृत्ति संभव नहीं थी। यही बात पष्चिम बंगाल की 6 सीटो के संदर्भ मे थी।  राजस्थान विधानसभा चुनाव के बाद ही उसके 20 स्थानों तथा दिल्ली के सातोें स्थानों की संभावना खत्म हो गई थी। इतने मात्र से उसका ग्राफ एकदम नीचे आ रहा था। इस अंकगणित के पलटने के स्पश्ट खतरे, सरकार की कलंकित छवि, मंत्रियों को बचाने में सरकार की भूमिका का खुलासा, उच्चतम न्यायालय का कोयला घोटाला षपथ पत्र से लेकर अन्य मामलों में टिप्पणियां....विपक्ष के तीखे हमलवार तेवर....मीडिया की स्वाभाविक विपरीत टिप्पणियां आदि की स्थिति में नेताओं को जितनी गंभीरता से विचार-विमर्ष कर रणनीति बनाने और सधे हुए बयान और कदम उठाने की आवष्यकता थी इनका रवैया इसके विपरीत था। आंध्र के प्रबंधन में वह विफल रही। फिर आरोप सरकार पर और निशेध प्रधानमंत्री के खुलकर बोलने पर! कांग्रेस ने पिछले वर्श जनवरी में राहुल गांधी को उपाध्यक्ष बनाकर उनकी ताजपोषी और उनके हाथों नेतृत्व थमाकर बहुआयामी संकटों का समाधान तलाषा। राहुल गांधी लोगों को अपने प्रति विष्वास दिलाने, पार्टी को पटरी पर लाने के लिए योग्य नेताओं को टीम में लाने तथा कुछ लोगों को टीम से बाहर करने का जो कठोर उपक्रम करना चाहिए था, कर नहीं पाए। थोड़े बहुत सरकार एवं टीम में चेहरों का फेरबदल हुआ, लेकिन मोटा मोटी लोग वही रहे। इनमें ऐसे चेहरे नहीं थे जिनकी ओर जनता आकर्शित हो। राहुल ने कुछ अच्छे इरादे दिखाए, लेकिन क्लासरुम की तरह नेताओं का क्लास लेने का तरीका स्वयं नेताओं को भी पसंद नहीं आता था.....। गुस्सैल युवा की छवि बनाने की उनकी सहालकारों की रणनीति भी हास्य का प्रसंग बनता गया। कम से कम राहुल ने इस चुनाव में यह साबित नहीं किया कि उनमें देष की सबसे बड़ी पार्टी और वह भी सरकार चलाने वाली पार्टी के नेतृत्व की क्षमता है। लिखित पटकथा पर काम करके कोई स्वाभाविक नेता नहीं बन सकता है यह वे और उनके रणनीतिकारों को समझना चाहिए था। 

एक ओर नरेन्द्र मोदी जैसा तीखे तेवर वाला व्यक्ति जो इस परिवार की धज्जियां उड़ा है, सरकार को हर दृश्टि से विफल साबित कर रहा है, लोगों की रिकाॅर्ड भीड़ उसकी सभाओं में जुट रही है और भीड़ उसके साथ आवाज मिला रही है तो उसका सामना करने वाला नेतृत्व भी वैसा ही चाहिए। मोदी के सामने राहुल टिक ही नहीं सके और मुख्य नेता वही थे। प्रियंका ने जब अमेठी में सघन प्रचार अभियान आरंभ किया तो उसमें आषा जगी, लेकिन जब उन्होंने मोदी पर निजी हमले आरंभ किए और यह कहा कि वे बंद कमरे में महिलाओं का फोन सुनते हैं तो इसके विरुद्ध नकारात्मक प्रतिक्रिया हुई। उसके बाद ही भाजपा दामाद श्री नामक पुस्तक और फिल्म लेकर सामने आई और इसकी हजारों प्रतियां अमेठी और चारों ओर बांटी गईं। मोदी ने स्वयं अमेठी जाने का फैसला किया। मोदी ने प्रचार के अंतिम समय सभा की और कांग्रेस को उसका जवाब देने का मौका तक नहीं मिला। यदि प्रियंका गांधी उस तरह हमला नहीं करती तो वह पुस्तक और फिल्म नहीं आती और षायद मोदी रायबरेली की तरह ही वहां नहीं जाते। इसका परिणाम अमेठी में हुए टक्कर से मिल जाता है।

कांगे्रस ने मोदी के विरुद्ध दंगा, सांप्रदायिकता, विभाजनकारी होने का वही पुराना राग अलापा जिसमें वह बार-बार असफल हो चुकी थी। और कुछ न मिला तो एक महिला की कथित फोन टेपिंग पर कैबिनेट द्वारा जांच का फैसला किया गया, और जिस ढंग की टिप्पणियां आईं उसे आम लोगों ने चरित्रहनन की श्रेणी का माना। कांग्रेस सांप्रदायिकता और निजी चरित्र पर जितना हमला करती उतना ही उसका मत गिरता जाता। मोदी और उनके समर्थकों को जवाब में प्रति हमला का मौका मिलता। सांप्रदायिक बनाम सेक्यूलर का कार्ड मोदीे के केन्द्र सरकार, कांगे्रस, परिवार पर अब तक के सबसे प्रचंड हमले और भारत को विकास के रास्ते आगे ले जाने के दावे के सामने एकदम कमजोर पड़ता गया। कांग्रेस के नेताओं कार्यकर्ताओं में भी तारतम्यता का अभाव था। जब आम कार्यकर्ता या नेता का राहुल और सोनिया से मिलना तक कठिन हो तो फिर उन्हें जमीनी वास्तविकता का अहसास होता भी कैसे। यह अकारण नहीं था कि सोनिया गांधी को एक दषक में पहली बार अमेठी में सभा करके यह कहना पड़ा कि मेरी सास में आपको अपना बेटा दिया मैंने अपना इसका ख्याल रखिए। इससे तो संदेष यह गया कि संभवतः राहुल गांधी की अमेठी सीट भी फंस गई है। अब देखना होगा कांग्रेस ईमानदार आत्ममंथन कर अपनी पराजय के क्या-क्या कारण तलाषती है। अगर कांग्रेस ने ईमानदारी से आत्ममंथन न कर नेतृत्व, विचार और नीतियों में आमूल बदलाव नहीं किया तो उसके लिए संकट से उबरना कठिन हो जाएगा।  

अवधेष कुमार, ई.ः30, गणेष नगर, पांडव नगर काॅम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


शनिवार, 10 मई 2014

यह रणनीतिक भूल भी साबित हो सकता है

अवधेश कुमार

अचानक कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत वाराणसी में लगाना आरंभ कर दिया है। उसके बड़े नेता व चुनाव प्रबंधक वहां पहुंच रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की घेरेबंदी स्वाभाविक ही इनकी रणनीति का मुख्य अंग है। इस घेरेबंदी का सबसे प्रमुख लक्ष्य मुस्लिम मतों को अपने पक्ष में खींचना है जिसकी संख्या इतनी है कि अगर वे एकमुश्त मिल जाएं तो कांग्रेस के अपने मतों के साथ परिणाम में बेहतर अंकगणित सामने आ सकता है। गुजरात के वे मौलवी साहब जिनकी टोपी पहनने से नरेन्द्र मोदी ने इन्कार कर दिया था अजय राय के साथ देखे जा रहे हैं। लेकिन कांग्रेस घेरेबंदी का जो सबसे बड़ा कदम व सफलता मान रही है, वह है मुख्तार अंसारी और अफजाल अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का समर्थन। अफजाल अंसारी ने जैसे ही यह घोषणा की कि उन्होंने मोदी के विरुद्ध कांग्रेस को समर्थन देने का फैसला किया है, कांग्रेसी नेताओं की बांछे खिल गईं। कांग्रेस इसे बहुत बड़ी रणनीतिक सफलता मानती है। क्या वाकई यह इतनी बड़ी सफलता है जिससे कांग्रेस की बांछे खिलनी चाहिए? या इसके ऐसे दूसरे पक्ष भी हैं जिनमें कांग्रेस के लिए क्षति की संभावना निहित हैं?

इसका उत्तर देने के लिए हमें इसके कई पहलुओं पर गौर करना होगा। हम न भूलें कि 2009 में भाजपा के डाॅ. मुरली मनोहर जोशी की विजय के पीछे मुख्तार अंसारी भी एक प्रमुख कारक थे। जब वाराणसी के लोगों ने देखा कि अंसारी जीत सकते हैं...यानी बसपा के दलितों का मत, मुसलमानों के बड़े तबके का मत ...तो उन लोगों ने भी जोशी के पक्ष में मत दे दिया जो कभी भाजपा को वोट नहीं देते थे। तो अंसारी के नाम के साथ एक विपरीत प्रतिक्रिया भी जुड़ी है, जिसका कांग्रेस को विचार करना चाहिए था। पता नहीं कौमी एकता दल कांग्रेस के उम्मीदवार अजय राय को मुसलमानों का कितना वोट दिला पाएगा, किंतु उ. प्र. के चैथे चरण के चुनाव के एक दिन पहले इस खबर ने भाजपा को बिना मांगे ध्रुवीकरण का उपहार अवश्य दे दिया था। यह खबर फैलने के साथ जो प्रतिक्रिया आम जनता में हुई उसे महसूसते हुए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने भाजपा उम्मीदवारों के वोट में इजाफा  करा दिया। 

वास्तव में इस बात का खतरा बढ़ रहा है कि अंसारी समर्थन कहीं कांग्रेस को लाभ के बदले क्षति न पहुंचा दे। उसकी प्रतिक्रिया में वाराणसी में और दूसरे क्षेत्रों में कहीं भाजपा के मतों में इजाफा न हो जाए। इसमें तो दो राय नहीं कि असंरी बंधुओं की छवि सांप्रदायिक दबंग की है। उन्हें गैंगस्टर एवं पूर्वांचल का डाॅन भी कहा जाता है और यह निराधार भी नहीं है। मुख्तार एवं अफजाल दोनों पर जघन्य अपराधों के मामले दर्ज हैं। मुखतार पर दर्ज मुकदमों में हत्या, अपहरण, डकैती, गैंगवार, अवैध हथियार रखने, आतंकवाद, दंगा फैलाने आदि शामिल है। उन पर मकोका कानून भी लगा है। टाडा न्यायालय ने उन्हें सजा भी दी थी लेकिन बाद में उच्चतम न्यायालय ने उन्हें टाडा से मुक्त कर दिया। दोनों भाइयों ने पिछले चुनाव के अपने शपथ पत्र में जो विवरण दिया वह किसी को भी डरा सकता है। अफजाल अंसारी पर भी हत्या, डकैती, हत्या के प्रयास, आपराधिक षडयंत्र, हथियार के साथ सरकारी कार्य में बाधा डालने आदि मामले दर्ज हैं। जब भाजपा सहित दूसरे विरोधी ये सारीे बातें जनता के सामने रखते हैं तो कांग्रेस के लिए इसका जवाब देना कठिन हो जाता है। वैसे भी राजनीति में अपराध और बाहुबल के अंत के इस माहौल में कांग्रेस ऐसा करके अपने को ही प्रश्नों के घेरे मंे ला दिया है। खासकर जब राहुल गांधी ने उस अध्यादेश को कूडेदान में फेंकने का बयान दिया जिसमें निचली आदालत से सजा पाए या जेल में बंद़ नेताओं के चुनाव लड़ने पर उच्च्तम न्यायालय के प्रतिबंध का अंत किया गया था। उसे कांग्रेस ने राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध पार्टी नेतृत्व की प्रतिबद्धता का प्रमाण बताया था। आज ऐसे लोगों से समर्थन लेकर कांग्रेस देश को क्या संदेश देना चाहती है? यह प्रश्न यकीनन उठता रहेगा जिसका जवाब देना कांग्रेस के लिए कठिन होगा। 

यह इस मायने में भी हैरत भरा कदम है कि  मुख्तार अंसारी पर  अजय राय के ही बड़े भाई अवधेश राय की 1991 में हत्या कराने का आरोप है। विधायक कृष्णानंद राय की हत्या का आरोप भी इन्हीं पर है। अजय राय के साथ उनकी दुश्मनी इसी कारण थी। इसलिए अजय राय के समाज में भी इस समर्थन को अत्यंत ही जुगुप्सा की नजर से देखा जा रहा है। कुछ लोग खुलेआम कहते सुने जा सकते हैं कि अजय राय ने अपने मृतक भाई तथा कृष्णानंद राय की आत्मा से गद्दारी की है। ऐसा सोचने वाले लोग अजय राय को वोट देंगे यह कल्पना कौन कर सकता है। उनके अपने परिवार और गांव में इसका मुखर विरोध हो रहा है। हालांकि यह पार्टी का निर्णय है जिसमें अजय राय कुछ नहीं कर सकते, लेकिन उनने भी आरंभ में इसका स्वागत किया था। यह ऐसा पक्ष है जो चुनाव में मतदाताओं के संदर्भ में कांग्रेस के लिए चुम्बक के समान ध्रुव के बीच विकर्षण सदृश स्थिति पैदा कर सकती है। 

कहा जाता है कि अंसारी बंधुओं के नाम के साथ ध्रुवीकरण नत्थी है। अल्पसंख्यकों को वोट उनके पक्ष में ध्रुवीकृत हो सकता है। लेकिन  वाराणसी और उसके आसपास उसके विरोध में भी जो धु्रवीकरण होगा उसका लाभ किसे मिलेगा? वैसे अंसारी परिवार एवं कौमी एकता दल के जनाधार को लेकर भी सही समझ व जानकारी का अभाव दिखता है। 2009 के लोकसभा चुनाव में मुख्तार अंसारी को 1 लाख 85 हजार 911 मत मिले थे जो पहली नजर मेें आकर्षित करता है। वे दूसरे स्थान पर थे एवं मात्र 17 हजार वोटों से पराजित हुए। लेकिन यह न भूलें की तब वे बसपा के उम्मीदवार थे। इसलिए उसमें बसपा के मतों का योगदान सर्वाधिक था। तब बसपा की सरकार भी प्रदेश में थी। उनके जनाधार का मूल्यांकन तो इससे होगा कि कौमी एकता दल को जनता कितना समर्थन मिला। वास्तव में बसपा से बाहर आने के बाद जब उन्होंने कौमी एकता दल का गठन किया तो उनका प्रदर्शन अत्यंत खराब रहा है। 2012 के विधानसभा चुनाव में कुल 43 स्थानांे पर कौमी एकता दल ने उम्मीदवार खड़े किए। इनमें से केवल 2 जीते और एक उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहा। इनको केवल 0.55 प्रतिशत मत मिला। जो दो सीटें उन्हें मिली उनमें वाराणसी से कोई नहीं था। कहने का तात्पर्य यह कि उनका जनाधार वैसा है नहीं जैसा कांग्रेस ने कल्पना की है। 

इसलिए कुल मिलाकर कांग्रेस भले मोदी की घेरेबंदी की सोच में इसे एक उपलब्धि मान रही हो, यह उसके लिए एक भूल भी साबित हो सकती है। चुनावी अंकगणित के स्तर पर और राजनीतिक को अपराधीकरण से मुक्ति के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक कसौटी पर भी। 


शुक्रवार, 2 मई 2014

प्रियंका के तवर के मायने

अवधेश कुमार

प्रियंका बाड्रा के तेवर को देखकर कुछ लोगों की धारणा बन रही है कि इससे कांग्रेस के चुनाव अभियान को थोड़ा बल मिला है। वे यह भी मान रहे हैं कि अभी तक ऐसा लग रहा था जैसे नरेन्द्र मोदी के हमले के सामने नेहरु इंदिरा परिवार कमजोर पड़ रहा है। प्रियंका ने मोर्चा खोलकर ईंट का जवाब पत्थर से देने की रणनीति अपनाई तो मामला थोड़ा बराबर का हुआ है। ऐसे लोग इससे आने वाले मतदान में कांग्रेस के लिए कुछ अनुकूल असर की भी संभावना व्यक्त कर रहे हैं। प्रियंका के हमलावर तेवर के प्रभावों को देखने का अपना नजरिया हो सकता है। वे इस प्रकार के हमले में कितनी न्यायसंगत हैं, आम जनता में इसका संदेश क्या जा रहा है, चुनाव पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा इन सबका आकलन इतना आसान नहीं हो सकता जैसा बताया जा रहा है। सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि आखिर प्रियंका को मोदी के खिलाफ इतना तीखा हमला करने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? ध्यान रखिए हमले केवल मुद्दों व नीतियों पर नहीं हैं, इनका आयाम निजी ज्यादा है। यह परिवार के उस आत्मकथन के विपरीत है जिसमें कहा गया था कि ये कभी निजी हमले पर नहीं उतर सकते। 

सोनिया गांधी, राहुल गांधी तो पहले से मोदी के खिलाफ आक्रामक हो चुके थे। उन्हें यह लग गया था कि अगर उस आदमी का सामना करना है तो फिर एक सीमा से बाहर आना ही पड़ेगा। कांग्रेस के अंदर मतदाताओं पर मोदी के हमलावर तेवर के असर की जो रिपोर्टें मिल रहीं थीं, उनमें साफ हो गया था कि कांग्रेस का अभियान कमजोर पड़ रहा है एवं इससे चुनावी संभावना बुरी तरह प्रभावित हो रही है। आप इसे मोदी की रणनीतिक संभावना भी मान सकते हैं। लेकिन प्रियंका व्यंग्यात्मक भाषा तक ही अपने को सीमित रखीं हुईं थीं। अचानक उनका तेवर बदला और उन्होंने पहले वरुण गांधी को विश्वासघाती कहा तथा उसके बाद तो उनके शब्दकोष में जितने ऐसे शब्द हो सकते थे, चुनचुन कर प्रयोग करना आरंभ कर दिया। यह प्रियंका का नया रुप है जिसका हम पहली बार दर्शन कर रहे हैं। 

 हम उनके विरोधियों पर हमले के अधिकार का समर्थन करते हैं। जब उनके परिवार को राजनीतिक निशाना बनाया जा रहा हो तो उनको अपनी रक्षा में जवाबी हमला करना ही चाहिए। उनके पति राॅबर्ट बाड्रा को भाजपा ही नहीं दूसरे दलों ने भी चुनाव अभियान और इसके पूर्व से निशाना बनाया हुआ है। आखिर अरविन्द केजरीवाल ने पत्रकार वार्ता बुलाकर उनके जमीन सौदे को घोटाला बताया। भाजपा तो बाद में आई। हां, इसने चुनाव में कांग्रेस की अन्य विफलताओं के साथ इसे भी एक बड़ा मुद््दा बनाया है। लेकिन यह साफ लग रहा है कि अगर प्रियंका ने इतने तीखे तेवर नहीं दिखाए होते तो भाजपा दामाद श्री नामक फिल्म एवं पुस्तक लेकर शायद ही आती। चूंकि प्रियंका ने मोदी को लगातार निशाना बनाना शुरु किया, उसके बाद भाजपा के रणनीतिकारों ने युद्ध के एक अमोघ हथियार के तौर पर अपना आरोप सामने लाया। सारे तथ्य उसके पास थे ही, इसलिए तैयारी में समय भी नहीं लगना था। 

राॅबर्ट पर जो आरोप हैं, उनका कानूनी महत्व तभी होगा जब जांच कराके सच सामने लाया जाए। यानी कानूनी कार्रवाई हो। लेकिन जमीन के धंधे में पिछले एक दशक में जिस तरह खाकपति खरबपति बने हैं, इस समय बाड्रा भी उन्हीं में से एक दिख रहे हैं। कांग्रेस के अंदर भी ऐसा मानने वाले हैं। चुनाव के समय तथ्यों से ज्यादा महत्व धारणा का होता है और धारणा यदि उलट बन गई तो आपका प्रतिहमला प्रभावी नहीं हो सकता। प्रियंका ने आरोपों पर बातें नहीं की हैं। केवल मोदी को गलत साबित किया है। वो यहां तक कह गईं कि डरे हुए चूहों की तरह भाग रहे हैं। कांग्रेस समर्थकों व कार्यकर्ताओं ने अवश्य इस पर तालियां पीटीं होंगी.....मोदी विरोधियों ने भी। लेकिन क्या इससे आरोप का खंडन हो गया? प्रियंका कहती हैं कि वो कुछ भी कर लें मैं डरने वाली नहीं हूं। ठीक है आप मत डरिए। अगर आपकी नजर में आरोप गलत हंै तो साहस से सामना करिए। वो इंदिरा गांधी का हवाला देती हैं कि हमने उनसे सीखाा है विपरीत परिस्थितियों में आंतरिक ताकत और बढ़ जाती है। अभी तक ऐसी कौन सी विपरीत परिस्थितियां आईं हैं? दस वर्ष से कांग्रेस सत्ता में है.... आपके परिवार का पूरा प्रभाव उस पर है......आपको किसी मंत्री से कम वीआईपी व्यवहार मिलता नहीं है....फिर समस्या कहां आ गई कि आपको ऐसा बात करनी पड़ी?

कहीं ऐसा तो नहीं कि कांग्रेस के बारे में प्रतिकूल चुनावी संभावना की आशंका आपके मन में घर कर गई है? रायबरेली में तो सोनिया गांधी की विजय में संदेह नहीं है, लेकिन अमेठी में वैसी स्थिति नहीं है। पहले कुमार विश्वास ने समस्या पैदा किया और अब भाजपा की ओर से स्मृति ईरानी पूरे दमखम से वहां चुनाव लड़ रहीं हैं। ध्यान रखिए एक दशक में सोनिया गांधी ने वहां पहली रैली की और उसमें यह भावुक अपील की कि मेरी सास ने अपना बेटा आपको सौंपा और अब मैंने अपना बेटा सौंपा है इसका ध्यान रखिए। यह सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं हो सकता। दामाद श्री फिल्म और पुस्तक भारी संख्या में वहां भेजे गए हैं जिनका वितरण हो रहा है। इन सबसे मनोवैज्ञानिक दबाव में आना स्वाभाविक है। किंतु किसी के आंतरिक सामथ्र्य की पहचान ऐसे समय ही होती है। आप कितने धैर्य और संतुलन से मुकाबला करते हैं और अपनी बात रखते हैं इससे आपका परीक्षण होता है। कोई नहीं कह सकता कि प्रियंका की दो बातें किसी को भी पसंद आई होगी। एक, मोदी बंद कमरे में महिलाओं की बातें सुनते हैं। यह सीधा निजी चरित्र पर हमला है। इसे ही कमर के नीचे वार कहते हैं। महिला जासूसी प्रकरण में कांग्रेस ने आरंभ में ऐसा ही बोलना आरंभ किया था, जिसे रोक दिया गया। प्रियंका ने दोबारा उस प्रकरण को ज्यादा तीखा होकर जीवित करने का प्रयास किया है। इसका कांग्रेस के लिए या उनके लिए कोई अनुकूल संदेश जाएगा यह मानना बेमानी होगी। ऐसे चरित्रहनन के शब्दों को हमारा समाज स्वीकार नहीं करता। इसी तरह उन्होंने चूहे की तरह भागने वाली बात जो कि वह न तो उपयुक्त बैठता है और न पसंद किए जाने लायक है। 

फिर समय देखिए। लोगों की सहानुभूति किसे मिलती है जिस पर सबसे ज्यादा हमला हो। वैसे तो नरेन्द्र मोदी पर लंबे समय से हमला होता रहा है जिसका बदला उन्होंने अपने तेवर में पिछले एक वर्ष में चुकाया है। उसमें उन्होंने जो कुछ बोला है वे सब बोलने चाहिएं या नहीं, इस पर यकीनन दो राय है।  लेकिन इस समय पिछले एक सप्ताह से अचानक मोदी पर जिस ढंग से चैतरफा हमला हुआ है उससे आम जनता के अंदर मोदी के प्रति ही सहानुभूति पैदा हो रही है। लोग कह रहे हैं कि एक ही आदमी पर सारे लग गए हैं। कोई मोदी को कसाई कह रहा है, कोई राक्षस तो कोई कसाई भी उसके सामने कमजोर, कोई खून से नहाया हुआ तो कोई कुछ, कोई पत्नी छोड़...... न जाने क्या क्या नाम दिया जा रहा है। ऐसे समय प्रियंका के ऐसे हमले का असर क्या हो सकता है इसका हम केवल अनुमान लगा सकते हैं। प्रत्येक क्रिया के समान और विपरीत प्रतिक्रियाएं होतीं हैं। ऐसा न हो कि प्रियंका के तेवर से कांग्रेसी इस समय खुश हों, लेकिन इसकी प्रतिक्रियाएं विपरीत हो जाएं। राॅबर्ट का जो होना है वो आगे होगा....लेकिन चुनाव तो अभी है और ऐसे बयानों का तात्कालिक असर होगा। अच्छा हो कि प्रियंका अब से भी संभलें और सोच समझकर मोदी की आलोचना करे। खीझ और गुस्से में कई बार हम ऐसा बोल जाते है जो अंततः हमारा नुकसान ही करता है। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर काॅम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


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