शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

पूना पैक्ट देश के राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी भूल

 

बसंत कुमार

वैश्वीकरण युग के पश्चात देश और पूरे विश्व में आर्थिक सुधारों की बाढ़ सी आ गई है और पूरा विश्व उदारवाद, वैयक्तिकरण और वैश्वीकरण की राह पर चल पड़ा है और सरकारी कार्यालयों में कर्मचरियो की संख्या कम करने के उद्देश्य से संविदा पर कर्मचारियो को भर्ती करके काम लेने की प्रथा चल पड़ी है। इसके कारण सरकारी कर्मचारियों को किए जाने वाले वेतन भुगतान पर आने वाले खर्च में काफी कमी आ गई है और इस धन को इंफ्रा स्ट्रक्चर के विकास पर खर्च किया जा रहा है, इससे चारों ओर विकास तो दिखाई दे रहा है। परंतु युवाओं के लिए नौकरियों में काफी कमी दिखाई दे रही है। वैसे सरकारी कार्यालयों में कर्मचारियों की कमी की मंसा केंद्र सरकार द्वारा गठित पांचवें वेतन आयोग ने ही कर दी थी और ज्यों-ज्यों आर्थिक विकास के लिए स्पर्धा में तेजी आई सरकार ने कर्मचारियों के वेतन पर होने वाले खर्च में कटौती करने के उद्देश्य से नियमित कर्मचारियो की संख्या में कमी करके संविदा पर रखे हुए कर्मचारियों से काम चलाना शुरु कर दिया। इसके कारण भारी संख्या में युवा बेरोजगार हो गए पर ये युवा और उनके अभिवावक अपनी बेरोजगारी का कारण आर्थिक सुधार नही बल्कि संविधान में दलितांे को दिए गए आरक्षण को मानते हैं। वह इस आरक्षण के लिए महात्मा गाँधी और डा आंबेडकर के बीच 1932 में हुए पूना पैक्ट को मानते हैं। अब बहस इस बात पर उठती हैं कि पूना पैक्ट देश के राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी भूल थी।

पूना पैक्ट या पूना समझौता महात्मा गाँधी और डॉ. आंबेडकर के बीच पुणे की यरावदा जेल में 24 सितंबर 1932 को हुआ था जिसे तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सप्रदायिक अधिनियम में संशोधन के रूप में अनुमति प्रदान की थी। इस समझौते में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन मंडल के फैसले को त्याग कर दिया गया और दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या में केंद्रीय विधायिका और प्रांतीय विधानसभा में कुल सीटों की संख्या 18 प्रतिशत कर दी गई। इससे पूर्व द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में विचार-विमर्श के पश्चात कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई। जिसके अंतर्गत डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा उठाई गई राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग को मानते हुए दलितों को दो वोटों का अधिकार मिला। एक वोट से दलित वर्ग अपना प्रतिनिधि चुनेंगे और दूसरे वोट से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनेंगे। इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों के ही वोट से चुना जाना था। वास्तव में सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैम्सजे मैक्डोनाल्ड ने 16 अगस्त 1932 को दलितों सहित 11 समुदायों को पृथक निर्वाचन मण्डल प्रदान किया गया।

दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल का गांधी जी ने विरोध किया और यरावदा जेल में इसके विरोध में 20 सितंबर 1932 को अनशन प्रारंभ कर दिया। 24 सितंबर 1932 को डॉ. राजेंद्र प्रसाद, पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रयासो से गाँधी जी और डॉ. आंबेडकर के मध्य पूना समझौता हुआ जिसमें संयुक्त हिंदू निर्वाचन व्यवस्था के अंतर्गत दलितों के लिए स्थान आरक्षित रखने पर सहमति बनी। इस समझौते से डॉ. आंबेडकर को कंम्युनल अवार्ड से मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ना पड़ा तथा संयुक्त निर्वाचन पद्धति को स्वीकार करना पड़ा जो आज-कल देश में प्रचलित है। पर साथ ही विधायिका में दलितों के लिए 18 प्रतिशत सीटे आरक्षित कराने में सफलता प्राप्त की तथा प्रत्येक प्रांत में शिक्षा अनुदान में पर्याप्त राशि आरक्षित कराई और सरकारी नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग की भर्ती को सुनिश्चित किया। कहा जाता है कि इस समझौते पर हस्ताक्षर करके डॉ. आंबेडकर ने गांधी जी को जीवनदान दिया। डॉ. आंबेडकर को इस समझौते को दबाव में किया और वे इससे संतुष्ट नही थे। उन्होंने गाँधी के अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी मांग से पीछे हटने के लिए दबाव डालने के लिए गाँधी जी के द्वारा खेला गया नाटक करार दिया। 1942 में डा आंबेडकर ने इस समझौते का धिक्कार किया, उन्होंने अपने द्वारा लिखे गये ग्रंथ ‘स्टेट ऑफ माइनारिटी‘ में पूना पैक्ट संबंधी नाराजगी व्यक्त की। वास्तविकता यह थी कि रैम्मसेे मैक्डोनाल्ड खुद को भारतीयों का दोस्त मानते थे और वे भारतीय समाज के मुद्दों को हल करना चाहते थे और गोलमेज सम्मेलन की विफलता के बाद ही कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई थी।

अब प्रश्न यह उठता है कि पूना पैक्ट 1932 जो दलितों के आरक्षण का आधार बना वह सवर्ण समाज के तीन प्रमुख व्यक्तियों महात्मा गाँधी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद और पंडित मदन मोहन मालवीय की सहमति से हुआ तो आरक्षण का विरोध करने वाले लोग आरक्षण के लिए देश के प्रमुख राष्ट्रवादी डॉ. अंबेडकर को उत्तरदायी क्यों मानते हैं। कुछ दिन पूर्व मेरी मुलाकात प्रसिद्ध दलित नेता व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी से हुई, आपसी बातचीत में श्री मांझी ने पूना पैक्ट द्वारा उपजी परिस्थितियों पर दुख व्यक्त करते हुए बताया कि यदि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की बात मान ली गई होती तो दलित प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए सिर्फ दलित ही मतदान करते तो वे अपने प्रतिनिधित्व के लिए सक्षम और शिक्षित लोगों का चुनाव करते जबकि आज के सिस्टम में ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक दलितों का प्रतिनिधित्व अधिकांशतः ऐसे लोग करते हैं जो ऐसे लोगों के पिछलग्गू होते है जिन्होंने इनका शादियों तक शोषण किया है। आरक्षित सीटों पर ऐसे लोग आते हैं जो इन सवर्ण के हलवाह या चरवाह ही होते हैं जो चुनाव जितने के बाद अपनी मुहर जेब में रखकर अपने आका के पीछे-पीछे चलते हैं और उनकी बताई जगह पर ठप्पा लगा देते हैं। यदि किसी आरक्षित सीट पर कोई प्रतिभावान या शिक्षित दलित लड़ने का साहस कर भी लेता है तो उसे पनपने ही नही दिया जाता। ऐसे कमजोर नेतृत्व के बल पर वंचित समाज राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पायेगा और आरक्षण अनिश्चितकाल तक चलता रहेगा और दलित समुदाय राजनीतिक दलों के वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल होता रहेगा,

अब सोशल मीडिया व अन्य मंचों पर अनुसूचित जाति के आरक्षण को कोसना बन्द होना चाहिए। इस समय बढ़ती बेरोजगारी का वास्तविक कारण जाने बगैर लोग अपनी नाकामी के लिए आरक्षण को दोष देते हैं और इस आरक्षण के लिए संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर को कोसते हैं जबकि तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्मसे मैकडोनाल्ड के कम्युनल अवार्ड के कारण दलित निर्वाचक मंडल के प्रावधान को नाकाम करने के उद्देश्य से किया गया। पूना पैक्ट महात्मा गॉंधी, डॉ. राजेंद्र प्रसाद व पंडित मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से साकार हुआ और इसके कारण वर्तमान में चल रहा दलित आरक्षण अस्तित्व में आया। फिर भी दलित विचारक यह तर्क देते हैं कि दलितों हेतु पृथक निर्वाचन मंडल को नकारने और आधुनिक आरक्षण पद्धति लागू करने के कारण उनकी जाति की जनसंख्या के मात्र 3 प्रतिशत लोग इससे लाभांवित हो पाए हैं। यदि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की बात मान ली गई होती और दलित प्रतिनिधि चुनने का मतदाता दलित ही होता तो दलितों व वंचितों का प्रतिनिधित्व शिक्षित व योग्य दलित करते न कि सवर्ण जमीदारों के घरों में काम करने वाले अंगूठा छाप व पिछलग्गू लोग और आरक्षण का प्रावधान अनिश्चितकाल के लिए नही होता।

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