रविवार, 27 अप्रैल 2014

292 बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई गई

संवाददाता

नई दिल्ली। पूरे देश में पोलियो खत्म हो चुका है इसी की कड़ी में राजधानी में पल्स पोलियो दिवस को लेकर बच्चों को पोलियो की दवा पिलाई गई व संकल्प लिया गया कि अब दिल्ली ही नहीं बल्कि पूरे देश को पोलियो को दूबारा पनपने नहीं दिया जाएगा।

नई पीढ़ी-नई सोच की ओर से हर बार की तरह इस बार भी पल्स पोलियो टीकाकरण कैम्प लगाया गया जिसमें 292 बच्चों ने पोलियो की दवा पी। यह कैम्प संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी की जनता क्लिनिक बुलंद मस्जिद, शास्त्री पार्क में लगाया गया। इस कैम्प का उद्घाटन संस्था के सरपरस्त श्री अब्दुल खालिक ने किया। उनके साथ संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन भी मौजूद थे।

कैम्प में बच्चों को पोलियो की ड्राप्स सुबह 9 बजे से ही पिलाईं जाने लगी थी और शाम 4 बजे तक 292 बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाईं गईं। संस्था के पदाधिकारियों और सदस्यों ने घर-घर जाकर लोगों को पोलियो ड्राप्स पिलाने के लिए प्रोरित किया और पोलियो की ड्राप्स न पिलाने के नुकसान बताए।

अब्दुल खालिक ने कहा कि संस्था हमेशा हर तरह के राष्ट्रीय प्रोग्राम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती है और बीच-बीच में जनता को भी इन प्रोग्राम के प्रति जागरूक करती है। संस्था के सदस्यों ने आज पूरी दिन लोगों के घर-घर जाकर बच्चों को पोलियो केंद्र पर 0-5 वर्ष के बच्चों को पोलियो की ड्राप्स पिलाने के लिए कहा।

संस्था के अध्यक्ष साबिर हुसैन ने कहा कि हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम लोगों की मदद करते रहें, क्योंकि दूसरों की मदद करने में जो शुकून मिलता है वह और किसी दूसरे काम में नहीं मिलता।

संस्था के कोषाध्यक्ष डॉ. आर. अंसारी ने कहा कि सरकार द्वारा चलाईं जा रही मुहिम को हम जनता तक पहुंचा रहे हैं। आज पोलियो जड़ से खात्मे की ओर जा चुका है दूसरी बीमारियों पर भी सरकार जल्द कामयाबी हासिल कर लेगी और कुछ बीमारियों पर कामयाबी हासिल कर चुकी है।

इस अवसर पर सरपरस्त अब्दुल खालिक, संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष साबिर हुसैन, मौ. रियाज, डॉ. आर. अंसारी, आजाद, अंजार, मौ. सज्जाद, शान बाबू, इरफान आलम, मो. सहराज यामीन, विनोद, अब्दुल रज्जाक आदि मौजूद थे।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

वरुण पर प्रियंका के तीखे हमले का रहस्य

अवधेश कुमार

वरुण और प्रियंका बाड्रा के बीच का संवाद या वाद प्रतिवाद इस चुनाव का एक अत्यंत ही रोचक और विचारणीय अध्याय बन रहा है। नेहरु इदिरा वंश के इन दो परिवारों के युवा सदस्यों के बीच चूंकि ऐसा पहली बार हो रहा है, इसलिए इसे लेकर लोगांे की धारणाएं अलग अलग बन रहीं हैं। मेनका गांधी ने इसके पूर्व सोनिया गांधी की आलोचनाएं की हैं, लेकिन दूसरी ओर से इसका कभी प्रत्युत्तर नहीं आया। वरुण गांधी ने तो कभी अपनी चाची या भाई बहनों के खिलाफ बोला ही नहीं। तो फिर प्रियंका की ओर से ऐसी आलोचना और आक्रामकता क्यों? अगर वरुण ने राहुल या प्रियंका के बारे में कुछ आलोचनात्मक बयान दिया होता तो इसे स्वाभाविक माना जाता। ऐसा हुआ नहीं है। बल्कि प्रियंका की आलोचना के बाद भी वरुण ने यही कहा कि मैंने कभी सीमा नहीं लांघी, लेकिन मेरी शालीनता को मेरी कमजोरी न समझी जाए। यानी यह एक चेतावनी थी कि अगर आपने इस तरह मेरी तीखी आलोचना की तो मुझे भी ऐसा करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। देखना होगा आगे प्रियंका और राहुल वरुण को लेकर क्या रुख अपनाते हैं, पर इसके कारणों की तो पड़ताल करनी होगी। आखिर क्यों इसकी शुरुआत हुई? साथ ही इस प्रश्न पर भी विचार करना होगा कि आखिर यह विवाद कहां तक जा सकता है?

प्रियंका ने इसे विचारधारा की लड़ाई का नाम दिया है। उनके अनसार वरुण जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं वह देश को विभाजित करने वाली है जबकि उनके परिवार की विचारधारा प्रेम और एकता की रही है। उन्होंने कहा कि मेरे पिता ने इसके लिए अपनी जान दे दी। सामान्य तौर पर ऐसा लग सकता है कि चूंकि राहुल, सोनिया और पूरी कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ संघर्ष को विचारधारा का नाम दिया है, इसलिए प्रियंका का बयान उसी क्रम का अंग हो सकता है। सोनिया एवं राहुल दोनों कह रहे हैं कि हमारी कांग्रेस की विरासत लोगों को जोड़ने वाली है, जबकि भाजपा की विचारधारा समाज के बीच विभाजन पैदा करने वाली है। देश इसे स्वीकार करे या नहीं, पर कांग्रेस ने इस चुनाव को इसी दिशा में मोड़ने की रणनीति अपनाई है। इसलिए प्रियंका ने यदि वरुण की आलोचना की तो एक भाजपा के उम्मीदवार के नाते। ध्यान रखिए इस बयान के पूर्व उनके भाषण का जो वीडियो वायरल हुआ उसमें वे कह रहीं हैं कि यहां से जो चुनाव लड़ रहे हैं वे मेरे भाई हैं। पर वे रास्ता भटक गए हैं। जब कोई रास्ता भटकता है तो बड़े लोग उसे सही रास्ते पर लाते है। इसलिए आपलोग उन्हें सही रास्ते पर लाइए। यानी उनको पराजित कर सबक सिखाइए। 

इस परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि प्रियंका ने पहले से ही वरुण के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। इसमें वे पीछे तो जाने वाली नहीं हैं। इसमें जो सबसे कठोर शब्द प्रयोग किया प्रियंका ने वह था विश्वासघात का। उनके शब्दोें में वरुण ने ऐसा करके परिवार के साथ विश्वासघात किया। दूसरे शब्दों में उस परिवार की परंपरा कांग्रेस की है, जबकि वरुण विरोधी पक्ष में है। वरुण भाजपा की राजनीति मंे आज से तो नहीं है। पिछला लोकसभा चुनाव उनने भाजपा के टिकट पर जीता। वे पार्टी के राष्ट्रीय सचिव हैं। प्रियंका को यदि यह नामंजूर था तो वो पहले भी आलोचना कर सकतीं थीं। ध्यान रखने की बात है कि पिछले आम चुनाव में वरुण के एक बयान ने उन्हें जेल तक पहंुचा दिया था। बावजूद इसके  प्रियंका या राहुल ने उसकी आलोचना नहीं की। तो  फिर अब क्यों? क्या कोई अज्ञात भय पैदा हो गया है? क्या इसका कारण मात्र इतना है कि वे इस बार परिवार की विरासत माने जाने वाली सीटों में से एक सुल्तानपुर से उतर गए हैं? यह संभव है, क्योंकि रायबरेली, अमेठी एवं सुल्तानपुर को ये अपना स्थान मानते हैं। कोई और वहां से उम्मीदवार होता तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। वरुण उस परिवार के सदस्य हैं। इससे गुणात्मक अंतर आ जताा है। 

ध्यान रखने की बात है कि अमेठी से पहले संजय गांधी ने ही चुनाव लड़ा एवं जीता था। विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु के बाद राजीव गांधी जब राजनीति में आए तो वहां से सांसद बने। 1984 में मेनका गांधी ने उनके खिलाफ चुनाव भी लड़ा पर बुरी तरह हार गई। वरुण संजय गांधी के बेटे हैं। जिस तरह राहुल, प्रियंका और सोनिया विरासत का दावा करतीं हैं, उसी तरह वे भी कर सकते हैं। वरुण ने अभी तक यही कहा है कि वे अपनी ताई और भाई के खिलाफ चुनाव प्रचार नहीं करेंगे। लेकिन सुल्तानपुर से खड़ा होेना एक प्रकार से उनको चुनौती देना ही है। संभव है राहुल, प्रियंका एवं सोनिया के मन में यह आशंका पैठ गई हो कि अगर कल वह अमेठी आकर कहें कि यह तो हमारे पिता का क्षेत्र रहा है, और अब उनके पुत्र के रुप में मैं आ गया हूं तो उसका प्रभाव हो सकता है। इस प्रकार की भयग्रंथि से इन्कार करना कठिन है। आखिर पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस रायबरेली की सारी सीटें हार गईं थी और अमेठी में भी उसे केवल दो सीटों पर बढ़त मिली थी। वरुण जब तक पिलीभीत में रहे, इस परिवार को भय का कोई कारण नहीं था। लेकिन सुल्तानपुर आने से पूरी स्थिति बदल रही है। इसलिए प्रियंका ने मोर्चा खोला है। वे इसके द्वारा वहां की जनता को यह समझाने की कोशिश कर रहीं हैं कि आप परिवार के सदस्य होने के झांसे में न आएं। उन्हें लगता है कि अगर वे साधारण शब्दों में उनका विरोध करतीं तो इसका उतना असर नहीं होता। उनकी दृष्टि में इन तीनों क्षेत्रों के लोग परिवार को वोट देते हैं और चूंकि वरुण परिवार से ही हैं, इसलिए लोगों का झुकाव उनकी ओर हो सकता है। इसलिए उन्होंने पहले सबक देने यानी हराने की अपील की और बाद में परिवार का विश्वासघाती जैसा कठोर शब्द प्रयोग किया ताकि संदेश बिल्कुल साफ हो जाए।    

 प्रियंका अभी तक सार्वजनिक तौर पर उस परिवार में सबसे कम बोलने वालीं रहीं हैं। इसलिए उनकी बातों पर ज्यादा गौर किया जाता है और उसे सुनने में लोग रुचि भी लेते हैं। पर लोग उनकी बात मान लेंगे इसमें संदेह है। आखिर यह प्रश्न तो उठेगा कि परिवार का एक अंग, जिसका कांग्रेस पर एकच्छत्र राज है वह एकता का वाहक हो गया और उसी परिवार का दूसरा भाग एकता को तोड़ने का! विवेकशील लोग कांग्रेस पार्टी को उसी तरह नहीं देखते जैसे राहुल, प्रियंका, और सोनिया गांधी या कांग्रेस के नेता देखते हैं। खासकर उत्तर प्रदेश में। ऐसा होता तो वहां कांग्रेस के पक्ष में हवा दिखाई देती जो है नहीं। फिर लोग यह भी तो देखेंगे कि इतने तीखे हमले के बादवजूद वरुण ने कितने संतुलन और सहजता से उत्तर दिया। अपने प्रत्युत्तर में उसने कितनी शालीनता दिखाई। अगर इस आधार पर मूल्यांकन होगा तो पलड़ा वरुण का भारी हो जाएगा। 

 बहरहाल, इस प्रसंग से नेहरु , इंदिरा वंश की इस पीढ़ी के बीच खाई खड़ी होेने का संकेत मिला है। अभी तक यह माना जाता था कि मेनका एवं सोनिया की तरह इन भाई बहनों में कटुता नहीं है। इनके बीच संवाद भी होता है, पर प्रियंका के इन दोनों बयानों से दूसरी ध्वनि निकली है। राहुल एवं प्रियंका यदि इन तीनों सीटों को अपने लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बना देते हैं तो फिर आगे और हमले होंगे और संभव है वरुण भी मजबूर होकर प्रति हमला करें। हालांकि वे कह रहे हैं कि मैंने एक बार बोल दिया कि उनकी खिलाफत नहीं करनी है तो उस पर कायम रहूंगा। यह राजनीति है और यहां चुनाव एक युद्ध की तरह हो चुका है जिसमें विजय को लेकर कोई जोखिम नहीं उठाता। हालांकि अगर वरुण मुंह खोलते तो हैं तो फिर कई बातें सामने आएंगी। एक छोटे बच्चे को मां के साथ किस तरह घर से निकाला गया। उसके बाद कितनी परेशानियां उन्हें हुईं....इसके पीछे कौन थे.....। अगर ऐसा होता है फिर इससे परिवार की किरकिरी होगी, सोनिया गांधी की छवि को नुकसान होगा। मेनका गांधी का आरोप है कि सोनिया ने उनके खिलाफ साजिश रचकर परिवार से बाहर कराया। आखिर सोनिया, प्रियंका एवं राहुल कहां तक सफाई देंगे। हमें अभी इस प्रकरण के अगले अध्याय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर काॅम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


शनिवार, 19 अप्रैल 2014

मनमोहन बोलेें तो क्या बोलेें

अवधेश कुमार

ऐन चुनाव के वक्त पुस्तक बमों के प्रहार के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय एवं कांग्रेस को मुकाबले के लिए सामने आना ही था। कांग्रेस ने तो पहले ही औपचारिक तौर पर प्रधानमंत्री के पूव मीडिया सलाहकार संजय बारु की पुस्तक को नकार दिया था। हालांकि नकारों में तथ्यों व तर्काें का सहारा कम लिया गया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वर्तमान मीडिया सलाहकार पंकज पचैरी प्रेस क्लब में मीडिया के सामने 10 साल की उपलब्धियों का लेखा जोखा लाए। उनके सारे तथ्यों व तर्कों का सार केवल यह साबित करना था कि प्रधानमंत्री कतई कमजोर नहीं थे। अगर वे कमजोर होते तो देश 10 वर्षों में इतनी तरक्की नहीं करता। इसके लिए उन्होंने वे सारे आर्थिक आंकड़े पेश किए जो प्रधानमंत्री पहले ही अपनी पत्रकार वार्ता में दे चुके थे। प्रधानमंत्री के आमतौर पर चुप रहने के आरोपों पर पचैरी ने कहा, उन्होेंने बीते 10 साल में करीब 1198 भाषण दिए और करीब 1600 प्रेस वक्तव्य जारी किए। निष्कर्ष यह कि उन्होंने औसतन हर तीसरे दिन बात की। यानी जरूरत पड़ने पर प्रधानमंत्री्र ने जनता से संवाद बनाया। उनका कहना था कि मीडिया की दूसरी प्राथमिकताओं के कारण सरकार की उपलब्धियां अक्सर लोगों तक नहीं पहुंचीं। प्रश्न है कि प्रधानमंत्री कार्यालय की इस सफाई से क्या पहले से बनी आम धारणा और दोनों पुस्तकों से हुई इस बात की तथ्यवार पुष्टियां कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते हुए भी सत्ता के मुख्य केन्द्र नहीं थे, नष्ट हो जाएगी?

इन पुस्तकों में जो सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा होता है वह यह कि आखिर इतने दिनों तक मनमोहन सिंह खामोश क्यों रहे? हम मानते हैं कि चाहे संजय बारु की पुस्तक एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टरः द मेकिंग एंड अनमेंकिंग ऑफ मनमोहन सिंह हो या पीसी पारेख की क्रूसेडर ऑर कॉन्सपिरेटर, कोलगेट एंड अदर ट्रुथ में कुछ अतिरंजनाए हैं। इनमें ठोस तथ्यों की जगह कुछ ऐसी बातें हैं जो कि सूत्रों पर आधारित हैं, कुछ ऐसे लोगों द्वारा बताई गईं हैं जो सच हो सकती है और नहीं भी। इसमें लेखकों का अपना नजरिया भी है। पारेख पर कोयला आवंटन घोटाला में कोयला सचिव होने के कारण मामला दर्ज हो चुका है, इसलिए यह भी कहना गैर मुनासिब नहीं होगा कि उनके लिए अपने नजरिए से ऐसे तथ्यों और घटनाओं का विवरण लाना अपरिहार्य था जिनसे वे निर्दोष दिखेे। बावजूद इसके इन पुस्तकों में काफी हद तक सच्चाई नजर आती है। जो सबसे बड़ा सच इनमें नजर आता है, वह प्रधानमंत्री के रुप में मनमोहन सिंह की  निर्णय न लेने की विवशता। यानी अनेक महत्वपूर्ण निर्णयों के लिए उन्हें कांग्र्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी पर निर्भर रहना पड़ता था। बारु की मानें तो पुलक चटर्जी को विशेष तौर पर सोनिया गांधी की ओर से प्रधानमंत्री कार्यालय में नियुक्त ही इसीलिए किया गया था ताकि वे वहां नजर रख सकें एवं 10 जनपथ को सारी सूचनाएं दें। पारेख ने हालांकि इस तरह का जिक्र नहीं किया है ,लेकिन यह बताया है कि प्रधानमंत्री जान रहे थे, देख रहे थे कि कोयला आवंटन में खुलेाअम लूट मची है, मंत्री, नेता, सांसद....दलाल खुलेआम तो अपने लिए, रिश्तेदारों के लिए नियमों को ताक पर रखकर आवंटर करवा रहे हैं, अधिकारियों की ब्लैकमेलिंग  हो रही है, पर वे कोई कदम उठा नहीं रहे थे। क्यों?

इसका जवाब प्रधानमंत्री कार्यालय के बयान या पचैरी की पत्रकार वार्ता से नहीं मिलता है। यह कहने भर से कि वे चुप नहीं थे, उनके भाषणों की संख्या बता देना, या फिर यह कि वे संसद में बोलना चाहते थे, पर उन्हें विपक्ष ने बोलने ही नहीं दिया......किसी प्रश्न का समाधान नही होता। आप प्रधानमंत्री हैं तो समय-समय पर निर्धारित कार्यक्रमों में आप भाषण देंगे ही। समय समय पर सरकार के पक्ष या निर्णयों पर प्रेस वक्तव्य जारी होगा ही। यह सामान्य प्रक्रिया है। इन पुस्तकों से यह सवाल उठा ही नहीं है कि प्रधानमंत्री ने कार्यक्रमों में भाषण दिया या नहीं और न यही कि जो सरकार के निर्णय होते थे उसके बारे में सूचनाआंे के लिए प्रेस वक्तव्य जारी किए जाते थे या नहीं? प्रश्न तो यह उठा है कि क्या वे वाकई अपने मंत्रिमंडल के चयन तक के लिए 10 जनपथ के सामने विवश थे? क्या महत्चपूर्ण फाइलों पर प्रधानमंत्री के निर्णय के पूर्व सोनिया गांधी की सहमति जरुरी बन चुकी थी? इसका उत्तर देने का साहस प्रधानमंत्री नहीे कर सकते। 

हालांकि सरकार पर पार्टी का अनुशासन लोकतंत्र के लिए उचित व्यवस्था है। लेकिन यहां तस्वीर बिल्कुल अलग थी। मनमोहन सिंह घोषित नेता के तौर पर कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री नहीं बने। कांग्रेस संसदीय दल ने तो सोनिया गांधी को अपना नेता चुना था। लेकिन सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा इतना आक्रामक होकर उछला कि उनके सामने हां और ना की स्थिति पैदा हो गई। सोनिया गांधी ने अपनी ओर से मनमोहन सिंह को आगे किया और उस निर्णय का विरोध कांग्रेस में करने का कोई साहस नहीं कर सकता था। इस नाते मनमोहन सिंह दुर्घटनावश प्रधानमंत्री बने। उन्हें पता था कि उनके हाथों पूरी सत्ता आ नहीं सकती। ध्यान रखने की बात है कि आरंभ में वे जहां जनता के बीच बोलने जाते थे वहां कहते थे कि मैं सोनिया जी का संदेश लेकर आपके पास आया हूं। इसका विपक्ष की ओर से घोर विरोध होता था, मीडिया में भी आलोचनाएं होतीं थीं। बाद में उन्होंने अपना यह जुमला बदला। माना जाता है कि स्वयं सोनिया गांधी ने उनसे कहा कि इससे संदेश अच्छा नहीं जाता है। इस मानसिकता से भरा हुआ व्यक्ति, जिसे पद ही नेता की कृपा से मिल गया हो....वह क्योंकर किसी समय ऐसा दुस्साहस कर दे जिससे उसकी कुर्सी ही खतरे में पड़ जाए। हम मानें या नहीं, किसी को यह अच्छा लगे या कोई नापसंद करे, सत्ता का मुख्य केन्द्र सोनिया गांधी रहीं हैं। संसदीय दल का अध्यक्ष पद उनके लिए सृजित किया गया, फिर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाकर उसका अध्यक्ष उन्हें बनाया गया। कांग्रेस जिन कानूनों को जनहित में बतातीं हैं... उनमें से अधिकांश का प्रारुप तो सलाहकार परिषद द्वारा तैयार करके सरकार के पास भेजा गया। आप अगर याद करेंगे तो अनेक अवसरों पर जब सरकार की ओर से आर्थिक स्थितियों को ध्यान रखते हुए कठोर निर्णय लिए गए, सोनिया गांधी के नाम से तुरत बयान जारी करवाया गया कि वो इससे सहमत नहीं हैं। यही नहीं जो अच्छे निर्णय हुए उसका श्रेय भी परोक्ष रुप से सोनिया गांधी को ही दिलवाने का संदेश बाहर दिया जाता था। 

कहने का यह अर्थ नहीं कि प्रधानमंत्री के रुप में मनमोहन सिंह ने कोई ऐसा काम नहीं किया जो केवल उनका हो यानी स्वतंत्र रुप से उनने निर्णय लिया  ही नहीं। लेकिन यह साफ है कि वे ऐसा कोई निर्णय नहीं कर सकते थे, जो सोनिया गांधी या उनकी सलाहकार मंडली को स्वीकार्य नहीं हो। अगर प्रधानमंत्री की चलती तो प्रणब मुखर्जी कभी विता मंत्री नहीं बनते। हालांकि मुखर्जी का 10 जनपथ से भी विश्वास का रिश्ता नहीं था, लेकिन कई कारणों से सोनिया गांधी ने उनका चयन किया। कहा जाता है कि मुखर्जी अपने मंत्रालय में प्रधानमंत्री कार्यालय तक का हस्तक्षेप सहन नहीं करते थे। मुखर्जी ने बाद में अपने कार्यालय में जासूसी तक का आरोप लगाया। सोनिया तो छोड़िए,  मनमोहन सिंह को राहुल गांधी और उनके लोगों तथा प्रियंका गांधी तक का ध्यान रखना पड़ता था। यह मनोविज्ञान उन पर हाबी रहा। उनकी जगह कोई भी व्यक्ति होता तो उसकी आत्मा धिक्कारती। लेकिन प्रधानमंत्री का पद इतना बड़ा था कि वे आत्मधिक्कार झेलते हए भी चुप रहे। आगे भी वे चुप ही रहेंगे। जिस दिन उनने 10 जनपथ के संदर्भ में कुछ कहा उनकी शामत आ जाएगी। 


शनिवार, 12 अप्रैल 2014

अनुचित अहितकर बहस

अवधेश कुमार

राजनीति में प्रतिस्पर्धियों की आलोचना, उनकी कमजोरियों पर हमला, उनके गलत आचरण को उजागर करना......आदि सामान्य स्थितियां हैं। अगर विपक्षियों की आलोचना निंदा न हो तो फिर राजनीति में दलीय भेद तो खत्म होगा ही, जनता को भी सही गलत का फैसला करने में कठिनाइयां आएंगी.....यानी कुल मिलाकर सही जनमत निर्माण नहीं हो सकेगा। लेकिन राजनीति की एक मर्यादा भी है। हम आलोचना या आचरण के किन पहलुओं को निशाना बनाएं। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के वैवाहिक जीवन को जिस तरह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया गया है, विरोधियों ने उसकी जिस तरह निंदा की है ....और चुनावी मुददा बनाने की कोशिश की है ...उसे किसी दृष्टि से राजनीति की मर्यादा के अंदर नहीं माना जा सकता है। मोदी ने पहली बार अपने नामांकन पत्र में पत्नी का नाम लिखा है। यह प्रश्न उठाया गया है कि आखिर विधानसभा चुनावों में उनने इसका जिक्र क्यों नहीं किया? हालांकि हर चुनाव में मोदी के विवाह को लेकर प्रश्न उठाया जाता रहा है और मोदी ने कभी इसका जवाब नहीं दिया, पर पूरे देश को मीडिया के माध्यम से यह सच पता चल चुका था कि उनके माता पिता ने कम उम्र में शादी कर दी, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया और फिर संघ के प्रचारक बन गए। उसके बाद से उनका पत्नी से कोई संबंध नहीं रहा। 

इस आधार पर कहा जा सकता है कि भले मोदी ने औपचारिक तौर पर पहली बार इसे स्वीकार किया है लेकिन यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं है। विपक्षियों का यह तर्क कि, जो एक पत्नी की जिम्मेवारी नहीं उठा सकता वह देश की जिम्मेवारी क्या उठाएगा अनर्गल प्रलाप के अलावा कुछ नहीं है। मोदी की क्षमता पर प्रश्न उठाना, उनकी नीतियों को कठघरे में खड़ा करना ......उनकी विचारधारा का विरोध करना एक बात है लेकिन वैवाहिक जीवन से दूर हो जाने को अक्षमता का आधार बनाना तो हमारी राजनीति के गिरते मानसिक स्तर को ही प्रमाणित करता है। उनके भाई ने यह बयान जारी कर दिया है कि हमारे माता-पिता अनपढ़ और गरीब थे, जिनने बचपन में ही मोदी का विवाह कर दिया। मोदी के अंदर देशभक्ति की भावना वे समझ नहीं सके....। जो जानकारी हमार पास है उसके अनुसार 6 वर्ष की उम्र में उनका लग्न हुआ और उनकी शादी तब हुई जब बड़े भाई की शादी हो रही थी। उनके पिता कहते थे कि यह संन्यासी बन जाएगा, इसलिए शादी करके सामाजिक बंधन में डालने की कोशिश की। मोदी की पत्नी कहतीं हैं कि उनने मुझे समझाया कि वे पारिवारिक जीवन में नहीं पड़ सकते, देश का काम करना है, तुम भी पढ़ो और कुछ करो। संघ की विचारधारा से असहमति हो सकती है, लेकिन वहां भी जो प्रचारक बनते हैं वे देशभक्ति की भावना से ही। उस भावना की उत्पेरणा में न जाने कितने लोनों ने अपने पारिवारिक जीवन का परित्याग कर दिया। दूसरे विचारधारा और संगठनों में भी ऐसे लोगों की कम संख्या नहीं है जो कि देश और समाज की सेवा की भावना पर अपने निजी पारिवारिक जीवन की बलि चढ़ा देते हैं। इनमें ऐसे लोग हैं जो कानूनी तलाक नहीं देते....लेकिन उनका संबंध शत-प्रतिशत विलगाव की ही होता है। इसके पीछे कई बार परिवार से विद्रोह की भावना होती है। यानी परिवार ने आपकी इच्छा के विरुद्ध शादी कर दी, जिसे उस समय आपने मजबूरी में मान लिया लेकिन कुछ समय बाद आप उनसे नकार देते हैं। 

मोदी या कोई और यदि उसके बाद बिना तलाक लिए दूसरी शादी करके पारिवारिक जीवन जिए या बिना शादी के किसी महिला के साथ अंतरंग संबंध बनाए तो उसकी जितनी निंदा हो सकती है की जानी चाहिए। हालांकि आजकल वैसे लोगों को भी समाज स्वीकार रहा है। मोदी के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। वे प्रचारक रहे और फिर उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि यह सवाल एक दिन उनके सामने इतना बड़ा विवाद बनकर खड़ा हो जाएगा। वास्तव में विवाद से तथा विरोधियों द्वारा नामांकन को कानूनी प्रक्रिया में घसीटने से बचने के लिए ही मोदी ने ऐसा लिखा है। पिछले विधानसभा चुनाव में भी यह विवाद उच्चतम न्यायालय में गया था। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि मामला चुनाव आयोग का है, इसलिए उसके पास ही ले जाया जाए। आयोग ने तब एक आदेश दिया कि उम्मीदवार कोई भी काॅलम खाली नहीं छोड़ सकता। इसके बाद ऐसा करना मोदी की मजबूरी हो गई। 

हालांकि जो लोग इसे मुद्दा बना रहे हैं उनमें से कोई यशोदा बेन से मिलकर उनकी भावना जानने की भी कोशिश नहीं की। बिना उनकी भावना जाने उनके अधिकारों के प्रति इनकी प्रदर्शित संवेदना राजनीति के अलावा और कुछ नहीं। अभी तक कुछ पत्रकारों ने यशोदा बेन से मुलाकात की जो पहले शिक्षिका थीं और अब सेवानिवृत्त हो चुकी हैं। उनने कभी मोदी से नाराजगी की बात नहीं कही, कभी यह नहीं कहा कि उनके साथ अन्याय हुआ, बल्कि हमेशा उनके लिए शुभकामनाएं दीं। हां, यह अवश्य स्वीकार किया कि उनका पिछले करीब 50 वर्षों से कोई संपर्क नहीं है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में ऐसे असंख्या वाकये हैं। आज तो इसे शहरी भारतीय समाज में सहज मान लिया गया है कि अगर पति पत्नी के संबंध सामान्य नहीं रह सकते तो फिर अलग हो जाना चाहिए। तलाक की संख्या भारत में लगातार बढ़ रहीं है। जब मोदी की शादी हुई उस समय तलाक के बारे में आम समाज को पता भी नहीं था। बहुत सारे लोग पत्नियों को छोड़कर दूसरी शादी भी कर लेते थे और मामला न्यायालय तक नहीं जाता था। महिला पूरा जीवन कष्ट में गुजारती थी। ऐसे अन्याय के प्रति समाज भी केवल सहानुभूति प्रकट करता था या मध्यस्थता करके रास्ता निकालने की कोशिश करता था। आज भी ऐसी स्थिति पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। 

हम सब जानते हैं कि मोदी का मामला इन सबसे अलग है। इसे वैसे ही कहना चाहिए कि जबसे भाजपा का उभार हुआ हर चुनाव के पूर्व अटलबिहारी वाजपेयी पर यह आरोप लगता था कि उनने अंग्रेजों की मुखबिरी की और स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़वाया तथा चुनाव संपन्न होते ही आरोप खत्म हो जाता था। उसका असर कभी वाजपेयी समर्थकों या मतदाताओं पर पड़ा हो, इसका कोई प्रमाण नहीं मिला। इस पृष्ठभूमि में विचार करें तो यह मानना कठिन है कि विरोधियों को इसका चुनाव लाभ मिलेगा या मोदी या भाजपा की चुनावी संभावना इससे प्रभावित होगी। जाहिर है, जो लोग इसे उठा रहे हैं वे अपना समय नष्ट कर रहे हैं। यह राजनीति में चरित्र हनन भी माना जाएगा। आश्चर्य की बात देखिए कि इसमें ऐसे लोग भी हैं जो यह तर्क देते हैं कि किसी की निजी जिन्दगी में तांक झांक नहीं करनी चाहिए। स्वयं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह, जो इस मामले पर मुखर रहे हैं, वे भी न जाने कितनी बार कह चुके हैं कि निजी जीवन को हम मुद्दा नहीं बनाते। इस मामले में उनका और ऐसे लोगों का सिद्धांत कहां गया?

वस्तुतः हमारी राजनीति के लिए और सम्पूर्ण सार्वजनिक जीवन के लिए यही उचित होगा कि ऐसे मामले को कतई तूल न दिया जाए। लोगों के निजी जीवन में ऐसे अनेक प्रसंग होते हैं, जिनके पीछे कई प्रकार की विवशताएं, भावनाएं होतीं हैं उनको मुद्दा बनाने से असली मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं और माहौल अशोभनीय अश्लील बनने लगता है। जिनने दुष्टता से पत्नी का त्याग किया, उसे उत्पीड़ित किया उनके खिलाफ अवश्य आवाज उठे। इसके लिए महिलाओं की सुरक्षा में कानूनांे के भी सख्त हथियार खड़े कर दिए गए हैं। वैसे महिलाओं द्वारा भी पुरुषों के साथ अन्याय व उत्पीड़न के सच्चे मामले काफी हैं किंतु यह अलग से विचार का विषय है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह कि राजनीति मंे ऐसे लोगों के आने का रास्ता खुला रहना चाहिए जिन्होंने सेवा की भावना से परिवार का परित्याग किया हो। इनमें महिला और पुरुष दोनों शामिल हैं। मोदी के वैवाहिक जीवन को लेकर उठाया गया विवाद इन सभी दृष्टियों से अनुचित और अहितकर है। 

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर काॅम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208 


शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

कम मतदान के लिए चुनाव आयोग भी जिम्मेदार: साबिर हुसैन

  • कई बार शिकायत के बाद भी नहीं हुई गांधी नगर की मतदाता सूची ठीक
  • चुनाव आयोग द्वारा बांटने के लिए दी गई पर्ची नहीं मिलने से लोगों में काफी रोष देखने को मिला
  • यदि समय से पहले पड़ताल कर ली जाती तो लोग ज्यादा से ज्यादा मतदान कर सकते थे
  • सही पोलिंग बूथ की जानकारी के लिए एस.एम.एस. बना हाथियार

संवाददाता

नई दिल्ली। दिल्ली में हर एक मतदाता अपना वोट डालने के लिए पूरे जोश में दिख रहा था। इसमें वह मतदाता सबसे ज्यादा जोश में दिखे जिन्होंने अपने मत का पहली बार प्रयोग किया। मतदाता जोश में क्यों न हो क्योंकि यह जोश तो चुनाव आयोग द्वारा हर जिले में जागरुकता कैम्प लगाकर जो लोग को जागरुक किया गया। इनका पूर्ण साथ दिया दिल्ली की कईं सारी संस्थाओं ने।

हर मतदान केन्द्र पर सुबह से ही भीड़ दिखनी शुरू हो गईं थी उसी के साथ देर शाम तक वोटिंग होती रही परंतु गांधी नगर विधानसभा के मतदाता अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए सुबह से शाम तक इधर से उधर चक्कर लगते रहे क्योंकि बुलन्द मस्जिद कालोनी में सभी मतदान केन्द्र की मतदाता सूची सही नहीं के कारण काफी परेशानी हुई। चुनाव आयोग द्वारा जो पर्ची बीएलओ को बांटने के लिए दी गई थी वह उन्होंने कालोनी के नेताओं को दे दी जो कि वहां बांटी ही नहीं गईं जिससे लोगों में काफी रोष भी देखने को मिला।

नई पीढ़ी-नई सोच संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन ने कहा कि इसकी शिकायत चुनाव आयोग सहित सभी संबंधित अधिकारियों से कई बार की गईं थी कि गांधी नगर विधानसभा की मतदाता सूची ठीक कर दी जाए नहीं तो मतदान वाले दिन मतदान कम होने की आशंका है और वही हुआ। लोग वोट तो डालना चाहते थे लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उनको वोट किस पोलिंग बूथ में डालना है। कुछ लोगों का कहना था कि हमारे घर के वुछ वोट किसी पोलिंग बूथ में थे कुछ किसी में। यदि समय रहते इसकी सही से पड़ताल कर ली जाती तो लोग ज्यादा से ज्यादा मतदान कर सकते थे।

संस्था के उपाध्यक्ष मो. रियाज ने बताया कि हमारा पोलिंग बूथ नं. 17 (बुलंद मस्जिद) है परंतु हमारे कुछ वोट पोलिंग बूथ नं. 85 (गांधी नगर) में कर दिए गए। दोनों पोलिंग बूथ की दूरी लगभग 6 किलोमीटर है। ऐसे ही कुछ और वोट थे जो अन्य पोलिंग बूथ में थे, वहां पर लोग वोट डालने नहीं जा पाए क्योंकि पोलिंग बूथ दूर था और उसकी उन्हें जानकारी नहीं थी।

इसके अलावा कुछ लोगों को अपना मतदाता पहचान पत्र भी नहीं मिला जिस कारण भी वोट कम हुए और इसके लिए कहीं न कहीं चुनाव आयोग व मतदाता पहचान पत्र केंद्र भी जिम्मेदार हैं। यदि सभी अपनी जिम्मेदारी के साथ काम करते तो मतदान और अधिक होता।

संस्था के कोषाध्यक्ष डाॅ. आर अंसारी ने बताया कि हम लोगों ने पूरे दिन लोगों को उनके सही पोलिंग बूथ की जानकारी एसएमएस से दिलवाते रहे जिससे काफी परेशानी को हमने कम किया। लोगों का कहना था कि चुनाव आयोग बड़े-बड़े दावे तो करता है परंतु जो जरूरी काम है वह नहीं करता।

साबिर हुसैन ने कहा कि हमारी संस्था के सभी पदाधिकारी व सदस्य सुबह से ही लोगों के घरों पर जा-जाकर वोट डालने के लिए कहते रहे। उन्हें उनके सही पोलिंग बूथ की जानकारी देते रहे जिससे पोलिंग ज्यादा से ज्यादा हो परंतु यह कोशिश पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकी। यदि मतदाता सूची सही होती तो पोलिंग 85-90 प्रतिशत तक जा सकती थी जो 60-65 के बीच में फंसकर रहे गई और यह चुनाव आयोग की कमी के कारण हुआ है।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

मोदी जी की जीत में भारत तिब्बत सहयोग मंच का हर सदस्य प्रयासरत : रामानन्द शर्मा

संवाददाता

नई दिल्ली। भारत तिब्बत सहयोग मंच की ओर से दिनांक 08-04-14 को यमुना विहार विभाग दिल्ली प्रांत के कार्यकर्ताओं ने उत्तर पूर्वी दिल्ली के भाजपा के प्रत्याशी श्री मनोज तिवारी का भव्य स्वागत किया। तिवारी जी के रोड शो के दौरान विभाग अध्यक्ष श्री रामानन्द शर्मा ने भजनपुरा में फूलमाला द्वारा मनोज तिवारी जी का अभिवादन किया तथा उन्हें जीत का आश्वाशन दिलाया। शर्मा जी ने क्षेत्र के लोगों से श्री मनोज तिवारी जी को जिताने का निवेदन किया। कार्यक्रम में उपस्थित अनिल गुप्ता एवं राजकु‌मार गजवानी और क्षेत्र के कई कार्यकर्ताओं द्वारा श्री नरेन्द्र मोदी जी को भारत की प्रधानमन्त्री बनाने का भरसक प्रयास किया गया। उन्होंने कहा कि कार्यकर्ता घर घर जाकर वोटरों से वोट डालने की अपील भी करेंगे।


कम मतदान के लिए चुनाव आयोग भी जिम्मेदार

-कई बार शिकायत के बाद भी नहीं हुई गांधी नगर की मतदाता सूची ठीक

-चुनाव आयोग द्वारा बांटने के लिए दी गई पर्ची नहीं मिलने से लोगों में काफी रोष देखने को मिला

-यदि समय से पहले पड़ताल कर ली जाती तो लोग ज्यादा से ज्यादा मतदान कर सकते थे

-सही पोलिंग बूथ की जानकारी के लिए एस.एम.एस. बना हाथियार

 

मो. रियाज

नई दिल्ली। दिल्ली में हर एक मतदाता अपना वोट डालने के लिए पूरे जोश में दिख रहा था। इसमें वह मतदाता सबसे ज्यादा जोश में दिखे जिन्होंने अपने मत का पहली बार प्रयोग किया। मतदाता जोश में क्यों न हो क्योंकि यह जोश तो चुनाव आयोग द्वारा हर जिले में जागरुकता कैम्प लगाकर जो लोग को जागरुक किया गया। इनका पूर्ण साथ दिया दिल्ली की कईं सारी संस्थाओं ने।

हर मतदान केन्द्र पर सुबह से ही भीड़ दिखनी शुरू हो गईं थी उसी के साथ देर शाम तक वोटिंग होती रही परंतु गांधी नगर विधानसभा के मतदाता अपने अधिकार का प्रयोग करने के लिए सुबह से शाम तक इधर से उधर चक्कर लगते रहे क्योंकि बुलन्द मस्जिद कालोनी में सभी मतदान केन्द्र की मतदाता सूची सही नहीं के कारण काफी परेशानी हुई। चुनाव आयोग द्वारा जो पर्ची बीएलओ को बांटने के लिए दी गई थी वह उन्होंने कालोनी के नेताओं को दे दी जो कि वहां बांटी ही नहीं गईं जिससे लोगों में काफी रोष भी देखने को मिला।

नई पीढ़ी-नई सोच संस्था के संस्थापक व अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन ने कहा कि इसकी शिकायत चुनाव आयोग सहित सभी संबंधित अधिकारियों से कई बार की गईं थी कि गांधी नगर विधानसभा की मतदाता सूची ठीक कर दी जाए नहीं तो मतदान वाले दिन मतदान कम होने की आशंका है और वही हुआ। लोग वोट तो डालना चाहते थे लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उनको वोट किस पोलिंग बूथ में डालना है। कुछ लोगों का कहना था कि हमारे घर के वुछ वोट किसी पोलिंग बूथ में थे कुछ किसी में। यदि समय रहते इसकी सही से पड़ताल कर ली जाती तो लोग ज्यादा से ज्यादा मतदान कर सकते थे।

संस्था के उपाध्यक्ष मो. रियाज ने बताया कि हमारा पोलिंग बूथ नं. 17 (बुलंद मस्जिद) है परंतु हमारे कुछ वोट पोलिंग बूथ नं. 85 (गांधी नगर) में कर दिए गए। दोनों पोलिंग बूथ की दूरी लगभग 6 किलोमीटर है। ऐसे ही कुछ और वोट थे जो अन्य पोलिंग बूथ में थे, वहां पर लोग वोट डालने नहीं जा पाए क्योंकि पोलिंग बूथ दूर था और उसकी उन्हें जानकारी नहीं थी।

इसके अलावा कुछ लोगों को अपना मतदाता पहचान पत्र भी नहीं मिला जिस कारण भी वोट कम हुए और इसके लिए कहीं न कहीं चुनाव आयोग व मतदाता पहचान पत्र केंद्र भी जिम्मेदार हैं। यदि सभी अपनी जिम्मेदारी के साथ काम करते तो मतदान और अधिक होता।

संस्था के कोषाध्यक्ष डाॅ. आर अंसारी ने बताया कि हम लोगों ने पूरे दिन लोगों को उनके सही पोलिंग बूथ की जानकारी एसएमएस से दिलवाते रहे जिससे काफी परेशानी को हमने कम किया। लोगों का कहना था कि चुनाव आयोग बड़े-बड़े दावे तो करता है परंतु जो जरूरी काम है वह नहीं करता।

साबिर हुसैन ने कहा कि हमारी संस्था के सभी पदाधिकारी व सदस्य सुबह से ही लोगों के घरों पर जा-जाकर वोट डालने के लिए कहते रहे। उन्हें उनके सही पोलिंग बूथ की जानकारी देते रहे जिससे पोलिंग ज्यादा से ज्यादा हो परंतु यह कोशिश पूर्ण रूप से सफल नहीं हो सकी। यदि मतदाता सूची सही होती तो पोलिंग 85-90 प्रतिशत तक जा सकती थी जो 60-65 के बीच में फंसकर रहे गई और यह चुनाव आयोग की कमी के कारण हुआ है।

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

जनसभा कर मतदाताओं को मतदान के लिए जागरुक किया

 मो. रियाज

नई दिल्ली। जैसे-जैसे चुनाव की तारीख करीब आ रही है। हर कोई मतदाताओं को अपनी ओर खिंचने के लिए पूरी कोशिश कर रहे हैं परंतु कोई भी मतदाताओं को उनके अधिकारों से अवगत नहीं करवा रहा है। पूर्वी दिल्ली के गांधी नगर विधानसभा में स्थित बुलंद मस्जिद, शास्त्री पार्क में नई पीढ़ी-नई सोच (पंजी) संस्था ने मतदाताओं को जनसभा कर उन्हें उनके अधिकारों से अवगत कराया। इस के मौके पर संस्था ने मतदाताओं को जागरुक करने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस जनसभा में लोगों मतदान करने व सही उम्मीदवार चुनने के लिए प्रेरित किया गया जिसमें सभी ने बढ़-चढ़कर भाग लिया।
इस जनसभा में आम आदमी पार्टी के गांधी नगर के पूर्व प्रत्याशी श्री अनिल कुमार वाजपेयी व आम आदमी पार्टी के कृष्णा नगर के पूर्व प्रत्याशी श्री इसरत अंसारी मुख्य अतिथि के रुप में मौजूद थे।
कार्यक्रम की अध्यक्षता बिहार समाज के श्री अब्दुल खालिक ने की। उन्होंने अपने विचार रखे कि आज के समय में सभी को मतदान का पूरा अधिकार है व सही उम्मीदवार चुनने की भी जिम्मेदारी हमारी है और किसी की नहीं। यदि हम गलत उम्मीदवार को चुनकर संसद में भेजते हैं तो उसके लिए हम ही जिम्मेदार है।
संस्था के संस्थापक व राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री साबिर हुसैन ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमारी संस्था का उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं को जागरुक कर मतदान प्रतिशत बढ़ाना है जिससे कि मतदान के दिन मतदाता घर पर छुट्टी का आनंद लेने के बजाय अपने अधिकारों का प्रयोग कर सही उम्मीदवार चुन सके नहीं तो 5 वर्ष तक हमें अपनी भूल का एहसास होता रहेगा कि हमने मतदान क्यों नहीं किया, क्योंकि सही उम्मीदवार चुनने में भाग नहीं लिया तो गलत लोग संसद में पहुंच जाएंगे और यही मतदान प्रतिशत कम होने का कारण भी है जबकि दिल्ली में यह 100 प्रतिशत मतदान होना चाहिए।
श्री अनिल कुमार वाजपेयी ने कहा मैं यहां आम आदमी पार्टी के लिए वोट मांगने नहीं आया हूं बल्कि सही व ईमानदार को चुने। यह हम सभी की जिम्मेदारी है।
श्री इसरत अंसारी ने कहा की सही मतदान से हम सही उम्मीदवार को चुन सकते हैं नहीं तो हम 5 साल तक अपनी भूल का एहसास करते रहते है कि सही समय पर अगर हमने जांच आदि की होती तो यह दिन देखने को नहीं मिलता। यह बात सभी पर लागू होती है। यदि हम वोट डालने नहीं जाते हैं तो गलत व्यक्ति चुनकर आ जाता है। जब गलत व्यक्ति चुनकर आ जाता है तो हम कहते हैं कि यह व्यक्ति गलत है। हमें उसे गलत कहना का अधिकार नहीं क्योंकि अगर हमने अपने मत का प्रयोग सही से किया होता तो सही व्यक्ति चुनकर आ सकता था।

संस्था के कोषाध्यक्ष श्री डॉ. अंसारी ने कहा कि युवा आगे आकर सही मतदान की जानकारी हासिल करें व इससे होने वाले नुकसान से अपने आपको बचाएं व दूसरों को भी बचाने की कोशिश करें। उन्होंने आगे कहा कि हमें सही व ईमानदार को अपना मत देकर संसद भेजना चाहिए ताकि वह हमारी बातों को संसद में रख सके।
संस्था के उपाध्यक्ष श्री मो. रियाज ने कहा कि एक दिन की मुसीबत से बचने के लिए 5 साल की मुसीबत मत पालो, अपनी बात मनवानी है तो वोट जरूर डालो। 
प्रोग्राम के अंत में सभी से मतदान करने की शपथ दिलवाई कि मैं, 10 अपै्रल 2014 दिन सभी काम को छोड़कर  मतदान करने जरुर जाउंगा व अपने साथ औरों को भी मतदान केंद्र लेकर जाउंगा तथा सभी को कार्यक्रम में भाग लेने व समय देने के लिए धन्यवाद दिया तथा कार्यक्रम में सहयोग देने वाले श्री अब्दुल खालिक, श्री जुबैर उर्फ कल्लू, सालिम, नईम, लियाकत, मो. इलियास, मौलाना हुसैन साहब, हाजी जाबिर हुसैन, मो. शुएब, मो. उमर व संस्था के पदाधिकारी-सदस्यों व अन्य जनों का रहा है।






 

 

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

यह कैसी राजनीतिक भाषा है

अवधेश कुमार

संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। हमारी आपकी पूरे देश की नियति इनके हाथों हैं। जाहिर है, नेताओं से उनके महत्वपूर्ण दायित्व के अनुरुप ही गरिमामय, संतुलित और सम्पूर्ण विवेक के साथ अपनी भूमिका निभाने की अपेक्षा की जातीं हैं। लेकिन चुनाव के समय जिस तरह के बयान हमारे नेता दे रहे हैं उनसे पूरे देश को धक्का लग रहा है। यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि सारे दलों के सारे नेताओं ने अपने ंबयानों से गरिमा को गिराया है, पर समग्र परिदृश्य शर्मसार अवश्य कर रहा है।  गंदे, असभ्य, घृणा, हिंसा.....सांप्रदायिकता...यानी हर प्रकार की आपराधिक भाषा का प्रयोग अभी तक हमारे सामने आ चुका है। अवाम सन्न है, देश का सोचने समझने वाला समूह चिंतित है, लगातार आलोचनाएं हो रहीं हैं......थू-थू किया जा रहा है, पर लगता है जैसे कुछ नेताओं को राजनीति की सभ्यता, मर्यादा, गरिमा का अहसास ही नहीं हैं। वे मानते हैं कि हम कहीं गैंगवार में कूदे हैं और सामने वाले पर उसी रुप में हमला करना है। यह संयोग है या इस चुनाव की तासीर कि इनमें से ज्यादातर अमर्यादित शब्दों का प्रयोग भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के खिलाफ हुए हैं। 

आइए पहले कुछ बयानों को देखिए। उत्तर प्रदेश में केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने मोदी को आरएसस का गुंडा तथा राजनाथ सिंह को उनका गुलाम कहा है तो प्रदेश के ंमंत्री आजम खान ने मोदी को कुत्ते के पिल्ले का भाई एवं शाबिर अली को ईमान फरामोश। वहीं मुरादाबाद में बसपा के उम्मीदवार हाजी याकूब कुरैशी ने नरेंद्र मोदी को देश का सबसे बड़ा दुश्मन, सबसे जालिम शख्स, हैवान और दरिंदा कहा। जब उनसे असंसदीय टिप्पणी को लेकर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि कुछ भी असंसदीय नहीं है, संसद में भी ऐसी ही भाषा बोली जाती है। इस तरह के बयान देना कुरैशी के लिए कोई नई बात नहीं है। 2006 में डेनमार्क के कार्टूनिस्ट का सर कलम करने पर कुरैशी ने 51 करोड़ देने का एलान किया था। कैराना से सपा के लोकसभा प्रत्याशी नाहिद हसन ने तो मायावती एवं मोदी दोनों को कुंवारा कहते हुए ऐसी अश्लील टिप्पणी की जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकतीं। उन्होंने कहा कि मायावती तीन-तीन बार मोदी की गोद में जाकर बैठ गईं। मत भूलों की दोनों कुंवारे हैं। उन्होंने कहा कि पहले मायावती को उनके बाबा ने हराया था, उसके बाद में उनके पिता से एक बार उनका पाला पड़ा था और अब यदि उनसे उसका पाला पड़ा तो आप खुद ही देख लो। मानो खानदानी दुश्मनी हो। लखनउ के गेस्ट हाउस कांड में उनके पिता मुनव्वर हसन का नाम भी उछला था। सपा के राज्समंत्री चौधरी साहब सिंह ने तो मोदी को बंदर बता दिया। उन्होंने कहा कि बंदर को भगाने के लिए लंगूर की जरूरत होती है। मोदी नाम के इस बंदर को भगाने के लिए अखिलेश लंगूर की जरूरत है। हालांकि अखिलेश को जैसे ही उन्होंने लंगूर बताया, उपस्थित लोग हंसने लगे, उन्हें लगा कि अखिलेश का नाम लंगूर के रुप में लेना शायद उचित नहीं था, पर तब तक जुबान तो फिसल चुकी थी। बसपा के नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने तो कहा कि नरेन्द्र मोदी उत्तर प्रदेश पहुंच ही नहीं सकता। यदि आप सब इकट्टा हो जाओ तो रास्ते में ही उसका काम तमाम हो जाएगा। यानी मार डाला जाएगा।  

इन सबमें सबसे ज्यादा सुर्खियों में सहारनपुर से कांग्रेस प्रत्याशी इमरान मसूद का बयान था। एक वीडियो में इमरान कह रहे हैं कि मोदी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाना चाहता है। गुजरात में चार फीसद मुसलमान हैं और इस इलाके में 42 फीसद मुसलमान है,यहां उनकी बोटी-बोटी काट देंगे। यानी मोदी को टुकड़े-टुकड़े काट देंगे मुसलमान। बाद में पुलिस ने मसूद को गिरफ्तार किया एवं देवबंद न्यायालय ने उनको 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया। अब वे जमानत पर बाहर हैं। कांग्रेस ने यह कहते हुए उनका बचाव किया है कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ जो इमरान मसूद का बयान है वो उन्होंने 18 सितंबर 2013 को दिया था। उस समय इमरान मसूद समाजवादी पार्टी में थे। इमरान मसूद ने आठ मार्च 2014 को कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की है। उसका आरोप है कि सपा ने यह वीडियो जारी किया है। इसे मान लें तो प्रश्न है कि छः महीना पहले बोले जाने से वह सही कैसे हो गया?  मामला सामने आने के बाद मसूद ने कहा कि उन्होंने जो अपशब्द कहे उनपर उन्हें खेद है। लेकिन उनका कहने का अर्थ वह नहीं था जो निकाला जा रहा है। मेरे बयान का आशय नरेंद्र मोदी को राजनीतिक सबक सिखाने से है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आम बोलचाल की भाषा में इस तरह कह दिया जाता है। इस सूची में राकांपा प्रमुख शरद पवार का भी नाम आ गया है। हालांकि वह ज्यादा आपत्तिजनक नहीं है। उन्होंने कहा है कि नरेंद्र मोदी का दिमाग खराब हो गया है। इस बार भी हमारी सरकार बनेगी और इसके बाद हम मोदी का अच्छे डॉक्टर से इलाज कराएंगे। ऐसा नहीं है कि इसमें केवल भाजपा इतर पार्टियां ही सुर्खियां पा रहीं हैं। भाजपा के एक सांसद हीरालाल रेगर ने राजस्थान के टोंक में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि अगर भाजपा सत्ता में आ गई तो सोनिया और राहुल के कपड़े उतार कर उन्हें फिर से इटली वापस भेज देंगे। बाद में हीरालाल रेगर ने अपने बयान पर माफी भी मांग ली लेकिन तब तक उनके इस बयान से हंगामा मच चुका था। 

ये तो कुछ बानगियां हैं जो संयोग से कैमरे की पकड़ में आ गईं। न जाने कहां कहां ऐसे अपराधियों की तरह  हिंसा और भय पैदा करने वाले बयान दिए जा रहे होंगे। हमने अपनी राजनीति में एक दूसरे को कुत्ता से लेकर संसद में एक दूसरे का बहनोई और साला कहते सुना है। जब हमारी राजनीति का स्तर इतना गिर गया हो तो फिर शब्दानुशासन, सोच और अभिव्यक्ति में मर्यादा का पालन करने वाले कितने बचेंगे। लेकिन ऐसे बयानों पर नेताओं को जनता की तालियां मिलतीं हैं। इससे पता चलता है कि हमने जनमत को कितना विकृत कर दिया है। जनता के अंदर सकारात्मक सोच, राजनीति और सत्ता के प्रति विवेकशील विचार पैदा करने का दायित्व राजनीतिक दल, सामाजिक-धार्मिक संगठन और मीडिया का है। निस्संदेह, इसमें चूक हुई है और जन मनोविज्ञान विकृत हो रहा है, अन्यथा ऐसे नेताओं को जनता का समर्थन कतई नहीं मिलता और ये नकार दिए जाते। ऐसा हो नहीं रहा है इसलिए ये इस तरह लोकतंत्र में आम राजनीति को इस तरह अपनी हिंसक, अश्लील, आपराधिक बयानों से विकृत करते हुए भी राजनीति में जमे हुए हैं।

संसदीय लोकतंत्र की कल्पना करते हुए यह माना गया था कि नेता और दल मिलकर तंत्र में लोक की महत्ता स्थापित करने की प्रतिबद्धता से काम करेंगे। इसमें चुनावी प्रतिद्वंद्विता को वैसे ही माना गया था जैसे एक ही लक्ष्य के लिए सारे प्रतिस्पर्धी लगे हैं, केवल सोच यह है कि हम जनता की सेवा उनसे बेहतर कर सकेंगे। धीरे-धीरे यह भाव विलुप्त हो गया है और राजनीति का मूल सरोकार सत्ता पाना तथा ज्यादातर नेताओं का सत्ता के माध्यम से अपनी शक्ति और संपदा विस्तार हो गया है। इस सोच के कारण विकृत राजनीति में ऐसे नेताओं की बहुतायत होती जा रही है जो येन केन प्रकारेण केवल चुनाव जीतने के लिए ही आते हैं। इसके लिए चाहे जातिवाद को उभारना हो, संप्रदायवाद को, चाहे धन से किसी को खरीदना हो या भय से दबाव में लाना हो या फिर हर व्यक्ति के अंदर की नकारात्मकता को उभारना हो......वे सारे हथियार आजमा रहे हैं। इसमें स्वयं को सामने वाले से ज्यादा बाहुबली, धनबली, निडर, हिंसक टकराव की हिम्मत रखने वाला........जो भी साबित करना हो वे करते हैं। 

हालांकि इन सबके बावजूद यह निष्कर्ष उचित नहीं होगा कि राजनीति में सब कुछ खत्म हो गया है। ऐसे बयानों की निंदा भी हो रही है इसका विरोध भी हो रहा है। दूसरे, यह भूलें कि प्रतिस्पर्धी राजनीति में विरोधी की तीखी आलोचना, तीखा व्यंग्य आदि राजनीति के लिए अपरिहार्य हैं। ये अलंकार भी हैं। इनको बिल्कुल खत्म नहीं करना चाहिए। जैसे किसी को व्यंग्य में मानसिक असंतुलन का शिकार, गुब्बार फूटना या गुब्बारा बना ही नहीं......ऐसे शब्द प्रयोगों से आपत्ति नहीं होनी चाहिए। फिर यदि कोई भ्रष्ट है, उसने कदाचार किया है तो वहां केवल शब्द प्रयोग आपराधिक न हो, अन्यथा वैसे व्यक्ति या समूह पर हमला बिल्कुल जायज है। ऐसा नहीं होने से ही हमारी राजनीति में पक्ष और विपक्ष का स्वाभाविक भेद मिटने लगा है। हां, आवश्यक और उचित हमला, आलोचना, निंदा तथा असभ्य, हिसंक, अशालीन टिप्पणियों के बीच भेद अवश्य करना होगा।  

अवधेश कुमार, ई.ः30, गणेश नगर, पांडव नगर कॉम्प्लेक्स, दिल्लीः110092, दूर.ः01122483408, 09811027208


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