सोमवार, 20 मई 2024

अखिल भारतीय अग्रवाल संगठन दिल्ली प्रदेश का स्थापना दिवस बड़ी धूमधाम से मनाया गया

संवाददाता

नई दिल्ली। अखिल भारतीय अग्रवाल संगठन दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष श्री देशबंधु गुप्ता जी की अध्यक्षता में संगठन का 12वां स्थापना दिवस 19 मई रविवार को साइ 5:00 से 9:00 बजे तक शाह ऑडिटोरियम में बड़ी धूमधाम से मनाया गया। इस कार्यक्रम में हजारों की संख्या में लोगों ने भाग लिया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि हमारे प्रेरणा स्तोत्र श्री सत्य प्रकाश गुप्ता जी, चेयरमैन वीपी ग्रुप उद्धघाटन करता श्री विपिन गुप्ता जी, मैनेजिंग डायरेक्टर वीपी क्रिएशन, मुख्य अतिथि श्री प्रमोद गुप्ता जी, वर्ल्ड फा ग्रुप दीप प्रज्वलनकर्ता श्री संजीव सिंगला जी, विशिष्ट अतिथि और प्रमुख समाजसेवी श्री भीमसेन मित्तल जी, दिनेश गुप्ता जी, श्री अनिल गुप्ता जी, श्री ललित अग्रवाल जी, श्री सोहित जैन जी, श्री वेद प्रकाश जैन जी, श्री सतीश राम कुमार गोयल जी, श्री अनिल गोयल जी, श्री शिव कुमार गुप्ता जी, श्री राजेश दवे जी, श्री रमेश गर्ग जी सभी ने मिलकर दीप प्रज्वलित कर महाराजा अग्रसेन जी के चित्र पर पुष्प चढ़कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया । कार्यक्रम में आए हुए सभी अतिथियों का संगठन के अध्यक्ष श्री देशबंधु गुप्ता जी महामंत्री सुभाष चंद्र गुप्ता जी, चेयरमैन महावीर गोयल जी, कोष अध्यक्ष अशोक सतोडिया जी, युवा चेयरमैन रविंदर गर्ग जी, मुख्य सलाहकार श्री पवन सिंघल जी ने दुपट्टा एवं माला और श्री राम जी का मोमेंटो देकर सम्मानित किया।

दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष श्री देशबंधु गुप्ता जी ने स्थापना दिवस के पावन पर्व पर खचाखच भरे ऑडिटोरियम में अग्रवाल समाज के लोगों को संबोधित करते हुए कहा की सेवा का दूसरा नाम अग्रवाल संगठन है जो दिन रात जरूरतमंदों की सेवा में निस्वार्थ भाव से लगा हुआ है। संगठन द्वारा छात्रों को मुफ्त कंप्यूटर शिक्षा, महिलाओं को फ्री ब्यूटी पार्लर कोर्स, फ्री मेहंदी कोर्स कराया जाता है, योगा टीचर ट्रेनिंग देकर बच्चों को योगा टीचर बनाया जाता है और उन्हें नौकरी से लगवाया जाता है गरीब कन्याओं का विवाह करना यूपीएससी एग्जाम में स्कॉलरशिप प्रदान करना और इसके अलावा संगठन द्वारा समाज हित के अनेक कार्य चलाए जा रहे हैं। महामंत्री सुभाष चंद्र गुप्ता जी ने बताया की अग्रवाल संगठन ने सेवा के माध्यम से समाज के सभी वर्गों में अपनी पहचान बनाई है इस अवसर पर मौजा मौजा ग्रुप द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया।

इस अवसर पर सोने की लंका कैसे बनी, माता शबरी की राम के प्रति अनंत भक्ति, महाराणा प्रताप की वीरगाथा, दुर्गा महिषासुर नृत्य नाटिका और देशभक्ति के भी अनेक गीत प्रस्तुत किए गए इस कार्यक्रम में संगठन की सभी पदाधिकारी मौजूद थे । दिल्ली प्रदेश की महिला चेयरमैन श्रीमती मंजू सिंघल जी, महामंत्री करुणा गोयल जी, वरिष्ठ उपाध्यक्ष श्रीमती सुदेश मित्तल जी एवं सभी महिला पदाधिकारी उपस्थित थी। संगठन के महामंत्री सुभाष चंद्र गुप्ता जी ने बताया की अग्रवाल संगठन तन मन धन से समाज के लोगों से जुड़ा हुआ है इतना भव्य आयोजन सभी के सहयोग से ही संभव हो पा रहा है मंच का संचालन श्री गुलशन जगा जी और पवन सिंघल जी के माध्यम से हुआ संगठन का अगला कार्यक्रम 4 अगस्त 2024 को हरियाली तीज के रूप में मनाया जाएगा।

शुक्रवार, 3 मई 2024

सैम पित्रोदा के विरासत टैक्स सुझाव पर घमासान क्यों?

बसंज कुमार

पिछले सप्ताह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व आर्थिक मामलों के जानकर सैम पित्रोदा ने अमेरिका में लिए जाने वाले विरासत टैक्स को भारत में भी लिए जाने के लिए बहस का सुझाव दिया। इस पर पूरे राजनीतिक हलको में उनके इस सुझाव की तीखी आलोचना शुरू हो गई और उनकी अपनी पार्टी ने इसे उनका निजी विचार कहकर पल्ला झाड़ लिया। परंतु विपक्ष या सत्ता पक्ष के आर्थिक मामलों के जानकर ने यह कहने का साहस नहीं किया कि भारत एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति है और यहां इंफ्रेस्ट्रॅक्चर के विकास के लिए राजस्व की अवश्यकता है और राजस्व कलेक्शन के लिए यह एक बेहतर सुझाव हो सकता है। मेरी विरोधी राजनीतिक दलों से संबंध होने के बावजूद कई बार शिष्टाचार भेट हुई हैं और आर्थिक मामलों में उनके जानकर होने से इनकार नहीं किया जा सकता है। उनके इस सुझाव से चल रहे लोकसभा चुनाव के बीच एक नया विवाद पैदा हो गया।

इस विवाद को रोका जाए उससे पहले यह जानने का प्रयास करते हैं कि विरासत टैक्स क्या होता है और अमेरिका में इसे क्यों लगाया जाता है जिससे प्रभावित होकर पित्रोदा ने इसे भारत में भी लगाने की बहस छेड़ दी।  इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कई बार बड़े औद्योगिक घरानों या राजघरानों में अपनी असली औलाद न होने के कारण उन दूर के रिश्तेदारों को बगैर किसी मेहनत और सेवा के अरबों की प्रोपर्टी विरासत के तौर पर मिल जाती है। अमेरिका में विरासत कर ऐसा कर है जो किसी मृत व्यक्ति द्वारा संपत्ति पर लगाया जाता है। इसके अंतर्गत मृत व्यक्ति की संपत्ति का कुछ प्रतिशत उसके वंशज को मिलता है और कुछ हिस्सा राज्य के पास टैक्स के रूप में चला जाता है। यह कर केंद्रीय कर न होकर अमेरिका के 6 राज्यो में लगाया जाता है। इस टैक्स का निर्धारण इस बात पर निर्भर करता है कि मृत व्यक्ति कहां रहता था और उसका संपत्ति के उत्तराधिकारियों के साथ क्या रिश्ता था। अमेरिका के जिन 6 राज्यो में यह टैक्स लगाया जाता हैं उनमें आयोवा, केंटकी, मैरीलैंड, नेब्रास्का, न्यू जर्सी और पेंसिलवेनिया है और हर राज्य में विरासत टैक्स की दरें अलग-अलग हैं। कुछ राज्यों में मृतक की पत्नी, पति, बच्चों, माता-पिता, दादा-दादी, पोती-पोतियों को विरासत टैक्स से छूट दी गई है। यहां तक की चैरिटी पर भी इस टैक्स से छूट का प्रावधान है, कहीं पर कुल संपत्ति और नकद मूल्य का विरासत टैक्स 1% से भी कम होता है और कहीं-कहीं यह 20% से अधिक हो सकता है

इस विवाद से कुछ दिन पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यह कह दिया था की यदि हम सत्ता में आते है तो पूरे देश में आर्थिक सर्वे कराए जाएंगे और उसके बाद संपत्ति का पुनर्वितरण कराया जाएगा। राहुल गांधी के यह विचार भारत में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती हुई खाई को पाटने के लिए एक क्रांतिकारी कदम हो सकता था। हां इसको लागू करना असंभव नहीं पर बहुत मुश्किल जरूर है। राहुल गाँधी के इस बयान पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर भाजपा के अन्य बड़े नेताओं ने हमला बोला दिया। इस पर तमाम अलोचनाओं के बाद भी राहुल गांधी अपनी बात पर अड़े रहे और आगे कह दिया कि आप ये न समझें कि हमारे सत्ता में आने के बाद न सिर्फ जाति सर्वे होगा हम इसमें आर्थिक सर्वे भी शामिल करेंगे अर्थात देश में संपत्ति का पुनर्वितरण करेंगे। इसी बात को लेकर जब पत्रकारों ने सैम पित्रोदा से बात की तो उन्होंने अमेरिका का उदाहरण देते हुए यह नई बात कह दी। जहां तक भारत में विरासत टैक्स का प्रश्न है तो यह देश में पंडित जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में 1953 में लागू हुआ लेकिन इसे 32 साल बाद 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में समाप्त कर दिया गया। गौरतलब है कि उस समय देश के वित्त मंत्री राजा मांडा विश्वनाथ प्रताप सिंह थे जो बाद में देश के 8वें प्रधानमंत्री बने। उन्होंने देश में ऐतिहासिक मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं जिससे अति पिछड़ी जातियों को 27% आरक्षण लागू हुआ और सत्ता में पिछड़े वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित हुई जिसके आधार पर कई दल जाति पर आधारित जनगणना की बात कर रहे हैं।

प्रश्न यह उठता है कि उस समय भारत कि आर्थिक स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं थी उसके कुछ वर्षों बाद ही भारत को अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए दीर्घकालीन ऋण के लिए आईएमएफ के पास जाना पड़ा और आईएमएफ की शर्तों के आगे अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ीं। ऐसे में सरकार को विरासत टैक्स वापस लेने की क्या अवश्यकता थी जब की इससे अच्छे खासे राजस्व की प्राप्ति हो रही थी। आश्चर्य इस बात का है कि कांग्रेस ने भी पित्रोदा के इस सुझाव का समर्थन करने के बजाय पित्रोदा का निजी बयान कहकर किनारा कर लिया जबकि कांग्रेस यह भूल गई कि 70 के दशक में उनकी सबसे कद्दावर नेता इंदिरा गांधी ने राजाओं को दिये जाने वाले प्रिवीपर्स बंद कर दिये थे और इसे पूरा समर्थन मिला था और सरकार के इस कदम को सरकार के राजस्व की स्थिति को सुधारने वाला कदम माना गया था

सैम पित्रोदा के बयान पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमला करते हुए दावा किया कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद उनकी संपत्ति सरकार के पास जाने से बचाने के लिए राजीव गांधी ने 1985 में भारत में विरासत टैक्स समाप्त कर दिया। इससे फायदा उठाने के पश्चात कांग्रेस इसे फिर से जनता के ऊपर थोपना चाहती है। अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो विरासत टैक्स के जरिये लोगों के पूर्वजों की ओर से छोड़ी गई आधी संपत्ति छीन लेगी। हो सकता है कि प्रधानमंत्री जी का यह भाषण चुनावी हो पर जो विरासत टैक्स सन् 1985 तक भारत में लागू रहा हो वह एकाएक जनता की सम्पत्ति की लूट का हिस्सा कैसे बन गया। सैम पित्रोदा के बयान को लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती का बयान और भी हास्यास्पद् लगता है। उन्होंने कहा निजी सम्पत्ति पर विरासत टैक्स की सोच और उसकी पैरवी कांग्रेस की गरीबी हटाओ की चर्चित विफलता पर से लोगों का ध्यान भटकाना है।  उन्होंने कहा कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओ द्वारा भारत में धन व सम्पत्ति वितरण की आड़ में अमेरिका की तरह निजी सम्पत्ति पर विरासत टैक्स की सोच और उसकी पैरवी करना गरीबो की भलाई कम और गरीबी हटाओ की विफलता से ध्यान हटाने का चुनावी हथकंडा है। वास्तव में मायावती जी का यह विरोध उनके द्वारा अर्जित की गई अरबों की सम्पत्ति सरकार के पास जाने की चिंता के कारण है।

यह सच है कि इंफ्रास्ट्रॅक्चर के विकास हेतु सरकार के राजस्व को बढ़ाने के लिए जीएसटी समेत अनेक टैक्स लगाए गए। यहां तक कि सीनियर सिटीजन्स को रेल यात्रा के समय दी जाने वाली रियायतें वापस ले ली गयी है और मल्टीहॉप्टिलिटी अस्पतालों में दी जाने वाली डिस्काउंट भी समाप्त कर दिया गया है, फिर सैम पित्रोदा द्वारा सुझाए गए विरासत टैक्स पर इतना शोर-शराबा क्यों? पर हम सभी जानते हैं कि सैम पित्रोदा आर्थिक मामलों के जानकार होने के साथ-साथ यह भी समझते हैं कि वर्ष 2024 के चुनावों में कांग्रेस सत्ता में नहीं आने वाली है, इसलिए उनके इन सुझावों को चुनावी स्टंट कि संज्ञा न देकर, भारत सरकार के राजस्व बढ़ाने के उपाय के रूप में देखा जाना चाहिए। चाहे यह सुझाव किसी विपक्षी पार्टी के नेता द्वारा लाया गया हो, वैसे विगत वर्षों में सपा, बसपा और कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता भाजपा में शामिल हुए हैं और भाजपा सरकार और संगठन में महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व का निर्वाह कर रहे हैं और नीतिगत निर्णय ले रहे हैं तो फिर सैम पित्रोदा के सुझाव पर इतना शोर शराबा क्यों?

बुधवार, 1 मई 2024

संपत्ति सर्वे वितरण और विरासत कर के बवंडर का सच

अवधेश कुमार

कांग्रेस के रणनीतिकारों का जो भी मानना हो लेकिन उसके विचार एवं व्यवहार इन दिनों लगातार आम व्यक्ति को हैरत में डालते हैं। अनेक गंभीर लोग बातचीत में प्रश्न करते हैं कि आखिर कांग्रेस को हो क्या गया है? संपत्तियों के सर्वे और वितरण संबंधी विवाद कांग्रेस की स्वयं की देन है। इसे लेकर मचे बवंडर के बीच विदेश में कांग्रेस पार्टी की इकाई ओवरसीज कांग्रेस ऑफ इंडिया के प्रमुख सैम पित्रोदा ने उत्तराधिकार कर का बयान देकर इसे लोकसभा चुनाव के एक बड़े मुद्दे के रूप में स्थापित कर दिया है। स्वाभाविक है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित समूची भाजपा कांग्रेस पर यह आरोप लगा रही है कि वह लोगों के घरों में घुसकर संपत्तियों का सर्वे करेगी तथा समान वितरण के नाम पर अपने चाहत के अनुरूप समुदाय विशेषकर मुसलमानों के बीच बांट देगी उस समय यह बयान बवंडर को और बढ़ने वाला ही साबित होना था। सैम पित्रोदा के बयान को व्यक्तिगत कह कर खारिज करना आसान नहीं है। आखिर वह कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारी हैं और सोनिया गांधी परिवार के निकटतम लोगों में माने जाते हैं। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समानांतर विदेशों में प्रोजेक्ट करने , जगह-जगह उनका भाषण और पत्रकार वार्ताएं करने की पूरी कमान उनके हाथों होती है। वह कह रहे हैं कि जब हम सामान वितरण की बात करते हैं तो हमें अमेरिका जैसे इन्हेरिटेंस टैक्स यानी उत्तराधिकार कर पर भी विचार करना चाहिए। उनके अनुसार यहां कई राज्यों में पिता की मृत्यु के बाद संपत्ति की विरासत संभालने वाले को 55% तक कर दे कर उसके हिस्से शेष 45% आता है। इससे स्वाभाविक ही यह शंका गहरी हुई कि कांग्रेस सत्ता में आने पर वाकई विरासत कर भी लगा सकती है।

अगर राहुल गांधी ने अपने भाषणों और वक्तव्यों में लगातार जाति जनगणना के साथ वित्तीय एवं आर्थिक सर्वे की बात नहीं करते तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा को इसे इतना बड़ा मुद्दा बनाने का अवसर नहीं मिलता। उनके भाषण और वक्तव्य सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं जिनमें वह कह रहे हैं कि हम सत्ता में आने पर जाति जनगणना करेंगे और उसके बाद क्रांतिकारी कदम उठाएंगे, संपत्ति के समान वितरण के लिए वित्तीय सर्वेक्षण करा कर देखेंगे कि किसके पास किस वर्ग के पास कितनी संपत्ति है। इसके बाद जितना जिसका हक होगा उतना उसको दिया जाएगा। कांग्रेस का घोषणा पत्र यानी न्याय पत्र जारी होने के पूर्व और बाद में भी वह इस पर बोलते रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा है कि आप से मिलना चाहता हूं ताकि मैं आपको अपना घोषणा पत्र समझा सकूं। खड़गे सहित कांग्रेस पार्टी के अंदर कोई यह कहने को तैयार नहीं है कि हम वित्तीय और आर्थिक सर्वे नहीं करेंगे तथा समान वितरण की भी बात हमारे एजेंडे में नहीं है। इसकी बजाय कांग्रेस के नेता प्रवक्ता लगातार भारत में उद्योगपतियों, अरबपतियों को निशाना बनाते हुए इनमें से कुछ के हाथों धन सिमट जाने के वक्तव्य दे रहे हैं। 

अगर सर्वेक्षण होगा तो फिर सर्वेक्षणकर्मी लोगों के घर में जाएंगे। घर वाले चाहें न चाहें उनकी एक-एक चीज देखी जाएगी। इसके अलावा अगर सर्वेक्षण का कोई तरीका कांग्रेस के पास है तो उसे बताना चाहिए। मंगलसूत्र जैसे शब्द व्यंग्यात्मक शैली में होते हैं। इनका इतना ही अर्थ है कि महिलाओं के आभूषण तक भी सर्वे में जाने जाएंगे।  संपत्ति के विवरण के वैधानिक प्रावधानों में आभूषणों आदि की पूरी सूची और उसके मूल्य बताने ही पड़ते हैं। चूंकि राहुल गांधी अपनी घोषणा पर कायम हैं और कांग्रेस इससे पीछे नहीं हट रही तो सैम पित्रोदा के उत्तराधिकार कर से देश में भय पैदा हो गया है। कुछ लोगों ने तो यह भी  तलाश लिया कि पहले भी भारत ने विरासत कर था और स्वयं पित्रोदा कोई नई बात का नहीं कह रहे हैं। प्रक्रांतर से यह स्वयं पित्रोदा के विचार का समर्थन करना ही है । निश्चित रूप से था और यह अंग्रेजों का बनाया हुआ कानून था जो व्यवहार में नहीं उतर पाया तथा सरकारी विभागों में इतनी मुकदमे हुए जिनके खर्च उससे प्राप्त से ज्यादा हो गया। हालांकि प्रधानमंत्री का आरोप है कि र राजीव गांधी के प्रधानमंत्रीत्व काल में उसे इसलिए हटाया गया, क्योंकि उन्हें बिना कर दिए अपनी मां की संपत्ति का उत्तराधिकार लेना था। सच है कि पारिवारिक संपत्ति में से संजय गांधी के परिवार को शायद ही कुछ प्राप्त हुआ हो। यह ऐसा मुद्दा रहा है जिसे आरंभिक दिनों में मेनका गांधी ने उठाया था।

 बहरहाल, भले अर्थव्यवस्था, समाज और देश के बारे में समझ रखने वाले इसे उचित न मानें लेकिन कांग्रेस के अंदर भाव यही है कि राहुल गांधी की इन घोषणाओं का देश के आम लोगों पर बड़ा प्रभाव है और उन्हें लगता है कि कांग्रेस सत्ता में आई तो देश के धनी और संपन्न लोगों की संपत्तियां लेकर हमारे बीच बांटा जाएगा। वह मानते हैं कि इससे उनका वोट काफी बढ़ेगा और सत्ता में भी आ सकते हैं।

 पिछले कुछ वर्षों से कांग्रेस की नीति और व्यवहार में पुरानी शैली के वामपंथियों की तरह संपत्तिवानों, उद्योगपतियों आदि के विरुद्ध घृणा और गुस्सा साफ परिलक्षित होता रहा है। उनको निशाना बनाया जाता है। पांच न्याय और 25 गारंटी में कांग्रेस ने ऐसी-ऐसी बातें की है जिनको धरातल पर उतारना भारतीय अर्थव्यवस्था के बूते की बात नहीं है।। लेकिन इस समय कांग्रेस के थिंक टैंक या सोनिया गांधी परिवार को सुझाव देने वाले मानते हैं कि कांग्रेस को पुराने वामपंथियों की तरह क्रांतिकारी तेवर धारण करना चाहिए तभी वह अपना खोया हुआ जनाधार वापस ला सकती है तथा भाजपा को हरा सकती है। सैम पित्रोदा ने जो कहा है वह इसी सोच का विस्तार है। हमारी आपकी दृष्टि में अमेरिका एक पूंजीवादी देश है लेकिन क्रांति हुए बिना वहां वामपंथियों की ताकत हमेशा सशक्त रही है। वहां ये सत्ता, प्रशासन, न्यायपालिका , मीडिया से लेकर पूरे थिंक टैंक पर हाबी हैं। वहां के बड़े-बड़े पूंजीपति जिनमें जार्ज सोरोस जैसे लोग शामिल है, भी अपने प्रकट लक्ष्यों और घोषणाओं में आधुनिक वामपंथी ही है। उनकी दृष्टि की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में उनकी ही सोच की अर्थव्यवस्था, समाज के बीच संपत्ति का विभाजन, अल्पसंख्यकों के विशेषाधिकार आदि के लक्ष्य से भारत जैसे विकासशील देश में बदलाव के लिए अपने थिंक टैंक विकसित करते हैं और ऐसे लोगों को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं। उनका लक्ष्य ऐसे देश को सशक्त करना तो नहीं हो सकता । विदेशों में उनके भाषण होते हैं। इसलिए यह मानने का कोई कारण नहीं है कि राहुल गांधी, कांग्रेस के दूसरे नेता या सैम पित्रोदा के साथ उनके संवाद नहीं होंगे। इस अतिवादी वाम सोच में ही अल्पसंख्यकों के लिए वैसे विशेष प्रावधानों की घोषणाएं हैं जिन्हें देखकर भाजपा के लिए यह आरोप लगाना आसान हो गया है कि संपत्ति के सर्वे के पीछे राहुल गांधी और कांग्रेस का इरादा अल्पसंख्यकों के नाम पर मुसलमानों के बीच ही उसे वितरीत करना है। इस पर बहस हो सकती है तथा पहली दृष्टि में कहा जा सकता है कि भाजपा जानबूझकर कांग्रेस को मुस्लिमपरस्त साबित करने के लिए ऐसा कर रही है। किंतु कांग्रेस ने अभी तक इस बात का खंडन नहीं किया है कि उसकी मंशा मुसलमानों को विशेष तौर पर धन के वितरण में या आरक्षण आदि में शामिल करना नहीं है। यूपीए सरकार के दौरान आप देखेंगे कि केंद्र से राज्यों की कांग्रेस सरकारों ने मुसलमानों के लिए अनेक प्रावधान किये, अनेक संपत्तियां अलग-अलग इस्लामी संस्थाओं को दी गई और उनके लिए सरकार के नियम कानून तक बदले गए। बाद में दूसरी सरकारों ने उनमें से कई संपत्तियां वापस ली और इनमें न्यायालय का भी साथ मिला। भारतीय सभ्यता संस्कृति की परंपरागत व्यवस्था में संपत्तियों के अधिक संग्रह का आदेश नहीं था। परिश्रम से अर्जित करने पर रोक नहीं था लेकिन उसके स्वामित्व की सीमाएं रहीं हैं तथा अर्जित संपत्तियों को भी सहकारी जीवन की तरह मिल बांटकर खाने की व्यवस्था रही है। वर्तमान युग में अपनी क्षमता, प्रतिभा की बदौलत उत्तरोत्तर आर्थिक प्रगति पर किसी भी बंधन की स्वीकार्यता नहीं है। इससे समाज के विकसित होने की मानसिकता कमजोर होती है तथा यह पूरे देश की प्रगति को उल्टी दिशा में मोड़ना है। इसलिए संपत्ति पर कैप लगाना या उसके एक बड़े हिस्से का राष्ट्रीयकरण कर लोगों में बांटना या एक सीमा से ज्यादा संपत्ति पर जरूर से ज्यादा कर लगाकर उसकी आय को बांट देने की सोच का कभी समर्थन नहीं किया जा सकता। इससे भयावह अराजकता और उथल-पुथल की स्थिति पैदा होगी जिसे संभालना कठिन होगा। चूंकि कि चुनाव के बीच यह मुद्दा आ गया है इसलिए देश के लोगों को तय करना है कि वह इसके साथ है या विरोध में।

पता - अवधेश कुमार, ई30, गणेश नगर, पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली 110092 , मोबाइल 9811027208

मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन व लम्हे जिंदगी के संस्था ने मिलकर 'काव्य गोष्ठी का आयोजन किया

संवाददाता

नई दिल्ली। दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं लम्हे जिंदगी के संस्था के संयुक्त तत्वावधान में 'काव्य गोष्ठी का आयोजन लम्हे जिंदगी के अध्यक्ष श्री विनय कुमार की अध्यक्षता में किया गया। कार्यकम में मुख्य अतिथि के रूप में श्रीमती आरती अरोड़ा, उपाध्यक्ष, संस्कार भारती एवं सुप्रसिद्ध समाज सेवी उपस्थित थीं। विशिष्ट अतिथि के रूप में डॉ. सैयद नज़म इकबाल, कार्यकम निर्माता, दिल्ली दूरदर्शन उपस्थित थे। सान्निध्य सम्मेलन की अध्यक्ष, श्रीमती इंदिरा मोहन का प्राप्त हुआ। संयोजन श्रीमती सरोजिनी चौधरी, सुपरिचित कवयित्री एवं डॉ. पूजा भारद्वाज, संस्थापिका 'लम्हे जिंदगी ने किया। काव्य गोष्ठी का संचालन श्रीमती पूजा श्रीवास्तव ने किया।
मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए श्रीमती आरती अरोड़ा ने दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं लम्हे जिंदगी दोनों संस्थाओं को बधाई देते हुए आभार प्रकट किया। उन्होंने बताया कि मुझे हमारे परिवार की तीसरी पीढ़ी के रूप में दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन से जुड़कर अच्छा लग रहा है। विश्वास है भविष्य में भी इसी प्रकार के साहित्यिक आयोजन संस्था द्वारा किए जाते रहेंगे। मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं।
सान्निध्य वक्तव्य देते हुए श्रीमती इंदिरा मोहन ने कहा कि दि.हि.सा. सम्मेलन और लम्हे जिंदगी संयुक्त रूप से नई चेतना, नवीन विषय वस्तु और शिल्प के साथ आपके समक्ष है। सम्मेलन पिछले 80 वर्षों से निरंतर साहित्य की सेवा कर रहा है, जिसकी नींव पं. मदनमोहन मालवीय के मार्गदर्शन में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने रखी थी और जिसे पल्लवित पं. गोपाल प्रसाद व्यास एवं श्री महेष चन्द्र शर्मा ने किया। उन्होंने कहा कि अच्छा है, महिलाएं अच्छा सोच रही है और लिख रही है। इसके लिए मैं उन्हें बधाई और शुभकामनाएं देती हूँ।
अध्यक्ष के रूप अपना उ‌द्बोधन देते हुए श्री विनय कुमार ने कहा कि इस काव्य गोष्ठी में आपकी उपस्थिति ही कार्यक्रम की श्रेष्ठता है। उन्होंने अपनी बात अपनी कविता के माध्यम से श्रोताओं तक पहुँचाने का प्रयास किया।
इस अवसर पर आमंत्रित कवि/कवयित्रियों ने अपने काव्य पाठ से सभी का मनमोह लिया।
डॉ. सैयद नज़म इकबाल : तेरी जुस्तजू की तालाश में, मेरी उम्र सारी गुजर गई,
श्री दिनेश तिवारी: मैं कहाँ-कहाँ संभालता, यह कदम कदम पर फिसल गई।। अगर देने की इच्छा है तो कुछ कम नहीं होता, और जीवन में किसकी के भी हमेशा गम नहीं होता।
श्री अवधेष तिवारी: कोशिश अगर करते रहे. तो हर मुष्किल का हल निकलेगा, बंजर है अगर भूमि, तो कल यहीं से जल निकलेगा। सारे रिश्तों की लाज रखते हैं।
श्री कृष्ण गोपाल अरोड़ा : नम्र अपना मिजाज रखते हैं।
श्रीमती बबली सिन्हा: बातों बातों में न ऐसी बातें कीजिए, दिल न टूटे किसी का ख्याल कीजिए।
श्री राजवीर 'राज' :
श्रीमती कामना मिश्र: ठंडी पीपल की छांव छोड आया हूँ, बूढी अम्बा को गांव छोड़ आया हूँ। तुम तो कहते थे कि हालात बदल जाएं, वक्त के साथ ख्यालात बदल जाएं। बाधाओं से लड़कर जीना अच्छा लगता है। जग हित में शिव को विष पीना अच्छा लगता है।
श्री ओंकार त्रिपाठी: जहां हो झूठ की सत्ता, वहां सच कौन बोलेगा। सच्ची सीधी बात किया कर, पीछे से न बार किया कर।
श्री सुरेन्द्र शर्मा: जिसको सुन बहने लगे, सुखद आंख से नीर, सत्य भाव कविता वही, जो हरती मल पीर।
आचार्य अनमोल: साथ ही श्री भूपेन्द्र राघव, श्री राजेष रघुवर, श्रीमती चंचल वशिष्ठ, डॉ. साक्षात भसीन, सुश्री संप्प्रीति, सुश्री पुनीता, सुश्री सुमन मोहिनी, सुश्री रष्भि चौबे आदि ने भी काव्य पाठ किया।

सोमवार, 29 अप्रैल 2024

श्री अरविन्द महाविद्यालय (सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित 'साईकेडेलिया-24' कार्यक्रम का आयोजन

संवाददाता

नई दिल्ली। श्री अरविन्द महाविद्यालय (सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय के अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान विभाग द्वारा दिनांक 24 अप्रैल एवं 25 अप्रैल को महाविद्यालय के सेमिनार हॉल में विभाग के द्विदिवसीय वार्षिक समारोह 'साईकडेलिया-24' का आयोजन किया गया, जिसका मुख्य थीम द आर्ट ऑफ सेल्युम डिस्कवरी' था. इस समारोह के उद्घाटन सत्र में दिल्ली विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के प्रो० रोशन लाल, मुख्य अतिथि एवं किनोट स्पीकर तथा महाविद्यालय के प्राचार्य प्रो० अरुण चौधरी, विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किये गये कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत आमंत्रित अतिधियों एवं विभाग के शिक्षकों द्वारा दीप-प्रज्वलन करके की गई, तत्पश्चात विभाग के टीआईसी प्रो० महेश कुमार दरोलिया, कार्यक्रम के संयोजक डॉ० चन्द्र प्रकाश कपूर सीनिअर फैकल्टी प्रो० मोनिका रीखी, प्रो० प्रग्वेंदु ने मुख्य अतिथि एवं कॉलेज के प्राचार्य का स्वागत पुष्प गुच्छ, एवं शॉल भेंट करके किया इसके उपरांत विभाग के छात्र-छात्राओं द्वारा सरस्वती वंदना एवं नृत्य की सुंदर रोमांचक प्रस्तुति की गई।
अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान विभाग की वरिष्ठ फैकल्टी प्रो० मोनिका रीखी ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि 'साईकेडेलिया हमारे छात्रों द्वारा प्रति वर्ष आयोजित किया जाने वाला विभिन्न तरह के इवेंट्स का संगम है जो हम शिक्षकों के कौशल, शिक्षण-शैली एवं शिक्षा, समाज एवं देश के प्रति हमारे योगदान के प्रतिबिंब हैं। महाविद्यालय के प्राचार्य एवं कार्यक्रम के विशिष्ट अतिधि प्रो० अरुण चौधरी ने समारोह के मुख्य विषय 'द आर्ट ऑफ़ सेल्फ डिस्कवरी पर अपने वक्तव्य में कहा कि सेल्फ डिस्कवरी एक जीवन भर स्वयं को बेहतर बनाने के लिए व्यक्ति के अन्तः मन में चलने वाली प्रक्रिया है।
 मुख्य अतिथि प्रो० रोशन लाल ने छात्रों एवं आमंत्रित अतिथियों के समक्ष सेल्फ डिस्कवरी की प्रक्रिया एवं सोपान को विस्तार से रखा. अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान विभाग के आमंत्रित पुरा-छात्र एवं ओ पी जिंदल ग्लोबल विश्वविद्यालय के काउन्सलिंग विभाग के आरोग्य कुमार नाथ, एवं फ्रीलान्स काउंसलर सान्या शर्मा ने सकारात्मक ऊर्जा से सेल्फ को डिस्कवर करने पर जोर दिया।
दिवितीय दिवस के कार्यक्रमों में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो० सुरेन्द्र कुमार सिया एवं डॉ० दिनेश छाबड़ा ने पैनल डिस्कशन एवं अपने व्याख्यानों से सभी प्रतिभागियों का ज्ञान वर्धन किया, एवं उनके प्रश्नों एवं उत्सुकता का सकारात्मक ढंग से समाधान किया. विभाग के छात्र- छात्राओं द्वारा कई अन्य इनोवेटिव प्रतियोगिताओं जैसे साई सेलेब्स, साई प्रयोर्स, टोटल बैग पेंटिंग, एस्केप रूम प्रतियोगिता आयोजित की गई, जिसमे अन्य कई कॉलेज के छात्रों ने भी प्रतिभाग किया. कार्यक्रम को सफलता पूर्वक आयोजित करने में संयोजक डॉ० चन्द्र प्रकाश कपूर, सह संयोजिका डॉ० सजनी के साइकोलॉजिकल सोसाइटी की प्रेसिडेंट साध्वी शर्मा एवं सोसाइटी के अन्य सदस्यों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
सभी प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग करने वाले एवं विनर्स को महाविद्यालय के प्राचार्य एवं समापन सत्र के मुख्य अतिथि प्रो० सुरेन्द्र कुमार सिया ने सर्टिफिकेट्स वितरित किये। अंत में संयोजक डॉ० चन्द्र प्रकाश कपूर ने सभी को कार्यक्रमों को सफल बनाने एवं प्रतिभाग करने के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया. इस अवसर पर महाविद्यालय के प्रो० गिरीश जोशी, डॉ विवेक चौधरी विभाग के डॉ गरिमा अग्रवाल, डॉ सुरुचि सिंह, डॉ इन्द्राणी रेगोन, डॉ पावनी, अनुपम पाण्डेय एवं भारी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थिति रहेा

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

कम मतदान होने का सच वही नहीं जो बताया जा रहा है

अवधेश कुमार

लोकसभा चुनाव के पहले चरण  के 102 स्थानों का लोकसभा चुनाव संपन्न होने के कई तरह के आकलन सामने आ रहे हैं । इस दौर में नौ राज्यों तमिलनाडु ,उत्तराखंड, अरुणाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम ,नगालैंड, सिक्किम तथा तीन केंद्र शासित प्रदेशों अंडमान, लक्षद्वीप और पुडुचेरी का मतदान संपन्न हो चुका है। हिंदी भाषी राज्यों के दृष्टि से देखे तो ऐसे 35 स्थान का चुनाव संपन्न हुआ है जिनमें बिहार के चार ,मध्य प्रदेश के 6 ,राजस्थान के 12, उत्तर प्रदेश के आठ और उत्तराखंड के पांच स्थान शामिल हैं। दक्षिण के राज्य तमिलनाडु के सभी 39 स्थानों पर मतदान संपन्न हो चुका है। माना जा रहा था कि देश के एक बड़े क्षेत्र में मतदान के बाद इसकी प्रवृत्तियों का आकलन करना थोड़ा आसान हो जाएगा। लेकिन मतदान के बाद आम टिप्पणी यही है कि प्रवृत्तियों का आकलन कठिन हुआ है। बहरहाल , इसकी सबसे बड़ी विशेषता रही कि पश्चिम बंगाल को छोड़कर कहीं भी किसी तरह की हिंसा की घटना नहीं हुई। यह बताता है कि देश का चुनाव तंत्र बिल्कुल सहज ,सामान्य और सुव्यवस्थित अवस्था में काम कर रहा है। इसका अर्थ यह भी है कि हम कम अवधि और कम चरणों में भी लोकसभा चुनाव को समाप्त कर सकते हैं।

सबसे ज्यादा चर्चा मतदान प्रतिशत कम होने को लेकर है और कई तरह के आकलन किया जा रहे हैं। हालांकि तथ्य नहीं है कि सभी क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत ज्यादा गिरा है। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में ज्यादा  मतदान हुए तो बिहार और उत्तराखंड में अत्यंत कम। इन दो राज्यों में भी अलग-अलग क्षेत्र को देखें तो कहीं ज्यादा तो कहीं कम मतदान हुआ है। एक बार राज्य , मतदान प्रतिशत को देखें। उत्तर प्रदेश में 2019 के 63.88 के मुकाबले 60.25% ,उत्तराखंड में 61.88 प्रतिशत के मुकाबले 55.89%, मध्य प्रदेश में 67.08%, छत्तीसगढ़ में 65.80 की जगह 67.56 प्रतिशत, राजस्थान में 63.71 की जगह 57.26 प्रतिशत, बिहार में 53.47% की जगह 48.88%, पश्चिम बंगाल में 83.7 9% की जगह 80.55%, महाराष्ट्र में 63.0 4% की जगह 61.87% तमिलनाडु के सभी 39 क्षेत्र में 69.46 प्रतिशत, असम में 78.23% की जगह ,75.95%, अरुणाचल में 67% की जगह 72.74%, मणिपुर में 78.20% की जगह 72.117%, मेघालय में 67.15% की जगह 74.5 0%, मिजोरम में 63.02% की जगह 56. 6 0%, नागालैंड में 83.12 प्रतिशत की जगह 56.91%, त्रिपुरा में 83.12% की जगह 81. 6 2% सिक्किम में 78.119% की जगह 80.003%, पुडुचेरी में 81. 19% की जगह 78.8 0%, अंडमान निकोबार में 64.85% की जगह 63.99%, लक्षद्वीप में 84.96% की जगह 83.88%, जम्मू कश्मीर में 57.35 प्रतिशत की जगह68 प्रतिशत मतदान हुआ।  तो एक- दो स्थान को छोड़कर ज्यादातर जगहों में मतदान गिरा है। उत्तर प्रदेश में 2019 के मुकाबले लगभग 5.30 प्रतिशत कम मतदान हुआ। सबसे अधिक 83.88 प्रतिशत मतदान लक्षद्वीप सीट पर तो बंगाल के जलपाईगुड़ी में 82.15% मतदान हुआ।  हिंसा के शिकार मणिपुर में  मतदान कम नहीं माना जा सकता है। कुल मिलाकर इन क्षेत्रों में 2019 में औसत मतदान 69.43 % से ज्यादा हुआ था। चुनाव आयोग के अंतिम आंकड़ों के अनुसार  यह करीब 68.29 प्रतिशत है।‌ यानी करीब 1.14% कम मतदान हुआ है। तो राष्ट्रीय स्तर पर मतदान में ज्यादा गिरावट नहीं है । 2019 लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा मतदान हुआ था। तो यह माना जा सकता है कि लोकसभा चुनाव में इससे ज्यादा मतदान की संभावना शायद अभी नहीं है।

नागालैंड में इसलिए मतदान प्रतिशत ज्यादा गिरा क्योंकि छह जिलों में ईस्टर्न नगालैंड पीपुल्स फ्रंट (ईएनपीओ) ने अलग राज्य की मांग को लेकर मतदान का बहिष्कार किया था। इन छह जिलों के 20 विधानसभा क्षेत्रों में चार लाख से अधिक मतदाता हैं। जब इतनी संख्या में मतदाता मत डालेंगे नहीं तो उसे गिरना ही है। इसे मतदान की प्रवृत्ति नहीं मान सकते।  करीब डेढ़ दशक पहले मतदान घटने का अर्थ सत्तारूढ़ घटक की विजय तथा बढ़ने का अर्थ पराजय के रूप में लिया जाता था और प्रायः ऐसा देखा भी गया। किंतु 2010 के बाद प्रवृत्ति बदली है। मतदान बढ़ने के बावजूद सरकारें वापस आई हैं और घटने के बावजूद गई है। इसलिए इसके आधार पर कोई एक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। दूसरे, हर जगह मतदान प्रतिशत ज्यादा गिर भी नहीं है। तीसरे, बंगाल में साफ दिखाई दे रहा है कि दोनों पक्षों के मतदाताओं में एक दूसरे को हराने और जीताने की प्प्रतिस्पर्धा है।। संदेशखाली से लेकर अन्य मामलों के कारण वहां हिंदुओं के बड़े समूह के अंदर ममता बनर्जी को लेकर आक्रोश है। 

सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश की है तो जरा क्षेत्र के हिसाब से देखें कि कहां कितना मतदान हुआ। सहारनपुर में पिछली बार 70.87% हुआ था जबकि इस बार 68.99% , पीलीभीत में 67.41 की जगह 63.70, मुरादाबाद में 65.46 की जगह 62.05, कैराना में 67.45 की जगह 61.5 , नगीना में 63.66 की जगह असर दशमलव 54, मुजफ्फरनगर में 80.42 की जगह 58.5, बिजनौर में 66.022 की जगह 58.21 और रामपुर में 63.01की जगह 55.75% मतदान हुआ। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस इलाके में मतदान प्रतिशत घटना सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं है। इस क्षेत्र को जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का विशेषण प्राप्त है। तो यह आकलन करना कठिन है कि जहां मतदान प्रतिशत गिरा वहां किनके मतदाता नहीं आए। पिछले चुनाव में भाजपा के लिए यह चुनौतीपूर्ण क्षेत्र था तथा बसपा सपा ने उसे गंभीर चुनौती दी थी। भाजपा को केवल तीन स्थान मिले थे जबकि बसपा को तीन और सपा को दो। अगर भाजपा विरोधी उसे हराना चाहते थे तो उन्हें भारी संख्या में निकलना चाहिए। कहा भी जा रहा है कि सपा के कोर मतदाता यानी मुसलमान और यादवों का बड़ा समूह आक्रामक होकर मतदान कर रहा था।। विरोधी भारी संख्या में निकलेंगे तो समर्थक भी इसका ध्यान रखेंगे। हालांकि उम्मीदवारों के चयन , दूसरे दलों से आये लोगों को महत्व मिलने तथा कहीं -कहीं,गठबंधन को लेकर भाजपा समर्थकों और कार्यकर्ताओं में थोड़ा असंतोष है तथा एक जाति विशेष ने भी विरोधात्मक रूप अख्तियार किया था। बावजूद यह कहना कठिन होगा कि भाजपा समर्थक मतदाता ही ज्यादा संख्या में नहीं निकले। अभी तक की प्रवृत्ति इसका संकेत नहीं देती। समर्थक कार्यकर्ता थोड़ा असंतुष्ट हों तो इसका असर होता है किंतु विरोधी तेजी से हराने के लिए निकले और इसके बावजूद वो प्रतिक्रिया न दें इस पर विश्वास करना कठिन होता है।

अभी तक के चुनाव अभियान में जनता के उदासीनता दिखी है। हालांकि विपक्ष के प्रचार के विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को लेकर आम जनता के अंदर कहीं व्यापक आक्रोश या भारी विरोधी रुझान बिल्कुल नहीं दिखा है। कल्याण कार्यक्रमों के लाभार्थी तथा विकास नीति की प्रशंसा करने वाले हर जगह दिखाई देते हैं । श्री रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा प्रतिष्ठा से लेकर समान नागरिक संहिता एवं नागरिकता संशोधन कानून आदि पर विपक्ष के रवैये ने भाजपा के समर्थकों और मतदाताओं में प्रतिक्रिया भी पैदा की है। आम प्रतिक्रिया यही है नरेंद्र मोदी को ही होना चाहिए । लोग अगर वोट डालते समय यह विचार करेंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही बनाना है तो वो किसका समर्थन करेंगे ? कार्यकर्ताओं नेताओं और समर्थकों के एक समूह के  थोड़ा असंतोष का कुछ असर हो सकता है। हालांकि जिनके अंदर असंतोष है उनमें भी यह भाव है कि अगर यह सरकार हार गई तो कहा जाएगा कि हिंदुत्व विचारधारा की हार हो गई है। जिस जाति के विद्रोह की चर्चा हो रही है वहां भी लोगों के अंदर भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर सहानुभूति का भाव दिखता है। इसलिए यह मानने में भी कठिनाई है कि इन्होंने बिल्कुल एक मस्त आक्रामक होकर भाजपा के विरोध में मतदान किया होगा। ऐसा होने का अर्थ मतदान बढ़ना होना चाहिए। मतदान कम होने को भाजपा विरोधी रचन का संकेत मानना उचित नहीं होगा।

‌ पता- अवधेश कुमार, ई-30,गणेश नगर,पांडव नगर कंपलेक्स, दिल्ली -110092 ,मोबाइल -9811027208

सांसद निधि और अन्य फंड है राजनीति में बढ़ते अपराधों की जड़

बसंत कुमार

पिछले दिनों आम चुनाव के अवसर पर चुनाव लड़ने वाले आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशियों के विषय में एक आंकड़े जारी किये गए जिसमें एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने यह आया कि चाहे एनडीए हो या इंडिया गठबंधन हो दोनों ही ओर से आपराधिक पृष्ठभूमि और भूमाफिया और कालाबाजारी में लिप्त भावी सांसदों की संख्या 50% से थोड़ा ही कम है।

विगत कुछ वर्षों में संसद, विधानमंडलों और स्थानीय निकायों में प्रवेश पाने वाले करोड़पतियों और अरबपतियों की संख्या 90-95% तक पहुंच गई है। बस कुछ दूरदराज और आदिवासी क्षेत्रों में ही कभी-कभार ऐसे प्रत्याशी मिल जाते हैं जिनकी घोषित आय हजारों या लाखों में हो सकती है, समाज में वंचित व गरीब समाज की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए विधायिका में उनके लिए कुछ सीटें आरक्षित कर दी गई पर अब तो इन सीटों पर भी उन अरबपतियों को टिकट दिये जाते हैं जिनका वंचित समाज के विकास से कोई सरोकार नहीं होता, राजनीति में आने का एक मात्र उद्देश्य अपनी संपत्ति को दुगुना और चौगुना करना होता है। अब तो कुछ दलों में टिकटों का फैसला देश की राजधानी दिल्ली में नहीं बल्कि देश की वाणीज्यिक राजधानी मुंबई में होता है और पार्टी प्रत्याशियों के टिकटों का फैसला संसदीय बोर्ड के और चुनाव समिति के सदस्य नहीं बल्कि मुंबई में बैठे दलाल करते हैं। यहां तक के आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में भी प्रत्याशियों को टिकट उस क्षेत्र में रहने वालों को नहीं दिया जाता जो वहां की समस्या से भलीभांति परिचित होते हैं, बल्कि उनको दिया जाता है जो मुंबई और दिल्ली में रहते हैं और उल्टे-सीधे धंधों से अरबों की संपत्ति इकट्ठा कर रखी है।

अब प्रश्न यह उठता है कि राजनीति में ऐसा क्या है कि अब सभी पैसे वाले, आपराधिक छवि वाले, नौकरशाह, डॉक्टर व अन्य पेशे वाले अपना जमा-जमाया धंधा छोड़कर चुनाव लड़ने को आतुर दिखते हैं। एक समय ऐसा था कि उच्च शिक्षा प्राप्त डॉक्टर व इंजीनियर अपना क्षेत्र छोड़कर सिविल सेवा परीक्षा की ओर आकर्षित होते थे इसके पीछे कारण सर्वेंट्स को मिलने वाली सुविधाएं व पॉवर होता था परंतु अब वही क्रेज लोगों के मन में राजनीति में जाने और चुनाव लड़ने में हो गया है, जानकारों की राय में यह क्रेज 90 के दशक में शुरू हुआ जबसे सांसदों और विधायकों को निधि के नाम पर करोड़ों रुपये दिये जाने लगे।

सांसद और विधायक निधि के इस पैसे को बिना किसी एकाउंटबिलिटी के मनमानी खर्च करने लगे, कहा तो यहां तक जाता हैं कि सांसद निधि से जब किसी शिक्षा संस्था या किसी अन्य संस्थान को पैसा दिया जाता है या निधि से छोटा-मोटा निर्माण कराया जाता है तो उसमें 30 से 35% कमीशन पहले ही ले ली जाती है अर्थात यह कहा जा सकता है कि राजनीति के क्षेत्र में उपजा भ्रष्टाचार सांसदों और विधायकों की निधि के फैसले के बाद से ही अधिक फैला है। इस निधि के कारण चुनाव इतने महंगे हो गए हैं।

एक दृष्टि 1980 के दशक के पूर्व के सांसदों और विधायकों की जीवनशैली पर डालें तो पता चलता है कि तब के सांसद अपने क्षेत्र का दौरा करने हेतु जिला प्रसाशन द्वारा उपलब्ध कराई गई गाड़ियां इस्तेमाल करते थे और जब संसद सत्र के दौरान अपने घर से संसद तक संसद द्वारा चलाई गई बस सेवा का उपयोग करते थे, पर जब से सांसद निधि शुरू हो गई है और विधायिका में भ्रष्टाचार का बोलबाला शुरू हो गया है तब से सांसद व विधायक एसयूवी गाड़ियों के काफिले से चलते हैं और इनके काफिले को देखकर ऐसा लगता हैं मानो ये जनता के सेवक नहीं बल्कि पुराने राजवाड़े और उनका काफिला निकल रहा है। जन सेवा के नाम पर राजनीति में आए लोग राजवाड़ों से अधिक आलीशान जीवन जी रहे हैं और सांसदी खत्म होने के पश्चात अच्छी खासी रकम पेंशन के रूप में मिलने से उनकी बेफिक्री और बढ़ा दी है। इसी कारण पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने कई बार सांसद निधि समाप्त करने की बात की थी, उनका मानना था कि जनसेवा के नाम पर चुनकर आये जनप्रतिनिधि देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बन रहे हैं इसलिए सांसद निधि बंद कर दी जानी चाहिए।

इस समय लोकसभा चुनाव प्रगति पर है और सभी सांसद अपने क्षेत्र में पिछले पांच सालों में की गई उपलब्धियों को गिना रहे हैं और इनकी उपलब्धियों में परिवहन एवं सड़क यातायात मंत्री नितिन गडकरी और रेल मंत्री की उपलब्धियां गिनाई जाती हैं अर्थात जन प्रतिनिधियों द्वारा द्वारा अपने सांसद अपनी सांसद निधि को कहां खर्च किया उसका ठीक से ब्यौरा नहीं दे पाते। अभी कुछ दिन पहले एक रिपोर्ट आई थी कि अधिकांश सांसद ठीक तरीके से अपनी निधि खर्च नहीं कर पाते और यदि करते हैं तो वह भी अपने चाटुकारों को मनमाने तरीके से दस-दस हैंड पंप और सोलर लाइट दे देते हैं और क्षेत्र के जरूरतमन्दों को पानी के लिए हैंड पंप और सोलर लाइट नहीं मिल पाती। अब जब प्रधानमन्त्री ने अगले कुछ वर्षों में हर घर को पानी का कनेक्शन और हर घर को बिजली का कनेक्शन का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है और सिर्फ हैंड पंप और सोलर लाइट लगाने के उद्देश्य इन सांसद निधि के नाम पर अरबों रूपये खर्च किये जाएं। इसलिए अब समय आ गया कि सांसद निधि बन्द करके सांसदों और विधायकों को अपने विधायी कार्यों पर अपना ध्यान करने दिया जाए।

जबसे विधायिका के लोगों को क्षेत्र के विकास के नाम पर करोड़ों रुपये की निधि का विधान आया है तब से विधायिका में हिस्ट्रीशीटरो, अपराधियों और सत्ता के दलालों का प्रवेश बढ़ गया है या यूं कह लें इन लोगों ने विधायिका में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है और चुनावों के दौरान टिकट पाने से लेकर चुनाव जितने तक इन लोगों के धनबल और बाहुबल का बोलबाला दिखाई देता है और दुर्भाग्य पूर्ण यह है कि मतदाता भी इन्ही बाहुबली करोड़पतियों के पीछे भागना पसंद करते हैं। अब तो शरीफ, चरित्रवान व सभ्य लोग चुनाव में भाग लेने के बजाय इसे दूर से प्रणाम कर लेते हैं। यदि देश में स्वस्थ लोकतंत्र को स्थापित करना है कि हर राजनीतिक दल को जिताऊ प्रत्याशी के नाम पर आपराधिक और बाहुबली छवि वाले करोड़पतियो का प्रवेश बन्द करना पड़ेगा अन्यथा कुछ समय बाद हमारी संसद और विधानमंडल इन अपराधियों की शरणार्थी बन जाएगी।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

चुनावों में धर्म और जाति का उपयोग गलत परंपरा

बसंत कुमार

अभी हाल ही में चल रहे लोकसभा चुनावों के समय गुजरात के एक वरिष्ठ नेता पुरुषोत्तम रुपाला ने ब्रिटिश काल में राजपूतों की नीति और स्थिति के बारे में एक विवादित बयान दे दिया, जिसके कारण उन्हें देश के क्षत्रिय समाज का विरोध झेलना पड़ रहा है, हो सकता है कि उन परिस्थितियों में मजबूरी के कारण कुछ क्षत्रियों को ऐसा करना पड़ा हो पर पूरे क्षत्रिय समाज के लिए ऐसी धारणा बनाना सरासर गलत था। यहां तक इतिहास जानता है कि मुगलों और उसके पूर्व के अक्रांताओं के विरुद्ध मेवाड के राजपूतानाओं ने जिस साहस का परिचय दिया वह हिंदुत्व की रक्षा के लिए ऐतिहासिक त्याग व बलिदान माना जाएगा। 7वीं सदी में बप्पा रावल से लेकर 17वीं सदी तक महाराणा प्रताप और उनके बेटे अमर सिंह तक यह संघर्ष कायम रहा।

यही नहीं मेवाड के पर्वतीय वन प्रदेशों में बसने वाले भील, जो धनुष विद्या में प्रवीण और अचूक निशाने बाज होते थे तथा पहाड़ों और जंगलों के बीहड़ रास्तों के जानकर होते थे, ने मुस्लिम आक्रमणकारियों के विरुद्ध लडाई में अपने राजपूत राजाओं के साथ संघर्ष किया और बलिदान दिया। संक्षिप्त रूप में यह कहा जा सकता है कि अपनी सनातनी संस्कृति की रक्षा के लिए सभी हिंदुओं ने राजपूत राजाओं के नेतृत्व में कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया। यही कारण है कि लगातार 9 सदियों तक मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचार और लूटमार के बावजूद हिंदू सनातनी संस्कृति विनष्ट होने से बची रही।

मगर वर्तमान समय में क्षत्रीय परिवारों में जन्म लेने वाले कुछ युवा जिन्हें राजपूताना संघर्ष के बारे में कुछ नहीं पता वे राजपूताना संघर्ष को सभी हिंदुओं का संघर्ष मानने के बजाय सिर्फ क्षत्रियों का संघर्ष मानते हैं और निम्न जातियों में पैदा होने वालों को सनातनी संघर्ष का हिस्सा नहीं मानते और कभी कभी तो शुद्रों और भीलों को हिंदू धर्म का हिस्सा भी नहीं मानते और अपने वर्ग को अन्य जातियों से श्रेष्ठ समझते हैं। उनकी यही सोच हिंदू समाज और सनातनी संस्कृति को तार-तार कर रही है। उन लोगों को यही बड़बोलापन राष्ट्रवाद और हिंदुत्व में आस्था रखने वाले रुपाला जैसे नेता को भी स्वाभिमानी राजपूत समाज के लिए अवांछित टिप्पणी करने के लिए उकसाया, जिसका परिणाम यह है कि पूरे राजपूत समाज द्वारा जगह-जगह पर रुपाला का विरोध हो रहा है और जो राजपूत समाज भाजपा का कैडर वोट माना जाता रहा है वह अपनी ही पार्टी के विरोध में खड़ा हो गया है।

इसी कड़ी में उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ सपा नेता जो तीन बार सांसद रह चुके हैं और वर्तमान में विधायक तूफानी सरोज ने यह कहकर विवाद पैदा कर दिया कि हमारी जीत में सवर्ण, ब्राह्मण, ठाकुरों का कोई योगदान नहीं है अब यह प्रश्न उठता है कि भारत जैसे लोकतंत्र में चुनाव के दौरान धर्म और जाति का उपयोग कितना जायज है जबकि चुनाव जाति व धर्म के बजाय शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार और आर्थिक विकास के मुद्दों पर लड़े जाने चाहिए परंतु इस समय चुनाव पूर्ण रूप से धर्म और जाति के आधार पर लड़े और जीते जाते है।

सनातन संस्कृति वाले इस देश में भगवान राम त्रेता युग से पूजे जाते रहे हैं और लगभग 9 शताब्दियों तक देश बाहरी मुस्लिम आक्रांताओं के कब्जे में रहा फिर भी देश में न सनातन खत्म हुआ और न ही लोगों के मन में भगवान राम के प्रति श्रद्धा ही कम हुई और युगों से लोगों के दिल में भगवान राम का वास रहता है पर कुछ स्वयंभू सनातन के ठेकेदार अयोध्या में भगवान राम की जन्म भूमि पर बन रहे भव्य मन्दिर के निर्माण का श्रेय स्वयं लेने का प्रयास कर रहे है और इसके लिए हमारे साधु-संतों और महान नेताओं की कुर्बानियों को नजरअंदाज कर रहे हैं और चुनावी फायदे के लिए भगवान राम का उपयोग कर रहे हैं जो अनैतिक भी है और सनातनी मान्यताओं के विरुद्ध भी है। 

धर्म को चुनाव में इस्तेमाल करने के मामले में 1995 में सर्वोच्च न्यायालय की बेंच जिसकी अध्यक्षता जस्टिस जीएस वर्मा कर रहे थे। उन्होंने निर्णय दिया कि हिंदुत्व धर्म नहीं है अपितु यह जीवन शैली है और यह कहा हिंदुत्व को एक धर्म तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की इस गहन व्याख्या ने यह तो स्थापित कर दिया कि हिंदुत्व भारत में जीवन के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं को शामिल करता है पर उन्होंने कहीं भी चुनाव में धर्म के इस्तेमाल को जायज नहीं ठहराया। नतीजन हिंदू और हिंदुत्व के उपयोग को भले ही असंवैधानिक न करार दिया जाए पर चुनाव में इसका उपयोग अनैतिक है और सनातनी मान्यताओं के खिलाफ है। यह फैसला दूसरी ओर धार्मिक अपीलों और सामाजिक व सांस्कृतिक मान्यताओं से जुड़ी अभिव्यक्ति के बीच अंतर को स्पष्ट कर दिया था और चुनावी प्रक्रिया की अखंडता बनाये रखने के लिए जाति और धर्म से संबंधित संवेदनशील मुद्दों को संबोधित करते समय राजनेताओं को सावधानी बरतनी चाहिए।

शीर्ष अदालत का यह फैसला अभिवयक्ति की स्वतंत्रता और चुनाव के दौरान भ्रष्ट आचरण को रोकने के लिए आवश्यकताओं के बीच नाजुक संतुलन को दर्शाता है। यह रचनात्मक राजनीतिक बहस के महत्व पर जोर देते हुए देश में जाति और धर्म के आधार पर होने वाले सामाजिक विघटन को रोकने का मार्ग प्रशस्त करता है पर दुर्भाग्यवश देश में राजनीतिक पार्टियां धर्म और जाति के नाम पर सत्ता प्राप्त करना चाहती है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में परोक्ष रूप से स्वीकार कर लिया कि राजनीतिक फायदे के लिए विशेषकर चुनाव के लिए धर्म के इस्तेमाल को बिलकुल ही सही माना और फैसला दे दिया कि हिंदुत्व धर्म नहीं एक जीवन शैली है अर्थात इस फैसले ने यह साफ कर दिया कि जाति और धर्म के नाम पर मतदाताओं को बर्गलाना पूरी तरह से लोकतंiत्रिक मर्यादाओं के के विरुद्ध है पर देश के राजनीतिक दल इसे अनदेखा करके धर्म और जाति के नाम पर अशिक्षित मतदाताओं को लामबंद कर रहे है जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के प्रतिकूल है। इस विषय में चुनाव आयोग और न्यायालय को कड़े कदम उठाने की अवश्यकता है।

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

लोकसभा चुनाव की कैसी बन रही है तस्वीर

अवधेश कुमार

इस समय लोकसभा चुनाव को लेकर कई तरह के मत हमारे सामने आ रहे हैं। सबसे प्रबल मत यह है कि भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अपने सहयोगी दलों के साथ तीसरी बार भारी बहुमत से सरकार में लौट रही है। कुछ लोग प्रधानमंत्री के 370 भाजपा के और सहयोगी दलों के साथ 400 सीटें मिलने तक की भी भविष्यवाणी करने लगे हैं। दूसरी और विपक्ष इसे खारिज करते हुए कहता है कि भाजपा चुनाव हार रही है और वह 200 सीटों से नीचे चली पाएगी। विपक्ष भाजपा की आलोचना करती है, नरेंद्र मोदी पर सीधे प्रहार भी करती है, पर अपने समर्थकों और भाजपा विरोधियों के अंदर भी विश्वास नहीं दिला पाती कि वाकई वह भाजपा से सत्ता छीनने की स्थिति में चुनाव लड़ रहे हैं। आईएनडीआईए की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस से नेताओं के छोड़कर जाने का कायम सिलसिला इस बात का प्रमाण है कि पार्टी के अंदर कैसी निराशा और हताशा का सामूहिक मनोविज्ञान व्याप्त है। इसमें आम मतदाता और विश्लेषक स्वीकार नहीं कर सकते कि वाकई विपक्षी दल भाजपा और राजग को सशक्त चुनौती देने की स्थिति में है। तो फिर इस चुनाव का सच क्या हो सकता है? आखिर 4 जून का परिणाम क्या तस्वीर पेश कर सकता है?

इस चुनाव की एक विडंबना और है। भाजपा के नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों का एक वर्ग स्वयं निराशाजनक बातें करता है। व्यक्तिगत स्तर पर मेरी ऐसे अनेक लोगों से बातें हो रही हैं जो चुनाव में जमीन पर हैं या वहां होकर लौट रहे हैं। इनमें ऐसे लोगों की संख्या बड़ी है जिनमें उत्साह या आशावाद का भाव न के बराबर मिलता है। वे बताते हैं कि जैसी दिल्ली में या बाहर हवा दिखती है धरातल पर वैसी स्थिति नहीं है। जब उनसे प्रश्न करिए कि धरातल की स्थिति क्या है तो सबके उत्तर में कुछ सामान बातें समाहित होती हैं, गलत उम्मीदवार के कारण लोगों के अंदर गुस्सा या निराशा है, गठबंधन को सीट देने के कारण अपने लोगों के अंदर निराशा है, गठबंधन ने ऐसे उम्मीदवार खड़े किए हैं जिनका बचाव करना या जिनके लिए काम करना भाजपा के कार्यकर्ताओं के लिए कठिन हो गया है आदि। कुछ लोग अनेक क्षेत्रों में जातीय समीकरण की समस्या का उल्लेख भी करते हैं। एक समूह यह कहता है कि आम कार्यकर्ताओं और नेताओं की सरकार में उपेक्षा हुई है, उनके काम नहीं हुए हैं, उनको महत्व नहीं मिला है और  अब लोगों का धैर्य चूक रहा है। यहां तक कि जिस तरह के लोगों को पुरस्कार, पद, प्रतिष्ठा या टिकट दिया गया है उनसे भी लोग असहमति व्यक्त करते हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं समर्थकों के साथ विपक्ष की बातों को मिला दिया जाए तो निष्कर्ष यही आएगा कि भले भाजपा 400 पर का नारा दे लेकिन यह हवा हवाई ही है। किंतु क्या यही 2024 लोकसभा चुनाव की वास्तविक स्थिति है?

यह बात सही है कि अनेक राज्यों , जिनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार ,झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल आदि को शामिल किया जा सकता है वहां पार्टी के अंदर कई जगह उम्मीदवारों को लेकर विरोध है। कुछ उपयुक्त लोगों को टिकट न मिलना तथा ऐसे सांसदों को फिर से उतारना जिनको लेकर कार्यकर्ता नाराजगी प्रकट करते रहे हैं विरोध का एक बड़ा कारण है। साथी दलों ने भी भाजपा के लिए समस्याएं पैदा की है। इन सबमें विस्तार से जाना संभव नहीं, पर कुछ संकेत दिए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए बिहार में लोजपा ने ऐसे उम्मीदवार उतारे जो परिवारवाद का साक्षात प्रमाण है और भाजपा के लोगों के लिए इनका बचाव करना कठिन है। कुछ  साथी दलों ने प्रभाविता और साक्षमता की जगह व्यक्तिगत संबंध और परिवार को टिकट देने में प्रमुखता दिया। बिहार के जमुई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं प्रचार के लिए गए और वहां भाजपा के लोगों ने पूरी ताकत लगाई। इसका असर भी हुआ। बावजूद यह प्रश्न किया जा रहा है कि किसी नेता के बहनोई या 26 साल की एक लड़की को, जिसके पिता साथी दल में नेता हैं उनको हम अपना नेता या प्रतिनिधि मानकर कैसे काम करें? स्वर्गीय रामविलास पासवान की राजनीति परिवार के इर्द-गिर्द सिमटी रही। जद- यू की ओर से भी ऐसे कई उम्मीदवार हैं जिन्हें भाजपा और राजग के परंपरागत कार्यकर्ता और समर्थक स्वीकार नहीं कर रहे। भाजपा के भी कुछ ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके बारे में नेता कार्यकर्ता कह रहे हैं कि हम पर उन्हें थोप दिया गया है। झारखंड में भी बाहर से लाकर टिकट देने और ऐसे उम्मीदवार को खड़ा करने, जिनको भाजपा पहले नकार चुकी हो समस्या पैदा कर रही है।

किंतु इसका यह अर्थ नहीं की 4 जून का परिणाम भी इसी के अनुरूप आएगा। यह सही है कि अगर भाजपा और राजग में उम्मीदवारों के चयन में ज्यादा सतर्कता बरती जाती, स्थानीय नेतृत्व के चॉइस की सही तरीके से जांच होती तो स्थिति पूरी तरह वैसी ही उत्साहप्रद होती जैसी  चाहिए। बावजूद देशव्यापी व्याप्त अंतर्धारा क्या है? 10 वर्षों की नरेंद्र मोदी सरकार का प्रदर्शन, प्रधानमंत्री की स्वयं की छवि, वर्षों तक संगठन परिवार द्वारा हिंदू समाज के बीच किए गए सकारात्मक कार्य, 22 जनवरी को रामलाल की प्राण प्रतिष्ठा, विरोधियों द्वारा हिंदुत्व को लेकर उपेक्षा या प्रहार का व्यवहार तथा अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों का वोट लेने के लिए विपक्षी दलों की प्रतिस्पर्धा भाजपा के पक्ष में ऐसा आधार बनाती है जिसका कोई विकल्प नहीं। भाजपा के समर्थकों में एक बड़ा वर्ग विचारधारा के कारण जुड़ाव रखता है और पिछले कुछ वर्षों के कार्यों के कारण हिंदुओं के अंदर हिंदुत्व एवं भारतीय राष्ट्रभाव की चेतना प्रबल हुई है। वह बहस करते हैं कि आखिर भाजपा नहीं होती तो क्या अयोध्या में राम मंदिर बनता और ऐसी प्राण प्रतिष्ठा होती? वे धारा 370 से लेकर समान नागरिक संहिता, तीन तलाक कानून, नागरिकता संशोधन कानून आदि की चर्चा करते हैं। नागरिकता संशोधन कानून का तो आईएनडीआईए के ज्यादातर दलों ने विरोध किया है। उन्हें लगता है कि घातक अल्पसंख्यकवाद पर अगर किसी पार्टी की सरकार द्वारा नियंत्रण लगा है तो भाजपा ही है। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार के प्रभावों के कारण जिन माफियाओं पर सरकारें उनके समुदाय के कारण हाथ डालने से बचतीं थी वे मटियामेट हुए हैं,सड़कों पर नमाज पढ़ना बंद हुआ है। देश के कई राज्यों ने बाद में इसका अनुसरण किया। स्वाभाविक ही उन्हें लगता है कि आने वाले समय में कोई पार्टी अगर इन सब पर काम कर सकती है तो वह भाजपा ही है। दूसरी ओर सामाजिक न्याय एवं विकास को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार ने जिस तरह से व्यावहारिक रूप दिया है उसका बड़ा आकर्षण समाज के हर वर्ग में है। पहले नेता बाबा साहब अंबेडकर का नाम लेते थे जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उनसे जुड़े पांच प्रमुख स्थलों का ऐसा विकास किया गया जिसकी कल्पना नहीं थी और उन्हें एक बड़े तीर्थ और पर्यटन स्थल में बदलने की कोशिश हुई। दलित और आदिवासियों के बीच आप जाएंगे तो नरेंद्र मोदी का समर्थन का एक बड़ा वर्ग आपको खड़ा मिलेगा। प्रधानमंत्री ने 2047 तक भारत को विकसित देश बनाने और अगले 5 वर्षों में विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बनने का जो नारा दिया है वह भी लोगों के दिलों को छू रहा है। विपक्ष की आलोचना के विपरीत नरेंद्र मोदी की विकास संबंधी नीति तथा समाज के हर वर्ग के आत्मनिर्भर और विकसित होने के लिए दिए गए कार्यक्रमों ने सामान्य गरीबों महिलाओं किसने उद्योगपतियों व्यापारियों छात्रों शिक्षकों कर्मचारियों के बड़े वर्ग के बीच सकारात्मक प्रभाव डाला है। इन सबको लगता है कि तुलनात्मक रूप में भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार ही सही है। यह पहली बार है जब भारत के बाहर भारत विरोधी आतंकवादी दनादन मारे जा रहे हैं और दुनिया के प्रमुख देशों के विरोध के बावजूद ऐसा हो रहा है। यद्यपि सरकार इसे नकारती है पर आम लोगों को लगता है कि यह सब नरेंद्र मोदी सरकार के कारण ही हो रहा है अन्यथा पूर्व की सरकारें उनके समक्ष किंकर्तव्यविमूढ़ रहती थी। स्वयं विपक्ष ने ही ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिनसे लोगों के सामने इसमें ही चयन करने का विकल्प है कि आपको प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी चाहिए या नहीं? ऐसी स्थिति में मतदाता किस ओर जाएंगे इसकी कल्पना ज्यादा कठिन नहीं है। तमिलनाडु जैसे राज्य में प्रधानमंत्री की रोड शो में उमड़ी भीड़ बता रही है कि किस तरह पिछले 10 वर्षों में भारतीय जनमानस की सोच और व्यवहार में बदलाव आया है।

बसपा ने तीसरे चरण के ल‍िए मायावती-आकाश आनंद सह‍ित 40 स्टार प्रचारकों की लिस्‍ट की जारी

संवाददाता

 लखनऊ। लोकसभा चुनाव के ल‍िए यूपी में सात मई को तीसरे चरण के मतदान के ल‍िए बसपा ने मायावती-आकाश आनंद सह‍ित 40 स्टार प्रचारकों की लिस्‍ट की जारी की है। इसमें सबसे ऊपर बसपा प्रमुख मायावती का नाम है। इसके बाद आकाश आनंद सतीश चंद्र म‍िश्रा और



व‍िश्‍वनाथ पाल का नाम शामि‍ल है। बसपा ने मुनकाद अली उमा शंकर स‍िंह राजकुमार गौतम और समसुद्दीन राईम को भी स्‍टार प्रचारकों की ल‍िस्‍ट में शामिल क‍िया है।

 

 

 

मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

उलेमाओं को सक्रिए राजनीति में आना चाहिए

अब्दुल ग़फ़्फ़ार सिद्दीकी
9897565066

संसदीय चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। पूरे देश का सियासी पारा दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। मौजूदा केंद्र सरकार सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल अपने पक्ष में कर रही है, लेकिन ऐसा तो हमेशा से होता आया है, अब कुछ ज्यादा ही बेग़ैरती के साथ किया जा रहा है। जिस तरह से विपक्षी दलों और उनके नेताओं पर ईडी की छापेमारी हो रही है उससे पता चलता है कि बीजेपी को छोड़कर बाकी सभी भ्रष्ट और भ्रष्टाचारी हैं। इस माहौल से डरकर भ्रष्टाचारी गण भाजपा के चरणों में शरण लेने को मजबूर हैं। देश में विपक्षी गठबंधन आशा की किरण है। यदि देश की न्यायप्रिय जनता भावनाओं के बजाय तर्क से निर्णय ले तो अच्छे दिन वापस आने की प्रबल आशा है।

हर संसदीय चुनाव की तरह इस बार भी मुसलमानों की स्थिति बेहद नाजुक है। हर राजनीतिक दल उनका वोट मांग रहा है, लेकिन उनके लिए कोई दल संजीदा नहीं है। मुस्लमान जिसे अपना मसीहा समझते हैं वही उनकी पीठ में छुरा घोंप देता है। इसी  बीच हमेशा की तरह मुस्लिम नेतृत्व (अपनी क़यादत )की भी बात उठ रही है। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि देश में फासीवादी पार्टियों का गठबंधन "एनडीए" है, तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का गठबंधन" इंडिया" है, मगर मुस्लिम राजनीतिक दलों का कोई गठबंधन नहीं है। जब इस प्रकार की एकता की बात की जाती है तो कहा जाता है कि 15 प्रतिशत मुसलमानों की एकता 85 प्रतिशत हिंदुओं को एकजुट कर देगी। अर्थात इसलिए हम एकजुट नहीं हो रहे हैं'  ताकि दूसरा एकजुट न हो जाए ।

मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या राजनीति को लेकर उनकी संकुचित मानसिकता है। उनके दृष्टिकोण से, राजनीति का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। इस दृष्टिकोण ने मुस्लिम उम्माह को सत्ता से वंचित करने में प्रमुख भूमिका निभाई है। मुझे नहीं पता कि यह सिद्धांत क़ुरआन और हदीस के किस पाठ से लिया गया है। मैं तो बस इतना जानता हूं कि पैगंबर मुहम्मद (सल्ल.) के मिशन का उद्देश्य अत्याचारी राजनीतिक व्यवस्था को न्याययिक  व्यवस्था से बदलने के अलावा कुछ नहीं था। जो लोग राजनीति को गंदा मानकर हजरत उमर जैसी हुकूमत की उम्मीद करते हैं, वे खुद तो इससे दूर हैं ही और दूसरों की भी हिम्मत तोड़ रहे हैं। जब तक शराफ़त और नैतिकता हाशिए पर रहेगी और लोग पैसे लेकर या बिरयानी खाकर वोट देते रहेंगे, तब तक न कोई क्रांति होगी और न ही कोई मंजर बदलेगा।

मेरी राय है कि सबसे पहले मुस्लिम उम्माह के धार्मिक नेताओं को इस गलत दृष्टिकोण को सुधारना चाहिए जिसका उल्लेख उपरोक्त पंक्ति में किया गया है। उन्हें हर मंच  से कहना चाहिए कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में भाग लेना और सरकार और सत्ता में आना  उन की मूलभूत  आवश्यकता है और देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपने वोट के अधिकार का उपयोग करना और सफल होना उन का मौलिक अधिकार है उलेमाओं  के एक समूह को व्यावहारिक राजनीति में भाग लेना चाहिए और यह  सिद्ध करना चाहिए कि इस्लाम धर्म में राजनीति अपराध नहीं है। यद्यपि उलेमा अब भी भाग ले रहे हैं, परंतु वे राजनीति में भाग लेने को धर्म का विषय नहीं मानते। मौलाना तौकीर रज़ा खान, मौलाना बदरुद्दीन अजमल कासमी, मौलाना महमूद असद मदनी, आदि  व्यावहारिक राजनीति में सक्रिय हैं, मौलाना तौकीर रज़ा खान, मौलाना बदरुद्दीन अजमल कासमी  की अपनी पार्टियाँ भी हैं। यदि ये सज्जन अपने मंच से मुस्लिम उम्मा को यह विश्वास दिला दें कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपूर्ण क्रांति लाने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी  धर्म की सटीक आवश्यकता है तो यह असम्भव  बात नहीं है कि लोगों का मन बदल जाएगा और ग्राम प्रधान से लेकर सांसद तक उलेमा प्रमुखता से भाग लें । आख़िर वो शख्स जो क़ाज़ी शहर हो सकता है। जो हमें परलोक का मार्गदर्शन कर सकता है वह हमारे सांसारिक जीवन का मार्गदर्शक क्यों नहीं हो सकता?  वास्तव में इंसानों को खुदा से दूर करने और पृथ्वी को  भ्रष्टाचार से भरने के लिए, शैतान ने धर्म और राजनीति को अलग करके और दुनिया की बागडोर अपने हाथों में लेकर यह चाल चली है। पूरी दुनिया में शैतानी व्यवस्था को डर है कि अच्छे, ईमानदार, नेक और धार्मिक लोग सरकार और सत्ता में आकर उनकी मेहनत पर पानी न फेर दें ।इसलिए इबलीस ने अपने कार्यकर्ताओं को अल्लामा इक़बाल के शब्दों में यह सलाह दी है।
मस्त राखो जिक्र-ओ-फिकर-ए-सुभागही में इसे
पुख्ता तर कर दो मिज़ाजे ख़ानक़ाहि में इसे

यह भी जरूरी है कि मुसलमान जिस पार्टी में हों, वहां मुसलमानो की नुमाइन्दगी करें । जब जब वे ऐसा नहीं करते हैं तो क़ौम को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। मुस्लिम लीडरशिप को याद रखना चाहिए कि मुसलमानों ने ही उन्हें नेता बनाया है। कुर्सी मिलने के बाद उन्हें मुसलमानों की समस्याओं से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए, उन्हें अपनी क़ौम के मुद्दों को राजनीतिक पार्टियों के मंच पर पूरी ताकत से उठाना चाहिए। जब एक यादव ,एक दलित ,एक ठाकुर अपनी जाति की समस्यायें उठा सकता है तो मुस्लमान कियों नहीं उठा सकते। इस संबंध में देश के अन्य अल्पसंख्यकों से भी सीख लेने की जरूरत है। मुस्लिम प्रतिनिधि अत्यधिक धर्मनिरपेक्षता और दलीय निष्ठा दिखाते हैं यदि हमारे प्रतिनिधि हमारी आवाज नहीं उठाएंगे तो लोकतांत्रिक संस्थाओं में क़ौम के मुद्दे कौन उठाएगा।

सवाल यह है कि वोट किसे दिया जाए? जाहिर है इसके लिए कोई नियम बनाना मुश्किल है। हर संसदीय क्षेत्र की परिस्थितियां अलग-अलग हैं। वोट आप की अपनी धरोहर है आप अपने मत का इस्तेमाल अपनी इच्छा से करें किसी दबाव व प्रलोभन में न करें, जो लोग मौजूदा सरकार की संकीर्ण मानसिकता को समझते हैं और बदलाव की इच्छा रखते हैं वे इंडिया गठबंधन की ही हिमायत करेंगे। मेरी राय है कि जो पार्टियाँ सभी बाधाओं के बावजूद एनडीए के साथ सहयोग करने से बचती रही हैं, उनके उम्मीदवारों को वोट दिया जा सकता है। जिन पार्टियों ने अतीत में एनडीए के साथ मिलकर सरकार बनाई है, उन्हें किसी भी हालत में वोट नहीं दिया जाना चाहिए, भले ही उनके उम्मीदवर मुसलमान ही क्यों न हों। ऐसे निर्दलीय उम्मीदवारों को वोट न दें जिनका चरित्र संदिग्ध हो और वे स्वार्थी साबित हो सकते हों।

मैं अपने उन मुस्लिम भाइयों से एक बात कहना चाहता हूं जो चुनाव में भाग लेते हैं या भाग लेना चाहते हैं। उन्हें चुनाव और राजनीति में तभी कदम रखना चाहिए जब उनके पास देश और क़ौम के लिए कोई विजन और योजना हो। अन्यथा, किसी और की टांग खींचने या अपनी नाक ऊंची करने की कोशिश में पैसे बर्बाद न करें। आमतौर पर सेवा के नाम पर एक सीट के लिए कई कई मुसलमान खड़े हो जाते हैं, हालांकि उनमें से कुछ जानते हैं कि वे हार जाएंगे, लेकिन अपने अहंकार को संतुष्ट करने के लिए चुनावी मैदान में कूद पड़ते हैं। अंधाधुंध पैसा खर्च किया जाता है, मुस्लिम मतदाता भ्रमित हो जाते हैं और कुछ जगहों पर जहां गैर-एनडीए  उम्मीदवार को जीतना चाहिए था, वह हार जाता है।

वर्तमान सरकार ने पिछले दस वर्षों में जुमलेबाज़ी और धार्मिक नफरत बढ़ाने के अलावा कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया है। बेरोजगारी बढ़ गई है, महंगाई दर में वृद्धि हुई  है, किसानों की समस्याएं जस की तस हैं । मुसलमान तो दूर की बात है सरकार से देश का कोई भी वर्ग संतुष्ट नहीं है सिवाय उन लोगों के जो मुस्लिम विरोधी कीटाणुओं से संकर्मित हैं। वे न केवल एनडीए को वोट देने के लिए बल्कि अपनी जान देने के लिए भी तैयार हैं। पिछले संसदीय चुनाव में बीजेपी को 37.76% वोट और उसके गठबंधन एनडीए को 45% वोट मिले थे। यानी उनके ख़िलाफ़ वोट ज़्यादा थे।  दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बीजेपी की जीत में वोटों के बिखराव ने अहम भूमिका निभाई थी।

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

डॉ. आंबेडकर की विरासत के संवाहक नरेंद्र मोदी

बसंत कुमार

बाबा साहेब आंबेडकर के पौत्र प्रकाश आंबेडकर कांग्रेस पर बाबासाहेब के अपमान का आरोप लगाते हुए कहते हैं कि "देश में गांधीजी की 100वीं जयंती धूमधाम से मनाई गई, पं. नेहरू की 100वीं जयंती धूमधाम से मनाई गई, पर डॉ. आंबेडकर की 100वीं जयंती मनाना क्यों भूल गई, जबकि उस समय वह केंद्र और महाराष्ट्र दोनों जगह सत्ता में थी? गांधी शताब्दी समारोह से एक समाजसेवी डॉ. बिंदेश्वर पाठक उभरे, जिन्होंने अपने अथक प्रयास से देश को सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा से मुक्ति दिलाई, और आज भी वे अस्पृश्य दलितों के पुनर्वास में लगे हुए हैं। यदि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की जन्मशताब्दी भी इसी तरह मनाई होती तो देश को डॉ. बिंदेश्वर पाठक जैसी और विभूतियाँ मिल गई होतीं, जो दलित व वंचित समाज के उत्थान हेतु 'सुलभ' जैसी संस्था का निर्माण करतीं और वंचित समाज राष्ट्र की मुख्यधारा में शमिल हो जाता।" दरअसल, प्रकाश आंबेडकर द्वारा उठाए गए प्रश्न मात्र उनके ही नहीं थे, यह देश के सामाजिक रूप से वंचित वर्गों के साथ-साथ भारत के निर्माण में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की भूमिका के बारे में जागरूक लोगों की भावना थी। डॉ. आंबेडकर के प्रति श्री मोदी का झुकाव तब से था, जब वे तीसरे दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ काम कर रहे थे। तब दलितों की समस्याओं पर अपने काम के कारण संघ की ओर से 1981 की 'मीनाक्षीपुरम घटना' पर प्रतिक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे।
गुजरात में भाजपा के महासचिव के रूप में 1987 में मोदी के पहले कार्य के रूप में पार्टी संगठन को विभिन्न स्थानों पर आंबेडकर की मूर्तियाँ स्थापित करने और उन्हें माला पहनाकर सम्मानित करने के लिए जुटाया। उसी वर्ष मोदी 'न्याय यात्रा' के सूत्रधार थे, जिसने गुजरात के लोगों को अन्याय के विरुद्ध इकट्ठा किया। जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो वर्ष 2007 में उन्होंने पूरे गुजरात में विभिन्न स्थानों पर 'आंबेडकर भवनों' का निर्माण कराया। उद्घाटन कार्यक्रमों में उनके भाषण यह संकेत देते हैं, वे किस प्रकार बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर को आधुनिक भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण निर्माताओं में से एक के रूप में देखते हैं! एक मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने कहा था कि "डॉ. आंबेडकर का लक्ष्य सामाजिक क्रांति था। वे केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि असमानता के खिलाफ पूर्ण संघर्ष के पर्याय थे।" इसलिए उन्होंने बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर की तुलना मार्टिन लूथर किंग से की थी, और मार्टिन लूथर किंग महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते थे। पर मोदी ने इस बात पर चिंता की, जहाँ महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग का सम्मान दुनियाभर में किया जाता है, वहीं भारत में प्रतिष्ठित, स्थापित आभिजात्य वर्ग ने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के प्रति घोर अन्याय किया और इसी कारण उन्हें 'भारत रत्न' से सम्मानित करने में चार दशक का समय लग गया। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनके शासन की अनेक योजनाएँ बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर से प्रेरित थीं। 'बाबासाहेब आवास नवीनीकरण योजना' ने वंचित वर्गों को घर का मालिक बनाने में वित्तीय सहायता प्रदान की। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने भाषण में कहा, "डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने सामाजिक समानता के लिए लड़ाई लड़ी, पर उनके आंदोलन में कभी नकारात्मकता देखने को नहीं मिली। इसके स्थान पर वे सदैव समाज में ऐसे सुधार के पक्षधर थे, जहाँ सबसे वंचित वर्ग भी सम्मान का जीवन जी सकता था। इसी कारण सामाजिक सशक्तीकरण और सामाजिक समरसता सुनिश्चित करना नरेंद्र मोदीजी की पार्टी और सरकार की प्राथमिकता रही है।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में आरक्षित 131 लोकसभा सीटों में से 67 सीटें भाजपा द्वारा जीतना वंचित समाज में श्री मोदी की स्वीकारिता दिखाता है और वर्ष 2019 में भाजपा के पास एससी-एसटी सांसदों की संख्या बढ़कर 97 हो गई और वर्ष 2014 में 81 ओबीसी सांसद और 2019 में 119 ओबीसी सांसद लोकसभा पहुँचे। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने ऐतिहासिक महत्त्व के उन स्थानों को विकसित किया, जो आंबेडकर के जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण थे। जिन्हें 'पंचतीर्थ' के नाम से जाना जाता है-
1. मध्य प्रदेश के महू में उनका स्थान।
2. लंदन में वह स्थान जहाँ वे ब्रिटेन में पढ़ने के दौरान रहते थे।
3. नागपुर में स्थित दीक्षा-भूमि।
4. दिल्ली में महापरिनिर्वाण स्थल।
5. महाराष्ट्र में बंबई स्थित चैत्यभूमि ।
19 नवंबर, 2015 को मोदी सरकार ने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के सम्मान में 26 नवंबर को 'संविधान दिवस' के रूप में घोषित किया। बाद में 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'महापरिनिर्वाण स्थल' पर 'डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर राष्ट्रीय स्मारक' का उद्घाटन किया, जो लगभग दो एकड़ में फैला हुआ है। स्मारक का प्रस्ताव पहले दिवगंत अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने किया था। हालाँकि, यूपीए के सत्ता में आने पर यह परियोजना रुक गई, जिसे मोदीजी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने पूरा किया। उनके विचारों को प्रधानमंत्री की निर्धारित प्राथमिकताओं में देखा जा सकता है। 'मन की बात' के अपने संबोधन के दौरान लोगों का ध्यान उन क्षेत्रों की ओर आकर्षित किया, जिनमें उनकी सरकार ने डॉ. बाबासाहेब के दृष्टिकोण से प्रेरणा ली-
"मेरे प्यारे देशवासियो! 14 अप्रैल डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की जयंती है। बरसों पहले डॉ. बाबासाहेब ने भारत में औद्योगीकरण की बात की थी, उनके अनुसार उद्योग एक प्रभावी माध्यम है, जिसके द्वारा गरीब-से-गरीब और निर्धनतम को भी रोजगार उपलब्ध कराया जा सकता है। आज 'मेक इन इंडिया' का अभियान डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के एक औद्योगिक महाशक्ति के रूप में भारत के सपने के अनुरूप सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा है। उनका यह सपना हमारी प्रेरणा बन गया है।"
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगे कहते हैं, "आज भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक दीप-बिंदु के रूप में उभरा है और आज दुनिया में सबसे अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या एफडीआई भारत में आ रहा है। पूरी दुनिया भारत को निवेश, नवाचार और विकास के रूप में देख रही है। डॉ. बाबासाहेब के विचार का मूल था कि उद्योगों का विकास केवल शहरों में हो सकता है, और इसी कारण भारत के शहरीकरण पर उन्हें भरोसा था। उनकी दूरदर्शिता के अनुरूप देश में 'स्मार्ट सिटी मिशन' और 'अरबन मिशन' की शुरुआत की गई, ताकि देश के बड़े शहरों और छोटे शहरों में सभी प्रकार की सुविधाएँ, अच्छी सड़कें, पानी की आपूर्ति, स्वास्थ्य सुविधाएँ, शिक्षा या डिजिटल कनेक्टिविटी उपलब्ध हो सकें।"
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का आत्मनिर्भरता में दृढ़ विश्वास था। वे नहीं चाहते थे कि कोई भी सदा के लिए गरीबी का दंश झेलता रहे। उनका यह भी मानना था कि गरीबों के बीच पूँजी के वितरण मात्र से गरीबी को कम नहीं किया जा सकता है। आज हमारी मौद्रिक नीति, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया जैसी पहलें हमारे युवा नवप्रवर्तकों और युवा उद्यमियों के लिए आधार बन गई हैं। 1930 और 1940 के दशक में, जब भारत में केवल सड़कों और रेल की बात की जा रही थी, तब डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने बंदरगाहों और जलमार्गों का उल्लेख किया था। वह डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ही थे, जिन्होंने जलशक्ति को राष्ट्रशक्ति के रूप में देखा। उन्होंने देश के विकास के लिए पानी के उपयोग पर जोर दिया। विभिन्न घाटी प्राधिकरणों की उत्पत्ति, विभिन्न जल संबंधी आयोग- ये सब डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की दूरदृष्टि के कारण ही संभव हुए। आज हमारे देश में जलमार्गों और बंदरगाहों के लिए ऐतिहासिक प्रयास किए जा रहे हैं।
"1940 के दशक में, जहाँ अधिकांश चर्चाएँ द्वितीय विश्वयुद्ध, सिर पर मँडरा रहे शीतयुद्ध और विभाजन के आसपास केंद्रित थीं, वहीं उस समय बाबासाहेब ने 'टीम इंडिया' की भावना की नींव रखी थी। उन्होंने संघीय व्यवस्था के महत्त्व के बारे में बात की थी और देश के उत्थान के लिए केंद्र और राज्यों को साथ मिलकर काम करने पर जोर दिया था। आज हमने शासन के सभी पहलुओं में सहकारी संघवाद के मंत्र को अपनाया और एक कदम आगे बढ़ते हुए प्रतिस्पर्धी संघवाद को अपनाया है। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मेरे जैसे लाखों लोगों के लिए एक प्रेरणा हैं, जो पिछड़े वर्ग के हैं।"
कैसा संयोग है कि दोनों ही, यानी डॉ. आंबेडकर और नरेंद्र मोदी सामान्य पृष्ठभूमि से आए और उसके बाद भी दोनों अपने चुने हुए क्षेत्र में शिखर पर पहुँचे! नीति के दृष्टिकोण से भी अर्थशास्त्र, सामाजिक न्याय, कमजोर और गरीब के सशक्तीकरण के साथ ही महिलाओं के सामाजिक और वित्तीय सशक्तीकरण पर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और मोदी के उपाय एक जैसे लगते हैं।
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